भानुशंकर मेहता

आपका जन्म बनारस में हुआ या आप बनारस में आये।

मेरे नाना जी जौनपुर में एस0पी0 थे। अभी भी शहर से प्रतापगढ़ मुड़ते ही मकान है। पिता जी मास्टर थे। जाम नगर से आये थे। फिर झाँसी ट्रान्सफर हुआ जहां मेरा जन्म सन् 1921 हुआ फिर वहाँ से हम लोग आ गये मीरजापुर। सन् 1925 में जब मैं 4 साल का था मेरे पिताजी का ट्रान्सफर बनारस हो गया और पहली बार मैं बनारस आया। शुरूआत में हम लोग भारतेन्दु भवन के बगल में अग्रवाल समाज स्कूल के पास विष्णुराम तिवारी के मकान के पीछे खण्ड में हम लोग किराये पर रहते थे। शुरूआती शिक्षा.दीक्षा हरिश्चन्द्र कॉलेज मैदागिन से शुरू हुई फिर इण्टरमीडिएट सन् 1938.40 तक क्वींस कॉलेज। इसके बाद बीरबाल साहनी साइंस कालेज लखनऊ में पढ़ायी हुई। मेडिकल की पढ़ाई के0जी0एम0सी0 लखनऊ ;सन् 1942.44द्ध से पूरी हुई उसी दौरान स्वतंत्रता आन्दोलन में भी सहभागिता रही। फिर मैनें बनारस आकर नीची बाग में 3×6 की जगह में पैथालॉजी का कार्य शुरू किया। चार.छह महीने बाद अग्रवाल समाज के सामने जगह लिया। यहाँ काम करते हुए मुझे लगा कि कुछ और सीखना चाहिए। फिर लखनऊ वापस गया और वहाँ पढ़ाई पूरी की।     
हम आपसे जानना चाहेंगे कि आप चिकित्सा पेशें में थे फिर आपको ये बनारसीपन और मस्ती का मिजाज कैसे बनाघ्
देखीये काशी अपने आप में मस्ती की नगरी शुरू से ही रही है। सच तो बनारसीपन में मस्ती की झलकियाँ प्रारम्भ से ही दिखती रही है। फिर चाहे वो ईसा पूर्व 7.8 हजार वर्ष पूर्व के राजा दिवोदास की कहानियाँ हो या फिर शिव जी का बनारस में प्रवेश हो ऐसे बहुत सारे किस्से कहानियों में भी उस जमाने से ही बनारस के अक्खड़पन के ढेरों मजेदार उदाहरण मिल जायेंगे। कहते है वेद व्यास को यहाँ पर भोजन ही नहीं दिया गया तो फिर आप कह सकते हैं कि बनारसियों के दाँव देने के अपने बड़े ही मजेदार तरीके रहे हैं। ह्वेनसांग जब बनारस आया तो वह बनारसी ठगों की चर्चा करता है। असल में ये जो चर्चित कहावत है. श्चना चबैना गंग जलए जो पूरवे करतार। काशी कबहू न छोड़िये विश्वनाथ दरबार।श् इसके अर्थ बहुत गहराई से बनारस को देखने और समझने पर ही साफ हो सकते है। आप भारतेन्दु बाबू की प्रेमयोगिनी पढ़े तो आपको मिलेगा कि यहाँ के लोग क्या थे। तभी तो उन्होंने कहा कि देखी तुम्हारी काशी लोगों। यहाँ पर उपद्रव भी बहुत रहा है तो वहीं पर मौज.मस्ती भी खूब रही है। पैसे के बारे में बनारस बड़ा ही कमजोर रहा है कमजोर कहने का मतलब बनारसियों के निगाह में पैसा.रूपया कभी जरूरी चीज नहीं रही है। अगर कुछ जरूरी है तो वह.मौज.मस्ती। आप कभी काशी का इतिहास पढ़िये तो आपको मस्तीपन के ढेरों चित्र दिखायी देंगे। बहती गंगा में रूद्र जी ने काफी कुछ जिक्र किया है। आखिर दाताराम और भंगड़ भिक्षु ये सब अक्खड़ बनारसी मस्ती के ही प्रतिनिधि चरित्र तो है। सच कहिये तो बनारसीपन कभी रूपये.पैसे का उद्यम नहीं करता। भांग छांनना और मस्ती करना यहां की खास परम्परा रही है। लेकिन अब काफी कुछ बदल रहा है। 
मैं जानना चाहता था कि असल में बनारसीपन की जड़ी आपको किसने सुंघाईघ्
जब मैंने पुराणों का अध्ययन किया वेदों को देखा तथा इतिहास में गहरी रूचि जगी तो ऐसा महसूस हुआ कि बहुत सारी चीजें इन ग्रन्थों में संकेत रूप में छिपी है। मैं जब सन् 1940 में बनारस आया तो श्रद्धेय कुबेरनाथ शुक्ल जी से बहुत कुछ सीखा। मेरे कुछ मित्रों ने मुझसे कहा कि तुम साइंस पढ़ रहे हो लेकिन हिन्दी में भी अच्छा लिख सकते हो इस प्रकार से जब बुद्धि खुलती गयी और ज्ञान बढ़ता गया तो धीरे.धीरे काशी जीवन्तता के बारे में अनायास ही उत्कंठा बलवती होती गयी। शुरू से ही मित्रों के साथ गंगा नहाने घाट पर जाते थे और हफ्ते में एक बार नाव से उस पार जाने का कार्यक्रम बनता ही रहता था। यहीए कहीं मस्ती के बीच आप खोज सकते हैं। नाव से उस पार जानाए नहानाए निपटनाए घण्टे दो घण्टे गंगा स्नान करना यह सब बनारसीपन का जीवन्त उदाहरण है।
 
आपका एक लेख भी है बनारसीपन पर।
हाँ! ष्बनारसीष् नाम है उस लेख का। बनारसीपन का मतलब धोखा देना या गलत काम नहीं। मौज.मस्ती ज्यादा। एक बार हम लोग नाव से ही मीरजापुर तक गये। मोटरवोट थी। जब हम लोग लगभग चुनार के पास पहुँचे तो मोटरवोट का इंजन फेल हो गया। अब क्या किया जाय इधर शहर में सियापा पड़ गया। कई संभ्रान्त घर के लड़के और सभी गायब थे। करीब.करीब 1 बजे रात को हम लोग घर लौटे। असल में सब ट्रेनिंग उस स्कूल की है गंगा जी के किनारे की। कई आशु कवि भी थे। टीम में जब मन किया कविता बना देते थे। ऐसे मस्ती और बैठक बाजी और कहीं नहीं हो सकती। हाँ! उस समय लोग राष्ट्रभक्त पूरे थे अंग्रेज भक्त नहीं। देशभक्ति का जबर्दस्त जोश था। 
हम आपसे काशी की चित्रकला शैली के विकास के बारे में कुछ जानना चाहेंगे।
जी हाँ! ये अंग्रेजो के समय में ज्यादा विकसित हुई। पहले भी राजस्थानी आदि तमाम शैलियाँ थी। मगर अंग्रेजों के समय में जो शैली विकसित हुई. कम्पनी शैली वो अद्भुत है। इसका रामनगर का संग्रहालय और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कला भवन में संग्रह है और दूसरा हाँथी दांत का महीन काम इसे भी आप रामनगर में देख सकते हैं। यह सब वास्तव में अद्भुत है। मूर्ति बनाने की कला यहाँ की खास है। काशी की कलाकारी कई मायने में बेजोड़ रही है। बनारसी कला का अपना अलग इतिहास रहा है। मिट्टी के काम में गणेश और लक्ष्मी को ही देख लिजिए कभी आप लेंस लगाकर उनके चेहरे पर देखिए आपको भाव दिखेंगे मूर्तियों के चेहरों पर। लक्ष्मी का सोलह रूप.सोरहियाँ लक्ष्मी। अब तो देखने को नहीं मिलता पहले हर प्रकार की बनती और बिकती थी। पहली लक्ष्मी उसमें वैदिक काल की थी। उन पर कोई श्रृंगार नहीं था। फिर दूसरीए तीसरी.चौथी अन्ततः पन्द्रह लक्ष्मी जो आकार में सबसे बड़ी थी। पूरे श्रृंगार के साथ नग भी लगा हुआ और सिर पर मुकुट भी। यहाँ के खिलौने मिट्टी के हो चाहे लकड़ी के या फिर पीतल या चाँदी के सबकी अपनी विशेषताएँ है। खिलौनो के अलावा पालकी और मेटल का काम भी बहुत प्रकार का मिलता है। 
कोई बनारसीपन खोजना चाहें तो उसे किस क्षेत्र में देखना चाहिए।
कोई ऐसा क्षेत्र नहीं जिधर आप ध्यान से देखे तो आपको एक अलग अंदाज न दिखाई दे। खान.पान के मामले में ही बनारस का अपना अलग शौक चाहे फिर वह बनारसी मटर.चूड़ा होए रबड़ी.मलाईए ठंडई.मलईयों या फिर बनारसी मिठाईयाँ। लंगड़ा आम तो बनारसीपन का खास अंदाज है। आप किसी भी क्षेत्र में देखिये चाहे वह लेखन होए कलाए साहित्यए व्रत.त्यौहारए मेले जो भी सब जगह आपको अद्भुत मस्ती भरा बनारसीपन देखने को मिलेगा। 
कई बार बीच में कुछ गड़बड़ बाते भी आयी धर्म व अध्यात्म के नाम पर काफी बदमाशी भी हुई यहाँ पर मोक्ष के नाम पर पण्डे लोगों के गर्दन तक कटवा देते थे। फिर पैसाए गहना आदि हड़प लेते थे। हमारे जमाने में हमने खुद ऐसे सात.आठ काण्ड देखे हैं। गंगा में ढकेल दिया गया ऐसे बहुत कामों में दलाल भी कम नहीं थे। काम के साथ.साथ उन्होंने भाषाएँ भी बहुत सी विकसित की। दलालों की भाषाए पण्डों की भाषाए घाटियों की भाषाए बुनकरों की भाषा सबकी अलग.अलग कूट भाषाएँ। इन सबमें सबसे विशेष भाषा बनी वह. काशिका। गलतफहमी में भोजपुरी को लोग बनारसी भाषा समझ लेते हैं। लेकिन असल बनारसी जो बोले वह है काशिका। जैसे श्खा के जाश्। मतलब क्याघ् खाना खा के जाए पान खा के जा या फिर जूता खा के जा। श्का हो! जा रहे होघ्श् मतलब क्या निकालेंगेघ् घर जा रहे होए जहन्नुम में जा रहे हो या फिर बहुत सी गन्दी बातें भी। कुल मिलाकर सशक्त सांकेतिक भाषा भी है. काशिका। 
आप लोगों के बैठकों और आयोजनों में तमाम प्रकार के लोग थे। रंगमंच के लोगए चित्रकारए संगीतज्ञए साहित्यकार आदि। लेकिन अब वो चीज नहीं रही। आपको नहीं लगता कि उनके बिना यह संस्कृति कमजोर हुई हैघ्
देखिये अब साहित्य संस्थायें खत्म हो रही है उसमें भी गलत लोग आ रहे है। तभी विशुद्ध साहित्यिक लोग थे। बेढब जी थे। उनके नेतृत्व में जो कुछ हुआ वह अद्वितीय था। नियंत्रण रखते थे। अब तो न किसी को उस प्रकार से रूचि है न समर्पण केवल भागम.भाग लगी है। जो कुछ हो भी रहा है वो केवल प्रचार का माध्यम बनता जा रहा है। 
यहाँ के लोगें के बारे मे तो काफी कुछ विशेष है एक से बढ़कर एक चित्र और चरित्र कोई केशरिया मक्खन वाला था.केशरिया वस्त्र पहनेए हाथ में सोने की थाली और मक्खन। एक सज्जन राम नाम सत्य कहकर पुजा करते थे। तो तमाम ऐसे चरित्र जो अन्दर ही अन्दर सेवा भाव रखते थे। ऐसे एक थे शालिक ग्रामए पाखण्ड.खण्ड नाम पड़ा था। बड़ा.बड़ा पंखा लेकर चलते थे। ऐसे कमलनाथ जीए समाचार बाँचते चलते थे। पूरी तरह से इनसाइक्लोपीडिया थे। अगर बड़े ही लोगों को देखा जाय तो बिल्कुल बेबाक लोग थे। सम्पूर्णानंद जी जब मुख्यमंत्री हो गये तो भी बिल्कुल बेबाकी से बोलते थे. श्हो गया तुम्हारा कामघ् तो मेरा मुँह क्या देख रहे होए चलो जाओं।श् फिर जब खाली हो जाते थे तो शाम को घर पहुंचने पर घण्टो बात किया करते थे। साहित्य में बड़ी रूचि और ज्ञान भी खूब। इसी तरह से कमलापति त्रिपाठी जी। वह भी बहुत भारी ठलुआ थे। ये लोग मौज.मस्ती वाले लोग थे। भले ही राजनीति में ऊँचे जगह थे। लेकिन जब बनारस आते थे तो ठलुआ हो जाते थे। उनका ठलुआपन हमने खूब देखा।
अच्छा ठलुआ.बीर किसको नाम दिया गया थाघ्
हाँ! ठलुआबीर विश्वनाथ मुखर्जी को नाम दिया गया था। उस समय तमाम उपाधियाँ भी हुआ करती थी। ठलुआ.बीर मतलब मंत्रीए ठलुआ.मानसिक मतलब संपादनकर्ताए ठलुआ.गणपति माने अध्यक्षए ठलुआ.कुबेर यानी कोषाध्यक्ष। कोई चन्दा नहीं रखा जाता था। अभिनन्दन पत्र भी दिये जाते थे। अभी भी चलता है ठलुआ क्लब लेकिन अब वो बात कहाँघ् अब तो उस लगन के साथ अभिनन्दन पत्र भी नहीं बन सकता। गोभीए आलू और सब्जियों की माला पहनाकर अभिनन्दन किया जाता था। बनारसी मौज.मस्ती का सर्वोच्च प्रतीक था वह सब।
एक गायिका की आपने प्रशंसा की है वह रही है हुस्नाबाई।
वो बहुत अच्छी गायिका थी। थोड़ी बदसूरत थी। लेकिन इतना अच्छा गाती थी। कहते हैं कि रामनगर किले तक सुनाई देता था। नाटक भी करती थी। अब वो बाते कहाँ हैघ् कहते हैं बिहार से कोई रईस उनके यहाँ अपने व्यक्तिगत आयोजन के लिए उनसे गाने का आग्रह करने आया। वो उन्हें 1 लाख रूपये दे रहा था। उन्होंने कहलवा दिया कि. ष्कह दो उससे नहीं जायेंगे।ष् बाद में उनसे पूछा गया कि आपने ने क्यों मना किया तो बोलीं. ष्जो आदमी सीढ़ी भी चढ़ने का शउर नहीं रखताए देखा कैसे धप्प.धप्प की आवाज आ रही थीय उसके यहाँ हम क्यों गाना गाने जायेंगे।ष् तमाम लड़के भी जाते थे उनके घर गीत सुनने एक बार एक लड़के ने आग्रह किया. ष्खड़े होकर गाईयेष्। उन्होनें तपाक से जवाब दिया. ष्हाँ ठीक है जाओं अपने बाप को भेजोष्। कुल मिलाकर वो लोग तहजीब को महत्व देते थे। लेकिन अब गायिकाओं का मामला ही खत्म हो गया। कोई अब ट्रेनिंग नहीं लेना चाहता।
आपने काशी की संस्कृति का उभार भी देखा है और अवरोह भी। बार.बार सवाल मन में आता है। क्या इस बनारसी संस्कृति को उन्हीं रूपों में पुनः जीवित किया जा सकता हैघ् 
काफी मुश्किल जान पड़ता है क्योंकि पश्चिम का जो प्रभाव बढ़ गया है उसके उपर से इलेक्ट्रानिक्स गैजेटए मोबाइलए कम्प्यूटरए इंटरनेट और न जाने क्या.क्या अब आपको चाहे महिम्न स्त्रोत चाहिए या भजन करानाए आप इन्हीं माध्यमों का सहारा ले सकते है। लेकिन वो सब भूख थी मौज.मस्ती की। सन् 1930.40 तक तो रेस्तराँ के नाम पर केवल बॉसफाटक पर था। केवल ष्दि रेस्टोरेन्टष् वह भी एक ठलुआ क्लब। बाहर खाना का सीधा मतलब तालाब.पोखरे पर जाकर खुद बनाईये और मजे में खाइये और खिलाईये। अब तो इस प्रकार का कोई पिकनीक का कोई जगह ही नहीं दिखते। बनारस के दस मील इधर दस मील उधर सब शहर हो गया। शहरीकरण ने भी बहुत कुछ नुकसान किया है इस संस्कृति का। संस्थाओं का रूप भी बदल गया चाहे वो साहित्य के केन्द्र हो या संगीत के सब के सब बाजार की दुकान की तरह प्रतीत होने लगे। अब तो साहित्य और संगीत के नाम पर सैकड़ो ट्यूटोरियल्स भी चलाये जा रहे है। अब आप ही जानिये ट्यूटोरियल्स कैसे बचा पायेंगे संस्कृति को। 
हमारी उत्कंठा है कि क्या यदि समूह बनाकर बनारस की संस्कृति को पुर्नजीवित करने के प्रयास किया जाय तो क्या सच में यह बिल्कुल असंभव हैघ्
असम्भव सा कार्य लगता है। इसके लिए आदमी चाहिए। सूझबूझए सक्रियता तथा दरियादिली हो तभी संभव हो सकता है। आज के समय में यह सब कहाँ से लायेंगेघ् फक्कड़ आदमी नहीं बचे। अब तो पैसे का मतलब बढ़ गया है। अमीर.गरीब के बीच में भी खाई बहुत गहरी हो गयी है। सरकार की राय में भी 30 रुपये के हिसाब से आप रईस है। अब टके सेर कुछ भी नहीं मिलता। आपको शहर में ही कहीं कोई बैठक करनी हो तो हजारो रूपया दीजिए। कहीं भी जगह नहीं है कहाँ जायेंगे लोग। बस केवल अपने धंधे से मतलब है कुछ लोग इस प्रकार का कोई अभियान कर भी रहे है तो उनका अपना क्षेत्र है वो उसके बाहर नहीं जायेंगे। नाटकए संगीत सभी पर छाया पड़ी है। अब कौन सी गायिका यहाँ पर आपको मिल सकती हैघ् कोई भी नहीं। आप गिरजा देवी का नाम ले सकते हैं। लेकिन धीरे.धीरे चीजे खत्म हो रही है। कोई तैयार भी नहीं हो रहा लगता है जैसे श्राप लग गया हो। बड़ा सवाल यह भी हो चुका है कि अब कौन सुनेगा इतने धैये के साथ। मैं तो कहूँगा कि आपकी ये मोबाइल मौज को खा गयी। मस्ती को भी खा गयी मन में जब चैन हो तब मौज.मस्ती की बात आती है। जब मन में ही हाय लगी हो तो फिर कहाँ। 
देखिये चीजें कितनी तेजी से बदल रही है। सारनाथ का शक्ल ही बदल गया। कहाँ जाइयेगा मोती झील सूख गयीए वहा भी कब्जा शुरू हो गया है। महमूरगंज पुराने रईसों के बाग.बगीचे का क्षेत्र था। अब बिल्कुल नहीं है। अब बगीचे काटे जा रहे है और तालाब पाटे जा रहे है। यह जो बिड़ला उपवन था महमूरगंज में वो भी देखिये.समाप्त। यहाँ जो रोजगार था वह भी मरता जा रहा है। कारीगरी तो अद्वितीय थी दुर्भाग्य है कि सब समापन के कागार पर खड़े है। 
आजकल फिल्मकार बनारस को अपना केन्द्र बना रहे है। आपको क्या लगता हैघ् वे बनारस को दिखा पा रहे है। 
नहीं बनारस को क्या प्रस्तुत कर पायेंगे। ये तो बस यहाँ की सीन प्रस्तुत कर रहे है। घाट और रामनगर तथा मीरजापुर आदि की कुछ दृश्यों की उपलब्धता के नाते ऐसा है। बम्बई में यह सब कुछ नहीं उपलब्ध है इसलिए इधर आ रहे है। बस नाम मात्र की झलक दिखा पायेंगे। इसमें बनारस कहाँ है और कहाँ है बनारसीपनघ् कभी संघर्ष बनी थी जिसमें दिलीप कुमार थेए महा श्वेता देवी के उपन्यास पर फिल्म में पंडो की हरकतों तथा काशी करवट पर भी कुछ था बहरहाल खराब चित्र ही हुआ। लेकिन बनारसीपन के चित्र पर कहाँ प्रकाश डाला गया।

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