काशी विश्वनाथ

‘हर-हर महादेव शम्भो काशी विश्वनाथ गंगे‘ काशी में प्रवेश करते ही धार्मिक प्रवित्ति वाले हिन्दुओं के मुंह से यह सूक्त वाक्य बरबस ही निकल पड़ता है। तमाम श्रद्धालुओं के मन में बाबा विश्वनाथ के प्रति आस्था हिलोरें मारने लगती हैं। काशीवासियों के लिए तो विश्वनाथ जी कण-कण में समाये हुए हैं। अमूमन जब दो बनारसी मिलते हैं तो हर-हर महादेव के उद्घोष के साथ अभिवादन करते हैं। वहीं, इसे बाबा विश्वनाथ की महिमा कहा जाये या महात्म्य बाहर से काशी आने वाले लोगों की प्राथमिकता में बाबा का दर्शन प्रमुख होता है। माना जाता है कि बाबा विश्वनाथ के दर्शन से जन्म-जन्मांतर का बंधन छूट जाता है मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है और शरीर शुद्ध हो जाता है। बाबा दरबार से करीब एक दो किलोमीटर की परिधि में ऐसा लगता है जैसे माहौल पूरी तरह से शिवमय हो गया है सभी दिशाओं से लगभग एक ही स्वर कानों में मिश्री की तरह घुलता रहता है वह है ओम नमः शिवाय- ओम नमः शिवाय और लोग बाबा के दर्शन के लिए व्याकुल रहते हैं। बाबा विश्वनाथ को ही विश्वेश्वर कहा जाता है। काशी के सर्वोच्च पदासीन संचालक के रूप में विश्वेश्वर ही हैं। भारत के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक काशी विश्वनाथ हैं। पुराणों के अनुसार विश्वनाथ जी ही लिंगअधिपति हैं एवं पंचक्रोशी यात्रा में पड़ने वाले प्रधान हैं। भगवान शिव को काशी अति प्यारी है। इसलिए भोलेनाथ काशी को छोड़कर कभी नहीं जाते। इस पर एक दोहा भी प्रचलित है जिसे काशीवासी अक्सर दुहाराते रहते हैं।
चना चबैना गंग जल जो पुरवै करतार। काशी कबहुं न छोड़िये विश्वनाथ दरबार।।
भगवान शिव का वास और पतित पावनी मां गंगा का प्रवाह काशी को स्वर्ग से भी अधिक सुंदर और पवित्र बना देता है। मान्यता के अनुसार 6वीं शताब्दी में जब गुप्तवंश का शासन था उसी समय विश्वेश्वर के प्रचीन शिवायतन की स्थापना हुई थी जो बाद में कालचक्र प्रवाह में लुप्त हो गया। जिसके काफी समय बाद 14वीं शताब्दी में इस शिवायतन का पुनर्निर्माण कराया गया। विदेशी शासकों का जब भारत पर प्रभुत्व हुआ तो उसका प्रभाव धर्म और मंदिरों पर भी पड़ा। जौनपुर के शर्की बादशाहों ने 1436-1448 के मध्य विश्वनाथ मंदिर को तोड़वा दिया। जिसके मलबे से जौनपुर की बड़ी मस्जिद का निर्माण कराया गया। बाद में मुगल शासक अकबर के शासनकाल में हुए राजा टोडरमल के समय में पं0 नारायण भट्ट ने विश्वनाथ मंदिर निर्माण कर शिवलिंग की स्थापना कराया। लेकिन जब कट्टर मुगल शासक औरंगजेब गद्दी पर बैठा तो उसने हिन्दुओं की आस्था यानी मंदिरों पर कुठाराघात करना शुरू कर दिया। औरंगजेब की धार्मिक अहिष्णुता का खौफनाख प्रभाव काशी के मंदिरों पर भी पड़ा। मंदिर ध्वस्त करने के क्रम में औरंगजेब के निर्देश पर 2 सितम्बर 1669 को काशी विश्वनाथ मंदिर ध्वस्त कर दिया गया। मान्यता के अनुसार उस दौरान शिव ज्ञानवापी के पास स्थित कुंए में कूद पड़े थे। ऐसे में श्रद्धालु इसी कुंए में भगवान शिव का जलाभिषेक किया करते थे। वहीं, एक किंवदंती के अनुसार यहां के पंडों ने बाबा विश्वनाथ को कुंए से निकाल लिया था। बाद में बाबा विश्वनाथ की अनुकंपा से इंदौर की महारानी अहिल्या बाई होल्कर ने 1777 में वर्तमान विश्वनाथ जी के मंदिर का निर्माण करवाया। महारानी के मुख्य पुरोहित जयराम शर्मा की अगुवाई में जन्माष्टमी के दिन सोमवार 25 अगस्त 1777 को इस मंदिर की स्थापना हुई। आंकड़ों के अनुसार मंदिर निर्माण में उस वक्त 3 लाख रूपये की लागत लगी थी। भले ही विश्वनाथ जी का मंदिर स्थापत्य कला की कसौटी पर सामान्य हो लेकिन खगोलीय दृष्टि का बोजोड़ उदाहरण है। प्रसिद्ध यात्री जेम्स पिं्रसेप ने विश्वनाथ मंदिर की खगोलीय व्याख्या प्रस्तुत की। जिसके अनुसार मंदिर का मुख्य अन्तःक्षेत्र 108 फीट (32.92मीटर) के चौकोर चौक (प्लेटफार्म) पर बना है। जिसका हर किनारा सांस्कृतिक खगोलीय प्रारूप को दर्शाता है। मंदिर का 27 चंद्र नक्षत्रों का द्योतक है एवं 108 ब्रह्माण्डीय समन्वयक संख्या 12 राशियों, मास एवं 9 ग्रहों का गुणनखंड है। मंदिर निर्माण में खगोलशाó का कितनी बारीकी से प्रयोग किया गया है इसका प्रमाण आधार अष्टपद विन्यास को देखने से मिलता है। मंदिर के पूर्व से दक्षिण की ओर ज्ञान मण्डप, तारकेश्वर मण्डप, मुक्ति मण्डप, दण्डपाणि मण्डप, श्रं‘गार मण्डप, गणेश मण्डप, ऐश्वर्य मण्डप एवं भैरव मण्डप है। इस विन्यास के केन्द्र में 8 गुणे 8 ग्रिड के फलक का 64 समूह है। जिसे बाबा विश्वनाथ का प्रवित्र क्षेत्र कहा जाता है। पूर्णतया पत्थरों से निर्मित इस मंदिर का शिखर भगवान शिव के त्रिशूल की आकृति सा प्रतीत होता है। मध्य शिखर पर स्वर्ण कलश जबकि पहले पर दण्डपाणिश्वर शिव एवं सबसे उपर भगवान शिव का ध्वज है जो दूर से ही दिखाई देता है। शिखर की उंचाई 51 फीट है। मंदिर के द्वार पर नौबतखाना भी है जिसका निर्माण वारेन हेसिं्टग्स एवं अली इबाहिम खां के निर्देश पर सन् 1880 में किया गया। महाराजा नेपाल ने मंदिर में एक घण्टा दान दिया था। मंदिर का आकर्षण उस समय और बढ़ गया जब 1839 में लाहौर के महाराजा रणजीत सिंह ने शिखर पर सोने की चादर चढ़वाया। जिसका आधार तांबे का है। माना जाता है कि करीब 2.5 मन सोना सोने की पर्त में प्रयोग किया गया है। मंदिर के शिखर पर जब सूर्य की रोशनी का मिलन होता है तो पूरा मंदिर चमक उठता है। इस दौरान ऐसा लगता है जैसे सूर्यदेव बाबा विश्वनाथ का दर्शन करने आये हैं। जहां शिव हों वहां नंदी बैल निश्चित ही रहेगा। बाबा विश्वनाथ मंदिर में गर्भगृह के ठीक सामने नंदी बैल है। जिसे नेपाल नरेश ने स्थापित करवाया था। वैसे तो बाबा का दर्शन-पूजन करने हर समय देश भर से श्रद्धालु आते रहते हैं लेकिन सावन माह और महाशिवरात्रि पर तो मंदिर से लेकर गोदौलिया चौराहे तक दर्शन करने के लिए श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। बाबा के प्रति श्रद्धा का ऐसा भाव रहता है कि सावन महीने में भक्त जलाभिषेक करने के लिए कई घंटे कतारों में खड़े रहते हैं। हाथों में गंगाजल लिए श्रद्धालु बाबा विश्वनाथ का दर्शन पाने के लिए आतुर हरते हैं। वहीं सावन के सोमवार को तो जैसे आस्था का सैलाब बाबा विश्वनाथ के दर्शन के लिए उमड़ पड़ता है। इस दौरान कावंरियों सहित लाखों श्रद्धालु दुग्धाभिषेक व जलाभिषेक कर धन्य हो जाते हैं। इसी तरह से महाशिवरात्रि पर्व पर भी बाबा का दरबार भक्तों से पट जाता है। शहर में ऐसा लगता है जैसे सभी लोग बाबा विश्वनाथ का दर्शन करने ही जा रहे हैं। प्रतिदिन बाबा विश्वनाथ का अभिषेक सुबह एवं शाम को गंगाजल से किया जाता है। शाम की झ्ाांकी बेहद ही आकर्षित करने वाली होती है। यह झ्ाांकी फूल, चन्दन एवं सुगन्धित पदार्थों से सजायी जाती है। इस दौरान पण्डितों द्वारा मंत्रोच्चारण किया जाता है। जिसे देखने के लिए काफी संख्या में श्रद्धालु मंदिर में पहुंचते हैं। इस मौके पर बाबा को भांग, पान एवं अन्य पदार्थों का चढ़ावा चढ़ाया जाता है। सर्दी के मौसम में बाबा को साल और जरी के चद्दर से रात्रि का शयन कराया जाता है। रोजाना अगस्तकुण्ड मोहल्ले से घड़ों में गंगाजल भरकर लाया जाता है जिसमें दो घड़ों में दूध रहता है। इसी जल से गर्भगृह को धोया जाता है। बाबा का दरबार प्रातः तीन बजे खुलता है। इस दौरान 3 से 4 बजे तक भव्य मंगला आरती होती है। मंगला आरती होने से लेकर दिन में 11 बजे तक भक्त गर्भगृह में बाबा का दर्शन करते हैं। वहीं दिन में 11 से 12 बजे तक गर्भगृह के बाहर से दर्शन होता है। बाबा की भोग आरती दिन में 12 बजे होती है। शाम को 7 बजे संध्या आरती आयोजित होती है। रात 9 बजे श्रृंगार आरती एवं साढ़े 10 बजे शयन आरती की जाती है। आरती मंदिर के महंत कराते हैं जिसमें बहुत से पंडित सम्मिलित होते हैं। सुरक्षा की दृष्टि से अतिसंवेदनशील मंदिर परिसर में पुलिस अधीक्षक ज्ञानवापी तमाम पुलिसकर्मियों सहित केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के जवान हर पल तैनात रहते हैं। कैंट से करीब 6 किलोमीटर दूर शहर के मध्य में बाबा विश्वनाथ का भव्य मंदिर स्थित है। आटो या रिक्शा के जरिये गोदौलिया चौराहे पर पहुंचकर सीधे पैदल कुछ मीटर चलने पर बांयी ओर विश्वनाथ गली है। गली से होते हुए करीब 1 किलोमीटर चलने पर बाबा विश्वनाथ का दरबार स्थित है। मुख्य मंदिर तक पहुंचने के लिए कई गेट हैं जहां पुलिस के जवान चेकिंग करते रहते हैं। बाबा के दर्शन के लिए ऑनलाइन बुकिंग भी होती है। मंदिर के प्रबंधन के लिए कार्यपालक समिति भी गठित की गयी है जिसके चेयरमैन मण्डलायुक्त हैं। वहीं, समिति में जिलाधिकारी वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक एवं अन्य अधिकारी शामिल हैं। साथ ही विश्वनाथ मंदिर न्यास भी है जिसके अध्यक्ष वर्तमान में अशोक द्विवेदी हैं। मंदिर कार्यप्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन के लिए अक्सर कार्यपालक समिति एवं मंदिर न्यास की बैठक होती है। जनवरी 2014 में हुई बैठक के दौरान निर्णय लिया गया कि मंदिर के पुजारी एवं सेवादार जल्द ही वैदिक परिधानों में नजर आयेंगे। विश्वनाथ गली धार्मिक वस्तुओं के विक्रय का भी एक बड़ा केन्द्र है। गली में रूद्राक्ष की माला से लेकर सभी प्रकार की धार्मिक वस्तुएं मिल जाती हैं। देश के जाने माने नेता, अभिनेता और उद्योगपति अक्सर बाबा दरबार में मत्था टेकने आते रहते हैं।

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