सन् 1730 में घाट का पक्का निर्माण महाराष्ट्र के पेशवा बाजीराव के सहयोग से सदाशिव नाईक ने कराया था। घाट पर स्थित मणिकर्णिका कुण्ड और इससे जुड़ी मान्यताओं के कारण ही इस घाट का नाम मणिकर्णिका घाट पड़ा। काशीखण्ड के अनुसार इसका पूर्व नाम चक्रपुष्करणी कुण्ड था, जिसे भगवान विष्णु ने शिव की तपस्या करते समय अपने चक्र से खोदा था। दूसरी मान्यता यह है कि शिव और पार्वती चक्रपुष्करणी कुण्ड का अवलोकन कर रहे थे तभी पार्वती के कान की मणि कुण्ड में गिर गयी, जिसके पश्चात इसका नाम मणिकर्णिका पड़ा। मत्यस्यपुराण में उल्लेख है कि यह काशी के पाँच प्रमुख घाट तीर्थों में सर्वश्रेष्ठ है। यहाँ प्राण त्यागने से मोक्ष की प्राप्ति होती है, ऐसी मान्यता है कि शिव स्वयं मृतक के कान में तारक मंत्र प्रदान करते हैं। यहां जन्म और मरण दोनो ही मंगलकारी होता है। घाट के सम्मुख गंगा में मणिकर्णिका, इन्द्रेश्वर, अविमुक्तेश्वर, चक्रपुष्करणी, उमा, तारक, पितामह, स्कन्ध एवं विष्णु तीर्थ की स्थिति मानी जाती है। काशी में पंचक्रोशी यात्रा यहीं से स्नान के साथ आरम्भ कर, यहीं पर स्नान-दान के पश्चात समाप्त किया जाता है। घाट पर अधिकांश मंदिर शिव को समर्पित है, इनमें तारकेश्वर शिव, रानी भवानी शिव, मणिकर्णिकेश्वर शिव, रत्नेश्वर शिव, आमेठी शिव (शिव एवं महिषमर्दिनी), मनोकामेश्वर शिव, रूद्रेश्वर शिव, सिद्धिविनायक (गणेश), मणिकर्णिका विनायक (गणेश) मंदिर मुख्य है। इन मंदिरो का निर्माण बंगाल, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश एवं बिहार के शासकों ने अलग-अलग समयों पर करवाया था।
काशी का यह घाट श्मशान घाट के रूप में भी प्रसिद्ध है, शवदाह के लिये दूर-दूर से लोग यहाँ आते हैं, यहां चिता की अग्नि लगातार जलती रहती है। अठ्ठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में कश्मीरीमल ने श्मशान भूमि की स्थापना की और उन्हीं को प्रथम शवदाह करने का श्रेय जाता है। कहा जाता है कि अपनी माँ के दाह-संस्कार को लेकर हरिश्चन्द्र घाट पर चण्डाल से कश्मीरीमल की कहा-सुनी हो गई थी, अतः उन्होंने मणिकर्णिका घाट पर जमीन क्रय कर अपनी माँ का दाह-संस्कार किया और घाट को भी बनवाया।
प्रारम्भ में यह घाट केवल तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध था, जहाँ बाद में शवदाह की परम्परा आरम्भ हुई। वर्तमान में यह घाट तीर्थ एवं श्मशान दोनों के लिये विख्यात है। धार्मिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से यह घाट महत्वपूर्ण है, घाट पर सदैव स्नानार्थियों की भीड़ रहती है। कार्तिक माह, सूर्य-चन्द्र ग्रहण, एकादशी, संक्रान्ति, गंगा दशहरा, भैयादूज आदि विभिन्न पर्वों पर यहां स्नान का विशेष महात्म्य है। शवदाह के अतिरिक्त पिण्डदान, तर्पण, मनौती एवं अन्य धार्मिक कार्यों को यहां सम्पन्न किया जाता है। कार्तिक माह में घाट पर रामलीला का भी आयोजन किया जाता है। यह श्मशान भूमि तंत्र साधकों के लिये विशेष महत्वपूर्ण मानी जाती है, यहां तंत्र साधना में लीन तांत्रिकों को सदैव देखा जा सकता है। कार्तिक अमावस्या (दीपावली) की रात्रि (तंत्र साधना के लिये सर्वाधिक उपयुक्त समय) को तंत्र साधना के लिये देश-विदेश से तांत्रिक यहाँ आते हैं।
सन् 1988 में राज्य सरकार के सहयोग से सिंचाई विभाग ने घाट का पुनः निर्माण कराया था। घाट का उत्तरी भाग पक्का एवं स्वच्छ है, जहाँ लोग स्नान करते हैं तथा दक्षिणी भाग में शवदाह होता है। घाट पर विष्णु चरण पादुका चबूतरा है जिस पर विष्णु चरण का प्रतीक चि अंकित है, चार दशक पूर्व तक केवल विशिष्ट व्यक्तियों का शवदाह जिलाधिकारी के अनुमति से इस चबूतरे पर किया जाता रहा, वर्तमान में इस चबूतरे पर शवदाह पूर्ण रूप से प्रतिबन्धित है।