बनारस का बुढ़वा मंगल

                                                                                                           चौधरी बदरी नारायण

काशी के पूर्व छोर से लेकर पश्चिम पर्यन्त घाटों पर जो अनुमान से ढाई-तीन कोस के विस्तार में होंगे, काशिराज और नगर प्रतिष्ठित महाजनों से लेकर, मदनपुरा के जुलाहों तथा श्मशान के डोमड़ों तक नौकाएँ निज शक्ति और श्रद्धा के अनुसार सुसज्जित दीख पड़ने लगीं। संख्या भी उनकी और वर्षा की अपेक्षा अधिक है। कोई पटैले पर बाँसों के ठाट ठाटे हैं, तो कोई घटहा पाटे हैं, कोई बजड़े पर झाड़-फानूस की सजावट कर नाच-वाच देखते हैं, तो कोई मोरपंखी सजाए अपना अखाड़ा ला खड़ा किए है, कोई छोटा-मोटा कटर भाड़े कर रंगीन चोब वा तूल लपेटकर गोटे की लहरिया देकर झालरदार चाँदनी तान, चार ठो हाँड़ी जलाकर उजाला किए अपनी सूरत और झलामल कपड़ो की सजावट ही दिखाता घूमता, तो कोई एक पनसूहीं पर सवार नाचवाली नौकाओं की ताक में डोलता फिरता, मानो  मेले में भिक्षा-सी माँग रहा हैं विशेषतः काशी के बड़े नाम और घराने वाले महाजन और रईस प्रायः इसी श्रेणी में रहा करते हैं, क्योंकि गाँठ से रुपया खर्चा जाता नहीं और फिर शौक इतना कि बिना मेला देखा भी नहीं रहा जाता। कोई साल भर तक इसी लालसा में थानेदारों से साहब सलामत किए, मुफ्त में पुलिस की किस्ती पर चढ़े मेले का प्राण-सा निकालते घूमते हैं। कोई दो-चार लैम्प जलाए दस-पाँच कुर्सी बिछाए काली पतलून और जाकिट जमाए गड्डामियरीसूरत बनाए, मुँह में चुरुट सुलगाए, धुआँ कस की समा लाए, गिटपिट-गिटपिट अंगरेजी बोलते, साहिब लोगों का स्वाँग सजाए, अपना ही तमाशा औरों को दिखला रहे हैं। कोई एक लालटेन बीच में रक्खे बिसात बिछाए, शतरंज के मुहरों के कटने से रंज में डूबे रात काटे डालते, तो कोई ताश के पत्ते प्रारब्ध के पन्ने से उलट रहे हैं। कोई गनीमत का मौका हाथ आया देख अचानक अपने यार वफादार को पाकर किसी अकेली किश्ती के कोने में एक एक्के की ज्योति में उस दिलवर के नूरानी मसहफे रुखसार को कुरान शरीफ़ के समान ध्यान लगाए मानों पढ़ रहा है, और उसके हर खतों खाल पर गुलिस्ताँ और वोस्ताँ को वार फेंकता, शेष संसार को निस्सार जान मेले केवल एक निर्जन वन से सादृश्य रखता है। कहीं मिलकर लोढ़ियाँ बजतीं और किसी डोंगी पर बूटी छनती, कहीं गाँजे की दम लगती और तान उड़ती है। कहीं होली से जलते भट्ठे पर छनाछन पूरियाँ निकालते ‘गरमागरम कचौड़ी मसालेदार’ चिल्लाते धुआँ-धक्कड़ मचाते हलवाई लोग अपनी दुकान की नौकाएँ बढ़ाते चले जाते और भूखे परदेशी मेला देखने-वाले शिकारी कुत्ते के समान अपनी नौका दौड़ाए लपक रहे हैं। कहीं बनारसी गुण्डे और अक्खड़ों की बोली ठोलियाँ उड़ती-क्या सिंघा?- ‘अचूका तो राजा’-और कैसन दबल जात हौवः’ कहाँ तोहरे नावै के तौ कट्टर भिड़ौले चलल आवत हँई।’ ‘रंग है झज्झर इतो भाटी भर्राटे के आवाज छैड़ल्य।’ – कहीं कोई धनी गृहस्थ कुबेर और उनकी रक्षा के अर्थ पुलिस के कान्सटेबिल और चौकीदार यम की और अनेक अन्य-अन्य की! श्री गंगाजी में भी नौकाएँ आज अधिक है; क्योंकि बहुतेरी नावें आज ही पटी है; क्यो नहीं, आज तो दंगल (किश्तियों की कुश्ती का मेला) न है, वाह! यह महाराज काशिराज का कच्छा है कि जिससे सात कच्छे एक ही से मिलाकर पटे हैं, और बड़ा भारी देश और शाहमियाना खड़ा है, और भी सब उचित राजसी ठाट-ठटा झुण्ड की झुण्ड रंडियाँ बैठी हैं। यह यहीं की बनी केले के खम्भे के समान मोटी मोमबत्तियाँ हैं, जो बैठकियों पर लगी हैं, पर नृत्य गान कुछ भी नहीं होता है, क्योंकि महाराज जो घुड़दौड़ (एक उत्तम नौका जिसके अग्रभाग पर दो कृत्रिम घोड़े लगे हैं) पर सवाज हो आज मेला देख रहे हैं, और उसी पर गान हो रहा है। इधर-उधर के कई सुसज्जित बजड़े और मोरपंखियों पर महाराज के अन्य प्रधान पुरुष लोग भी साथ-साथ मेला देख रहे हैं। वाह! क्या विचित्र शोभा है। चुने पार्षद वर्ग और परिकरयुक्त आर्य राज वेषधारी नवीन महाराज आज कैसे शोभायमान हो रहे हैं, मानो बुढ़वा मंगल अपना बुढ़वा स्वामी छोड़ नवीन को पाकर नवीन मंगल हो गया है। यह जिस मोरपंखी पर नाच रहा है, उस पर महाराज के ठाकुरजी विराजमान मेला देख रहे हैं। धन्य! क्या हिन्दू राजा की पवित्र श्रद्धा का प्रमाण है। धन्य काशिराज! धन्य!

       अब तो संख्या हो गई, चारों ओर दीपावलियाँ प्रज्ज्वलित हो गईं। अपने लोग भी दशाश्वमेध घाट से घाट घूमते आकर पंचगंगा घाट पर पहुँचे, पैर भी थक रहे, पर यह मन तनिक भी तृप्त न हुआ। कहता है कि स्थल का मेला तो खूब देखा, अब जल का मेला देखने की बेला आई, अतः वही चलो; क्योंकि यहाँ तो अब केवल बँधे तार वाले लोगों ही का काम है। ‘लिए फिरता है मुझको जा बजा दिल। मेरा बेहोश मेरा चुलबुला दिल।’ अस्तु फिर डोंगी पर चढ़ आगे बढ़े। वाह! यह गंगाजी में आधी दूर तक पुल कैसा बँध गया! नही! यह वही श्री मन्महाराज गोस्वामी श्री बालकृष्ण लाल जी कांकरौली अधीश्वर का कच्छा है! आहो! यह कितने कच्छे एक में पटे हैं? कदाचित् बीस होंगे। क्योंकि दोनों ओर इसके दो नृष्यशाला बनी हैं, जिनमें एक तो श्वेत, ठीक श्री काशिराज के तुल्य और दूसरी गुलाबी रंग की एक नवीन ही छटा छहरा रही है, और दोनों के बीच में कुछ नज़रबाग और खुले चबूतरे की बनावट है। यह कितनी मोमबत्तियाँ जल दी गईं कि इतना अधिक प्रकाश हो गया! वाह, इन लाल महताबों का उजाला तो मानो समस्त उजाले को रंगकर लाल कर दिया, और होली का दृश्य आगे आ गया है।

अच्छा चलो, उसी गुलाबी कच्छे पर चलें और वहाँ की भी छवि देखें, परन्तु वहाँ तो इतनी नौकाएँ चारों ओर घेरे हैं कि पहुँचना भी कठिन है। यह किसकी किश्ती है? इसके बीच में क्या कुँअर सच्चितप्रसाद जी हैं? हाँ, इधर ही तो देखते भी है। ‘आइए-आइए’ बस चले आइए! कल भी आप लोग नहीं आए, कहाँ रहे?’ चलो, कुँवर साहिब ही की आज्ञा का प्रथम पालन हो; यह कहते जो हम लोग उनकी नौका पर जा पहुँचे, तो देखते हैं कि कई वेश्याएँ वहाँ पर नृत्य कर रही थीं और उनके रूप-यौवन पर बनारसी लोग लट्टू हुए, उनकी आरसी-सी स्वच्छ सूरत में अपनी बर्बादी और मिट्टी में मिलने की सूरत देख रहे हैं। वाह! यह भाँड़ लोग जो गा रहे हैं, बड़े चतुर हैं। उनका ढोटे की नाच और भाव तो कहना ही क्या, खुदा आबाद रक्खे लखनऊ फिर भी गनीमत है।’ अहा! अब इस ऊँचे बजड़े पर से जो कि कांकरौली वाले महाराज के गुलाबी कच्छे से सटा बँधा है, निकट से कच्छे की शोभा कुछ अपूर्व ही दीख पड़ने लगी हैं।

क्या नगर का कोई ऐसा प्रतिष्ठित और मान्य पुरुष होगा कि जो इस समय यहाँ उपस्थित न हो? नहीं, कदापि नहीं। हाँ, जब अनेक दूर के नगर निवासी आज आकर बनारसी हो रहे हैं, तो भला बनारसी क्यों न आज उपस्थित हों। वास्तव में कैसे-कैसे धनी और मानी लोगों की इस समय यहाँ भीड़ भरी है। बड़े-बड़े बहुमूल्य वस्त्राभूषणधारी पुरुष इधर से उधर ठोकर खा रहे हैं और अनेक लखपतियों को तो कहीं बैठने का भी ठिकाना नहीं लगता है। सचमुच ऐसे समारोह की सभा तो कदाचित बड़े-बड़े महाराजाओं के यहाँ भी न देखने में आती होगी।

इस कामदार नगरी के नीचे कामदार गद्दी मसनदों पर गुलाबी बाग पहने सातों स्वरूप श्री गोस्वामी महाराज लोगों के है। अहा हा! धन्य! क्या शोभा है! बीच में बड़े-बड़े अमूल्य हीरों का सरपेच लगाए और अधिकता से केवल श्वेत हीरे ही के अनेक आभूषणों से भूषित कांकरौलीपति गोस्वामी श्री बालकृष्ण लाल जी महाराज विराज रहे हैं। उनके पास वाले पर उनके ज्येष्ठ भ्राता हमारे लाल बाबा साहिब काशी के श्री गोपाल मन्दिर के टिकैत गोस्वामी श्री शेष जीवनलाल जी महाराज, और शेष ब्रज, बम्बई और कोटे के महाराज लोग सुशोभित हो रहे हैं और दोनों पार्श्व में गुलाबी कमखाब के फर्श पर भट (अर्थात् उनके सम्बन्धी लोग) न्यूनाधिक वैसे ही वस्त्राभूषणधारी विराजमान हैं।

राज भी अब थोड़ी ही है, दो दिन की आँखें अब अपना कहना भी नहीं करतीं, अतः खिसकना ही ठीक हैं। प्रातःकाल होई चुका था, डेरे पर पहुँचते-पहुँचते दिन भी कुछ चढ़ आया। नित्य कृत्य से निवृत्त हो जो सोए, तो संध्या को औरों से जगाए गए। अस्तु फिर उसी पाठ पढ़ने को चलते-चलते आठ और राजघाट पहुँचते नौ बजे, क्योंकि आज यहीं से आरम्भ करने का विचार स्थिर हो चुका था। यहाँ से जो नौका चढ़कर चले, तो आज मेले की कुछ दूसरी ही शोभा दिखाई पड़ने लगी, मानो मेले की दशा भी आज उस तरुणी की युवावस्था की सी है, जिसमें मनोहरता और निकाई अपनी अन्तिम अवस्था पर पहुँचना चाहती है। राजघाट की ओर से बस नौकाएँ अस्सीघाट की ओर चली जा रही है। ऐसा अनुमान होता है कि आज मानो श्री गंगाजी अपनी धारा उलटकर पश्चिम की ओर बहा रही हैं, और प्रवाह के कारण स्वयं सब नौकाएं उधर ही बही जा रही हैं।

मारुत के शीतल झकोरों के साथ हमारी नौका शीघ्रतापूर्वक अब सुसज्जित नौकाओं के बीच से होती हुई अपने निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच गई।

यद्यपि कि उस काल का मनोरम चित्र यही कहता था कि टुक और रुको, देखो, पर कार्य अपनी आतुरता के घोड़े सवार, शीघ्रता से ही इस अनोखे मेले से प्रस्थान करने के लिए प्रेरित कर रहा था।

 

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