स्वाधीनता संग्राम के वाराणसी में पद चिन्ह

                                                                                                                         -तपन कुमार घोष
1857 के महान क्रान्ति को अंग्रेजों ने ‘‘सिपाही बिद्रोह’’ कह कर उसे नकारने का जो कोशिश किया है, वह कितना गलत है; वह वाराणसी के इतिहास पर खोजने पर साफ हो जाता है। 
1757 ई0 में बंगाल के पलासी के मैदान में युद्ध में अंग्रेजों द्वारा युद्ध को रिस्वत के सहायता से जीतने के बाद अंग्रेजों को भारत में अपना साम्राज्य को फैलाने में सुविधा हुआ उसी प्रकार स्वदेशी भावना फिर से जागना शुरू हुआ, यहाँ फिर से कहने का तात्पर्य है, इसके पहले बंगाल कभी मुगल साम्राज्य को भारतीय नहीं माना और जसोर राज प्रतापादित्य के नेतृत्व में बादशाह अकबर के समय विद्रोह कर जहांगीर काल तक स्वतंत्र रहा। प्रतापादित्य का मृत्यु 1614 ई0 को वाराणसी में हुआ था फिर बंगाल मुगल शासन मानने में बाध्य हुआ। पर मुगल नवाब अलिवदों खाँ द्वारा मराठो के अत्याचार से बंगाल के लोगों को बचाने के प्रयास के कारण बंगाल में मुगल विद्वेश खत्म हो गया। फिर नवाब अलिवर्दो खाँ का नीति नवजवान सिराजुद्दौला से धोखे से बंगाल छिनने से अंग्रेजों के प्रति बंगाली समुदाय नाराज हो गये। यह सब का प्रभाव लघु बंगाल काशी पर भी पड़ा। 
1778 ई0 इंग्लैण्ड के साथ फ्रांस का युद्ध शुरू होने पर अंग्रेज कम्पनी युद्ध का खर्च उठाने के लिये काशीराज चेत सिंह से सालाना 5 लाख रूपया तीन वर्ष के लिये माँगे। पहले वर्ष तो काशीराज युद्ध के नाम पर 5 लाख रूपया दिये, पर दुसरे वर्ष वे उस रकम को दे नहीं पाये। इस पर कम्पनी का गर्वनर जनरल ओवारेन हेसटीं काशीराज चेत सिंह पर एक लाख रुपया जुर्माना ठोक दिया। राजा जुर्माना का रुपया हेंसटीं को दिये और उसके साथ और रुपया देने में असमर्थता जाहिर किये। इस पर गुस्साये हेसटीं भारी फौज के साथ 15 अगस्त 1781 बनारस में काशीराज का वहरादरी वाला माघोदास बगीचे में आकर कब्जा किये जो इस्ट इण्डिया कम्पनी का बनारस रेसिडेन्ट हाउस के बगल में था। जो वर्तमान वाराणसी जिला अस्पताल के पूर्व ‘‘राधास्वामी बाग’’ नाम से जाना जाता है। वहा अंग्रेजों द्वारा अंग्रेजी में यह शिलालेख लगा रखा है; जिसका अर्थ है- ‘‘इस बगीचे की दीवार के उस पार 1781 के शरद ऋतु में बंगाल के फोर्ट (किला) युलियम के पहले गर्वनर जनरल वारेन हेसटी कब्जा किये थे।’’
17 अगस्त 1781 श्रावण महिने का सोमवार होने के कारण काशी नरेश चेत सिंह वाराणसी स्थित शिवाला किला स्थित शिवमंदिर में पूजा करने आये थे। तब हेसटीं ने काशी नरेश चेत सिह को पकड़ने के लिये इस्ट इण्डिया कम्पनी के 200 सिपाही लेफ्टनेंट आर्च स्कट, लेः जार सइमन, लेः जे स्टकर के नेतृत्व में भेजे। शिवाला दुर्ग वस्तुतः काशीराज का तहसील कार्यालय था। सिपाही भी ज्यादा नहीं थे पर जब वाराणसी के छात्र एवं नागरिकों को यह पता चला की उनके राजा को विदेशी सिपाही कैद करने आ रहे है तो वे अपने घरेलू हथियार लिये उस फौज पर टुट पड़े और सम्पूर्ण फौज का सफाया शिवाला दुर्ग के फाटक पर ही कर दिये चित्र में वहीं युद्ध स्थल दिखाया गया है-
फोटो
युद्ध क्षेत्र के बगल में ही इस्ट इण्डिया कम्पनी के मारे गये सिपाहीयों के कर्बगाह बना हुआ है जो चित्र में दिखाया गया है-
फोटो
जहाँ अंग्रेजी संयुक्त प्रदेश (उत्तर प्रदेश) सरकार इस्ट इण्डिया कम्पनी फौज के स्मृति में एक शिलालेख लगवाये, जो चित्र में दर्शाये गये है-
फोटो
पर स्वाधीनता भारत या उत्तर प्रदेश
सरकार उस युद्ध विजय में शहीद हुये नागरिको एवं काशी नरेश के सिपाहीयों के बारे में आज तक कुछ भी नहीं किया। बल्कि लहुराबीर स्थित रेसिडेण्ट हाउस एवं हेसटीं को बचाने में जितने अंग्रेजी फौज मारने गये थे उनकी अति सुन्दर, जिसमें अफसरों के कर्ब पर संगमर्मर के बने परी इत्यादि बने थे वहाँ से कहा उठा ले गये उसका पता नहीं चला हेसटी को बनारस से किस हालाता पर भागना पड़ा था। उसके बारे में यह कथा प्रचलित है-
घोडे़ पर हौदा, हाथी पर जीन।
ऐसे भागा वारेन हेसटीं।।
अंग्रेजों ने अवध के नवावी पद से वजीर अली को हटाकर सआद्त् अली को बैठाने के बाद वजीर अली को एक लाख पच्चास हजार रुपया सालाना पेनसन देकर बनारस के माधोदास बाग (स्वामी बाग) में रखा गया था। तब वजीर अली क्षुब्ध काशी नरेश परिवार एवं अफगानिस्तान से सम्पर्क कायम करने में सफल हुये। 14 जनवरी 1799 वजीर अली 200 सिपाहियों के साथ अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किये। 18 जनवरी अर्थात चार दिन बाद अंग्रेजो ने बनारस शहर पर अपना अधिकार फिर कायम किये। तब वजिर अली तराई में पहुँच कर कई हजार लोगांे को इकट्टा कर गोरखपुर में अंग्रेजो से युद्ध किये। पर उनका उसमें हार हुआ और वे जयपुर नरेश के वहा पनाह लिया। जयपुर नरेश उन्हें कर्नल कलिंस को पकड़वा दिये। पहले वजीर अली को कलकत्ता के फोर्ट युलियम में कैद रखा गया फिर तमिलनाडु के भेलोर भेज दिया गया
 
फोटो
 
सन् 1781 ई0 शिवाला युद्ध मे काशी नरेश चेत सिंह से हार एवं अवध के पूर्व नवाब वजिर अली से 1799 ई0 के हलोर हमला से अनुभव प्राप्त कर अंग्रेजों ने अपने सेना एवं नागरिकों का सुरक्षा और वहाँ से सुरक्षित अपने वतन भागने के लिये समुद्र मार्ग खोलने लगे। तो उन्होने समुद्र से सीधा सम्पर्क गंगा पर एक किला बनवाने को सोचा उसके लिये उन्होंने वरूणा एवं गंगा पर प्राचीन किले के स्थान पर किले बनवाने लगे। इसके लिये उन्होंने किले का एक फाटक उत्तर वरूणा नदी की ओर बनवाये और उसमें सुइस गेट लगवाये ताकि वर्षा के समय नाव द्वारा किले के अन्दर से सिधा आवागमन कर सके। इसके चलते हिन्दुओं का प्राचीन तीर्थ एवं मंदिर ‘‘आदिकेशव’’ किला परिसर के अन्दर हो गया। इससे हिन्दुजन इसका विरोध करने लगे पर अंग्रेजों ने उस पर ध्यान नहीं दिया। जिसका फलस्वरूप 1850ई0 को राजघाट पर बारूद भरा पिपे लदा नावों पर भीषण विस्फोट हुआ जिससे निर्माणाधीन किला का बहुत बड़ा क्षेत्र ढ़ह गया। राजघाट स्थित मि0 स्मिथ, मि0 स्मल एवं मि0 हुई का बंग्लो उड़ गया। धमाके की आवाज से मि0 स्मल की पत्नी की मृत्यु हो गई। मि0 चार्ल्स नाम का व्यापारी का नया बंग्ला उड़ गया। पर विजय नगर राजा का मकान एवं उसके आस-पास गंगा पर बना मि0 गार्डेन का बंग्ला जिसमें कुइन्स कालेज का प्रिन्सिपल मि0 वालटन रहते थे बच गया। डॉ0 मोति चंद जी काशी के इतिहास’’ में लिखे है- यह विस्फोट कैसे हुआ उसका पता नहीं चला।’’ पर बनारस के प्राचीन बंगालीयों में प्रचलित है की इस विस्फोट का षड़यंत्र बनारस के महाराष्ट्रीय एवं बंगाली अधुशित अगस्तकुण्डा मुहल्ले में अगस्तेश्वर मन्दिर में बंगाली एवं महाराष्ट्रीय और स्थानीय पण्डे किये थे। 
फोटो
1980 ई0 के दशक में का0हि0वि0 इतिहास विभाग में डॉ0 सुभाष मुखोपाध्याय अध्यापक थे; उनका पी0एच0डी0 ‘‘दिवान ऑफ बंगाल’’ पर था। उसके चलते उनको इस्ट इण्डिया कम्पनी के डेसपैच को काफी गहराई से देखने पर उनसे बातचीत के दौरान उन्होंने बताया की कम्पनी के डेसपैच से पता चलता है कि अंग्रेजों ने उस विस्फोट को गुप्त रूप से बहुत खोज की थी, पर उन्हीं कोई सुराख नहीं मिला। फिर उन्होंने किला बनवाना स्थगित रखा। फिर 1852 ई0 में बनारस में यह खबर फैला की अंग्रेजों ने उनके कैदियों को रोटी खिलाकर इसाइ बना रहे है। इसके चलते भोसला घाट पर पाँच सौ से ज्यादा लोग इकट्टा हो गये थे जिसके चलते बनारस का मजिस्टेªट ए0भी0 गोविन्स को शक्त कदम उठाना पड़ा और भोसला घाट त्यागने के पहले वहाँ के मंदिर के पुरोहित एवं कर्मचारियों को यह कह कर कैद किये कि वे मंदिर के दरवाजे को क्यों बन्द नहीं किये थे।
अगले दिन 2 अगस्त 1852 नाटीइमली के मैदान में जनता इकट्टा होने लगे मि गोविन्स उसे रोकने के लिये पर वहाँ इटा पत्थर चलने लगा फिर वे सेना के सहायता से उसे दबाये उस समय काशी नरेश ईश्वरी प्रसाद सिंह कमच्छा स्थित अपने निवास पर थे। वर्तमान में उस निवास स्थान पर शिशमहल कालोनी एवं काशीराज एपार्टमेन्ट बना है। पर उसका मुख्य द्वार एवं नटवत खाना अभी भी वर्तमान है। 3 अगस्त 1852 से तीन हजार जनता काशीराज का नाम देते हुये कमच्छा में उपस्थित हुये और काशीराज से निर्देश माँगने लगे। मैजिस्टेट मि0 गोविन्स के रिपोर्ट अनुसार काशीनरेश ईश्वरी प्रसाद तो इसमें शामिल नहीं थे पर उनका विश्वसनीय पंडा रामदत्त उसमें शामिल थे। 8 अगस्त बैजनत्था पर भिड़ इकट्ठा होने लगी। उसे सम्भालने के लिये सेना का सहायता लिया गया जिसमें 278 व्यक्तियों को बन्दी बनाया गया। इन घटनाओं के चलते काशी नरेश फिर कभी कमच्छा कोठी में नहीं आये। 
1857 के मार्च महीने में 27 नम्बर पल्टन में असंतोष दिखाई देने लगा था। उस समय बनारस कैंट में ब्रिग्रेडीयर परसोनबई के अधिन अंग्रेजी तोपखाना सहित लुधियाना का सिख रेजीमेंट का एक कम्पनी और 37 नम्बर मुसलिम पल्टन रहा। 4 जून ब्रिग्रेडियरन पानसोनबइ देशी सिपाहियों का हथियार रखवाने का आदेश दिये। इस र देशी सिपाही बौखला गये। 13 नम्बर मुसलिम पल्टन ने भी बगावत की और अपने कमानडेन्ट को मार डाले। सिख सिपाही भी इससे प्रभावित हुये। बनारस में गैर सेना अंग्रेज नागरिकों ने मिन्ट हाउस में पनाह लिये और अंग्रेज अधिकारियों ने कचहरी के मालखाने में आश्रय लिये। उस समय बनारस में राजनैतिक शरणार्थी सरदार सुरजित सिंह मजेठिया आकर सिख सिपाहियों को समझा कर अंग्रेजों को बचाया। फिर काशीनरेश ईश्वरी प्रसाद सिंह के सहायता से 1857 विद्रोह को दबाया गया। 
आदिकेशव मंदिर के बाहर से राजघाट किले का बचाव हुआ दिवाल के सहारने अंग्रेजों ने विद्रोहियों से लड़े थे जो आज भी पंडे लोग दिखाते है। बाद में वहाँ स्थित पंचवटी के बरगद एवं पीपल के डालों पर विद्रोहियों को फाँसी दी गयी थी। वह बरगद एवं पीपल का पेड़ आज भी मौजूद है। सर्किट हाउस के तिराहे पर जो बरगद का पेड़ है उसमें भी बहुतो को फाँसी दिया गया था। 
 
नोट- यह सबका विस्तार से मेरा ग्रन्थ ‘‘वाराणसी इतिकथा में है। 
 

Share on

WhatsApp
Facebook
Email
Telegram

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top