इस घाट का प्रथम उल्लेख गीवार्णपदमंजरी (सत्रहवीं शताब्दी) में हुआ है। सन् 1740 में पेशवाओं के सहयोग से नारायण दीक्षित ने इस घाट का पक्का निर्माण कराया था। घाट तट पर ब्रह्मचारिणी दुर्गा मंदिर (मकान सं0 K 22/17) स्थापित होने के कारण ही इसका नाम दुर्गा घाट पड़ा, चैत्र एवं अश्विन माह के नवरात्र द्वितीया को घाट पर स्नान करने के बाद ब्रह्माचारिणी दुर्गा के दर्शन करने का विशेष महात्म्य है। इसके अतिरिक्त घाट पर खर्वनृसिंह मंदिर भी स्थापित है, घाट के सम्मुख गंगा में खर्वनृसिंह तीर्थ की स्थिति मानी गई है। गंगातट पर सीढ़ियों का निर्माण शास्त्रीय विधि से की गई है, गंगातट पर नौ-नौ सीढ़ियों के बाद चौकी का निर्माण किया गया है, नौ सीढ़ियां दुर्गा के नौ स्वरूपों की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति मानी जा सकती हैं। घाट पर धार्मिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन प्रायः होता रहता है। स्थानीय एवं दैनिक स्नानार्थियों के अतिरिक्त धार्मिक महत्व होने के कारण तीर्थयात्री स्नानार्थियों की भी संख्या इस घाट पर अधिक होती है। घाट के समीपवर्ती क्षेत्रों में महाराष्ट्रीयन ब्राह्मणों की संख्या अधिक है, जिनमें कुछ विद्वान गुरूकुल पद्धति के द्वारा वैदिक ज्ञान प्रदान करते हैं। सन् 1958 में राज्य सरकार के द्वारा घाट का पुनः निर्माण कराया गया था।