काशी : मरने के लिए नहीं, न मरने के लिए

                                                                                                                       -विद्यानिवास मिश्र
काशी के बारे में जन.विश्वास यही है कि यहाँ जो मरता हैए मृत्यु के समय बाबा विश्वनाथ उसके कान में मंत्र देते हैं। वही मंत्र तारक होता हैए काशी में मुक्ति हो जाती है। लोग संदेह करते हैंए फिर शुभ.अशुभ कार्यों का फल भोगे बिना कैसे मुक्ति होगीघ् मेरे ननिहाल में एक पंडित थे. पार्थिव राम त्रिपाठी। मैंने उनकी चर्चाएँ कथा.पुरुष के रूप में सुनी है। मेरे ननिहाल सहगौरा में वे आख्यान बन गए थे। बड़े प्रतिभाशालीए निष्ठावानए सरस और विनोदी पंडित थे। मृत्यु का समय आया तो पालकी मँगाई गई काशी के लिए। किंतु पंडित जी ने कहा कि वहाँ मुक्ति अवश्य मिलेगीए पर वहाँ पहले भैरवी चक्र में व्यक्ति को डाल दिया जाता है। मुझे काशी नहीं जाना। आगे उन्होंने कहा कि मैंने कोई अशुभ कर्म किया नहींए मैं क्यों भैरवी चक्र में पेराने के लिए काशी जाऊँ। मुझे प्रयाग ले चलो। कालिदास ने भी लिखा है कि गंगा.यमुना.सरस्वती के संगम पर देह छोड़ने पर देह का कोई बंधन नहीं रहता।
गंगा यमुनयोर्जल सन्निपाते तनु त्यजाम्नास्ति शरीर बन्धः।
मेरे गुरुजी कहते हैं कि कभी यहाँ प्रयाग में ऐसी धारणा थी कि यहाँ शरीर त्यागे अर्थात् स्वेच्छा से शरीर छोड़े तो मुक्ति होती है। इसलिए कुछ लोग यहाँ यमुना में कूदकर आत्महत्या भी करते हैं। इसीलिए यहीं कुमारिल भट्ट ने गुरु निंदा का प्रायश्चित किया था और अपने को भूसे की आग में जलाकर शरीर.त्याग किया था। प्रयाग में गंगा से मेरा वर्षों संवाद रहा हैए आज भी प्रयाग की गंगा मुझे बुलाती रहती हैए संगम का भाव बुलाता रहता है। पर जब मैं अध्यापन की सेवा से मुक्त हो रहा था तो मेरे मन में आ गया था कि जीवन का शेष भाग काशी में बिताएंगे। इसके लिए एक छोटा सा मकान भी लिया गया। मैंने इस बात पर बहुत विचार किया है काशी में मरने पर मुक्ति की भावना की व्यापकता का आधार क्या है। बहुत समय पहले संपूर्णानन्दजी ने सुनाया था कि लाओस के बूढ़े राजा भारत आए थेए फिर काशी आए थे। उन्होंने सम्पूर्णानन्द जी से पूछा कि क्या अब भी लोग ऐसा मानते हैं कि यहां मरने से मुक्ति होती हैए बाबूजी ने कहा कि कुछ लोगों का तो यह दृढ़ विश्वास हैए लाओस के राजा ने कहा कि मैं भी उन्हीं लोगों में से हूँ बाबूजी अचकचा गए कहाँ लाओसए कहाँ काशी। उन्हीं राजा ने कहा कि मेरे नगर वियेन चांग से सटकर मेकांग नदी बहती है। वह काशी की याद दिलाती है। शायद माँ गंगा का ही परिवर्तित रूप मेकांग है। उसका भी पाट बड़ा चौड़ा है। लगभग चार दिन में उस नदी के किनारे से आने वाली हवा में उसी नदी की बूँदे मुझ पर पहुँची है। उस दक्षिण.पूर्व एशियाई गंगा का स्पर्श मैंने पाया है। बाबूजी ने अपनी बात उसमें जोड़ी थी कि काशी की भूमि में कुछ बात ऐसी तो जरुर है कि आदमी अनुभव करता है कि यहाँ रहते ही अपनी बँधी हुई परिस्थिति से मुक्ति मिल जाती है। मुक्ति कोई ऐसा पदार्थ नहीं है जिसे पाया जाता हैए मुक्ति तो आस.पास की हवा में तैरने वाले तत्व का ग्रहण कर ले और मरते ही अनुभव करे.क्यों मैं सब में रहता हूँ या फिर सबसे अलग हूँघ् अलग होकर मैं कुछ परिभाषित अनाम नहीं हूँए मैं सगुण सकारात्मक फक्कड़पन की अनुभूति हूँ। इसलिए काशी के बारे में यह धारणा भर कर ही मुक्ति पाने तक सीमित नहीं है। जीते.जी मृत्यु को नकारने वाली धारणा हैए जहाँ अहर्निश चौबीस घंटे चिता जलती रहती है। वहाँ मृत्यु जीवन की एक लीला बनकर रह जाती है। वह जीवन का अन्त नहीं बनती। काशी के बारे में कहा जाता है.
औषधं जावाीतोचां वैद्यो नारायणो हरिः।।
जहाँ पर मरना मंगल हैए चिताभस्म जहाँ आभूषण है। गंगा का जल ही औषधि है और वैद्य जहाँ केवल नारायण हरि हैं।
काशी विश्वनाथ की ही नगरी रही हैए उसके आराध्य नारायण की भी नगरी है। इसे प्राचीनकाल में ष्हरिहर धामष् कहते थे। यहाँ के प्राचीनतम मंदिर हैं विंदुमाधव और बाबा विश्वनाथ के मंदिर। बिंदुमाधव का मंदिर ही आज माधवराज का धौरहरा हो गया है। यह नगरी इसलिए मुक्तिधाम है कि यह परमपिता परमेश्वर की अनन्य भक्ति का धाम है। बाबा विश्वनाथ ष्नमः विश्वनाथ ष्नमः शिवायष् का मंत्र नहीं देतेए ष्रामाय नमःष् का मंत्र देते हैं। यह विश्वास एक विशाल बोल से अनुप्राणित हैं। जो काशी में मरने का सौभाग्य नहीं पातेए वे भी अंतिम इच्छा रखते हैं कि काशी में दाह.संस्कार हो। वह भी न हो तो उसकी भस्मी यहाँ की गंगा में प्रवाहित होए उनके पार्थिव जीवन का विलय गंगा के जीवन में होए वह क्षुद्रता से उबरकर विशालता में विलीन होए यही मृत्यु से अभय की इच्छा का अर्थ है। स्व0 द्विजेन्द्रलाल राय की गंगा को संबोधित प्रसिद्ध कविता हैए जिसका भावार्थ. ष्मां कल्लोलिनी गंगा! मेरे कानों में तुम्हारा ही कल.कल अंतिम बेला में सुनाई दे। आँखों को तुम्हारे ही जल का विस्तार दिखाई पड़े। मैं सर्वांग से तुझमें आत्मसात् हो जाऊँ ;यह उत्कट इच्छा हिन्दू मन के जीने की इच्छा से जुड़ी हुई है। गंगा का जल जीवन की अनंतता का विस्तार ही है और काशी की गंगा का जल उत्तरवाहिनी गंगा कुछ अन्य स्थलों पर भी हैए पर इतनी लम्बी दूरी तक नहीं है जितनी लम्बी दूरी तक काशी में है और जिस रूप में अर्द्धचन्द्र का आकार काशी में गंगा बनाती है वैसा भी कहीं नहीं। गंगा अपनी धारा बदलती हैए पर काशी में सहस्राब्दियों से टिकी हुई हैं।द्ध इस काशी के कई नाम है. अविमुक्त क्षेत्रए महाश्मशानए आनंदकाननए हरिहर क्षेत्र और इसका अभ्यांतर भाग ही वाराणसी है। जिसकी एक सीमा अस्सीए वरूणा और गंगा है और बाहरी सीमा पंचकोसी है। महाश्मशान कहने का तात्पर्य ही यही है कि यहाँ केवल शरीर ही भस्म नहीं होताए शरीर के साथ जुड़ी हुई सारी की सारी वासनाएँ क्षार हो जाती हैं। उन वासनाओं के त्रिगुणात्मक बंधन भी क्षार हो जाते हैं। यह क्षार ही जब शिव के ललाट का भस्म बनता है तो शिव.सारुप्य प्राप्त हो जाता है। अब्दुल रहीम खानखाना ने इसी शिवसारुप्य की कामना की थी। उनके मन में यह भाव उठा.
अच्युत चरणतरंगित शिवसिर मालति माल।
हरिने बनायो सुरसरि को जै इंदवभाल।।
मेरा शरीर जब छूटे तो विष्णुरुप न देनाए क्योंकि विष्णु के पद.नख से गंगा निकलती है। मुझे शिव रुप देनाए ताकि तुम मेरे सिर पर विराजो और चंद्रमा की अमृतकला तुम्हारी छाया में रहे।
प्रश्न यह है कि क्या केवल विश्वनाथ ही यह कृपा करते हैं और केवल काशी में हीए कहीं अन्यत्र नहींघ् क्या दूसरा मोक्ष.क्षेत्र नहीं है मोक्ष.क्षेत्र तो काशी के अलावा छह और पुरियाँ.अयोध्याए मथुराए हरिद्वारए कांचीए अवंतिका और द्वारिकापुरी हैए पर काशी का मोक्ष इसलिए विशेष है कि यहाँ मोक्ष एक विशेष प्रक्रिया से मिलता है। काशी में जीव भैरवी चक्र में डाला जाता है और भैरवी चक्र में पड़कर वह समस्त योनियों के सुख.दुःख के कोल्हू में पेरा जाता है। उसका समस्त सृष्टि के साथ अपने आप तादात्म्य हो जाता है। इसलिए उसे जो मोक्ष मिलता है वह प्रकाश भैरवी चक्र का अर्थ समस्त भेदों का अतिक्रमण है और यही परमज्ञान है। काशी में जो जीवन का अंतिम क्षण बिताने की इच्छा रखते हैं वे एक ओर जीवन की अनंतता में विलयन की कामना में गंगा प्रवाह से एकाकार होना चाहते हैंए दूसरी ओर स्वरूप का साक्षात् ही नहीं करना चाहतेए स्वरूप में स्थित होना चाहते हैए दूसरी ओर वह स्वरूप प्रकाश रूप ही है। उसे कोई शुद्ध विद्या कह लेए कोई पराशक्ति कह लेए कोई शिव.सामंजस्य कर लेए ज्योतिरूप रस कह लेए कोई अंतर नहीं पड़ता।
एक अनुश्रुति हैए इतिहास की दृष्टि से सही न होए पर उसका फलितार्थ स्पष्ट ही है। गोरखनाथ ने कई शरीरों को छोड़ा और कई शरीरों से सिद्धि प्राप्त की। उन सिद्धियों को उन्होंने शिला का रूप दे दिया। वह उनके लिए बोझ हो गई। सोचा किसी योग्य पात्र में न्यस्त कर दूँ इनसे मुक्त हो जाऊँए नहीं तो मैं भी शिला ही बन जाऊँगा। कोई योग्य पात्र नहीं मिलाए काशी आए। गंगातट पर मधुसूदन सरस्वती दिख गये। गोरखनाथ जी उनके पास पहुँचे। कहाए ष्यह शिला मैं तुम्हें देना चाहता हूँ। कई शरीरों से प्राप्त सिद्धियाँ इसमें है। इसे तुम्हें सौंपकर मुक्त होना चाहता हूँ।ष् पहले तो मधुसूदन सरस्वती ने कहा कि ष्महाराजए आपकी बड़ी कृपाए पर मुझे सिद्धि चाहिए ही नहीं।ष् तब गोरखनाथ जी ने अनुरोध कियाए ष्मैं नहीं दूंगा तो फँसा रहूँगा। ये सिद्धियाँ मेरे गले में सिल की तरह लटकी रहेगी।ष् मधुसूदन सरस्वती ने सादर उस शिला को लिया और तुरन्त गंगा में विसर्जित कर दिया। गुरु गोरखनाथ को लगाए यह तो मुझे पहले कर देना चाहिए था। पर यह सूझा काशी.तटवासी मधुसूदन सरस्वती कोए काशी में रहने वालों का सिद्धि नहीं चाहिए। पिछली कई शताब्दियों में यहाँ साधक हुएए उन्होंने अपने को सिद्ध नहीं कहा। वे साधकता को ही जीवन का परम प्रयोजन मानते थे। वे चाहे रामानन्द होंए अपने को राम की बहुरिया मानने वाले कबीर होंए प्रभु को चंदन और अपने को पानी मानने वाले रैदास होंए श्रीराम के चरणों में निरन्तर प्रीति माँगने वाले तुलसीदास होंए सारी चाहें का केवल श्रीकृष्ण की चाह की धारा में बोरने वाले मधुसूदन सरस्वती होंए श्री विद्या के साधक भास्करराय होए गुरुओं के गुरु तैलंग स्वामी होंए अद्भुत उल्लास के साधक लाहिरी महाशय होए सूर्य.विद्या के आराधक स्वामी विशुद्धानंद होए उनके शिव रूप महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज होंए नित्यानंद में समाहित माँ आनंदमयी होंए परम परमहंस स्वामी करपात्री होंए दूसरी ओर औघड़ बाबा कीनाराम होंए राम.राम के साधक काष्ठ जिह्वा स्वामी होए ज्ञानसाधक स्वामी मनीष्यानंद हों.ये सभी विभूतियाँ काशी.तट की निरंतर साधना के ज्योतिपुंज हैं। काशी मुक्तिए सिद्धि सबकमा परिहार करने वाली नगरी है। इसलिए यहाँ मरने का अर्थ जीवन की अछोर अनंतता में सात्म होना हैए मरना नहीं हैं। काशी भुक्तिए सिद्धि सबका परिहार करने वाली नगरी है। इसलिए यहाँ मरने का अर्थ जीवन की अछोर अनंतता में सात्म होना हैए मरना नहीं है। जीवन की लीला का समेटना हैए पर समेटकर उसे अनंतता का कण बनाना है।
काशी में प्रतिदिन में व्यवहार में भी यह बात प्रतिबिंबित होती है कि उत्तम.से उत्तम भोग का सेवन कर सकते हैं और सेवन करें तो भी कुछ खास नहीं लगता। यहाँ सुस्वादु.से सुस्वादु व्यंजनों के अनेक प्रकार बनते हैंए ठंडई के सैकड़ो प्रकार होते हैंए जाड़े में प्रातराम के अनेक प्रकार होते हैंए पहनावे में कीमती.से कीमती जरी वस्त्र होते हैंए सोने के वरक में पान लपेटे जाते हैं। झाकाझक सफेद चद्दर पर नुपूरों की झंकार होती हैंए बजरे पर गरमियों में चैती के स्वर के साथ तैरना होता हैए पर उसी के साथ.साथ एक गमछा डालकर भस्म लगाकर ष्बम.बम महादेवष् की ध्वनि में समा जाना भी होता है। जिस क्षेत्र का राजा फक्कड़ उस क्षेत्र का निवासी भी फक्कड़ होने में ही रईसी मानता है। शिवरात्रि में शिवजी की बारात में विकलांगता का प्रदर्शन होता है और ऐसा कि उसके आगे रोम का कार्निक मात खा जाता है। यहाँ उत्सव का उन्माद नियंत्रित होता है। ऐसी जिन्दगी में रमना तभी संभव है जब दुर्दम्य जिविषका हो।
कैसे कहें कि काशी में मरने की नगरी है। जीने का स्वाद काशी जानती हैए मरने को नकारना काशी जानती हैए अमरता का भी ठेंगा दिखाना काशी जानती है।

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