उन्नीसवीं शताब्दी में घाट के दक्षिणी भाग का निर्माण नेपाल नरेश राणा शमशेर बहादुर ने तथा उत्तरी भाग का निर्माण ग्वालियर राजवंश के दीवान मालवजी नरसिंह राव शितोले की पत्नी बालाबाई शितोले ने कराया था। ऐसी मान्यता है कि घाट पर स्नान करने से गौ-हत्या के पाप से मुक्ति मिलती है, इसी कारण घाट का नाम गाय घाट पड़ा। जबकि स्थानीय लोगों का मानना है कि प्राचीन समय में समीपवर्ती क्षेत्र के लोग गायों को पानी पिलाने तथा स्नान कराने इसी घाट पर आते थे, संभवतः इस कारण इसका नामकरण हुआ। सवाई मानसिंह द्वितीय संग्रहालय से प्राप्त घाट सम्बन्धित छायाचित्रों से भी इसकी प्रामाणिकता सिद्ध होती है। लिंगपुराण एवं काशीखण्ड के अनुसार घाट के सम्मुख गोप्रेक्ष तीर्थ की स्थिति मानी गई है, तीर्थ में स्नान के पश्चात मुखनिर्मालिका गौरी के दर्शन-पूजन का विशेष महात्म्य है। मुख निर्मालिका गौरी को काशी के नवगौरियों में स्थान प्राप्त है। मुख निर्मालिका गौरी के अतिरिक्त हनुमान, शीतला, लक्ष्मीनारायण, शिव मंदिर (डालमिया भवन में) घाट क्षेत्र में स्थापित है। घाट के ऊपर दक्षिणी भाग में नेपाल नरेश द्वारा निर्मित विशाल महल को सन् 1940 में उद्योगपति डालमिया ने क्रय कर लिया, इस महल में डालमिया की माँ काशी लाभ के लिये रहती थी, यह महल वर्तमान में डालमिया भवन के नाम से जाना जाता है। उत्तरी भाग में बालाबाई शितोले द्वारा निर्मित विशाल भवन में अब किरायेदार रहते हैं। घाट की सीढ़ियों पर कई शिवलिंग है तथा पत्थर से निर्मित बैठे नंदी की प्रतिमा (लगभग तीन फीट ऊंची) भी है। घाट पर अनेक धार्मिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है जिनमें मुण्डन संस्कार, विवाह, गंगा पुजईया, पिण्डदान एवं मंदिरों के वार्षिक श्रृंगार पर आयोजित भजन-कीर्तन, संगीत, प्रवचन तथा कार्तिक माह मे होने वाला रामलीला विशेष है। वर्तमान में घाट पक्का, स्वच्छ एवं सुदृढ़ है घाट पर दैनिक स्नानार्थियों के साथ-साथ पर्व विशेष पर भी स्नान करने वालों का आगमन होता है। स्थानीय लोगें के अनुसार गौ-हत्या पाप से मुक्ति के लिये दूर-दूर से लोग यहाँ आकर घाट पर स्नान-दान, पूजन एवं अनुष्ठान करते हैं। सन् 1965 में राज्य सरकार के द्वारा घाट का मरम्मत कराया गया था।