यह ऐसा गंगातट है जहाँ शिव तट पर न होकर स्वयं गंगा में समाये हुये हैं, ऐसी मान्यता है कि इस गंगातट के समक्ष गंगा में शिव शिवलिंग रूप में शयन करते हैं। गंगा में शिव का निवास होने के कारण ही इसे जलशायी घाट या जलासेन घाट कहते हैं। गीर्वाणपदमंजरी के अनुसार इसका पूर्व नाम मोक्षद्वारेश्वर घाट था, जो बाद में जलशायी घाट के नाम से परिवर्तित हो गया। काशी में ऐसी भी मान्यता है कि मृतक की अस्थियां जलशायी शिवलिंग को अर्पित करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में राजा बलदेवदास बिड़ला ने घाट का पक्का निर्माण कराया एवं एक धर्मशाला भी बनवाया। मणिकर्णिका घाट (श्मशान) से संलग्न होने के कारण इस घाट पर भी शवदाह किया जाता है। यह घाट कब से श्मशान घाट बना, इस पर अनेक मत है। धर्मशाला में शवदाह के लिये आये बाहरी व्यक्ति निवास करते हैं। घाट पर स्नान कार्य नहीं होता तथा तट पर मिट्टी का ढेर है, जहाँ शवदाह के लिये नाव से लायी गयी लकड़ियाँ उतरती हैं।