सन् 1580 में घाट का पक्का निर्माण रघुनाथ टण्डन ने कराया था, ऐसी मान्यता है कि इस घाट पर गंगा में अदृश्य रूप से यमुना, सरस्वती, किरणा एवं धूतपापा नदियों का संगम होता है, अतः इन पाँचों नदियों का संगमस्थल होने के कारण इसे पंचगंगा घाट के नाम से जाना जाता है। प्राचीन समय में घाट का नाम बिन्दुमाधव घाट था एवं यहाँ बिन्दुमाधव (विष्णु) का मंदिर स्थापित था। मान्यताओं के अनुसार बिन्दुमाधव मंदिर का निर्माण आमेर (राजस्थान) के राजा मान सिंह ने सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में कराया था, जिसे सत्रहवीं शताब्दी में औरंगजेब द्वारा नष्ट कर इसे आलमगीर मस्जिद का रूप दे दिया गया, इसके पश्चात ही घाट का नाम परिवर्तित होकर पंचगंगा हो गया। अठ्ठारहवीं शताब्दी के मध्य में औध (सतारा) महाराष्ट्र महाराजा के पंथ प्रतिनिधि भावन राव ने वर्तमान बिन्दुमाधव मंदिर का निर्माण कराया था। काशी में स्थित सप्तपुरियों के अन्तर्गत इस घाट को कांचीपुरी क्षेत्र माना गया है तथा बिन्दुमाधव मंदिर की तुलना पुरी (उड़ीसा) के जगन्नाथ मंदिर से की गई है। काशीखण्ड के अनुसार शरद ऋतु एवं कार्तिक माह में इस घाट पर स्नान का विशेष महात्म्य है, प्रयाग (इलाहाबाद) में सम्पूर्ण माघ माह के स्नान का जो पुण्य प्राप्त होता है वह पंचगंगा घाट पर मात्र एक दिन के स्नान से प्राप्त होता है। काशीखण्ड एवं काशीरहस्य के अनुसार घाट के सम्मुख गंगा में पंचतीर्थ की स्थिती मानी गई है। वर्तमान में घाट पर अनेक मठ एवं मंदिर है, मठों में रामानन्द (श्री मठ संस्थान), श्री संस्थान गोकर्ण पर्तकाली जिवोत्तम, सत्यभामा एवं तैलंगस्वामी मठ मुख्य है तथा मंदिरों में बिन्दुमाधव के अतिरिक्त बिन्दु विनायक, राम मंदिर (कंगन वाली हवेली) राम मंदिर (गोकर्णमठ), रामानन्द मंदिर, धूतपापेश्वर (शिव), रेवेन्तेश्वर (शिव) मंदिर, एवं आलमगीर मस्जिद प्रमुख है। असि से आदिकेशव तक घाटों के मध्य गंगाघाट पर स्थित एक मात्र मस्जिद आलमगीर मस्जिद है जो कलात्मक दृष्टि से भी विशिष्ट है। 14वीं-15 वीं शताब्दी में वैष्णव संत रामानन्द रामानन्दमठ में निवास करते थे और जीवन पर्यन्त इसी घाट पर रामभक्ति का प्रसार-प्रचार एवं कबीर-रैदास और विचारकों का मार्ग दर्शन किया। उन्नीसवीं शताब्दी में घाट पर स्थित तैलंग स्वामी मठ में महान संत तैलंगस्वामी निवास करते थे, इन्होंने मठ में एक विशाल शिवलिंग (भार लगभग पचास मन) स्थापित किया। जिसके बारे में कहा जाता है कि तैलंगस्वामी ने इसे गंगा से निकाल कर यहां स्थापित किया था। रामानन्द मठ के समीप ही अहिल्याबाई होल्कर के द्वारा बनवाया गया दीप हजारा स्तम्भ है जिसमें कार्तिक पुर्णिमा को दीप प्रज्जवलित किया जाता है, इन दीपकों की ज्योति काशी के सभी घाटों पर फैल गई, वर्तमान में सार्वजनिक रूप से अपने श्रद्धा-सामर्थ्य के अनुसार लोग दीप जलाकर काशी के घाटों को प्रकाशमान करते हैं, जिसे देवदीपावली पर्व के रूप में प्रत्येक वर्ष मनाया जाता है। यह मधुर मनोहारी दृश्य अद्भुत होती है मानों काशी नगरी तारा मण्डल को आईना दिखा रहा हो, इस मधुकर दृश्य का आनन्द लेने के लिये देश-विदेश से पर्यटकों का आगमन होता है।
काशी के पाँच प्राचीन तथा वर्तमान में सर्वाधिक जीवन्त घाटों में पंचगंगा घाट भी समान स्थान रखता है। यह एकमात्र ऐसा घाट है जिसके उपरी भाग की सीढ़ियाँ प्राचीन समय से वर्तमान तक सुरक्षित हैं। घाट पर कार्तिक शुल्क एकादशी से पूर्णिमा तक पंचगंगा स्नान का मेला लगता है, इस अवसर पर स्नान के पश्चात् लोग मिट्टी से निर्मित भीष्म प्रतिमा का पूजन करते हैं। कार्तिक माह में गंगातट पर लम्बे-लम्बे बाँस गाड़कर उसमें दीप लटकाते हैं, असंख्य टिमटिमाती आकाशदीपों की शोभा अलौकिक होती है। घाट एवं समीपवर्ती क्षेत्रों में स्थित मंदिरों में धार्मिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता रहता है। काशी की द्वि, त्री, एवं चतुर्थ तीर्थी यात्रा करने वाले यात्री घाट पर स्नान-पूजन करने के पश्चात् ही आगे की यात्रा करते है।
वर्तमान में घाट पक्का, स्वच्छ एवं सुदृढ़ है, धार्मिक महत्व के कारण दैनिक एवं पर्व विशेष पर स्नान करने वाले स्नानार्थियों का आगमन प्रचुर मात्रा में इस घाट पर होता है। घाट के समीपवर्ती क्षेत्रों में महाराष्ट्र, आन्ध्र, गुजरात एवं राजस्थान के मूल निवासियों की संख्या अधिक है। सन् 1965 में राज्य सरकार के द्वारा घाट के निचले भाग का पुनः निर्माण कराया गया था।