काशी महिमा
मुक्तिधाम यह काशी नगरी तीन लोक से न्यारी है
पावन गंगा तट की शोभा लगती कितनी न्यारी है
सबसे बड़ा तीर्थ है जिसका संतों ने गुणगान किया
ऋषि मुनियो ने भी इसकी महिमा का सतत बखान किया
तपोभूमि यह देव भूमि है परमरम्य परपाटी है
मंगलमय परिभाषाओं से भरी यहाँ की माटी है
काशी महामंत्र है इसका जिस प्राणी ने जाप किया
मुक्तिपंथ निर्माण स्वयं का उसमे अपने आप किया
काशी में जिसने तन त्यागा उसे मोक्ष मिल जाता है
बाबा विश्वनाथ की नगरी उनकी ही बलिहारी है
मुक्तिधाम यह काशी नगरी तीन लोक से न्यारी है
यहाँ अनपढ़े लोगों को भी लोग गौर से पढ़ते हैं
देवे हैं जो रोज स्वयं ही अपनी राहें गढ़ते है
इनके तेवर अलग-अलग कुछ जीवन की परिभाषा है
विद्वतजन भी बांच न पाये ऐसी इनकी भाषा है
समझ न पाये अब तक फिर किसमें दम है जो समझाये
जो इनकोक समझाना चाहे सच है वह मुँह की खाये
रोज कमाने खाने वाले भी मस्ती में जीते हैं
मरते वे जिनके जीवन में हर दिन लगे पलीते हैं
कौन बता पायेगा इनकी संख्या कितनी भारी है
मुक्ति धाम यह काशी नगरी तीन लोक से न्यारी है
काशी का पक्का महाल काशी के दिल की धड़कन है
आँखों की फड़कन है तो पीड़ित प्राणों की तड़पन है
सकरी गलियों में भी इसका ऐसा मोहिक रूप है
उपमायें छोटी लगती हैं छवि अनमोल अनूप है
फिर भी जीवन जीने के कुछ ऐसे लोग निराले हैं
जिसने देखा नहीं न उसके पल्ले पड़ने वाले हैं
तरकस देखा नहीं न उसके पल्ले पड़ने वाले हैं
तरकस बोल-बोल में ठसके-ठसके में भी प्यार भरा
झाँके तो अक्खड़पन में भी लबालब सिंगार भरा
चौथेपन भी लगता है कोई साया कुँआरी है
मुक्तिधाम यह काशी नगरी तीन लोग से न्यारी है
लोग नमन करते हैं आकर इस नगरी की माटी को
जिसने सदा संजोकर रक्खा है पवित्र परिफटी को
गुणीजनों का काशी ने है सदा-सदा सम्मान किया
शास्त्रीय पद्धति से लेकर लोक रीति का मान किया
जीवन के शाश्वत मूल्यों से जुड़े धरोहर है यहीं
अतिविशिष्ट मंचो से आंगन तक के सोहर हैं यही
काशी नगरी ऐसी जिसका सबने किया बखान है
सच तो यह काशी अपने में पूरा हिन्दुस्तान है
गंगा तुलसी काशी की पीढ़ी-पीढ़ी अभारी है
मुक्तिधाम यह काशी नगरी तीन लोक से न्यारी है
हरिराम द्विवेदी
कवि केदारनाथ की चर्चित कविता बनारस
इस शहर में बसंत
अचानक आता है।
और जब आता है तो मैंने देखा है
लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती हैं
जो है वह सुगबुगाता है
जो नहीं है वह फेंकने लगता है पचखियां
आदमी दशाश्वमेघ पर जाता है
और पाता है घाट का आखिरी पत्थर
कुछ और मुलायम हो गया है
सीढ़ियों पर बैठे बन्दरों की आँखों में
अब अजीब-सी नमी है
और एक अजीब-सी चमक से भर उठा है
भिखारियों के कटोरों का निचाट खालीपन
तुमने कभी देखा है
खाली कटोरों में बसन्त का उतरना।
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है यह शहर
इसी तरह रोज-रोज एक अनन्त शव
ले जाते हैं कन्धे
अन्धेरी गली से
चमकती हुई गंगा की तरफ
इस शहर में धूल
धीरे-धीरे उड़ती है
धीरे-धीरे चलते हैं लोग
धीरे-धीरे बजते हैं घण्टे
शाम धीरे-धीरे होती है
यह धीरे-धीरे होना
धीरे-धीरे होने की एक सामूहिक लय
दृढ़ता से बांधे है समूचे शहर को
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं हैं
हि हिलता नहीं है कुछ भी
कि जो चीज जहां थी
वहीं पर रखी है
कि गंगा वहीं है
कि वहीं पर बंधी है नाव
कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊँ
सैकड़ों बरस से
कभी सई-सांझ
बिना किसी सूचना के घुस जाओ इस शहर में
कभी आरती के आलोक में
इसे अचानक देखो
अद्भुत है इसकी बनावट
यह आधा जल में है
आधा मंत्र में
आधा फूल में है
आधा शव में
आधा नींद में है
आधा शंख में
अगर ध्यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं है
जो है वह खड़ा है
बिना किसी स्तम्भ के
जो नहीं है उसे थामे हैं
राख और रोशनी के ऊँचे-ऊँचे स्तम्भ
आग के स्तम्भ
और पानी के स्तम्भ
धुँएं के
खूशबू के
आदमी के उठे हुए हाथों के स्तम्भ
किसी अलक्षित सूर्य को
देता हुए अर्ध्य,
शताब्दियों से इसी तरह
गंगा के जल में
अपनी एक टांग पर खड़ा है यह शहर
अपनी दूसरी टांग से
बिलकुल बेखबर!