-धर्मशील चतुर्वेदी
काशी के रंगमंच की इस कालावधि को रेखांकित करने का मात्र इतना ही प्रयोजन है कि इस कालखंड में रंगमंच में वैज्ञानिक विकास, नाट्य लेखन, प्रयोग आदि की दृष्टि से चमत्कारिक परिवर्तन हुए। भारतेन्दु हरिश्चंद्र से आचार्य सीताराम चतुर्वेदी तक का कालखंड भी इस अवधि में आ जाता है। काशी में बिजली आने के बाद रंग-दीपन, ध्वनि, पार्श्व संगीत आदि का प्रयोग वैज्ञानिक विकास के कारण संभव हुआ तो नाटक रचना का शिल्प भी यह कालखंड अन्य अनेक दृष्टियों से भी युगान्तकारी ठहराया जा सकता है। परिवर्तन की गति जितनी तीव्र इस कालखंड में रही, उतनी न इस कालखंड के पूर्व दीख पड़ती है और न बाद में। बाद के वर्षों में फिल्मों तथा उसके बाद टी0वी0 के व्यापक प्रसार ने रंगमंच को गहरा आघात पहुंचाया जिससे उबरने का दुर्घष संघर्ष वर्तमान पीढ़ी कर रही है।
एक व्यापक भ्रम में ही स्पष्ट कर देना समाचीन होगा। जब भी रंगमंच की बात होगी किसी न किसी रंगशाला के संदर्भ में ही होनी चाहिए। रंगमंच रंगशाला का वैसा ही अवयव है जैसा मानव शरीर में हृदय। जिस तरह किसी भी विशाल कक्षा को रंगशाला नहीं कहा जा सकता उसी तरह कहीं भी नाटक प्रस्तुत करने वाले स्थल को रंगमंच नहीं कहा जा सकता। दोनों का साक्यवी संबंध है। इस दृष्टिकोण से रंगमंच का विकासक्रम देखा जाए तो ही न्याय होगा। ऐतिहासिक सम्पन्नता के मोह में फंसकर रंगमंच को कहीं से भी जोड़ दिया जाए, यह न उचित है न श्लाघ्य।
ग्रीक और रोमन संस्कृति में ध्वंसावशेषों के आधार पर रंगमंच या नाट्य के विकास क्रम का सरलता के साथ अध्ययन किया जा सकता है। एरीना और ऐम्फीथियेटर से वर्तमान टोटल थियेटर तक रंगशाला ने अनेक रूप और आकार ग्रहण किए। हड़प्पा मोहन-जोदोड़ो, लोथल या अन्यान्य स्थानों पर हुए उत्खनन में एक भी ऐसा ध्वंसावेशष नहीं मिला जिसे रंगशाला कहा जा सके। बौद्ध चैत्य और विहारों में भी रंगशाला की तलाश व्यर्थ है। वैसे, भारत में रंगशालाएं नहीं थीं इसलिए नाटक भी नहीं थे, यह निष्कर्ष निकालना मूढ़ता होगी क्योंकि संस्कृत में प्राप्त नाटकों की काल दो हजार वर्ष तक तो सरलता के साथ ले जाया जा सकता है। नाटक इसीलिए लिखे गए कि उनका प्रस्तुतीकरण होता रहा होगा।
रंगशाला के स्वरूप में परिवर्तन, परिवर्द्धन और सुधार के पीछे एक ही उद्देश्य रहता है- दर्शक, रंगमंच पर होने वाले सभी कार्य-व्यापार का सुगमता के साथ बिना किसी अवरोध के पूरा-पूरा आनंद उठा सकें। प्रयोग इसी के आसपास होते रहे। सर्कस के एरिना की तरह कभी मंच दर्शकों के माध्य होता था, कभी ऐम्फीथियेटर की तरह चंद्राकार। योरोप में बहुमंजिली रंगशालाएं भी बनी। आज सोपानी कृत रंगशालाओं का चलन है समतल भूमि पर रंगमंच बनाया जाए तो दर्शकों को असुविधा होती है इसलिए ढलान पर मंच बनाना अधिक सुविधापूर्ण होता है। रंगशाला में दर्शकों के बैठने के स्थान को ध्यान मे ंरखकर ही यह निश्चय किया जाता है कि मंच की चौड़ाई गहराई और ऊंचाई कितनी रखी जाए। रंगशालाओं का निर्माण इसी दृष्टि से किया जाता है।
1850 तक कोई रंगशाला काशी में नहीं थी। गोस्वामी तुलसीदास, मेघा भगत के बाद अन्य अनेक रामभक्तों के प्रयास से रामलीलाएं पहले से होती थीं। काशी में रामलीला रंगमंच पर नही होती। अनेक स्थलों पर किसी के उद्यान, चौराहे, सड़क मैदान आदि पर विभिन्न लीलाएं आयोजित होती रही हैं। इन लीलाओं के अलावा नौटंकी, भांड़, मण्डलियों के कार्यक्रम थियेटर भी हुआ करते थे जिनका प्रदर्शन अस्थायी मंच बनाकर किया जाता था। थियेट्रिकल कंपनियां बांस फाटक स्थित पूर्व दीपक या नावेल्टी टाकीज वाले स्थल पर, या गणेश (पूर्वनाम रूपलेखा, काशी टाकीज) वाले स्थल पर नाटक करती थीं। नावल्टी टाकीज के पर्दे के पीछे एक समय बहुत विशाल गोलाकार कुंआनुमा स्थल था जो संभवतः रिवाल्विंग स्टेज के लिए बनाया गया होगा। उत्तर प्रदेश में अधिकतर थियेट्रिकल कंपनियां नगरों-नगरों में घूमकर प्रदर्शन किया करती थीं।
रंगशाला का हृदय प्रदेश होने से रंगमंच की संरचना भी जटिल दुरुह, सुच्य और आधुनिक काल में अत्यन्त तकनीकी हो गई है। इसका कारण यह है कि जितनी सक्रियता मंच पर होती है उससे किसी भी माने में कम नेपथ्य में नहीं होती है और इतनी सावधानी तथा तत्परता के साथ कि बाहर बैठे दर्शक को भनक तक न लगे। यवनिका के पीछे रंगमंच होता है। नेपथ्य में रंगदीपन, संगीत, ध्वनि, मुखसज्जा, दृश्य परिवर्तन संबंधी सामान, प्राम्पटिंग, दृश्य परिवर्तन आदि अनेक कार्य व्यापार के लिए सुगम और व्यवस्थित संरचना होनी चाहिए। इन सभी सुविधाओं से युक्त कोई रंगशाला 2006 में भी काशी में नहीं थी। बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में पूर्व नागरी नाटकमंडली के मंच की खुली भूमि पर श्री मुरारीलाल मेहता प्रेक्षागृह निर्मित हुआ। स्थानाभाव के कारण उसमें भी सब किसी प्रकार हो जाता है।
आलोच्य कालावधि के प्रारंभ में यवनिका के बाद दृश्य की आवश्यकता के अनुसार चित्रित पर्दे हुआ करते थे। किसी पर्दे पर राजदरबार, किसी पर जंगल, किसी पर झोंपड़ी, किसी पर रास्ता आदि। ऐसे रंगीन पर्दे कीमती होते थे और नियमित प्रदर्शन न होने से शौकिया नाट्य संस्थाओं द्वारा उन्हें भाड़े पर लिया जाता था। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि इन पर्दों का आकार लगभग समान होता था। इसलिए इनके अनुरूप रंगमंच बनाना पड़ता था। नगर में दो-तीन लोग थे जो नाटकों का सारा सामान किराए पर दिया करते थे। यहां से पश्चिमी बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश में जहां नाटक या रामलीला होती थी, सामान जाया करते थे। 1933 या 34 में बुलानाला स्थित छविगृह जो कभी काशी टाकीज और बाद में रूपलेखा, गणेश, राधा चित्र मंदिर कहलाया उसमें जयशंकर प्रसाद कृत चंद्रगुप्त नाटक का मंचन हुआ था। उसमें भी ऐसे ही चित्रित पर्दे प्रयुक्त हुए।
पारसी रंगमंच और थियेट्रिकल रंग ढंग से मुक्ति के लिए परिवर्तन दीख पड़ने लगा। 1939-40 में कोल्हुआ स्थित टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज के मुख्य हाल के एक कोने में स्थायी बाक्सनुमा रंगमंच का निर्माण आचार्य करुणापति त्रिपाठी के धन से आचार्य सीताराम चतुर्वेदी ने ‘अभिनव रंगशाला’ नाम से किया। इस रंगमंच पर यवनिका के अतिरिक्त चार-पांच परिवर्त्तन के लिए कट सीन्स का प्रयोग भी किया गया जो पहले भी कभी-कभी किया जाता था। कट सीन का आवश्यकतानुसार निर्माण करना पड़ता था।
इसका असर नाट्य लेखन पर भी पड़ा। अनेक दृश्यों वाले और बार-बार दृश्य परिवर्तन वाले नाटकों का चलन भी नाटककारों ने बदला। इससे रसभंग तो होता था। नया-नया दृश्य आता-जाता रहता था तो दर्शक मंच सज्जा से प्रभावित होता था। फिल्मों में यही चीज रमणीयता प्रदान करती है। लेकिन नाटकों से यह चलन धीरे-धीरे 1940 के बाद लगभग उठ गया और मंच सादगी की ओर बढ़ चला।
भारतेन्दु काल से नाटकों में उतना परिवर्तन नहीं हुआ। इसलिए कि रंगदीपन बड़ा सपाट था। नाटकों और महफिलों में कुछ मशालची हुआ करते थे। बाद में इनका स्थान गैस के हण्डों, पैट्रोमैक्स आदि ने ले लिया। विशेष दृश्यों के लिए रंगीन रोशनी आतिशबाज किया करते थे। वाराणसी में बिजली आने के बाद रंगदीपन में काफी परिवर्तन आया। मगर बंगाल जैसी क्रान्ति नहीं आई। हैडलाइट, फुटलाइट, यवनिका के अगल-बगल दो हण्डे, एकाध फोकस लैम्प इतना ही रंगदीपन का सामान चला। संवत 2000 में जब चित्रा टाकीज के मंच पर आचार्य सीताराम चतुर्वेदी के निर्देशन में ‘महाकवि कालिदास’ नाटक का मंचन हुआ तो कोलकाता से रंगदीपन के लिए एक विशेषज्ञ को आमंत्रित किया गया। उन दिनों रंगबिरंगे सैल्यूलाइड पेपर आते थे, फोकस लैम्प पर एक-एक आदमी होता था जो दृश्य की आवश्यकता के अनुसार लाल, पीले, हरे, नीले पेपर लगाता हटाता रहता था। काशी में 1950 तक भी इतने ढेर सारे रंगदीपन के उपकरण नहीं थे जितने फिल्मों में होते हैं, यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन जितने कोलकाता या महाराष्ट्र के नाटकों में प्रयुक्त होते उतने भी नहीं थे। आज भी यह कहा जा सकता है।
आज तो रंगशालाओं का सारा खेल रंगदीपन का है, चाहे वह पश्चिम की रंगशालायें हो या फिर भारत की। दिल्ली, कोलकाता, मुम्बई जैसे महानगरों में रंगदीप के विशेषज्ञ हैं इसलिए कि उनका व्यय झेलने वाले थियेटकर हैं। व्यावसायिक और अव्यावसायिक संस्थाओं का अंतर आसानी के साथ समझा जा सकता है। आज भी काशी में टिकट खरीदकर नाटक देखने वालों की तो बात ही छोड़ दें घर तक निमंत्रण-पत्र पहुंचा देने के बाद भी दर्शक नहीं आते। यह स्थिति हिन्दी भाषियों में कुछ ज्यादा ही है। काशी के बंगाली समाज के लोग आज भी नाटकों में पर्याप्त रुचि रखते हैं।
उत्तर प्रदेश के इस अंचल में अव्यावसायिक नाटकों तथा इससे अधिक रामलीला का चलन था। जो लोग पर्दे या दृश्य का सामान रखते थे वही लोग तरह-तरह ही पोशाकें भी रखा करते थे। पोशाकों एक बार जाती थीं। राजा रावण के लिए जो पोशाक होती थी वही चंद्रगुप्त, अकबर या उन दिनों के राजाओsं के लिए। बड़े फूहड़ किस्म के विग हुआ करते थे। सिकन्दरकालीन परिधान सभी के लिए। यही पोशाक वाले अस्त्र-शस्त्र, मुकुट, आभूषण आदि भी भाड़े में दिया करते थे। वेशभूषा तैयार करने का काशी इसलिए भी केंद्र था कि यहां प्रतिमाओं के लिए वस्त्र-निर्माण का काम तो साल भर चलता रहता है। गोपाल मंदिर के आस-पास ऐसे कारीगरों के काफी प्रतिष्ठान आज भी हैं। जाहिर है कि भारतेन्दु काल में भी इन्हीं पोशाक वालों द्वारा आपूर्ति की जाती रही होगी और उससे जो विसंगति पैदा होती थी, दर्शकों को उसे झेलना ही पड़ता रहा होगा।
प्रसाद जी के ‘चंद्रगुप्त’ नाटक के मंचन का एक विवरण सनातन धर्म नामक साप्ताहिक पत्र में मिलता है। इसमें अन्य बातों के अलावा इसका उल्लेख किया गया है कि सुप्रसिद्धि इतिहासविद्, इतिहास विभाग के विभागाध्यक्ष तथा बाद में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के ऑर्टस् कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ0 आर0एस0 त्रिपाठी ने इस नाटक के पात्रों के परिधान मौर्यकालीन परिधानों के अनुरूप तैयार कराये थे। यह सम्भवतः पहला परिवर्तन था। बाद के दिनों में आचार्य चतुर्वेदी ने अपनी सभी पौराणिक ऐतिहासिक नाटकों में युगानुरूप परिधान तैयार करा कर अपने नाटकों में प्रयोग किया। बीसवीं सदी के मध्य तक तो पौराणिक, ऐतिहासिक नाटकों का चलन ही उठने लगा और सामाजिक नाटकों का बोलबाला हो गया इसलिए वेशभूषा संबंधी जो बाध्यता थी वह लगभग समाप्त ही हो गई।
रामलीलाओं में मुखसज्जा के लिए पारम्परिक रूप से जो सामान प्रयुक्त होते थे प्रारम्भिक नाटकों में भी लगभग वैसी ही मुखसज्जा होती थी। कुछ पेशेवर मुखसज्जाकार हुआ करते थे। काशी में दो-तीन मुखसज्जाकार थे जो सभी नाटकों में मुखसज्जा का काम किया करते थे। महिला पात्रों का अभाव था। बाद में जो महिलायें मंच पर आयीं, वे स्वयं ही मुखसज्जा कर लिया करती थीं। कुछ अनुभवी अभिनेता मुखसज्जा में भी पारंगत होते थे जो स्वयं अपना और सहयोगियों का भी हाथ बंटाया करते थे। कोई मुखज्जाकार या मेकअपमैन ऐसा काशी में नहीं हुआ जिसका इस संदर्भ में विशेष रूप से उल्लेख किया जा सके। एक तरह से तो यह कहा जा सकता है कि मुखसज्जा को कभी गम्भीरता के साथ लिया ही नहीं गया। जैसी मनमानी परिधानों के प्रति थी वैसी ही मुखसज्जा मामले में भी।
भारतेंदुकालीन नाटकों में संगीततत्व भी रहता था। नेपथ्य या पार्श्व संगीत नौटंकियों, भांड़ मंडलियों, थियेटरों में प्रमुख था इसलिए कि नृत्य और संगीत का महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करता था। नाटककार भी गीत लिखते थे। प्रसाद जी के नाटकों के लिए लिखे गए कुछ गीत आज भी प्रसिद्ध हैं। पश्चिम में आरकेस्ट्रा टीम बड़ी होती है। रंगशालाओं में इस संगीत मंडली को कहां रखा जाए इस पर भी प्रयोग हुए। कभी मंच के आगे, कभी पीछे, कभी दर्शक और मंच के मध्य गड्ढेनुमा स्थान बनाकर आदि। काशी में संगीत की बहुत समृद्ध परंपरा है लेकिन नाटकों में पार्श्व संगीत देने के लिए कोई आरकेस्ट्रा टीम नहीं बन पाई। प्रायः हारमोनियम, तबला, नगाड़ा, शहनाई तथा बांसुरी जैसे कुछ वाद्य प्रयुक्त होते थे। नाटकों में भी इनका प्रयोग किया जाता था।
धीरे-धीरे पार्श्वसंगीत का चलन लगभग सिमटता ही चला गया जबकि फिल्मी गानों की होड़ थी। कई-कई फिल्में तो गीत और संगीत के नाम पर ही चल निकलीं। ऐसे सशक्त और प्रभावशाली हथियार को त्यागने से नाटकों की लोकप्रियता पर भी असर पड़ा। किसी-किसी नाटक में तो पार्श्व संगीत के नाम पर कुछ रहता ही नहीं था। अखिल भारतीय विक्रम परिषद के नाटकों में हारमोनियम तथा वायलिन का प्रायः प्रयोग किया जाता था। वाद्यकार किसी विंग में बैठा दिए जाते और वे दृश्य के अनुसार वादन करते रहते। अब तो ऐसे नाटक लिखे ही नहीं जा रहे हैं जिनमें नाच, गाना, संगीत हो। लेकिन पार्श्व संगीत अनिवार्यता है। संगीत से संवाद और दृश्य को अधिक प्रभावोत्पादक तथा हृदयस्पर्शी बनाया जा सकता है।
काशी में साधनहीन अव्यावसायिक रंगकर्मी उत्साह के कारण रंगमंच से जुड़े। यही कारण है कि स्थान के अभाव के कारण अपनी प्रतिभा तथा ज्ञान का प्रर्याप्त प्रभाव नहीं जमा सके। यह स्वाभाविक भी है। इसी विडंबना के कारण काशी का रंगमंच जटिलता से सरलता, भव्यता से सादगी, व्यावसायिकता से अव्यावसायिकता की ओर यात्रा करने के लिए विवश हुआ। यही कारण है कि अवाक और सवाक फिल्मों और टी0वी0 सीरियलों की आंधी में आज नाटक तिनके-सा उड़ता हुआ नजर आ रहा है। मंच से जुड़े लोगों को फिल्म उद्योग में भी वांछित सफलता नहीं मिली। मंच से जुड़े स्व0 कन्हैयालाल, संकटा प्रसाद, श्रवण कुमार, मंगला भगत, ओमप्रकाश शर्मा, शिवाजी अरोड़ा, सुजीत कुमार, पद्मा खन्ना मुंबई तो गए लेकिन सफलता स्व0 कन्हैयालाल तथा सुजीत कुमार को ही मिली।
भारतेंदु काल में आंगिक और वाचिक अभिनय के साथ ही गायन और नृत्य में भी निपुणता आवश्यक समझी जाती थी। बाद में स्थिति में परिवर्तन आया और आंगिक तथा वाचिक निपुणता को ही पर्याप्त माना गया। पहले ध्वनि विस्तारक चलन में नहीं थे। इसलिए लगभग 1950 तक अभिनेता से यह अपेक्षा की जाती थी कि उसका स्वर इतना बुलंद हो कि दर्शक दीर्घा की अंतिम पंक्ति में बैठे दर्शक तक उसकी आवाज पहुंचे। ग्रैण्ड रिहर्सल के समय निर्देशक महोदय स्वयं दर्शक दीर्घा की अंतिम पंक्ति पर जाकर खड़े होते और यह परख करते कि आवाज वहां तक पहुंच रही है या नहीं। बिजली आने के बाद भी कमोबेश यही स्थिति थी। आज भी काशी में ऐसा कोई रंगमंच नहीं है जहां इतना संवेदनशील माइक हो कि पदचाप और कान में कहे गए संवादों को दर्शक तथ पहुंचा सके। यह प्रयास भी किया जाता है कि माइक ऐसे ढंग से संयोजित किया जाए कि दर्शकों को दिखाई न पड़े। ऊपर या नीचे लगे माइक के आस-पास मंडराना अभिनेता की विवशता हो जाती है जिससे कभी-कभी बड़ी अस्वाभाविकता आ जाती है।
रंगदीपन, ध्वनि व्यवस्था, संगीत मंडली और मंच विन्यास नाटक के महत्वपूर्ण अंग हैं। केवल अभिनय में महारथ हासिल कर लेने से काम नहीं चल पाता। इन साधनों का अभाव काशी के रंगमंच पर सदा से रहा है और यही कारण है कि काशी में रंगमंच विकास नहीं हो सका। व्यावसायिक रंगमंच भी नहीं बना सका। रंगमंच की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अपार धनराशि की आवश्यकता पड़ती है। आज तो और भी संकट बढ़ा है।
आलोच्य शती का समापन बड़ा ही ऐतिहासिक तथा भव्य रहा है। संगीत मार्त्तण्ड पं0 ओंकार नाथ ठाकुर, संगीतविद् फ्रांसीसी एलेन डेनल्यू तथा श्रीमती रौंसस बर्नियर के पति श्री बर्नियर जो बहुत अच्छे फोटोग्राफर तथा कलाविद् थे, इन सभी के प्रयास से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में जयशंकर प्रसाद के महाकाव्य कामायनी का नृत्य-नाट्य संगीत रूपांतर जिसे ‘डांस बैले’ भी कह सकते हैं, मंचित हुआ। वह प्रस्तुतिकरण अत्यंत नयनाभिराम, रमणीय तथा मानक कहा जा सकता है। मंच सज्जा और संगीत दोनों ही भव्य। पता नहीं उसका कोई ध्वन्यांकन किया गया था या नहीं, क्योंकि उस समय वीडियोग्राफी नहीं होती थी। 16 मि0मी0 की मूवी कैमरे का सामान्य रूप से प्रयोग ऐसे आयोजनों के लिए होता था। संभव है कि वह कहीं उपलब्ध हो।
जब काशी के रंगमंच की बात हो तो उन सभी स्वनामधन्य लोगों का स्मरण तो किया ही जाना चाहिए जो तमाम अभावों के बीच किसी प्रकार अपनी जीविका से समय और धन व्यय करके काशी में नाट्य और नाटक को जिलाये रखने के लिए सतत् सचेष्ट रहे। यह परिश्रमसाध्य कार्य है कि सभी को ढूंढ निकाला जाए। अन्य ऐसा कोई स्रोत भी नहीं जिससे व्यवस्थित रूप से सभी को स्मरण किया जा सके। फिर भी जो संभव हो सका उसका उपयोग करना चाहता हूं ताकि भविष्य में यदि कोई खोजी इस दिशा में कार्य करे तो उसे कोई टोका तो मिल ही जाय।
श्री रामदारथ राय के एक लेख के अनुसार काशी में नाट्य संस्था का बीजारोपण “सर्वप्रथम 1903 में बाबू मथुरा दास जैन अग्रवाल और मित्रों के प्रयास से जैन नाटक मंडली के रूप में हुआ। 16-17 बरसों में इसके द्वारा 10 से अधिक धार्मिक तथा ऐतिहासिक नाटकों का मंचन हुआ। ……1923 में जब संस्था के अध्यक्ष राजा मुंशी माधव लाल बने……तत्पश्चात पं0 रमाशंकर वैद्य…1939 तक छह-सात नाटकों का मंचन हुआ।” इसी विवरण से यह भी ज्ञात होता है कि “सन 38-39 में जैन मंडली ने ‘स्वामिभक्ति’ या ‘दुर्गादास’ नाटक उठाया…..सन् 42-43 के आस-पास मारवाड़ी सम्मेलन के अवसर पर बुलानाला के सिनेमा हाल काशी टाकीज में भारतेन्दु नाटक मंडली के साथ मिलकर द्विजेन्द्रलाल राय के बंगला नाटक ‘मेवाड़ पतन’ का मंचन हुआ। इसमें शंभुनाथ टंडन, बल्ली बाबू, वीरे बाबू के साथ बाबू बच्चू थे।”
इस विवरण से यह पता चलता है कि जैन नाटक मंडली तथा भारतेन्दु नाटक मंडली का शती के आरंभ में जन्म हो चुका था। 1909 में नागरी नाटक मंडली की स्थापना हुई। इसी के आस-पास जायसवाल नाटक मंडली का भी जन्म हुआ। जुट्ठन साव इस मंडली के प्रमुख कर्त्ताधर्त्ता तथा अभिनेता थे। 1850 के सितंबर माह में बाबू हरिश्चंद्र का जन्म हुआ था। 1850 और 1903 के बीच कोई नाट्य संस्था काशी में विद्यमान थी या नहीं इस संबंध में आधिकारिक रूप से नहीं कहा जा सकता। लेकिन इस बीच भारतेन्दु ने स्वयं भी नाटकों की प्रस्तुति की थी। इससे तो अनुमान लगता है कि कोई नाट्य संस्था भी अस्तित्व में रही होगी। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में एक नाट्य समिति हुआ करती थी लेकिन उसकी गतिविधियों में छात्र तथा अध्यापक ही भाग लेते थे। गणेशदत्त, डॉ0 याज्ञवल्क्य भारद्वाज, त्रिलोचन पंत, आचार्य सीताराम चतुर्वेदी आदि कुछ नाम उस समय के ज्ञात होते हैं। अखिल भारतीय विक्रम परिषद और अभिनव कला परिषद जैसी कुछ संस्थायें सक्रिय थीं। श्री नाट्यम का संभवतः जन्म हो गया था। अन्य छोटी-मोटी संस्थायें भी रही होंगी। लेकिन यह जरूर था कि प्रायः सभी विद्यालयों में नाटकों का आयोजन हुआ करता था।
1925 से 1950 के मध्य के प्रमुख नाट्य प्रयोक्ताओं, रंगकर्मियों तथा नाट्य आंदोलन के साथ जुटे लोगों का नामोल्लेख करना मैं इसलिए समाचीन समझता हूं कि इनके माध्यम से इस अवधि की नाट्य गतिविधियों पर पर्याप्त प्रकाश पड़ सकता है और विस्तृत जानकारी भी मिल सकती है। यह काम खतरे से खाली नहीं क्योंकि सम्भव है कि कुछ महत्वपूर्ण नाम छूट जाएं तथा कुछ के पूरे नाम न आ पाएं। यदि इस संबंध में कोई विवरण प्राप्त हो तो उसका स्वागत होना चाहिए। सरजू बरफ वाले तथा उनके पुत्र राम ंिसंह आजाद, आगा हश्र कश्मीरी, आचार्य सीताराम चतुर्वेदी, टण्डन शू कंपनी के स्वामी टंडन जी, शिव प्रसाद मिश्र रुद्र, सर्वदानंद, डॉ0 भानुशंकर मेहता, राजकुमार, प्रभात कुमार घोष, पी0जी0 भट्टाचार्य, कृष्णप्रसाद श्रीवास्तव (मास्टर साहब), नीलकमल चटर्जी, अवध बिहारी लाल सेनाबाबू , शिवशंकर लाल श्रीवास्तव, सुश्री डॉ0 कमलिनी मेहता तथा सुश्री बेला बनर्जी।
नाट्यकारों में भारतेन्दु हरिश्चंद्र तथा उनके मंडल के कुछ अन्य, आगा हश्र कश्मीरी, जयशंकर प्रसाद, लक्ष्मी नारायण मिश्र (बाद में काशी में रहे), आचार्य सीताराम चतुर्वेदी, शिव प्रसाद मिश्र रुद्र, कृष्णदेव प्रसाद गौड़ ‘बेढब बनारसी’, राजकुमार, डॉ0 शिवप्रसाद सिंह, डॉ0 कमलिनी मेहता, सुश्री उमा मौडवेल, संस्कृत नाटककार रामबालक शास्त्री आदि।
नाट्य शास्त्र पर भी भारतेन्दु से ही लेखन प्रारंभ हुआ। उनके बाद बाबू श्याम सुन्दर दास और आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के अतिरिक्त ‘अभिनव नाट्यशास्त्र’ तथा ‘भारतीय और पाश्चात्य रंगमंच’ नाम से दो विशाल कलेवर वाले ग्रंथ आचार्य सीताराम चतुर्वेदी ने लिखे। डॉ0 जगन्नाथ प्रसाद शर्मा का प्रसाद के नाटकों पर प्रबंध, डॉ0 छविनाथ पाण्डेय का ‘हिन्दी नाटकों पर इब्सन का प्रभाव’ आदि उल्लेखनीय हैं। इस दृष्टि से इतना तो कहा ही जा सकता है कि काशी में हर तरह से नाट्य साहित्य तथा रंगकर्म पर सौ साल की अवधि में काफी कुछ उल्लेखनीय और बहुमूल्य काम हुआ। यह सदी इस दृष्टि से काफी समृद्ध भी कही जा सकी है।