संत कबीर और काशी

कबीर लोकजीवन से जुड़े लोकधर्मी कवि थे, जिस लोकजीवन को उन्होंने गहराई के साथ देखा, भोगा और जिया था, वह काशी का था। उन्होंने अपने परिवेश का बहुत सूक्ष्म निरीक्षण किया था। किसानों, बंजारो, भटियारों, महाजनों, जुलाहों, बुनकरों आदि के कार्य-व्यापार और व्यावसायिक पद्धति को उन्हेंने निकट से देखा था। कृषि के साथ ग्रामीण उद्योग धन्धों का भी उन्हें व्यावहारिक अनुभव था। यही कारणर है कि उनके काव्य में लोहार, कुम्हार, तेली आदि के क्रिया-कलापों का सजीव चित्रण होता है।

उनकी रचनाओं में तत्कालीन लोकजीवन का अत्यन्त हृदयग्राही अंकन दृष्टिगत होता है। सामान्य व्यवहार की वस्तुओं यथा-कुल्हाड़ी, चक्की, बुहारी, रस्सी, छीका, डोली आदि रीति-रिवाजों यथा  सूतक (जन्म के समय), मुंडन, ब्याह, गौना आदि त्योहारों यथा होली, दीवाली, मनोरंजन के साधनों यथा-काजल, अंजन, सिंदूर, मंजन, मेंहदी, माँग काढ़ना, जूड़ा बाँधना आदि का भी उल्लेख प्राप्त होता है। लोक जीवन से घनिष्ठता के साथ आबद्ध वृक्ष-पुष्प आम के बौर, कटहल के पेड़, नीम की निबिया, घास, सेमर के फूल, नलिनी, पालतू पशु-पक्षियों गाय, भैंस, बैल, बकरी, कुत्ता, ऊँट, भेड़, सुआ, तीतर आदि के अतिरिक्त जंगली पशुओं-सिंह, चीता, सियार, मृग लोमड़ी एवं लोक जीवन से जुड़े कौआ, बगुला, चील, उल्लू, बाज, हाथी, सर्प, मूस, गधा, बिल्ली आदि का भी चित्रण कबीर की वाणी में मिलता है।

कबीर ने लोक जीवन के विभिन्न पक्षों का सूक्ष्म निरूपण के साथ धार्मिक आडम्बरों, छुआ-छूत, भेदभाव, ऊँच-नीच का नग्न यथार्थ भी काशी में देखा और उसका खुलकर विरोध किया। वे कर्मकाण्ड और शास्त्र के विरोध में खड़े होने वाले कवि थे। ‘पण्डित वाद बदन्ते झूठा’ और ‘पोथी पढ़िपढ़िजग मुआ पण्डित भया न कोइ, ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पण्डित होइ’ की अलख जगा कर सदाचारी जीवन और सम्पूर्ण मानव जाति में प्रेम की भावना को उन्होंने रेखांकित किया। उन्होंने ‘कागज की लेखी’ पर विश्वास न करके ‘आँखिन देखी’ को महत्व दिया तथा जीवन के अनुभवपरक ज्ञान पर बल दिया। समाज और मानवच जीवन से जुड़ी छोटी-छोटी बात को, जीवन मूल्यों को, परम्पराओं को, जातिभेद, धर्मभेद उन्होंने अपनी सर्जना का विषय बनाया। उनके विरूद्ध आवाज उठाई और चुनौती भी दी-

हिन्दू कहै मोहि राम पियारा, तुरूक कहै रहिमाना।

आपस में दोउ लरि लरि मूये, मरम काहू जाना।।

साम्प्रदायिकता व धार्मिक उन्माद के विरूद्ध ‘सर्व धर्म समभाव’ का उद्घोष करते हुए उन्होंने जन प्रचलित विविध ईश्वरवाची शब्दों यथा-हरि, ईश्वर, अल्लाह, खुदा, करीम, राम, कृष्ण, भागवान का प्रयोग करके सामंजस्य का मार्ग दिखाया-

              कहै कबीर मैं हरि गुन गाऊँ, हिन्दू तुरक दोऊ समझाऊँ।

              हिन्दी तुरक का करता एकै, ता गति लखी जाई।।

कबीर ने प्रगतिशील समाज सुधारक के रूप में प्रेम, अहिंसा, शंति का पाठ पढ़ाया और जाति-प्रथा के विरूद्ध आवाज बुलन्द की-

              एकै त्वचा हाड़ मल मूत्रा, एक रूधिर एक गूदा।

              एक बूंद से सृष्टि रची है, को ब्राह्मण को शूदा।।

हरि-भक्त को ही सबसे ऊँचा समझने का स्वर भी मुखरित किया-

              हरि जन चारि वरन ते ऊँचे।

संत कबीर ने ईर्ष्या-द्वेष को दूर करने तथा कर्म के प्रति निष्ठा एवं ईमानदारी को महत्व देते हुए धन संग्रह के विरूद्ध संतोष एवं धैर्य को प्रमुखता दी-

              साई इतना दीजिए जामें कुटुम समाय।

              मैं भी भूखा रहूँ साधु भूखा जाय।।

समस्त मानव समाज की भलाई की भावना से अभिभूत कबीर ने ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ के मन्त्र को मुखरित किया-

              कबिरा खड़ा बाजार में, सबकी माँगे खैर।

              ना काहू सों दोस्ती, का काहू सों बैर।।

संत कबीर महान् विचारक व चिंतक थे। व्यक्ति, समाज, भाषा एवं संस्कृति के घनिष्ठ सम्बन्ध थे। वे जानते थे कि संस्कृति और भाषा ही देश को एक सूत्र में बाँध सकती है। पर्यटक एवं उपदेशक संत कबीर ने ‘संस्कृत कबिरा कूप जल भाषा बहता नीर’ को आधार बनाकर जन सामान्य तक अपनी बात पहुँचाने के लिए जनभाषा या लोकभाषा का अपनाया समाज-भाविक से दृष्टि यह स्वाभाविक था और अनिवार्य भी। उन्होंने साखी, रमैनी, सबद, चौंतीसा, बावनी, वार, थिंती, चाँचार, बसंत, बेलि, कहरवा, बिरहुली आदि काव्य रूपों का प्रयोग किया। भाषा, छन्द, अलंकार, शैली का उन्होंने जो प्रयोग किया  उसे लोक से ग्रहण किया। उनका छन्द विधान भी लोक मनोवृत्ति का परिचायक है। वे जिस समाज तक अपनी बात पहुँचाना चाहते थे उसकी ठेठ देशी शब्दावली को अंगीकार कर भाषा को उन्होंने अभिनव क्षमता प्रदान की-

              माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंदे मोहि।

              इक दिन ऐसा आएगा, मैं रौदूँगी तोहि।।

लोक जीवन, लोक संस्कृति, लोकभाषा, लोकानुभव के संवाहक संत कबीर की निर्निवाद रूप से क्रान्तिदर्शी जनवादी कवि और उनके काव्य को आज भी प्रासंगिक कहा जा सकता है।

जैसा है वैसा मत दिख, चल इमला लिख

       (असली क्रोधी बन। परम विनोदी बन। राहुल बन। मोदी बन।) आ बैठ। इमला लिख। मत कर चिकचिक। मुंडी में बैठ। जल्दी बिक। चल उठ। मत फरियाद कर। पापा-दादी को छोड़। बाकी को यादकर। आगे चुनाव है। मतदाता तो गाय है। न कर अनबन। केचुआ था। अब सांप बन। गरीब की जोरु को भाभी बना। गंदे बच्चों को मत घिना। न नरम हों। न गरम हो पूरा बेशरम हो। गूंगे का गुड़ मत बन। अगला मनमोहन बन। छोड़ दे झिक-झिक। चला इमला लिख।

       असली क्रोधी बन। परम विनोदी बन। राहुल बन। मोदी बन। रोवे बाप, मरे माता। तेरे बाप का क्या जाता? कुछ न उलट। कुछ न सुलट रोज बयान पलट। रैली कर। थैली भर। तेरे विरोधी के पास कपड़ा है। तेरे पास लत्ता है। उसके पास महँगाई है। तेरे पास मँहगाई भत्ता है। राहुल को देख। मोदी को देख। उनसे कुछ सीख। फिलहाल रिश्वत मत ले। भीख ले। वहाँ देख। एक की दाढ़ी सफेद है, एक की काली। न उनके पास घरवाली है। न इनके पास घरवाली दोनों हमारे है। हमारे सहारे हैं। दोनों के एक लक्षण है। दोनों कुँआरे हैं। उधर मत देख। इधर देख। दीन-ईमान को मार दे किक। भूखों के सपनों में रोटी सा सिंह। जैसा है, वैसा मत दिख। चल इमला लिख।

       आ बैठे। ज्यादा मत ऐंठ। सुशासन नहीं कुशासन बन। द्रौपदी मत बन। दुःशासन बनं दिवाली से पहले, क्या नहले क्या दहले? दुराचार और भ्रष्टाचार में नहा ले कीचड़ मलमल के। कहा भी तो है कि ज्योति कलश छलके। तेरी आँखे क्यों पुरनम हैं? अपने मुहल्ले में तू ही सक्षम है। तेरा लंगोट ही तेरा परचम है। तेरे पेट में बम है। तू कौन किसी से कम है? अबे, तू तीसरा पी0एम0 है। मेडिकल ले और हो जा सिक। कहाँ तूं, और कहाँ अन्नू मलिक। कही अलका याज्ञनिक। आ बैठ। इमला लिख।

       लिख लिख? क्या लिख चल अब वोटारों को दिखा। अहा, क्या बात है। बे मौसम बरसात है। इस देश का यारों क्या कहना। यह देश है दुनियां का गहना। अहा, क्या पूत है। तू हमारे भविष्य का भूत है। आ अब थोड़ा विश्राम कर। देश की कमाई खाकर आराम कर। अब हमें नई घास चरनी है। तुझे लोकसभा चुनाव की रिहर्सल भी तो करनी है।

दीनानाथ

अवकाश प्राप्त शिक्षक

स0ध0ई0 कालेज वाराणसी

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