वाराणसी यानी मंदिरों का शहर। विश्व के इस सबसे पुराने शहर की खासियत यह रही है कि यहां कदम-कदम पर मंदिर मिल जायेंगे। इन मंदिरों से जुड़ा हुआ है बेहतरीन इतिहास और लोगों की असीम आस्था। बात जब काशी की होती है तो सबसे पहले शिवमंदिर ही चर्चा में आते हैं। लेकिन यहां का गोपाल मंदिर भी अनुपम एंव अद्वितीय है। बनारस के हृदय अर्थात पक्के मोहाल में यह भव्य मंदिर स्थित है। इस मंदिर की खास बात यह है कि यहां शुद्धता का विशेष रूप से ध्यान दिया जाता है। आलम यह है कि गोपाल जी को लगने वाला भोग भी मंदिर परिसर में ही तैयार किया जाता है जिसके लिए मंदिर में ही गोशाला है। साथ ही जिस वस्त्र को पहन कर एक बार भगवान की सेवा हो जाती है दोबारा उस वस्त्र को पहनकर सेवा नहीं की जाती। भगवान की मूर्ति को स्पर्श करने का अधिकार केवल दो व्यक्तियों को ही है। वही लोग भगवान का श्रृंगार एवं आरती करते हैं। इस मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण दो रूपों में स्थापित हैं। एक रूप में गोपाल जी एवं दूसरे में मुकुन्द लाल जी की मनमोहक मूर्ति मंदिर में स्थापित है। कहा जाता है कि गोपाल जी एवं राधिका की जो मूर्ति मंदिर में स्थापित है उसकी सेवा बहुत पहले उदयपुर के राणावंश की लाढबाई नाम की महिला करती थी। उस महिला से यह प्रतिमा श्रीमद्वल्लभाचार्य के चतुर्थ पौत्र गोस्वामी श्री गोकुलनाथ ने प्राप्त कर सेवा शुरू की और इनके वंशज आज भी सेवा में लगे हुए हैं। गोपाल जी की अलौकिक मूर्ति को काशी गोलोकवासी गोस्वामी जीवनलाल जी महराज लाये और 1787 ई0 में स्थापना की। जबकि वर्तमान में जो मंदिर का स्वरूप है उसका निर्माण 1834 ई0 में गोस्वामी जीवन ने ही कराया था। इसी वजह से इस मंदिर को जीवनलाल जी की हवेली के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर के बगल में ही मुकुन्द लाल जी का भी मंदिर है जिसका निर्माण 1898 में किया गया। इस मंदिर में मुकुन्द लाल की बालरूप की मनोहारी प्रतिमा स्थापित है। पक्के मोहाल जैसे अति सकरे क्षेत्र में यह विशाल एवं भव्य मंदिर बेहद खूबसूरत लगता है। मंदिर के ठीक पीछे ही इसका सुन्दर एवं हरा-भरा उद्यान है। जिसके एक कोने पर बैठकर गोस्वामी तुलसीदास जी ने विनयपत्रिका की रचना की थी। इस उद्यान की महत्ता इसलिए भी बढ़ जाती है कि यहां महात्मा नंददास ने साधना किया था। प्रत्येक वर्ष होली से पहले इस उद्यान में गोपाल जी का होलीउत्सव मनाया जाता है। इस दौरान उद्यान को बेहद आकर्षक ढंग से सजाकर फूल एवं गुलाल के साथ होली खेली जाती है। साथ ही भजन-कीर्तन एवं होली गीत गाये जाते ह़ैं। मंदिर परिसर में प्रचीन सात कुंए भी हैं जिसे पहले सप्तकुण्डी कहा जाता था। इस मंदिर में दर्शन का समय बेहद छोटा एवं सीमित है। प्रातःकाल के दर्शन में मंगला, श्रृंगार, पालना एवं राजभोग का दर्शन होता है। वहीं, शाम को उत्थापन, भोग, आरती एवं शयन आरती के दौरान मंदिर का पट खुलता है। पट खुलने के लगभग 15 मिनट के भीतर ही उसे बंद भी कर दिया जाता है। इस मंदिर में मुरलीधर पुस्तकालय एवं वाचनालय भी है जहां बैठकर विद्वतजन अध्ययन करते हैं। मंदिर के मुख्य महंत श्री श्याम मनोहर जी हैं। मंदिर में कृष्ण जन्माष्टमी धूमधाम से मनायी जाती है साथ ही भगवान का अन्नकूट एवं श्रृंगार होता है। कैंट स्टेशन से करीब पाँच् किलोमीटर दूर यह मंदिर चौखम्भा क्षेत्र में स्थित है। चौक थाने के सामने ठठेरी बाजार से होते हुए भारतेन्दु भवन के आगे जाने पर यह मंदिर स्थित है।