काशी, वाराणसी और बनारस

                                                                                                                  -प्रो.शिवजी उपाध्याय 

उपर्युक्त शीर्षक में काशी और वाराणसी के साथ बनारस नाम को जोड़ने का आशय नगर के आधुनिक सन्दर्भ को परिलक्षित कराना है। क्या ‘बनारस’ काशी और वाराणसी के नामगत विशेषता से कुछ या किसी रूप में आन्वित होता है या नहीं? यही होता है तो किस रूप में उसकी सार्थकता निरूपित की जा सकती है यद्यपि यह स्पष्टतः ज्ञात है कि वाराणसी का ही भाषान्तर बनारस है जो सम्भवतः अंग्रेजों द्वारा अपने शासन काल में बेनारसे से पुनः उच्चारण सौकर्य से बनारस के रूप में प्रसिद्ध हुआ है, किन्तु इस नाम में ‘वाराणसी’ की नामगत विशेषता का बोध नहीं होता बल्कि जिसमें रस-मौज-मस्ती-जोश ताजा मिज़ाज हमेशा बना रहे, कभी कम न हो-इस अर्थ में ‘बनारस’ नाम की अन्विति या व्यवहार होता है। यहाँ के लोगों की प्रकृति (स्वभाव) का बोधक विशेषता ‘बनारस’ नाम है। अपने मूल शब्द (वाराणसी) के अर्थ से बिल्कुल अलग-थलग। रस शब्द अनेकार्थक है-मौज-मस्ती, खुशी के साथ यहाँ के पान, भाँग, ठँडई आदि भी रस से जुड़े हैं। बनारसवाला पान, बनारस की ठंडई और बनारस का लँगड़ा आम ये सब ‘बनारस’ इस नाम को चरितार्थ करते हैं। इस अनेक कारणों से यहाँ का ‘रस’ हमेशा बना रहता है। दुनिया बदल रही है तो बदले, बनारसी लोग अपने ‘रस’ में ही बने रहते हैं- कल आज और आगे भी बने रहेंगे अपने रस में अपनी मस्ती के वश में। सांख्यदर्शन में “मूलप्रकृतिरविकृतिः” कहा गया है। अर्थात् मूल-प्रधान (सहजात) प्रकृति में कोई विकृति परिवर्तन नहीं होता-यह वाक्य यद्यपि उक्त दर्शन में संसार के निर्माण सम्बन्धित प्रकृति के विषय में कहा गया है, किन्तु यह पूर्णतः बनारसी प्रकृति के विषय में अर्थसंगत है। आज भी खांटी बनारसी लोगों का स्वभाव यथावत् है-प्रतिदिवस परिवर्तनशील सामाजिक परिस्थिति में भी। यहाँ के रचनाकारों ने भी इस बनारसी मूल प्रकृति का विस्तार से वर्णन किया है-जो उपर्युक्त दार्शनिक वाक्यार्थ से सार्थ समन्वित होता है। ‘सुबह-ए-बनारस’ यह उक्ति केवल ‘बनारस’नाम से ही जुड़कर उपर्युक्त अर्थ की संगति को सम्पुष्ट करती है। इस नगर के अनेक नामों में से किसी एक नाम में भी यहाँ के ‘सुबह’ का ऐतिहासिक, पौराणिक या धार्मिक सम्बन्ध नहीं मिलता केवल बनारस से ही इसका खास सम्बन्ध है और प्रसिद्धि है। अतः ‘सुबह-ए बनारस’ भी यहाँ के रस के हमेशा बने रहने की ज्वलन्त उदाहरणात्मक मौद्रिक वाक्योक्ति है। दुनिया में दूर-दूर तक और गाँव-गिरांव जन-जन में सब जगह ‘बनारस’ की मूल प्राकृतिक विशेषता का विविध रूपों में आख्यान, बखान है। उन सबकी चर्चा करना सम्भव नहीं केवल संकेत मात्र ही पर्याप्त है-इतने से ही विद्वान ‘बनारस’ को जानते हैं, जान लेंगे। ‘सदा बनारस रसभरा बान बानगी देख। एक बान एक तान है- एक शान एक टेक।।’-बनारस के विषय में मेरे बचपन में सुना हुआ यह ‘दोहा’ उसकी यथास्थिति मूल प्रकृति का पूर्ण प्रमाण है।

       लेख के शीर्षक में काशी-वाराणसी-बनारस यह क्रम है किन्तु प्रतिक्रम से पहले ‘बनारस’ पर ही विमर्श प्रस्तुत कर दिया है- यह सहज ही हो गया, भूल से नहीं संज्ञान से ऐसा किया गया है। तीनों नामों में दो सजातीय संस्कृत के नाम है-काशी-वाराणसी है। ‘बनारस’ भाषान्तरीय विजातीय है और आधुनिकता से विशेष सन्दर्भित है-इसलिये उस पर विमर्श के पश्चात् अब काशी-वाराणसी इन दोनों नामों की शास्त्र संगति एवं अर्थ संगति पर विमर्श अपेक्षित है। इनमें भी प्रतिक्रम से ‘वाराणसी’ शब्द के नाम वैशिष्टय का निरूपण किया जा रहा है। मेरी दृष्टि ‘वाराणसी’ नाम पुराणकालीन प्रतीत होता है- वारणा (वरुणा) और असी के संयोग (सन्धि) से वाराणसी निष्पन्न है-यह तो सुविदित ही है। इन दोनों शब्दों से बना हुआ वाराणसी वरुणा नदी और असी नदी क्षेत्र के अन्तराल का बोधक है-इसी को वाराणसी कहा गया है-शेष क्षेत्रों को वाराणसी का बाह्य क्षेत्र माना गया-यह वस्तुत लोग प्रसिद्धि (जनश्रुति) है, शास्त्र प्रसिद्धि इसमें प्रमाण नहीं है। इन दोनों शब्दों में ‘गंगा’ असम्बद्ध हैं अर्थात् गंगा का क्षेत्र भी शब्दद्वय परिभाषित वाराणसी का बाह्य क्षेत्र है। कुछ लोग ‘असी’ शब्द से ‘गंगा’ को जोड़ लेना मानते हैं जो युक्ति संगत नहीं है, ‘असी’ नगर एक क्षेत्र (भाग) है जिसके नाम से गंगा का घाट प्रसिद्ध है, ‘घाट’ का संकेत ‘असी’ शब्द से मान लेने पर भी वह सम्पूर्ण गंगा का बोधक नहीं हो सकता। तो क्या गंगा को वाराणसी क्षेत्र से बाह्य मानकर ‘वाराणसी’ की परिभाषा अर्थसंगत हो सकती है? यहाँ के सुधीजनों के लिये विचारणीय विषय है। मेरे विचार से उक्त दोनों शब्दों की संधि से बना वाराणसी शब्द क्षेत्र की सीमा में आबद्ध नहीं है प्रत्युत् सम्पूर्ण नगर का एक नाम है जिसमें वरुणा नदी और नदी (प्रायः लुप्त) दोनो क्षेत्र स्थित है। अन्यथा गंगा को वाराणसी से बाह्य मानने पर जो परिभाषा के स्थूल अर्थ द्वारा ज्ञात होता है, वाराणसी का तीर्थ रूप, धार्मिक रूप और व्यक्ति विशेष से अनेक नगरों और देशों का नामकरण किया जाता है-यह परम्परा है-ऐसा ही वाराणसी के विषय में समझना चाहिये।

       बौद्ध ग्रन्थों में विशेषकर जातक कथाओं में वाराणसी का शतशः उल्लेख मिलता है। सारनाथ में भगवान् बुद्ध के द्वारा जो अपने चार शिष्यों को प्रथम देशना (उपदेश) देने का उल्लेख है वह भी वाराणसी के अन्तर्गत उल्लिखित है। यद्यपि उक्त ग्रन्थों में काशी की भी चर्चा है किन्तु विरलतर, वाराणसी बहुल रूप से चर्चित है- इसमें वरूणा और असी की सीमाबद्धता का निषेध सिद्धि होता है क्योंकि परिभाषा के अनुसार सारनाथ वाराणसी के अन्तर्गत नहीं माना जायेगा। पुराणों में काव्यों में एवं स्मृतियों दर्शनों में भी वाराणसी का बहुशः उल्लेख पाया जाता है। परन्तु यह नाम प्राचीन होकर भी इस नगरी की सनातनता का बोधक नहीं है- ऐसा इसकी नामव्युत्पत्ति और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की समीक्षा करने से प्रमाणित होती है। वाल्मीकि, व्यास, भास, कालिदास आदि प्राचीनतम महाकवियों के काव्यों में काशी की चर्चा बहुलतर है। बाद के श्रीहर्ष, भारवि, जयदेवादि के काव्यों में वाराणसी का वर्णन प्राप्त होता है। महाकवि श्रीहर्ष ने तो अपने नैषधीय महाकाव्य में वाराणसी वसुन्धरा में नहीं अपितु स्वर्ग में अवस्थित मुक्तिदायी नगरी है- इस माहात्म्य का वर्णन किया है। श्रीहर्ष ने इसी काव्य-प्रमाण के द्वारा प्रयाग में एक उत्सव में आयोजित वादप्रसंग में (शास्त्रार्थ में) तीर्थराज के रूप में वाराणसी से श्रेष्ठ प्रयाग को सिद्ध करने वाले विद्वान् के कथन का खण्डन वाराणसी के एक विद्वान् ने किया था जिसका सभी ने अनुमोदन किया था प्रसंगत वह चर्चा यहाँ करनी आवश्यक है। प्रयागवासी विद्वान् ने अपना पक्ष प्रस्तुत करते हुए कहा था कि- “तीर्थेषु श्रेष्ठता बिभ्रतीर्थराजो विशिष्टयते” अर्थात् तीर्थों में श्रेष्ठता को वहन करने वाला तीर्थराज प्रयाग विशिष्ट है- इस पौराणिक उक्ति प्रमाण से तीर्थराज प्रयाग वाराणसी तीर्थ की अपेक्षा श्रेष्ठ है- वाराणसी केवल तीर्थ है प्रयाग तीर्थराज है, सभी तार्थों का राजा……..।

       प्रयागवासी विद्वान् का यह प्रश्न वस्तुतः युक्तिसंगत था और वाराणसी के विद्वानों को तात्कालिक रूप से अनुत्तरित करने के लिये पर्याप्त था। किन्तु कुछ समय बाद काव्यशास्त्र के मर्मज्ञ-वाराणसी वासी एक विद्वान् ने महाकवि श्रीहर्ष के नैषधमहाकाव्य के पद्य को उद्वृत करके उक्त प्रश्न का बड़ा ही उपयुक्त समाधान किया, वह पद्य उल्लेखनीय है-

              वाराणसी निविशते न वसुन्धरायां

              तत्र स्थितिर्मुखीभुजा भुवने निवासः।

              तत्तीर्थमुक्त वपुशामत एव मुक्तिः,

              स्वर्गात्परं पदमुदेतु मुदे तु कीदृक्।।

       वाराणसी वसुन्धरा में निविष्ट (स्थित) नहीं है, प्रत्युत् वहाँ (वाराणसी में) स्थित होना देवताओं के लोग (स्वर्ग) में निवास करना है। इसलिये ही वाराणसी (स्वर्गपुरी तीर्थ में) शरीर छोड़ने वालों की मुक्ति हो जाती अर्थात् पुनः उनका संसार में आगमन नहीं होता। स्वर्ग से बढ़कर कौन पद (स्थान) आनन्द के लिए हो सकता-स्वर्ग प्राप्ति ही परमानन्द (मुक्ति) है।

       इस पद्य से प्रयागवासी विद्वान् के प्रश्न का यथार्थ समाधान इस प्रकार हो जाता है कि-वाराणसी स्वर्गपुरी है- स्वर्गलोकस्थ तीर्थ है प्रयाग मृत्युलोक में तीर्थराज है, अतः यहाँ (मृत्युलोक के) तीर्थों में श्रेष्ठ है, वाराणसी की अपेक्षा प्रयाग की श्रेष्ठता सिद्ध नहीं होती। इस समाधान का सभी ने करतल ध्वनि से अनुमोदन किया और प्रयागवासी विद्वान् तथा वहाँ की जनता को भी मानना पड़ा। इस प्रकार वाराणसी प्राचीन-अधुनातन उभयनिष्ठ वैशिष्टय और महत्व से ओत-प्रोत इस नगरी की नाम गरिमा को धारण करती है।

       अन्त में इस नगरी के ‘काशी’ नाम के महत्त्व पर विचार, महार्ह एवं मननीय है। मेरी दृष्टि से इस नगरी की सनातन अस्मिता, मुक्तिदायिनी अर्हता और शंकर की त्रिशूल-स्थितिशीलता तथा मंगल के रूप में मरण (मृत्यु) की मान्यता इत्यादि इसी काशी-नाम के महत्त्व से सन्दर्भित होता है। इस नगरी के अन्य नाम जैसे-आनन्दकानन, मुक्तिपुरी, शिवपुरी, मर्णिकर्णी इत्यादि गुणवत्ता तथा विशेषतामूलक हैं। इन सभी नामों का साक्षात् सम्बन्ध काशी के सन्दर्भ से गतार्थ होता है। वस्तुतः यह नाम श्रुतिकालीन है। “काश्यां मरणान्मुक्तिः” यह श्रुति वचन है। “ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः” यह अनुपूरक श्रुतिवचन है। इन दोनों श्रौत वाक्यों पर काशी में एवं काशी के बाहर भी विद्वान्ों के बीच परस्पर बहुधा विचार-विमर्श होता रहा है। काशी में मरणमात्र से मुक्ति होती है या ज्ञान प्राप्ति करके काशी में मरण से मुक्ति होती है- इन दोनों पक्षों पर विद्वानों ने गहनतम शास्त्र-सम्मत विचार किया है। दोनों पक्षों में युक्तियाँ और शास्त्र प्रमाण दिये जाते हैं। उभय पक्ष यथार्थ यथोचित और शास्त्रभिमत है। इस पर विस्तृत विचार करना यहाँ सम्भव नहीं है। काशी नाम का निहितार्थ और गूढ़ाशय-मुक्ति-ज्ञान-ध्यान-साधना तथा सिद्धि इन पाँचों शब्दार्थों से समन्वित है। काशते-प्रकाशते या सा काशी, अर्थात् जो काशित प्रकाशित है वह काशी है-इससे उक्त पाँचों मुक्ति-ज्ञान-ध्यान साधना और सिद्धि का प्राकश अभिप्रेत है। ‘काशी खण्ड’ एवं अन्य स्मृति पुराणादि ग्रंथी में भी काशी-अर्थात् स्वतः प्रकाशमान-मुक्ति ज्ञान ध्यान साधना सिद्धि स्वरूपा-काभूरिशः वर्णन प्राप्त होता है। अनेक उक्तियों शास्त्रयुक्तियों एवं सिद्ध साधकमनीषि व्यक्तियों ने काशी के अनन्त माहात्म्य का निरूपण किया है। ‘मरण मंगलं यत्र सा कशी सेव्यते न कैः’, “काशी मुक्ति प्रदायिनी”, “आनन्दकाननं नाम काशी लोकातिशायिनी” “काशीयं साधनभूमिः” “काशी सिद्धिसमेधिनी” “काश्यां ज्ञानं च मुक्तिश्च युगपत् प्रतिपद्यते” इत्यादि काशी के स्वरूप महत्त्व के प्रख्यापक असंख्य प्राक्तन उदाहरण उपलब्ध होते हैं- जिनसे ‘काशी’ नाम के सनातन-संज्ञान की प्रमाणिकता सिद्ध होती है। लोकोक्ति में भी काशी का महत्त्व अपने निराले अन्दाज में दिखाया गया है- ‘चना चबैना गंगजल जो पुरवै करतार। काशी कबहुँ न छोड़िये विश्वनाथ दरबार।।”

              सर्वा विद्याः कला सर्वा साधनाः सिद्धयस्तथा।

              काश्यामेव प्रकाशन्ते वैराग्यज्ञानमुक्तयः।।

       ‘काशी, वाराणसी और बनारस’ शीर्षकीय इन तीन नामों से यह विचारात्मक लघु लेख इस नगरी की गरिमा के सन्दर्भ में कुछ संदर्भ में कुछ नवीन बिन्दुओं को उन्मीलित करता है जिस पर विचारक विद्वज्जन चिन्तन कर अपने आशय को व्यक्त कर सकते हैं। उपसंहार के रूप में काशी नाम से इस नगरी के ज्ञान भक्ति धर्म दर्शन साधना सिद्धि आदि स्वरूप का तथा वाराणसी नाम से संगीत कलासंस्कृति शिष्टता शालीनता आदि सम्भाव का एवं बनारस से आधुनिकता सहजता विलक्षण स्वभावशील इत्यादि गुण वैशिष्टय का सम्बन्ध प्रस्फुटित होता है। अन्त में यदि कहें तो यही कह सकते हैं कि काशी काशी है, वाराणसी वाराणसी है और बनारस है-एकदम अनन्वय अतुलनीय एवं अनाकलनीय/वस्तुतः काशी मुक्ति, वाराणसी-मुक्ति और बनारस-पुष्टि का निदर्शन है तथा यही इस त्रिलोक न्यारी नगरी का  दर्शन है-इत्यलं विस्तरेण।

काशी के विश्वविद्यालय  

       देश की सांस्कृतिक राजधानी ‘काशी’ चिरकाल से सर्वविद्या का केन्द्र रही है। सम्प्रति काशी में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के तीन विश्वविद्यालय नगर को गरिमामण्डित कर रहे हैं इन विश्वविद्यालय का एक संक्षिप्त परिचय-

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय

       महामना पं0 मदन मोहन मालवीय द्वारा संस्थापित काशी हिन्दू विश्वविद्यालय अपने विशाल, सुन्दर एवं सुव्यवस्थित परिसर तथा पाठ्यक्रमों की बहुलता आदि के चलते देश का प्रथम-गण्य विश्वविद्यालय है। पूज्य मालवीय जी ने सन् 1904ई0 में काशी नरेश महाराज प्रभुनारायण सिंह जू देव की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई एक बैठक में इसकी स्थापना का अपना शुभ-संकल्प व्यक्त किया था। सन् 1905 ई0 में विश्वविद्यालय का प्रथम पाठ्यक्रम प्रकाशित हआ था और सन् 1906 ई0 में प्रयाग में सम्पन्न हुए कुम्भ मेले में आदरणीय श्री मालवीय जी ने अपने संकल्प को दुहराते हुए जनता से उसकी सम्पूर्ति हेतु अपील की थी। कहा जाता है कि वहीं पर एक वृद्धा ने मालवीय जी को एतदर्थ सर्वप्रथम एक पैसा चन्दे के रूप में दिया था।

       सन् 1915 ई0 में तत्कालीन शिक्षामंत्री सर हारकोर्ट बटलर के प्रयास से केन्द्रीय धारा सभा से हिन्दू यूनिवर्सिटी एक्ट पारित हुआ और तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्डहाडिंज ने उस पर अपनी स्वीकृति प्रदान की।

       4 फरवरी सन् 1916 ई0 का बसन्त पंचमी के दिन वाराणसी में गंगा तट पर रामनगर-फोर्ट के समानान्तर महाराजा प्रभुनारायण सिंह द्वारा प्रदत्त भूमि पर गवर्नर लार्ड हाडिंग के करकमलों द्वारा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का शिलान्यास सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर गांधी जी भी पधारे थे। शिलान्यास स्थल (स्थापना स्थल) से कुछ दूर पश्चिम में 1300 एकड़ भूमि पर बने वर्तमान विश्वविद्यालय परिसर में पहले इंजीनियरिंग कालेज का निर्माण हुआ। तत्पश्चात् क्रमशः आर्ट्स कालेज और साइंस कालेज आदि बने।

       निरन्तर विकास की ओर अग्रसर यह विश्वविद्यालय तीन संस्थानों (इन्स्टीच्यूट्स), 11 संकायों, एक महिला-महाविद्यालय, 87 शैक्षणिक विभाग, तीन हाईस्कूल, एक राजकीय केन्द्रीय विद्यालय, चार सम्बद्ध डिग्री कालेजों, 35 छात्रावासों, एक केन्द्रीय ग्रन्थालय, 2000 से अधिक अध्यापकों, लगभग बीस हजार छात्रों एवं दो हजार से अधिक कर्मचारियों का एक विशाल गुरुकुल बन चुका है इसके प्रागंण में विश्वनाथ जी का एक भव्य एवं विशाल मंदिर भी है। जिसकी ऊँचाई काशी के मंदिरों से ऊँची बताई जाती है। इसके अलावा इसमें भारत कलाभवन, सर सुन्दरलाल चिकित्सालय (पूर्वांचल का एम्स) इत्यादि राष्ट्रीय ख्याति के संस्थान है। श्री सर सुन्दरलाल जी इस विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति थे। अतः पं0 मदनमोहन मालवीय जी, डॉ0 एस0 राधाकृष्णन (भूतपूर्व राष्ट्रपति), डॉ0 अमरनाथ झा, आचार्य नरेन्द्रदेव, डॉ0 रामस्वामी अय्यर प्रभृति मूर्धन्य विद्वान् यहां के कुलपति रहे। सम्प्रति प्रो0 लालजी सिंह विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर आसीन है। इस विश्वविद्यालय के अनेक छात्रों और अध्यापकों ने राष्ट्रीय तथा अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित की है।

महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ

       महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ का प्रारम्भिक नाम मात्र ‘काशी विद्यापीठ’ था। इसके संस्थापक राष्ट्र रत्न बाबू शिवप्रसाद गुप्त एशियाई देश जापान की शिक्षा व्यवस्था एवं उन्नति से बड़े प्रभावित थे। सन् 1914 ई0 में की गई अपनी जापान यात्रा में आपने वहाँ एक ऐसी उच्च शिक्षा संस्था देखी थी जो सरकार से सहायता लिये बिना ही कार्यरत थी और अत्यन्त सम्मानित थी। श्रीगुप्त जी ऐसी ही संस्था अपने देश भारतवर्ष में भी बनाना चाहते थे। अपनी कल्पना को मूर्त रूप देने के लिए आपने 31 श्रावण 1918 वि0 को अपने दिवंगत अनुज श्री हरप्रसाद गुप्त की स्मृति में एक में एक ‘हरप्रसाद शिक्षा-निधि’ की स्थापना की तथा 10 लाख रुपये इस निधि को प्रदान करके बसन्त पंचमी के दिन 10 फरवरी 1921 को काशी विद्यापीठ की स्थापना की। महात्मा गांधी ने इसका शिलान्यास किया। आगे चलकर श्री गुप्त जी ने 15 लाख रुपये इस निधि को और दिये।

       काशी विद्यापीठ की स्थापना में कुल 12 उद्देश्य थे, जिनमें से निम्नलिखित प्रमुख हैं-

  1. अध्यात्म विद्या की नींव पर प्रतिष्ठित भारतीय शिष्टता के संस्कार और विकास में सहायता देना,
  2. स्वाधीनता और स्वदेश-प्रेम के भाव के साथ लोकसेवा और मानवमात्र की बन्धुता के संचार में सहायता देना,
  3. संसार के प्राचीन शास्त्र, शिल्पकला और ज्ञान-विज्ञान आदि की वृद्धि तथा प्रचार करने में सहायता देना
  4. राष्ट्रभाषा हिन्दी एवं देवनागरी लिपि के द्वारा उच्च शिक्षा प्रदान करना आदि।

       आरम्भ में काशी विद्यापीठ का संचालन भदैनी महाल से होता था। अतः कुछ दिनों तक इसकी पढ़ाई शास्त्री नगर में भी होती रही। इस बीच वर्तमान भवन बनते गये और विद्यापीठ वर्तमान परिसर में आता गया। पहले काशी विद्यापीठ सरकारी अनुदान स्वीकार नहीं करता था, यहाँ शुल्क नहीं लिया जाता था और अध्यापक बिना वेतन लिए पढ़ाते थे। यहाँ छात्रावास भी निःशुल्क था किन्तु स्वतन्त्रता के पश्चात् नियम बदले और यहाँ शुल्क लिया जाने लगा तथा अध्यापकों को वेतन भी मिलने लगा। वर्तमान में राज्य एवं केन्द्र दोनों से आंशिक अनुदान मिलता है। काशी विद्यापीठ में पहले शास्त्री तक की पढ़ाई होती थी किन्तु अब यहाँ अनेक विषयों के पाठ्यक्रम चलते हैं और शोधोपाधि पर्यन्त शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था हैं।

       काशी विद्यापीठ के प्रथम कुलपति भारतरत्न डॉ0 भगवानदास थे। तत आचार्य नरेन्द्रदेव, डॉ0 सम्पूर्णानन्द, आचार्य बीरबल, प्रो0 राजाराम शास्त्री, डॉ0 दूधनाथ चतुर्वेदी एवं प्रो0 विद्यानिवास मिश्र प्रभृति विद्वानों ने इस पद को अलंकृत किया। वर्तमान में प्रो0 पृथ्वीश नाग इस पद पर विराजमान है। सर्वश्री भगवानदास, नरेन्द्रदेव एवं श्रीप्रकाश प्रवृति मूर्धन्य विद्वानों ने यहाँ अध्यापन किया था। स्व0 प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री यहीं के स्नातक थे।

       काशी विद्यापीठ में अवस्थित ‘भारत माता का मन्दिर’ एक राष्ट्रीय स्मारक है, जिसका शिलान्यास महात्मा गांधी ने किया था। यहाँ भारतभूमि का मानचित्र संगमरमर पर उत्कीर्ण कर उसे भारतमाता के रूप में स्वीकार किया गया है। ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ के मंत्र को साकार करने, भारतीयों में देशभक्ति का भाव भरने तथा ‘भारत माता की जय’ के उद्घोष को सार्थक बनाने के श्रेष्ठ उद्देश्य से देव मन्दिर के रूप में इस (भारतमाता-मन्दिर) की स्थापना की गई हैं। वर्ष 1995 में महात्मा गांधी की 125 वीं जयन्ती के उपलक्ष्य में ‘काशी विद्यापीठ’ का नाम बदलकर ‘महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ’ कर दिया गया।

सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय

       नगर के जगतगंज मुहल्ले में अवस्थित इस विश्वविद्यालय का पूर्व नाम “वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय” था। ब्रिटिश हुकूमत द्वारा सन् 1711 ई0 में स्थापित हिन्दू पाठशाला कालान्तर में क्वींस कालेज बना और सन् 1958 ई0 में इसे वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय के रूप में परिवर्तन कर दिया गया। इसकी स्थापना के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे-

  1. संस्कृत की परम्परा को जीवित रखते हुए पौरस्त्य एवं पाश्चात्य विचारधाराओं का समन्वय करना।
  2. संस्कृत, पालि तथा प्राकृत भाषाओं एवं उनसे सम्बद्ध समस्त विषयों के अध्ययनादि की व्यवस्था करना।
  3. भारतीय संस्कृति की रूपरेखा के समुचित विकास के लिये उसके आधारभूत संस्कृत तथा तत्समबद्ध तत्सम एवं तद्भव, एशिया की प्राचीन एवं नवीन भाषाओं द्वारा निबद्ध वांग्मय का परिचय कराना।
  4. भारतीय संस्कृति के साथ इतर संस्कृतियों का तुलनात्मक अध्यययन तथा
  5. संस्कृत भाषा एवं भारतीय संस्कृति का हर दिशा में प्रचार-प्रसार एवं परिवर्द्धन करना।

              इन उद्देश्यों के साथ उ0प्र0 के शिक्षा विभाग के अधिनियम सं0 15 द्वारा इस विश्वविद्यालय का अधिनियम पारित हुआ और 22 मार्च 1955 से वह कार्य रूप में माननीय मुख्यमंत्री डॉ0 सम्पूर्णानन्द जी द्वारा प्रवृत्त हुआ। इसके प्रथम कुलपति डॉ0 आदित्यनाथ झा (आई0सी0एस0) बनाये गए। ततः सर्वश्री सुरति नारायण मणि त्रिपाठी (आई0ए0एस0), प्रो0 गौरीनाथ शास्त्री, प्रो0 करुणापित त्रिपाठी, प्रो0 बद्रीनाथ शुक्ल, प्रो0 विद्यानिवास मिश्र, प्रो0 व0 वेंकटाचलम तथा प्रो0 मण्डप मिश्र आदि विभूतियों ने इस पदको अलंकृत किया। सम्प्रति यहाँ प्रो0 कुअुम्ब शास्त्री, कुलपति हैं। सन् 1974 में विश्वविद्यालय के संस्थापक माननीय मुख्यमंत्री डॉ0 सम्पूर्णानंद जी के नाम पर इस विश्वविद्यालय का वर्तमान नया नामकरण कर दिया गया।

       सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय का ‘सरस्वती भवन पुस्तकालय’ अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पुस्तकालय है। इसके पाण्डुलिपि विभाग में 192054 पाण्डुलिपियाँ सुरक्षित हैं तथा मुद्रित विभाग में 277084 ग्रन्थ उपलब्ध है। यहाँ से हजारों शोध छात्र विद्यावारिधि तथा सैकड़ों छात्र विद्यावाचस्पति की उपाधि प्राप्त कर चुके हैं। इसके प्रकाशन विभाग द्वारा अनेक दुर्लभ ग्रन्थ प्रकाशित किये गये हैं। यहाँ का मुख्य भवन शिल्पकला का अद्वितीय उदाहरण है। यहाँ दक्षिणात्य शैली में निर्मित भगवती सरस्वती का “वाग्देवी मंदिर” काशी का प्रमुख आकर्षण हैं। यहाँ एक प्रशस्त वेधशाला भी है।

       उपर्युक्त तीन विश्वविद्यालय के अतिरिक्त वाराणसी के समीप केन्द्रीय तिब्बती उच्च अध्ययन तथा इस्लाम के उच्च अध्ययन से सम्बद्ध दो शैक्षिक संस्थान हैं जिन्हें विश्वविद्यालय के समतुल्य माना गया है। इनका संक्षिप्त परिचय भी यहाँ प्रस्तुत है-

केन्द्रीय तिब्बती उच्च अध्ययन संस्थान

       परम पावन लालमा के परामर्श से वाराणसी में सारनाथ के समीप केन्द्रीय तिब्बती उच्च अध्ययन संस्थान की स्थापना सन् 1967 ई0 में जवाहर लाल नेहरू के निर्देश पर की गईं। प्रारम्भ में यह सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के अन्तर्गत उसी के एक अंग के रूप में कार्यरत रहा। एक दशक बाद सन् 1977 में इसकी प्रगति एवं उपलब्धियों की समीक्षा करते हुए मानव संसाधन मंत्रालय भारत सरकार ने इसके शत्-प्रतिशत पोषण का भार वहन करते हुए इसे स्वायत्त संस्थान का स्तर प्रदान किया। 5 अप्रैल 1988 को इसे ‘डीम्ड युनिवर्सिटी’ की मान्यता प्रदान की गई। उस समय तक इसके निर्देशक माननीय डॉ0 रिनपोछे जी थे। 22 एकड़ के भूखण्ड में स्थापित इस विश्वविद्यालय में 5 संकाय हैं- 1. भाषा और साहित्य संकाय, 2. दर्शन संकाय, 3. सामाजिक विज्ञान संकाय, 4. तिब्बती औषधि एवं ज्योतिष संकाय, 5. तिब्बती ललित कला संकाय।

       इन पाँचों संकायों के अन्तर्गत सुयोग्य विद्वानों द्वारा बौद्ध दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आधुनिक शास्त्र विमर्श, उच्च अध्ययन एवं अनुसंधान की दिशा में संलग्न हजारों तिब्बती जिज्ञासुओं, छात्रों से परिपूर्ण सुरम्य परिसर एक आदर्श गुरुकुल जैसा आभास देता है। संस्थान का पुस्तकालय भी बहुत प्रसिद्ध है।

जामिया सल्फिया

       काशी में रेवड़ी तालाब में स्थित जामिया सल्फिया भी विश्वविद्यालय के समतुल्य कहा जाता है। परम्परागत इस्लामी दर्शन और इस्लाम के सिद्धान्तों एवं आदर्शों के परिप्रेक्ष्य में आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा का एक बड़ा केन्द्र हैं। इस संस्थान में इस्लाम की परम्परागत शिक्षा के साथ-साथ मानविकी, सामाजिक विज्ञान, फार्मेसी, कम्प्यूटर विज्ञान एवं आयुर्वेदिक चिकित्सालय की शिक्षा का भी विशेष प्रबन्ध है।

 

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