संगीतमय साक्षात्कार

नारायण भाई साईं ने कराया गांधी जी का संगीतमय साक्षात्कार

‘साझा संस्कृति मंच’ एवं ‘गाँधी अध्ययन पीठ’ के संयुक्त तत्वाधान में 22 से 26 फरवरी तक पांच दिवसीय “गाँधी कथा” का आयोजन महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के गांधी अध्ययन पीठ सभागार में हुआ। जिसका शुभारम्भ वयोवृद्ध गाँधीवादी चिन्तक श्री नारायण भाई देसाई ने किया। इस पांच दिवसीय गांधी कथा के दौरान नारायण भाई देसाई ने गाँधी जी के संस्मरणों पर आधारित संगीतमय गाँधी कथा सुनाया एवं  काशी के लोगों को गांधी जी के बारे में कई खास जानकारियां दी। गांधी जी द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए अहिंसा के रास्ते को अपनाने के पीछे का मतव्य भी श्रोताओं को समझाया। गांधी कथा में काफी संख्या में श्रोताओं ने भाग लिया। कथा प्रारम्भ होने के काफी पूर्व ही ‘गाँधी अध्ययन पीठ’ का सभागार श्रोताओं से लगभग 85 प्रतिशत भर गया था। गाँधी जी के नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, शहीद भगत सिंह और बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर आदि के साथ वैचारिक मतभेद के बावजूद घनिष्ठ आत्मीय सम्बन्ध, गोलमेज सम्मेलन, भारत छोडो आन्दोलन आदि विषय थे। समापन आगा खां पैलेस में हिरासत के दौरान “बा” की मृत्यु के प्रसंग से हुआ… पूज्य नारायण भाई की वाणी और संगीत की टीम की भावपूर्ण गीत प्रस्तुति से समापन के समय सभागार में अधिकांश की आंखे नम थीं। कथा के अन्य दिन मुस्लिम लीग के डाइरेक्ट एक्शन की क्रिया और प्रतिक्रिया में उपजी साम्प्रदायिक हिंसा में जल रहे नोआखाली में गांधीघूम रहे हैं। उसी बर्बर समय में गांधी के स्वयं सेवकों की प्रेरणा से सुदूर ग्रामीण अंचल में अपने समस्त परिजनों को गवां चुकी एक किशोरी बालिका अभया बन कर सरपत से ढंकी पगडंडियों में नरपशुओं की परवाह न करके एक गांव से दूसरे गांव में संदेशवाहक बनकर दौड़ रही थी। विभाजन में बिछी लाशों पर नेहरू, माउण्टबेटन और जिन्ना के पश्चाताप को पूरा सभागार नारायण भाई के शब्दों से महसूस कर रहा था।
थके हारे कांगेसियों का विभाजन पर समझौता गांधी के लिए अगली चुनौती रहा होगा, जिससे ऊर्जा लेकर गांधी निश्चय ही आने वाले समय में भारत और पाकिस्तान की सरहदों पर उगी नागफनियों को पददलित करके पगडंडी में बदल सकते थे, लेकिन विभाजन के बाद गांधी को जितना कम समय मिला, उतना ही कम समय गांधी कथा के श्रोताओं को भी मिला।
विगत 5 दिनों से श्रोता इतिहास की कितनी जानी अनजानी घटनाओं के साक्षी बनते हुए सम्पूर्ण मौन के साथ सभागार से निकल कर सायं के अँधेरे में विलीन हो रहे थे। मानों समय की सरहद पार कर रहे हों।

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