सन् 1864 में ग्वालियर महाराज जियाजी राव सिन्धिया ने घाट तट को क्रय करके घाट का पक्का निर्माण एवं विशाल भव्य महल बनवाया था, इस गंगा तट पर महल होने के कारण ही इसे गंगामहल घाट कहा गया। यह महल अपने कलात्मकता के लिये विख्यात है, महल में प्रवेश के लिये गंगातट पर ही दो मार्ग निर्मित हैं। महल में ही नागर शैली का राधा-कृष्ण का भव्य मंदिर है जहाँ कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, गणेश चतुर्थी, शिवरात्रि एवं अन्य पर्वों पर धार्मिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है। यहां कृष्ण लीला का भी मंचन किया जाता है जिसमें ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा एवं भोजन की जीवन्त परम्परा को देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त घाट पर अठ्ठारहवीं शताब्दी का लक्ष्मीनारायण मंदिर भी स्थापित है। वर्तमान में घाट पक्का एवं सुदृढ़ है, धार्मिक महत्व कम होने के बाद भी यहां दैनिक एवं स्थानीय स्नानार्थी स्नान कार्य करते हैं। सन् 1988 में राज्य सरकार के सहयोग से सिंचाई विभाग ने घाट के मरम्मत का कार्य कराया था।
वर्तमान में घाट पक्का, स्वच्छ एवं सुदृढ़ है। यहाँ मुख्यतः स्थानीय लोग स्नान आदि कार्य करते हैं। घाट के समीपवर्ती क्षेत्रों में महाराष्ट्र तथा गुजरात के लोगों की संख्या अधिक है, जिनके संस्कारों (रहन-सहन, खाना-पीना) में बनारसीपन का अद्भुत समन्वय देखा जा सकता हैं सन् 1965 में राज्य सरकार ने घाट का मरम्मत कराया था।