हिन्दी भाषा के उन्नायक एवं “काशी के सुकरात

                                                                                                               -प्रो.लाल जी राम शुक्ल
काशी मनोविज्ञानशाला के संस्थापक.संचालक पंण् लाल जी राम शुक्ल काशी की एक विभूति थे। उनकी मित्रमंडली में डाण् राजबली पाण्डेय ;कुलपति जबलपुर विश्वविद्यालयद्धए डाण् हजारी प्रसाद द्विवेदीए प्रोण् गोपाल त्रिपाठीए प्रोण् राजाराम शास्त्रीए प्रोण् रामअवध द्विवेदीए पंण् विश्नाथ मिश्र आदि थे। उनका अधिकांश समय अध्ययन.चिंतन में व्यतीत होता था। वे सादा जीवन और उच्च विचार की प्रतिमूर्ति थे। खाने.पहनने की उन्हें चिन्ता नहीं रहती थी। भोजन में जो मिलाए वही खा लिया और कपड़े जैसे मिले पहन लिये। उनके कपड़े प्रायः अस्त.व्यस्त रहते थे। इसी से प्रोण् राजबली पाण्डेय ने उन्हें श्काशी के सुकरातश् की मानद उपाधि डे डाली थी।
शुक्ल जी का जन्म 4 अप्रैल 1904 ईण् का हौशंगाबाद ;मध्य प्रदेशद्ध जनपद के बाचावानी गांव में हुआ था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा गांव में ही हुई। हौशंगाबाद जाकर उन्होंने प्रथम श्रेणी में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके बाद कुछ दिनों के लिए जबलपुर के शस्त्रास्त्र कारखाने में उन्होंने नौकरी कर लीए परन्तु पढ़ने की उच्च अभिलाशा के कारण नौकरी छोड़कर काशी चले आए। यहां आकर वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। परन्तु महात्मा गांधी असहयोग आन्दोलन आरम्भ होने पर उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और आचार्य कृपालानी के साथ काम करने लगे। कुछ दिनों के लिए वे महात्मा जी के साबरमती आश्रम भी गए थे। वहां उनका मन नहीं लगा। अतः पुनः काशी लौट आए। यहां आकर उन्हें श्री योगेश चन्द्र चट्टोपाध्याय का सान्निध्य मिला। उनसे उन्होंने गीताए उपनिषद आदि के साथ अंग्रेजी का अभ्यास किया। 1925 में उन्होंने पुनः विशविद्यालय की शिक्षा ग्रहण करने के लिए इण्टरमीडिएट में नाम लिखाया। उस समय उनक सहपाठियों में श्री प्रकाश चन्द्र गुप्त ;बाद में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के आचार्यद्ध श्री राम मनोहर लोहियाए कुण् भक्ति अधिकारी आदि कुशाग्रबुद्धि के छात्र थे। सभी ने प्रश्रम श्रेणी में इण्टर की परीक्षा उत्तीण की। बीण्एण् में केवल कुण् भक्ति अधिकारी रह गईए परन्तु श्री कालूलाल श्रीमाली आ गएए जिनका साथ एमण्एण् ;दर्शनद्ध तक रहा।
1931 में शुक्ल जी ने प्रथम श्रेणी में कीर्तिमान अंक प्राप्त करके एमण्एण् परीक्षा उत्तीर्ण की। उसी वर्ष उनका विवाह हो गयाए परन्तु पत्नी आधुनिक विचार की धनी महिला थी जिससे उनका सादा जीवन पसन्द नहीं आया। अतः यह उन्हें छोड़ कर अपने माता.पिता के पास चली गई और बहुत कहने पर भी नहीं लौटी।
पत्नी के व्यवहार से निराश होकर शुक्ल जी अमलनेर ;महाराष्ट्रद्ध के एक निजी शोध संस्थान में शोधकार्य हेतु चले गए। वहां एक वर्ष बाद संस्थान के संचालक सेठ से अनबन हो गई। अतः शुक्ल जी पुनः काशी आ गए और सेण्ट्रल हिन्दू स्कूल में अध्यापक हो गए। 1933 को जुलाई में उन्होंने बीण्टीण् में प्रवेश लिया और 1934 में पुनः सेण्ट्रल हिन्दू स्कूल में अंग्रेजी के अध्यापक के पद नियुक्त हो गए। दूसरे ही वर्ष उनका स्थानान्तरण टीचर्स ट्रेनिंग कालेज में हो गया। उन्हीं दिनों मां के आग्रह से उन्होंने अपने ही देहात की एक कन्या से विवाह कर लिया। यह कन्या सती सावित्री के समान उनकी जीवन संगिनी सिद्ध हुई। वह पति सेवा को ही अपना धर्म समझती थी और शुक्ल जी की सीमित आय में परिवार का काम चलाती थी। उसे न तो आभूषणों की आकांक्षा थी न अच्छे कपड़ों की चाह। वह अपने बच्चों को ही नहीं वरन् चिकित्सा के लिए आए हुए छात्रों को भी जलपान और भोजन तैयार करके देती थी। इस प्रकार शुक्ल की सेवा में रहकर उसने पांच कन्याओं ;जिसमें एक कन्या की मृत्यु हो चुकी हो हैद्ध औ दो बालकों को जन्म दिया। 1981 में उस देवी का देहान्त हो गया।
शुक्ल जी ट्रेनिंग कालेज अंग्रेजी में व्याख्यान देते थे। शिक्षाए मनोविज्ञान उनका विषय था। उक्त विषय पर वे कभी.कभी लेख भी लिखते रहते थे। धार्मिक विषयों पर उनके लेख महामना मालवीय जी के सनातन धर्म साप्तिक पत्र मे निकलते रहते थे। शुक्ल जी की पहली पुस्तक ष्ग्राउंड वर्क ऑफ एजूकेशन सॉइकोलॉजीष् प्रकाशित हुईए जिसको बीण्टीण् के छात्रों ने बहुत पसंद किया। उन दिनों प्रख्यात प्रधानाचार्य पंण् रामनारायण मिश्र हिन्दू स्कूल के प्रधानाध्यापक थे। उन्होंने शुक्ल जी को हिन्दी में पुस्तकें लिखने को प्रेरित किया। अतः उनकी पुस्तक ष्शिक्षामनोविज्ञानीष् निकली। फिर तो पुस्तके लिखने का ऐसा तांता लग गया कि धीरे धीरे उनकी बीस.बाइस पुस्तके प्रकाशित हो गई। जिनमें से अनेक मानसिक चिकित्सा के सम्बन्ध में है। उन पुस्तकों से शुक्ल जी काफी आय होने लगीए जिससे उन्होंने अपना निजी मकान बनवा लिया। मनोविज्ञान पर अध्ययनए मनन और लेखन के कारण शुक्ल जी का परिचय डाण् भगवानदासए डाण् सर्वपल्ली राधाकृष्णनए पंण् इकबाल नारायण गुर्टू आदि से हो गयाए जिनका वरद् हस्त बराबर उनके ऊपर बना रहा।
शुक्ल जी ने फ्रॉयडए जुंगए ऐडलरए ब्राउन आदि मानसिक चिकित्सकों की चिकित्सा पद्धति का गम्भीर अध्ययन किया था। इन मनोवैज्ञानिकों का उन पर इतना प्रभाव पड़ा कि उन्होंने उनकी मानसिक चिकित्सा विधियों पर प्रयोग करना प्रारम्भ किया। कुछ ही समय में उन्हें पर्याप्त सफलता मिली। उन्होंने गीताए उपनिषद के साथ ही अन्य आध्यात्मिक ग्रंथों का मनन किया था। आनन्द कौशल्यायन और अपने सहपाठी जगदीश काश्यप से ;जो बौद्ध हो गए थेद्ध बौद्ध धर्म में प्रचलित आनापानसति ;योगाभ्यास की एक क्रियाद्ध के विषय में पर्याप्त जानकारी प्राप्त की। अतः फ्रायड आदि की मनोविश्लेषण पद्धति से भिन्न आनापानसतिए शिथिलीकरण तथा मैत्री भावना के अभ्यास द्वारा उन्होंने मानसिक रोगियों का उपचार करना आरम्भ किया। इस कार्य में सफलता मिलने पर उन्होंने काशी मनोविज्ञानशाला की स्थापना कीए जिसके संचालक वे स्वयं थे और मैं पंण् रामपति शुक्ल मंत्री था। कार्यकारिणी में प्रो0 राजबली पाण्डेयए प्रोण् रामअवध द्विवेदीए श्री अनिरुद्ध कुमार रस्तोगी आदि थे। पहले तो मनोविज्ञान की साप्तिक बैठकें उनके घर में ही हुआ करती थींए परन्तु कुछ ही दिनों में एक भूमि का टुकड़ा मिल गया और धीरे.धीरे मनोविज्ञानशाला की अपना भवन बन गया।
यद्यपि छात्र जीवन में ही शुक्ल जी से मेरा परिचय हो गयाए फिर भी घनिष्टता न थी। 1948 में जब मेरी नियुक्ति टीचर्स ट्रेनिंग कालेज में हुई तो हमारी घनिष्टता बढ़ गई और मैं उन्हें श्भाई साहबश् कहने लगा। भाई साहब ने एक मासिक पत्र निकालने का विचार किया जिसके माध्यम से माता.पिता और अभिभावकों को बच्चों के उचित लालन.पालन और शिक्षा.दीक्षा के सम्बन्ध में परामर्श देने का विचार था। अतः जनवरी 1949 में श्सुखी बालकश् मासिक पत्र का प्रकाशन हुआ। पत्र को लेकर पाठकों की बहुत अच्छी प्रतिक्रिया मिलीए परन्तु ग्राहक संख्या इतनी नहीं थी कि वह स्वालम्बी हो सके। सरकारी सहायता के अभाव में उसे अधिक दिनों तक घाटे पर चलाना कठिन था। अतः 1950 के दिसम्बर में पत्र को बन्द कर देना पड़ा।
मनोविज्ञानशाला के वार्षिक उत्सवों में देश के गणमान्य विद्वान अध्यक्ष के रूप में आमंत्रि किय जाते थे। बाबू उत्सवों में देश के गणमान्य विद्वान अध्यक्ष के रूप में आमंत्रित किए जाते थे। बाबू सम्पूर्णानन्दए बाबू पुरुषोत्तम टण्डनए पं0 इकबाल नारायण गुर्टूए पंण् कमलापति त्रिपाठीए हिन्दू विशविद्यालय के कुलपित डाण् सीण्पीण् रामास्वामी अय्यर इत्यादि में मनोविज्ञानशाला के वार्षिकोत्सव में अध्यक्षता की। एक बार कवि सम्मेलन भी आयोजित किया गया था। जिसमें बच्चन जी दिल्ली से आए थे। बच्चन जी के शिष्य रह चुके थे। सेण्ट्रल हिन्दू स्कूल के तत्कालीन प्रधानाचार्य डाण् आटो वुल्फ शुक्ल जी की मानसिक चिकित्सा पर अपना एक निबन्ध भी पढ़ा था।
प्रसिद्ध मनोविज्ञानिक युग जब काशी आए थे तब उन्हें भी मनोविज्ञानशाला में आमंत्रित किया गया था। ये यहां चिकित्सा पद्धति से बहुत प्रभावित हुए थे। आचार्य रजनीश भी एक बार इसमें आए थे।
ष्सुखी बालकष् से बहुत से लोग लाभान्वित हुए थे। हमारे सहयोगी श्री रामचन्द्र शुक्ल उसी में लेख ख्याति प्राप्त की और बाद में कला पर उनकी अनेक पुस्तके प्रकाशित हुई। अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के गणितज्ञ डाण् जयन्त नारलीकर उन दिनों कक्षा 6.7 में पढ़ते थेए वे अंग्रेजी की कहानियों का अनुवाद करके भेजते थे जिसे हम ष्सुखी बालकष् के बाल पृष्ठ में प्रकाशित करते थे। उस पत्र के बन्द हो जाने पर अनेक लोगों का आग्रह था कि वह पत्र फिर निकाला जाएए परन्तु उसकी अपेक्षा मनोविज्ञान तथा मानसिक चिकित्सा पर पत्र निकालना अधिक उपयोगी जान पड़ा। अतः ष्मनोविज्ञानष् नाम का मासिक पत्र निकाला गया। इस पत्र को उण्प्रण् के तत्कालीन मुख्यमंत्री डाण् सम्पूर्णानन्द तथा शिक्षा मंत्री पंण् कमलापति त्रिपाठी का संरक्षण प्राप्त हो गया और उसकी कुछ प्रतियां उण्प्रण् सरकार खरीदने लगी। अतः पत्र कई वर्षों तक चला। डाण् सम्पूर्णानन्द के राज्यस्थान का राज्यपाल होकर चले जाने से सरकारी सहायता बन्द हो गई और पत्र लड़खड़ा गया। उसके बाद वर्ष में उसके चार अंक ही निकाले जा सकेए जिसका सम्पूर्ण व्यय भाई साहब और उनके शिष्य वहन करते थे।
मनोविज्ञानशाला के कार्यें में हिन्दू विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग के युवा प्राध्यापक श्री कमलाकर मिश्र बड़ी रुचि लेते रहे हैं। उन्होंने आनापानसति और मैत्री भावना का अभ्यास स्वयं किया और बहुत से रोगियों को कराया। आजकल ये मैत्री भावना पर प्रयोग कर रहे हैं। जिसका विवरण उन्होंने एक पुस्तिका में प्रकाशित किया है। कमलाकर जी ने ष्मनोविज्ञानष् पत्र के सम्पादन में भी पर्याप्त योगदान किया था और शाला की साप्ताहिक बैठकों में नियमित रूप से भाग लेते थे।
मानसिक चिकित्सा के कार्य में डाण् कालूलाल श्रीमाली का भी अच्छा अनुभव था। अतः जब वे हिन्दू विशविद्यालय के कुलपति होकर आए तब वे भाई साहब के कार्यें से बहुत प्रभावित हुए और मनोविज्ञानशाला में आएए तथा यहां की चिकित्सा पद्धति की प्रशंसा की।
मानसिक चिकित्सा तो हजारों रोगियों की हुई परन्तु कुछ ऐसी रोगी भी यहां आए और अच्छे होकर गए जो रांची तथा आगरा के मानसिक चिकित्सालयों से निराश होकर लौटे थे। हकलाहटए भूत.प्रेत बाधाए हिस्टीरियाए कुत्ते के काटने से मानसिक रोग ग्रस्त अनेक रोगी यहां से निरोग हो गए। एक सम्पन्न घराने की बारह वर्ष का लड़का बिछौना भिगो दिया करता था। उसकी चिकित्सा डॉक्टरों ने कीए परन्तु वह अच्छा नहीं हुआ। भाई साहब ने रोग मुक्त कर दिया। इस प्रकार अनेक रोगी यहां से रोगमुक्त हुए।
कुछ रोगी तो मनोविज्ञानशाला में रहकर चिकित्सा कराते थे परन्तु कुछ दूर से आने में असमर्थ होने के कारण पत्र द्वारा अपने रोगों का विवरण लिखते थे। पत्राचार द्वारा उनकी चिकित्सा होती थी। इस सम्बन्ध में भाई साहब को कभी.कभी एक दिन में 50 पत्र लिखने पड़ते थे। पर उनके स्नेह.सिक्त पत्रों से ही रोगी अच्छे हो जाते थे।
भाई साहब की मनोविज्ञान साहित्य सेवा का यथोचित सम्मान शिक्षा के क्षेत्र में नहीं हुआ। हांए यूण्जीण्सीण् ने पांच वर्षों के लिए उन्हें मानद प्रोण् के रूप में काशी विद्यापीठ में नियुक्त किया था। यद्यपि विशविद्यालयों तथा महाविद्यालयों में उनकी शिक्षा तथा मनोविज्ञान की पुस्तके बहुत लोकप्रिय हुई थीए फिर भी काशी हिन्दू विशविद्यालय के अधिकारियों ने उनके महत्व को अस्वीकार करके उनको यथोचित सम्मान नहीं दिया। उनके शिष्य डॉण् रामलाल सिंह ;भूतपूर्व सदस्य उण्प्रण् लोक सेवा आयोगद्ध के प्रयास से उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने उनकी साहित्य सेवा से प्रभावित होकर 1980 में उन्हें पन्द्रह हजार रुपये की राशि पुरस्कार स्वरूप प्रदान की।
पत्नी के देहान्त के बाद भाई साहब टूट गए। बुढ़ापे में उनकी सेवा करने वाला कोई न रहा। उनके शिष्य और भक्त आर्थिक दृष्टि से उनकी सहायता करते थे परन्तु शरीर की सेवा के लिए उनका अनन्य सेवक अजीत जायसवाल ही था। उनके कनिष्ठ पुत्र मदन पिता की सेवा करने के लिए काशी छोड़कर बाहर न जा सके। उनकी आंखों की ज्योति कम हो गई थी। एक आंख में मोतियाबिंद पक गया था। अतः उसका आपरेशन हो गया और उसमें ज्योति आ गई। जिससे अपना काम धाम कर सकते थे। दो वर्ष पूर्व उन्हें पक्षाघात का आक्रमण सहना पड़ा। एक शिष्य द्वारा जमशेदपुर अस्पताल में चिकित्सा कराने से अच्छे हो गए थे। एक दिन चारपाई से उतरने समय गिर पड़े और कूल्हे की हड्डी खिसक गई। स्थानीय रामकृष्ण मिशन के अस्पताल में चिकित्सा हुई। एक माह तक ही अस्पताल में ही रहे परन्तु प्लास्टर कटने पर पता चला हड्डी ठीक से जुड़ी नहीं हुई है। उसी के बाद उनकी पौरुष ग्रन्थि रुग्ण हो गई। जिससे चारपाई से उठ नहीं सकते थे। उनकी कनिष्ठा पुत्री सुमन तथा उनके पति डाण् सुर्यनाथ प्रसाद उन्हें चन्द्रपुर ;महाराष्ट्रद्ध ले गए। वहीं 20 जनवरी 1985 को उनका शरीरान्त हो गया।
भाई साहब कबीरदास को बहुत मानते थे और उनकी रचनाओं से प्रायः उद्धरण किया करते थे। अतः श्जो कबिरा काशी मरे तो रामहि कौन निहौराश् का स्मरण करके काशी से बाहर जाकर उन्होंने प्राण त्याग दिया।
चन्द्रपुर में भाई साहब में अन्यन्य शिष्य डाण् सूर्यकान्त झा ;प्राचार्यए जनता प्रशिक्षण महाविद्यालयद्ध उनकी चिकित्सा कराने में तत्पर थे। परन्तु डॉक्टरों के प्रयास करने पर भी उनकी आत्मा शरीर का बंधन त्याग कर चली गयी।
डॉण् झा तथा उनके महाविद्यालय के अध्यापको एवं छात्रों ने यथोचित सम्मान के साथ उनकी अन्त्येष्टि की।
काशी की एक विभति चली गई। उनके मित्रए शिष्य और सगे सम्बन्धी सभी उनके वियोग से व्यथित हैं। ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दें।

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