जंगे-आजादी में काशी की कला का योगदान

                                                                                                                          – मधु ज्योत्सना

    उपनिवेशवाद को पोषक पश्चिम वालों का औपनिवेशिक देश की लम्बी गुलामी के लिए उसकी कला, संस्कृति और इतिहास पर हमला एक मुख्य औजार है, दुनिया के जिस भाग में तिजारत और फौजी ताकत के बल बूते पश्चिम वालों ने अपना उपनिवेश कायम किया। वहां के लोगों को उनकी कला, संस्कृति और इतिहास से बड़ी बारीकी से बेदखल भी किया। उनका यह काम एक सोची समझी योजना के तहत ही हुआ। क्योंकि वे इस बात को अच्छे से जानते हैं, कि कला संस्कृति और इतिहास किसी समाज की नींव है और उसमें उसके स्वाभिमान की मूल शक्ति निहित होती है। वास्तव में स्वाभिमान रहित कोई भी समाज शक्तिविहीन और मृतप्राय सा हो जाता है। अतः किसी समाज को लम्बे समय तक राजनैतिक और मृतप्राय सा हो जाता है। अतः किसी समाज को लम्बे समय तक राजनैतिक और दिमागी रूप से गुलाम बनाये रखने के लिये उसकी सामाजिक, सांस्कृतिक और कलात्मक चेतना को कुन्द बनाकर उसे निष्क्रिय बनाने का सबसे सशक्त और आजमाया हुआ औजार है। हाल के दिनों में इराक युद्ध के दौरान अमेरिका ने इसी रास्ते पर चलते हुये इराकी संग्रहालयों से विश्व की प्राचीन बेबीलोनी सभ्यता की कला एवं पूरी सामग्रियों को रटकर इराकियों को उनके कला संस्कृति, स्वाभिमान से उत्पन्न होने वाली ऊर्जा से काटने का ही रास्ता अख्तियार किया है।

भारतीय कला संस्कृति पर गोरों का हमला – सन् 1857 की ‘जंगे आजादी’ के बाद अंग्रेज यह अच्छी तरह से समझ गये थे कि अब फौजी, तिजारती और फरेबी रास्ते से हिन्दुस्तान के लोगों को लम्बे समय तक गुलाम बनाये रखना मुमकिन नहीं है। इस बात को अच्छी तरह समझते हुये अंग्रेज अपनी सोची समझी कुटिल चाल के तहत बड़ी बारीकी से वे हिन्दुस्तानियो को उनकी कला, संस्कृति, इतिहास और परम्परा से काटने में लग गये। अपनी कुटिल चालों से हिन्दुस्तान की लम्बे समय तक गुलाम रखने की चाहत में अंग्रेज के इसी चाल का सहारा लेकर काम करने लग गये। उन्होंने भारतीय कला, संस्कृति और परम्राओं पर बड़ी बारीकी से हमला करते हुये उसे महत्त्वहीन और अनुपयोगी प्रमाणित करना शुरू कर दिया।

राष्ट्रप्रेम कलाकारों की पहल – अंग्रेजों की इस कुटिल चाल को राष्ट्रप्रेमी भारतीय कलाकारों ने अच्छी तरह भांप लिया और वे उसके प्रतिकार में जोर शोर से लग गये। भारतीय कला के संरक्षण, विकास और उत्थान के इस काम की शुरूआत बंगाल से हुई, जिसके मुख्य नायक थे, अवनिन्द नाथ ठाकुर और उनके सहयोगी शिल्पाचार्य नन्दलाल बोस, अमित कुमार हल्दार, शैलेन्द्र डे, क्षितिन्द्रनाथ मजुमदार जैसे कलाकार एवं उनके अन्य सहयोगी। इस क्रम में पश्चिम भारत के आचार्य रविशंकर रावत जगन्नाथ मुरलीधर अहिवासी, कलकत्ता स्कूल ऑफ आर्ट के प्राचार्य ई0वी0 हैवेल जैसे कलाकार भी शामिल थे। इन सभी कलाकारों ने मिलकर भारत के कला ‘पुनर्जागरण’ आन्दोलन चलाकर स्वदेशी कला के द्वारा आजादी का अलख जगाया।

भारतीय कला पुनर्जागरण आन्दोलन में काशी की भागीदारी – अवनीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा आजादी के परिपेक्ष्य में शुरू कला पुनर्जागरण के इस भारतीय आन्दोलन में काशी की भी काशी की भी अपनी विशेष भूमिका रही है, जिसके नायक थे , काशी के ‘कला सपूत राय कृष्णदास। रायकृष्णदास से ठाकुर अवनिन्द्रनाथ के बड़े आत्मीय सम्बन्ध थे। अवनिन्द्रनाथ के ‘राष्ट्रीय कला जागृति आन्दोलन से राय कृष्ण दास अपने को अलग नहीं रख सके बल्कि उसमें तन-मन से सक्रिय हो गये। राय साहब अपनी इस सक्रियता को साकार बनाने के लिये काशी के पारम्परिक कलाकार उस्ताद राम प्रसाद और शारदा प्रसाद को साथ लेकर काशी में पारम्परिक भारतीय मूल की विषय वस्तु पर आधारित चित्रों की रचना से पारम्परिक भारतीय कला की समृद्धि की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया।

    1907 ई0 में जब मुगल शैली के काशी के सशक्त चित्रकार रामप्रसाद रायकृष्णदास जी के सम्पर्क में आये उस समय उनके पास काशी में प्रचलित उत्तर मुगल शैली की एक समृद्ध कला परम्परा थी। यद्यपि उस समय काशी में वे अपनी कला विधा के सर्वोच्च ऊंचाई के धारक थे। लेकिन इन्हीं विशेषताओं ने उन्हें उनकी परम्परागत कला से बाहर आकर मुक्ताकाश में उठकर दुनिया भर के कला क्षेत्र में हो रहे बदलावों के प्रति उदार और जिज्ञासु बनने से रोक रखा था। सम्भवतः इस स्थिति के लिये उनकी तालीम, पारिवारिक पृष्ठभूमि और कला के प्रति व्यापक सोच की कमी ही जिम्मेदार रही।

    कला पारखी रायकृष्णदास जी ने इस स्थिति को अच्छी तरह समझा और उस्ताद रामप्रसाद को लेकर अपने सीमित उपलब्ध साधनों में ही कला की इस स्थानीय शैली के संरक्षण और विकास का मार्ग प्रशस्त किया। यद्यपि यह कार्य बेहद चुनौतीपूर्ण था, लेकिन राय साहब ने अपने संघर्ष और धैर्य के बल पर उस्ताद राम प्रसाद के माध्यम से काशी मूल की इस भारतीय कला को पुनर्जागरण का साधन बनाकर कुटिल अंग्रेजी चालों का काशी में मजबूती से मुकाबला करते हुये, आज़ादी की लड़ाई को अपना महत्त्वपूर्ण कलात्मक योगदान प्रदान किया।

    इस दिशा में रायकृष्ण दास का काशी में स्थानीय (भारतीय) कला पुनरूद्धार आन्दोलन के द्वारा आजादी की लड़ाई का इस दृष्टि से भी विशेष महत्व है कि कला के माध्यम से आज़ादी की लड़ाई में तत्पर भारतीय कला के पुनरूद्धार आन्दोलन की जन्मभूमि से दूर रहकर भी काशी को अपना कर्म क्षेत्र बनाकर इस आन्दोलन को विस्तार दिया। उनके आन्दोलन के उत्कृष्ठ प्रमाण हैं, उनके निर्देशन में उस्ताद रामप्रसाद जैसे घरानेदार पारम्परिक कलाकार ने राधा और उनकी सखियों के कमल सरोवर में स्नान के दृश्य को श्री कृष्ण छुपकर देखने की कथापरक दृश्य अंकित किया। इसके अलावा रायकृष्णदास जी ने अपने निर्देशन में उस्ताद रामप्रसाद से मुगलशैली की अनेक प्रतिकृतियां भी बनवाई, जिसमें ‘माता मरियम और शिशु ईसा’ नामक रचनायें विशेष चर्चित हुई है। रायकृष्णदास ने भारतीय कला के विकास के रूप में स्थानीय कला को और विस्तृत रूप देने के लिये उस्ताद रामप्रसाद के पुत्र शारदा प्रसाद को अपने सहयोगी और शिष्य के रूप में लिया। उन्होंने उस्ताद रामप्रसाद के द्वारा काशी की इस कला के आगे विकास के लिये शागिर्दों के न तैयार किये जोन पर स्वयं आगे आकर उस्ताद शारदा प्रसाद को अपनी विलक्षण कलात्मक क्षमता से अर्जित ज्ञान से कला की इस स्थानीय विधा से लैस किया। वास्तव में उस्ताद रामप्रसाद की उदासीनता के चलते एक ऐसा समय आ गया, जब काशी में ‘सिक्खी ग्वाल’ के द्वारा प्रारम्भ की गई, उत्तर मुगल कालीन चित्र कला शैली की शिक्षा किसी को न दिये जाने के कारण काशी की इस विधा के लुप्त हो जाने का खतरा पैदा होने लग गया था। ऐसे कठिन समय में रायकृष्णदास जी ने अपनी सूझ-बूझ और विलक्षण क्षमता के बल पर उस्ताद शारदा प्रसाद को अपनी शागिर्दी में काशी की इस स्थानीय कला की तालीम प्रदान किया और इसे जिन्दा बचाकर और आगे बढ़ाया। वास्तव में रायकृष्णदास ने अपने कला आन्दोलन के द्वारा उस्ताद शारदा प्रसाद को सहयोगी बनाकर काशी की इस कला शैली को उस्ताद राम प्रसाद की सीमाओं से और आगे ले जाने का काम किया। इस प्रकार रायकृष्णदास की कलात्मक सोच के आधार पर भारतीय मूल की स्थानीय कलासृजन के रूप में बनी इन कलाकृतियों को निम्न भागों में बांटा जा सकता है।

(1)  विस्मृत होते मुगलशैली के चित्रों का निर्माण।

(2)  देश में अनुपलब्ध विशेष चित्रों की अनुकृति रचना।

(3)  पहाड़ी शैली के चित्रों का संरक्षण।

(4)  भारतीय महापुरूषों के चित्र निर्माण।

(5)  दुर्लभ चित्रों की अनुकृति और उनका मरम्मती कार्य। रायकृष्णदास के उपरोक्त     कलात्मक कार्यों पर व्यापक दृष्टिपात करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उन्होंने काशी में रहकर भारतीय कला के पुनर्जागरण के क्षेत्र में स्थानीय कला     के माध्यम से व्यापक कार्य करते हुये कला को औज़ार बनाकर आज़ादी की     लड़ाई में अवनिन्द्रनाथ ठाकुर की अगुआई में शुरू कला आन्दोलन में महत्वपूर्ण     भूमिका निभाई।

 

 

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