अठ्ठारवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में इन्दौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने घाट का निर्माण कराया था। उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्व यह दशाश्वमेध घाट का ही हिस्सा था, घाट के निर्माण होने के कुछ वर्षों के पश्चात यहाँ प्रसिद्ध शीतला मंदिर (म0स0 D 18/19) का निर्माण हुआ, जिसके कारण इस घाट का नाम शीतला घाट पड़ा। स्थापत्य की दृष्टि से सामान्य होते हुये भी धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से यह घाट बहुत महत्वपूर्ण है। शीतला मंदिर के अतिरिक्त यहां चार शिव मंदिर है, छः रथिकायें हैं जिनमें दो दत्तात्रेय, दो विठ्ठल तथा गंगा एवं यमुना की मूर्तियाँ हैं। शीतला मंदिर में नवरात्र में दर्शनार्थियों का रेला उमड़ा रहता है। शहर के मध्य स्थित होने से यहां दैनिक स्नानार्थियों और तीर्थयात्रियों की भीड़ होती है। इस घाट पर स्नान का विशेष महात्म्य है, सूर्य एवं चन्द्र ग्रहण, गंगादशहरा, शिवरात्रि, डालाछठ आदि पर्वो पर यहाँ अधिक मात्रा में लोग स्नान-दान करते हैं। मुण्डन संस्कार, विवाह पश्चात गंगा पुजईया, पियरी चढ़ाना आदि क्रिया-कलाप इस घाट पर प्रायः देखने को मिलता है। देवदीपावली पर होने वाले भव्य कार्यक्रम को देखने के लिये देश-विदेश से पर्यटक यहाँ आते हैं। वाराणसी में एक कहावत है कि हर वर्ष बाढ़ के रूप में गंगा जी शीतला जी से मिलने आती है और जिस वर्ष यह नहीं होता उस वर्ष शहर में महामारी फैलने की आशंका रहती है। घाट पक्का एवं सुदृढ़ है। यहां सायंकाल को भी पर्यटक एवं स्थानीय लोग घूमने-फिरने आते हैं। सन् 1958 में राज्य सरकार ने घाट का पुनः निर्माण कराया था।