बिरहा की उत्पत्ति और उसका विकास

                                                                                                                               -जगनारायण

    पूर्वी उत्तर प्रदेश का लोक गायन ‘बिरहा’ का आज लोक गायकी के क्षेत्र में अपना एक विशिष्ट स्थान है। उत्तरोत्तर विकास की ओर अग्रसर गायकी की यह लोकविधा आज अपने मूल क्षेत्र की सीमाओं से बाहर निकल कर भारत के विभिन्न प्रान्तों में लोकप्रियता हासिल कर दुनिया के अन्य मंचों पर भी अपना जलवा बिखेर रही है।

    लोक गायकी की इस विधा की शुरूआत आज से लगभग 150 वर्ष पूर्व भारतीय कला संस्कृति और धर्म-दर्शन की नगरी काशी में एक अनपढ़ कवि हृदय श्रमिक के द्वारा हुई थी। आज की चर्चित लोक गायकी की इस विधा के आदि गुरु ‘बिहारी यादव’ थे।

    बिरहा की गायकी पूर्वी उत्तर प्रदेश पश्चिमी बिहार की सरहद सहित पूरे देश में जहाँ भी इस क्षेत्र के लोग मजदूरी, नौकरी और काम-काज के लिए समूहों में रह रहे हैं, वहाँ खूब फली-फूली और परवान चढ़ी। आज बिरहा पंजाबी, भांगड़ा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश की ‘रागिनी रसिया’ बुन्देलखण्ड के ‘आधार चैतन्य’, ‘बिरहासहरसा’, काशी अंचल के अहीरों में गाये जाने वाले ‘भगैत गीत’ जैसे लोकछन्दों वाली गायकी की तरह अहीरों, जाटों, गुजरों, खेतीहर मजदूरों, शहर में दूध बेचने वाले दुधियों, लकड़हारों, चरवाहों, इक्का, ठेला वालों का लोकप्रिय हृदय गीत है। पूर्वांचल की यह लोकगायकी मनोरंजन के अलावा थकावट मिटाने के साथ ही एकरसता की ऊब मिटाने का उत्तम साधन है। उत्तरोत्तर विकास की ओर अग्रसर बिरहा दिनों-दिन सुसंस्कृत होकर शास्त्रीय रूप पाती जा रही है। बिरहा गाने वालों में पुरुषों के साथ ही महिलाओं की दिनों-दिन बढ़ती संख्या इसकी लोकप्रियता और प्रसार का स्पष्ट प्रमाण है।

    बिरहा के जनक और आदि गुरु बिहारी का जन्म सन् 1837 ई0 में (वर्तमान गाजीपुर जनपद) औड़िहार के निकट गोपालपुर गाँव में एक कृषक परिवार में हुआ था। इनके माता-पिता का बचपन में ही निधन हो गया था। ये अपने माता-पिता की एक मात्र संतान थे। माता-पिता के देहान्त के बाद गांव में कोई काम न मिलने के कारण आर्थिक तंगी से परेशान होकर ये लगभग चौदह वर्ष की उम्र में बनारस आकर कर्णघण्टा मुहल्ले में स्थित एक छापाखाने में मजदूर के रूप में काम करने लगे। वहीं बुलानाला मुहल्ले में एक मकान में किराये का कमरा लेकर निवास भी करने लगे। इसी प्रेस में पत्तू यादव नामक एक युवक भी काम करते थे, जो उनके दूर के रिश्तेदार थे। ये दोनों लोग प्रतिदिन काम से खाली होने के बाद बनारसी अन्दाज मनोरंजन के उद्देश्य से काशी के चर्चित लक्ष्मी कुण्ड स्थित ‘लक्ष्मी मन्दिर’ में अखाड़ा और तालाब पर नियमित आने-जाने लगे। वहीं उनका सम्पर्क ‘स्वामी शिवानन्द गिरी महाराज’ से हुआ। स्वामी शिवानन्द जी नियमित सायं काल रामायण पर प्रवचन करते थे। इस प्रवचन के समय आस-पास के श्रद्धालु श्रोताओं की अच्छी संख्या उपस्थित होती थी। इससे प्रेरित होकर बिहारी यादव भी प्रतिदिन सबसे पीछे के पंक्ति में बैठकर प्रवचन का शुरू से अन्त तक श्रवण करने लगे। प्रवचन के अन्त में कीर्तन और भजन भी होता था जिसमें बिहारी यादव की सशक्त हिस्सेदारी रहती थी। नियमित होने वाले स्वामी जी के इस प्रवचन कार्यक्रम समस्त भक्त श्रोता स्वतः ही निर्धारित समय पर एकत्र हो जाया करते थे। ऐसे में ही एक दिन अधिकांश श्रोताओं की उपस्थिति के बाद भी स्वामी जी ने समय से प्रवचन शुरू नहीं किया तो श्रोताओं ने स्वामी शिवानन्द जी से प्रवचन में बिलम्ब होने का कारण पूछा, इस पर स्वामी जी ने बताया कि प्रवचन का सच्चा श्रोता आज अभी तक नहीं आया है। उसे आ जाने दो तब तक बिहारी यादव श्रोताओं की पिछली कतार में आकर खड़े हो गये। स्वामी शिवानछ जी महाराज ने बिहारी यादव को अपने पास बुलाकर विलम्ब से आने का कारण पूछा। सच्चे श्रोता की पहिचान कराने के उद्देश्य से स्वामी जी ने समस्त उपस्थित श्रोताओं से पूछा कि कल मैंने किस अध्याय के सि आख्यान पर कथा का समापन किया था। एक भी श्रोता इसे नहीं बता पाया। पुनः यही बात स्वामी जी ने बिहारी यादव से पूछा तो उन्होंने कहा स्वामी जी कल की कथा के अध्याय के आख्यान से सम्बन्धित केवल समापन की बात बताऊँ या पूरे अध्याय के विषय में बताऊँ। स्वामी जी के आदेश पर बिहारी ने स्वामी जी के प्रवचन के एक सप्ताह की पूरी कथा का क्रमवार विवरण प्रस्तुत कर दिया। जिसे सुनकर उपस्थित समस्त श्रोता हतप्रद रह गये। तब स्वामी जी ने कहा कि सच्चा भक्त श्रोता केवल बिहारी ही है। इसीलिए मैं आज इनकी अनुपस्थिति में चाहकर भी प्रवचन आरम्भ नहीं कर पा रहा था।

    रामायण के नियमित काव्यमय श्रवण से बिरहा के इस आदि गुरु के मन में स्थानीय बोली में काव्य रचना के भाव ‘आदि कवि बाल्मिकी’ की तरह हिलोर लेने लगे। इसी क्रम में उन्हेंने एक दिन टेक दो कड़ी की रचना कर कहा- “मम पर रहम करो हरदम, महेश मस्तक गन्ध धरणम्।”

    उन्होंने इसे स्वामी जी को सुनाया-सम्भवतः यहीं पंक्ति बबिरहा के आदि गुरु की प्रथम रचना थी। स्वामी जी ने कहा कि बिहारी तुम लिखना भी जानते हो? तो बिहारी जी ने कहा- मैं तो पूरी तरह से निरक्षर और अनपढ़ हूँ। मैं अपना नाम भी नहीं लिख पाता। जहाँ मैं काम करता हूँ वहाँ मेरे साथ काम करने वाले लड़के ने मेरी इस रचना को लीपीबद्ध किया है। जब बिहारी जी ने अपनी रचना को सुनाया तो स्वामी जी ने कहा इसे गाकर सुनाओं, तो बिहारी जी ने इस रचना को चुटकी बजाते हुए सुन्दर स्वर में स्वामी जी को सुना डाला। इस पर स्वामी जी ने कहा बिहारी तुम्हारे भीतर काव्य रचना की उच्चतम् प्राकृतिक क्षमता हैं तुम प्रयास से एक उच्चस्तरीय कवि बन सकते हो। उन्होंने बिहारी जी को अलग समय में काव्य रचना के दोहा, छन्द, सवैया, चौकड़ा, टेक, उठाना का व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया।

    स्वामी जी के इस प्रेरणाप्रद काव्य प्रशिक्षण के बाद बिहारी जी रामायण वेद-पुराण, इतिहास धर्म-संस्कृति के परम्परागत घटनाओं और काल्पनिक विषयों पर रचना के रूप में चार से पाँच कड़ी के बिरहा का सवाल-जवाब तैयार करने लगे। उन्होंने पहले स्वतः थाली, गगरी आदि बजाकर बिरहा गाना शुरू किया। जिसे उनके साथ रहने वाले पत्तू यादव, शिवचरण मल्लाह, गणेश रम्मन, सरजू, विश्वनाथ, अकलू, महावीर, अलगू आदि तमाम लोग शिष्य के रूप में सीखने लगे और बिरहा गायकी से आनन्द उठाने लगे। इसके अगले चरण में दो प्रतिद्वन्द्वी दल बनकर बिरहा गायकी के माध्यम से आपस में सवाल-जवाब करने की प्रक्रिया शुरू हुई। इसमें श्रोताओं की खासी भीड़ एकत्रित होकर इस बिरहा मुकाबले का आनन्द लेती थी। इसके साथ ही इस गायकी का उत्तरोत्तर विस्तार होने लगा और लोगों में गायकी की इस नवोदित लोक (स्थानीय) विधा के प्रति रुचि बढ़ने लगी। लोग अपने यहाँ पूजा, श्रृंगार, शादी, उत्सव आदि में बिरहा गायन का कार्यक्रम कराने लगे। जिससे यह विधा दिनो-दिन लोकप्रिय होने लग गई।

    आगे चलकर पूर्वांचल की यह विधा बिहारी और भोजपुरी बोलने वालों के बीच मुम्बई, कोलकाता में भी लोकप्रिय हो गई और इसके बड़े-बड़े कार्यक्रम आयोजित होने लगे। इससे लगभग सम्पूर्ण भारत में बिहारी गुरु के दस हजार से भी ज्यादा शिष्यों की जमात खड़ी हो गई।

    बढ़ती शिष्यों की संख्या और गायन-वादन के अनवरत चलने वाले कार्यक्रम से बुलानाला के मकान मालिक ने भीड़-भीड़ के चलते उन्हें अपना मकान खाली करने का कहां इसी दौरान अंग्रेजी हुकुमत भी इन्हें परेशान करने लगी। जिससे सन् 1902 में छोटी गैबी मुहल्ले में बिहारी और उनके शिष्य पत्तू यादव ने एकान्त में सवा-सवा रूपये में एक-एक बिस्वा जमीन खरीद कर आवास बना लिया। इस समय बिहारी ‘बिरहा गुरु’ के रूप में चर्चित हो गये थे। गुरु बिहारी के शिष्यों की जब लम्बी संख्या हो गई तब इनके शिष्यों ने आज से डेढ़ सौ साल पूर्व काशी की पंचकोशी यात्रामार्ग के सलार पुर के ‘कपिल धारा’ स्थित ‘कपिल तीर्थ’ स्थल पर इनका गुरुपूर्णिमा के दिन गुरु पूजा कर गुरु शिष्य परम्परा को व्यवस्थित रूप दिया।

    बिहारी गुरु का विवाह 1857 में सीर करहिया गांव में हुआ था। जिससे उन्हें एकमात्र पुत्र मूसे यादव हुए जो अपने पिता के पद चि। पर नहीं जा सके। बिहारी गुरु की मृत्यु 1937 ई0 के आस-पास छोटी गैबी स्थित उनके भवन पर हुई मानी जाती है।

    गुरु बिहारी की मृत्यु के बाद बिहारी बिरहा अखाड़े की पगड़ी उनके एकमात्र पुत्र मूसे यादव को दी गई। परन्तु बिरहा लेखन एवं गायन में शून्य होने के कारण मूसे यादव अपने पिता के पद् चि।ं पर नहीं चल सके। इसके बाद बिहारी गुरु के प्रथम शिष्य पत्तू यादव को सभी शिष्यों की सलाह से बिरहा अखाड़े की पगड़ी बांधी गई। वर्तमान में बिहारी गुरु के किसी वंशज में उनकी यह विधा नहीं पनप पाई।

    आज बिरहा जिस पायदान पर है वहाँ पारम्परिक गीतों के तर्ज और धुनों को आधार बनाकर बिरहा काव्य तैयार किया जाता है। ‘पूर्वी’, ‘कहरवा’, ‘खेमटा’, ‘सोहर’, ‘पचरा’, ‘जटावर’, ‘जटसार’, ‘तिलक गीत’, ‘बिरहा गीत’, ‘विदाई गीत’, ‘निर्गुण’, ‘छपरहिया’, ‘टेरी’, ‘उठान’, ‘टेक’, ‘गजल’, ‘शेर’, ‘विदेशिया’, ‘पहपट’, ‘आल्हा’, और खड़ी खड़ी और फिल्मी धुनों पर अन्य स्थानीय लोक गीतों का बिरहा में समावेश होता है।

    बिरहा के शुरूआती दौर के कवि ‘जतिरा’, ‘अधर’, ‘हफ्तेजूबान’, ‘शीसा पलट’, ‘कैदबन्द’, ‘सारंगी’, ‘शब्दसोरबा’, ‘डमरू’, ‘छन्द’, ‘कैद बन्द’, ‘चित्रकॉफ’ और ‘अनुप्राश अलंकार’ का प्रयोग करते थे।

    पूरे देश के बिरहिये गुरुपूर्णिमा के अवसर पर काशी नगर से दूर कपिलधारा तीर्थ पर एकत्र होकर आदि गुरु बिहारी की पूजा करते हैं। बिहारी गुरु के गुरुपूजा की यह परम्परा भी काशी की पंचक्रोशी यात्रा के प्रमुख और प्राचीन धार्मिक तीर्थ, कपिल धारा पर आज भी कायम हैं गुरु बिहारी बिरहा की गायकी के समय हाथ में लकड़ी के बने झांझ और करताल का प्रयोग करते थे। साथ में नीचे संगतकार के रूप में घोढ़ियें ऊँची तान में घोढ़ी भरते थे।

    बिहारी गुरु के परणोपरान्त उनके प्रमुख शिष्यों ने अलग-अलग अखाड़ों का गठन कर बिरहा की गायकी और रचनाकर्म को आगे बढ़ाया। उनके प्रमुख शिष्यों के नाम से स्थापित चर्चित अखाड़ों में अखाड़ा ‘गणेश खलिफा’ ‘रम्मन खलिफा’, ‘शिवचरन खलिफा’, ‘सरजू खलिफा’, ‘श्रीनाथ खलिफा’, ‘अकलू खलिफा’, ‘महावीर’ और ‘अलगू खलिफा’ के नाम से खड़े हुए। इन अखाड़ों के चर्चित गायकों में छेदी, पंचम, करिया, गोगा, मोलवी, मुंशी, मिठाई, खटाई, खरपत्तू, लालमन, सहदेव, अक्षयबर, बरसाती, रामाधार, जयमंगल, पतिराम, महावीर, रामलोचन, मेवा सोनकर, मुन्नीलाल, पलकधारी, बेचन सोनकर, रामसेवक सिंह, रामदुलार, रामाधार कहार, रामजतन मास्टर, जगन्नाथ आदि बिरहा कवि उस दौर में चर्चित रहे।

    आज लोकगायकी की यह विधा सारी दुनियाँ में चर्चित है। कई विदेशियों ने इस पर शोध किया है। यह विधा देश के बाहर मारिसस, भेड़ागास्कर और आस-पास के भोजपुरी क्षेत्रों की बोली वाले क्षेत्र में अपनी पैठ बढ़ाकर दिनों-दिन और लोकप्रिय हो रही है। वर्तमान में इसकी गायकी और काव्य रचना का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत होकर उच्च शिक्षित लोगों को आकृष्ट कर रहा है। इससे इस गवई गायकी का महत्व और आकर्षण दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। अनेक उच्च शिक्षित लोग इस गायकी से जुड़ रहे हैं।

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