सन् 1740 में पेशवाओं के सहयोग से नारायण दीक्षित ने घाट का पक्का निर्माण कराया था। घाट क्षेत्र में त्रिलोचन महादेव मंदिर स्थित होने के कारण इसे त्रिलोचन घाट कहा गया, काशीखण्ड के अनुसार यह मंदिर शिव के तीसरे नेत्र को समर्पित है। स्थानीय ब्राह्मणों के अनुसार इस तट पर गंगा में नर्मदा एवं पिप्पिला नदियों का अदृश्य रूप में संगम होता है, ये तीनों नदियाँ शिव के तीनों नेत्र के समान हैं इसलिये घाट का नाम त्रिलोचन घाट पड़ा है। यह घाट काशी के श्रेष्ठ तीर्थों में से है जिसका उल्लेख गहड़वाल काल से ही मिलता है। घाट स्थित त्रिलोचन मंदिर को औरंगजेब के समय में नष्ट कर दिया गया था। जिसका निर्माण अठ्ठारहवीं शताब्दी में पूना के नाथूबाला पेशवा ने कराया था, सन् 1965 में रामादेवी द्वारा इस मंदिर का पुनः निर्माण कराया गया था। त्रिलोचन महादेव काशी के ओंकारेश्वर तीर्थ के प्रमुख देव हैं, ओंकारेश्वर यात्रा करने वाले तीर्थयात्री घाट पर स्नान एवं त्रिलोचन महादेव के दर्शन-पूजन के पश्चात ही यात्रा आरम्भ करते हैं। घाट के सामने गंगा में पिप्पिला एवं त्रिविष्टप तीर्थ की स्थिति मानी गई है। वैशाख शुक्ल तृतीया (अक्षय तृतीया) को त्रिलोचन महादेव का वार्षिक श्रृंगार होता है, इस अवसर पर लोग घाट पर स्नान के पश्चात त्रिलोचन शिव का दर्शन-पूजन करते हैं तथा घाट पर भजन-कीर्तन, सत्संग आदि धार्मिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है। त्रिलोचन मंदिर के अतिरिक्त घाट पर पंचाक्षेश्वर शिव, कोटीश्वर शिव, उद्दण्डमुण्ड विनायक, यमुनेश्वर शिव, का मंदिर स्थापित है। अरूणादित्य (सूर्य) को काशी के द्वादश आदित्यों में पूजा जाता है। इस घाट की सीढ़ियाँ भी शास्त्रीय विधान में निर्मित है, गंगातट से बारह-बारह सीढ़ियों के पश्चात चौकी का निर्माण हुआ है, इन बारह सीढ़ियों को द्वादश शिव का प्रतीक माना जा सकता है। वर्तमान में घाट का पक्का एवं स्वच्छ है, वैशाख माह में घाट पर स्नान का विशेष महत्व है, धार्मिक महत्व के कारण यहाँ स्थानीय स्नानार्थियों के साथ ही बाहरी स्नानार्थियों का भी आगमन होता है। सन् 1965 में राज्य सरकार ने घाट का मरम्मत कराया था, पूर्व में घाट का दक्षिणी भाग कच्चा था जिसका नव निर्माण सन् 1988 में राज्य सरकार के सहयोग से सिंचाई विभाग ने कराया था।