अठ्ठारहवीं शताब्दी के मध्य में पूना के बाजीराव पेशवा ने घाट एवं यहाँ स्थित विशाल भवन (म0सं0 K 22/24) का निर्माण कराया था। सन् 1864 में भवन को अंग्रेजों ने अपने अधिकार में लेकर इसे नीलाम कर दिया, जिसे ग्वालियर महाराज जियाजी राव शिन्दे ने क्रय कर लिया और उसमें बाला जी (विष्णु) की प्रतिमा को प्रतिष्ठित किया। यह भवन ही वर्तमान में बाला जी मंदिर के नाम से प्रचलित है, इसी मंदिर के नाम पर ही घाट का नामकरण हुआ है। प्रसिद्ध मंगलागौरी मंदिर इस घाट का प्राचीनतम् मंदिर है, बाला जी मंदिर की स्थापना से पूर्व यह मंगलागौरी घाट के नाम से विख्यात था जिसका उल्लेख गीर्वाणपदमंजरी में भी हुआ है। नवरात्रों में मंगलागौरी देवी के दर्शन-पूजन का विशेष महात्म्य है। बाला जी एवं मंगलागौरी मंदिर के अतिरिक्त घाट पर राधेश्वर शिव, गर्भतीश्वर शिव, मंगल विनायक, चर्चिकादेवी, मयूखादित्य (सूर्य आदित्य रूप में) का मंदिर प्रमुख है। घाट के समक्ष गंगा में बिन्दु, मख, मंगल एवं मयूखार्क तीर्थों की स्थिति मानी गई है।
धार्मिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से यह घाट महत्वपूर्ण है, बाला जी मंदिर में आश्विन तथा कार्तिक माह में अनेक धार्मिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है, जिसमें रामचरितमानस का पाठ, धार्मिक प्रवचन का आयोजन एवं कार्तिक पूर्णिमा को सायंकाल सामूहिक रूप से दीप प्रज्ज्वलन मुख्य है। घाट पर मुण्डन संस्कार, विवाह, सामूहिक विवाह, उपनयन, गंगा पुजईया आदि शुभ कार्यों को भी सम्पन्न किया जाता है। वर्तमान में धाट पक्का, स्वच्छ एवं सुदृढ़ है। धार्मिक महत्व के कारण घाट पर दैनिक एवं स्थानीय स्नानार्थियों के साथ ही पर्व विशेष पर स्नान करने वाले स्नानार्थियों का भी आगमन होता है।