पत्र-पत्रिकाए

कविवचन सुधा

भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र ने इस पत्रिका का सम्पादन 5 अगस्त 1867 (संवत् 1924 आश्विन शुक्ल 15) में आरम्भ किया था। काशी में प्रकाशित यह पत्रिका आरम्भ में मासिक थी, बाद में यह पाक्षिक रूप में प्रकाशित होने लगी। 1875 से यह पत्रिका साप्ताहिक पत्रिका के रूप में प्रकाशित होने लगी। इसकी केवल 250 प्रतियाँ मुद्रित होती थी। प्रत्येक अंक में 22 पृष्ठ होते थे। कहने को तो यह विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका थी, परन्तु अपने पहले अंक से ही इसने जो दिशा निर्देश दिया उसके परिणामस्वरूप हिन्दी जगत् में ऐसी पत्रकारिता का प्रचलन हुआ, जो किसी सामाजिक सुधार, जाति या मत विशेष के समर्थन में नहीं चल रही थी, बल्कि उसका उद्देश्य समूचे पाठकों को चाहे वे किसी भी क्षेत्र, धर्म या जाति के हो देश की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक समस्याओं से परिचित कराना था। इसमें विविध विषयक निबन्ध और समाचार प्रकाशित होते थे। इसकी प्रकाशन नीति इन पंक्तियों में स्पष्ट की गयी है-
खल जनन सों सज्जन दुखी मत हों हि हरि पद मति रहै।
अपधर्म छूटैं सत्व निज भारत गहैं कर दुःख बहैं।।
बुध तजहिं मल्सर नारिनर सम होंहि जग आनंद लहैं।
तजि ग्रामकविता सुकविजन की अमृत बानी सब कहैं।।
आरम्भ में इस पत्र को सरकारी सहायता भी प्राप्त होती थी परन्तु भारतेन्दु जी जनता के शोषण तथा उनके उत्पीड़न की व्यथा को अपनी पत्रिका के माध्यम से उद्घाटित करना शुरू कर दिये। उन्होंने ‘लेवी प्राणलेवी’ तथा ‘मर्सिया’ नामक लेख लिखकर किसानों और मजदूरों की शोषण पर करारा प्रहार किया। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप तत्कालीन लेफ्टिनेन्ट गवर्नर विलियम म्योर के आदेश से सरकार द्वारा खरीदी जा रही इस पत्रिका की खरीद बन्द कर दी गयी। बाद में सन् 1885 में प्रकाशन बन्द हो गया। भारतेन्दु बाबू स्वदेशी के समर्थन और प्रचारक थे। उनके द्वारा 23 मार्च 1874 की कविवचन सुधा में स्वदेशी के व्यवहार हेतु जो प्रतिज्ञा पत्र प्रकाशित किया गया, उसका अंश द्रष्टव्य है-
‘‘हम लोग  सर्वान्तर्थामी, सब स्थल में वर्तमान स्वद्रष्टा और नित्य परमेश्वर को साक्षी देकर यह नियम मानते हैं और लिखते हैं कि हम लोग आज के दिन से कोई विलायती कपड़ा नहीं पहिनेंगे और जो कपड़ा पहिले से मोल ले चुके हैं और आज की मिती तक हमारे पास है। उनको तो उनके जीर्ण हो जाने तक काम में लावेंगे पर नवीन मोल नहीं पहिरेंगे, हिन्दुस्तान ही का बना कपड़ा पहिरेंगे।’’ 
(डॉ0 राम विलास शर्मा, भारतेन्दु युग पृ0-33) 
कविवचन सुधा हिंदी साहित्य और हिन्दी पत्रकारिता के लिए अपने नाम को सार्थक करती हुई साक्षात् अमृतवाणी सिद्ध हुई। इसके माध्यम से हिंदी गद्य-पद्य दोनों का ही विकास हुआ और जो बातें उस समय हिन्दी जानने वाले को ज्ञात भी नहीं थी वे ज्ञात हुई। साथ ही भारतेन्दु ने इस पत्रिका के माध्यम से ऐसे लेखक मंडल और पत्रकार मंडल का निर्माण किया, जिससे विभिन्न हिन्दी भाषी प्रदेशों में हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ निकालने तथा उनमें लिखने की इच्छा लोगों में जाग्रत की।
 
  
 

मर्यादा

पण्डित मदन मोहन मालवीय ने मर्यादा का प्रकाशन सन् 1910 ई0 में अय्यूवया कार्यालय प्रयाग से शुरू किया था। जो एक मासिक पत्रिका थी। इसके सम्पादक पण्डित कृष्णकांत मालवीय थे जो बाद में केन्द्रीय विधान सभा के सदस्य बने। 10 वर्ष के पश्चात सन् 1921 में इसका प्रकाशन काशी के ज्ञान मंडल को सौंप दिया गया। इसका संचालन बाबू शिव प्रसाद गुप्त ने किया तथा श्री सम्पूर्णानंद इसके सम्पादक बने जब असहयोग आन्दोलन में सम्पूर्णानंद जेल में थे तो श्री धनपतराय (प्रेमचन्द) ने भी इसके कई अंको का संपादन किया था। सन् 1923 में इसका प्रकाशन बन्द हो गया। परंतु इसने अल्पकाल में अपने विद्वŸाापूर्ण लेखों और पैनी राजनीतिक दृष्टि के कारण इस पत्रिका ने हिंदी जगत में अपना स्थान बना लिया था। श्री बनारसीदास चतुर्वेदी ने लिखा है कि ‘जिस समय वे छात्र थे उस समय ‘सरस्वती’ के बाद मर्यादा ही सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका मानी जाती थी। जब उनका लेख ‘मर्यादा’ में छप गया तो उसकी बड़ी प्रशंसा हुई। तत्कालीन हिन्दी पत्रकारिता में ‘मर्यादा’ का योगदान महत्वपूर्ण था। 
‘मर्यादा’ का मुख्य उद्देश्य यद्यपि हिन्दी साहित्य का उन्नयन करना था तथापि राष्ट्रीय विचारधारा का प्रबल समर्थक होने के कारण इसका स्वर प्रायः सरकार विरोधी रहा। इसके राजनीतिक स्वरूप का प्रमाण रौलट बिल के सम्बन्ध में प्रकाशित इसकी सम्पादकीय टिप्पणी में देखा जा सकता है- ‘‘अनेक में एक का युम प्रतिप्रादित करने को रौलट बिलों का जन्म हुआ है। भारतवासियों को कमर कसकर आन्दोलन के लिए खड़ा हो जाना चाहिए। शहर-शहर में ग्राम-ग्राम में सभाएँ होनी चाहिए, मानवीय स्वत्वों की पुकार झ्ाोपड़ी से उठनी चाहिए। हमारी जय होगी, विजय होगी और हमारे सामने संसार सिर झ्ाुकाएगा।’’ (‘मर्यादा’ जनवरी 1919, भाग-17, सं01, पृ0-7) 
‘मर्यादा’ में प्रकाशित अधिसंख्य रचनाओं में राजनीति का यही मुख्य स्वर दृष्टिगोचर होता है। इसमें महात्मा गाँधी, लाला लाजपत राय, सरोजनी नायडू, यदुनाथ सरकार, एनी बेसेन्ट, राजर्षि पुरुषोŸामदास टण्डन आदि प्रमुख राजनीतिज्ञों के राजनीतिक लेख प्रकाशित होते रहते थे। 
 

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top