सोलहवीं शताब्दी में बंगाल के राजा प्रतापादित्य ने इस घाट का निर्माण कराया था, जर्जर हो जाने के कारण अठ्ठारवीं शताब्दी में बंगाल के राजा दिग्पतिया ने इसका पुनः पक्का निर्माण करवाया था। घाट तट पर चौसट्टी देवी मंदिर स्थापित है जिसके कारण घाट का चौसट्टी घाट नाम पड़ा। चौसट्टी देवी मंदिर के पहले राणामहल में चौसठयोगिनी मंदिर था, खजुराहों एवं जबलपुर के चौसठयोगिनी मंदिर के स्वरूप में इसका निर्माण हुआ था, कालान्तर में मंदिर के क्षतिग्रस्त होने के कारण नये मंदिर का निर्माण हुआ। घाट का प्रथम उल्लेख गीर्वाणपदमंजरी में हुआ है। वर्तमान में चौसट्टी देवी मंदिर (D 22/17) में स्थापित है। मंदिर स्थापत्य शैली से सामान्य होते हुये भी धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, मंदिर में केवल महिषासुरमर्दिनी की मूर्ति प्रतिष्ठित है जिसके दर्शन-पूजन से चौसठयोगिनीयों के दर्शक-पूजन के समान पुण्य प्राप्त होता है। काशीखण्ड के अनुसार अश्विन नवरात्र में इनकी आराधना से सभी मनोकामनायें पूर्ण होती हैं, चैत्र माह के कृष्ण चतुर्दशी को इनके दर्शन का महात्म्य है। काशी के वासी फाल्गुन माह के शुक्ल एकादशी (रंगभरी एकादशी) को देवी को अबीर-गुलाल अर्पित करने के पश्चात ही होली का उत्सव आरम्भ करते हैं। घाट तट पर एक काली मंदिर एवं कई देवकुलिकायें (शिव, गणेश, कार्तिकेय) भी हैं। घाट के ऊपरी तट पर पीपल वृक्ष के समीप राजा प्रतापादित्य का स्मारक है, यह स्मारक बंगाली लोगों के लिये विशेष पूजनीय है, बंगाली समुदाय पुत्र का मुण्डन संस्कार घाट पर इसी स्मारक के सम्मुख करते हैं। घाट पक्का एवं स्वच्छ है एवं धार्मिक एवं दैनिक स्नानार्थी यहां स्नान करते हैं। फाल्गुन शुक्ल एकादशी को घाट पर स्नान करने के पश्चात ही लोग चौसट्टी देवी का दर्शन-पूजन करते हैं। सन् 1965 में राज्य सरकार ने घाट का पुनः निर्माण करवाया था।