– कुंवरजी अग्रवाल
अलग-अलग शहरों की नाट्य परंपराओं का जिक्र आने पर वाराणसी का स्थान संभवतः सबसे महत्वपूर्ण साबित होगा। महज इसलिए नहीं कि वाराणसी की नाट्य परंपरा बेहद पुरानी और अटूट सिलसिलों वाली है, बल्कि इसलिए भी कि वाराणसी की नाट्य परंपरा में सामान्य जनता के वृहत्तर कल्याण के प्रति जवाबदेही की भावना भी रही है।
आज अपनी परंपराओं पर हमारा ध्यान नाट्य के संदर्भ में जितना ज्यादा गया है उतना शायद किसी दूसरी कला के संदर्भ में नहीं। पिछली लगभग डेढ़ शताब्दी से हम जिस आधुनिक नाट्य को अपने जीवन में स्थापित करने की पुरजोर कोशिशों में लगे हुए थे, वह अपनी संपूर्ण अवधारणा में विदेशी था। आज हम अपने समकालीन जीवन मूल्यों के सदंर्भ में नाट्य की प्रासंगिकता नए सिरे से तलाश रहे हैं और इस खोज का एक महत्वपूर्ण आयाम पारम्परिक नाट्य हैं।
नाट्यशास्त्र के केंद्रीय अनुशासन के बावजूद भारत की नाट्य परम्पराएँ मूलतः आंचलिक और स्थानीय रही हैं। शायद नाट्य कला की मूल प्रकृति ही उसे आंचलिकता से बांधे रहती है। वाराणसी की नाट्य परंपरा को खोजने की कोशिशों का जायजा इसी संदर्भ में लिया जाना चाहिए। यह जितना अकादमिक महत्व का है, उतना ही महत्वपूर्ण नाट्यकर्मियों के लिए भी है।
वरुणा और गंगा के तट की यह भूमि, जिस पर आज वाराणसी बसी हुई है, शायद लाखों साल पहले ही मानव जाति से आबाद होती चली आई होगी क्योंकि इसकी भौगोलिक परिस्थितियां आदिमानव के निवास के अनुकूल पड़ती थीं। वाराणसी के आस-पास के पहाड़ी इलाकों की प्राकृतिक गुफाओं और शिलाश्रयों में पाए जाने वाले आदि मानवों द्वारा उकेरे गए चित्र इस बात की पुष्ट गवाही देते हैं।
नाट्य भी अपने बीज रूप में आदिम चित्रों की भांति आदि मानव की ऐसी क्रियाओं से प्रस्फुटित हुआ है, जिन्हें हम आज रिचुअल की संज्ञा से पहचानते हैं। आदिमानव अपने शिकार में सफलता पाकर उसे अपनी गुफा में ले आते थे और यह सोचते थे कि शिकार ने कृपा करके अपने आपको उन्हें सौंप दिया है ताकि वे अपनी भूख मिटा सकें। इसीलिए वे खाने के पहले उसके प्रति शुक्रिया अदा करते थे ताकि भविष्य में भी उन्हें शिकार मिलते रहें। वे उसे बीच में रखकर उसके चारों ओर घूमते हुए नृत्य-नाट्यमूलक गतियां करते थे, जिसमें शिकार की क्रियाओं का अभिनटन होता था। इसमें वे अक्सर शिकार की खाल और उसके सिर को ओढ़ भी लेते थे। इन्हीं क्रियाओं से नाट्य का रिचुअल वाला रूप बनता चला गया जो सारी दुनिया में अलग-अलग तरह से विकसित मानव समुदायों में तरह-तरह के लोकनाट्यों और पूजा-पाठ, जन्म-मरण, शादी-ब्याह के अवसरों पर रूढ़िगत तौर पर प्रस्तुत होता रहा।
वाराणसी में आर्येतर जनसमुदायों के बीच इस तरह के अनेक रूप प्रचलित रहे होगें लेकिन यह कहना आज मुश्किल है कि शास्त्रीय नाट्यों पर इनका क्या प्रभाव पड़ा। फिर भी नाट्य के जन्म के संदर्भ में नाट्यशास्त्र तथा अन्यत्र भी जो मिथक हमें उपलब्ध हैं उनके अनुसार नाट्य के स्वरूप के विकास के संदर्भ में शिव का अन्यतम योगदान है। इसीलिए वे नटराज भी कहे जाते हैं और काशी का एक नाम ‘अविमुक्त क्षेत्र’ इसीलिए है कि शिव उसे छोड़कर कभी नहीं जाते। तब इस कल्पना को एक आधार जरूर मिलता है कि नाट्यशास्त्र और संस्कृत नाट्य के विविध रूपों में कहीं न कहीं काशी का महत्वपूर्ण योगदान होना चाहिए।
वह जमाना आद्य नाटकों का था। यह नाट्य कहीं तो नृत्यपरक था और कहीं गायनपरक। कहीं इसमें पुरुषों के युद्ध कौशल का प्रदर्शन था तो कहीं स्त्रियों की शृंगारिक लीलाओं का। इन्हीं में से नाट्यचार्य धीरे-धीरे संस्कृत के क्लासिकी नाट्य का विकास कर रहे थे और उसके लिए सिद्धांतों, नियमों, तकनीक आदि का शास्त्र बना रहे थे। वाराणसी में राजघाट की खुदाई से प्राप्त पुरातात्विक सामग्री और जातक कथाओं में आए संदर्भों में हमें इनके संकेत मिलते हैं।
कणवेरा जातक के काशी की श्यामा नामक गणिका अपने पलायित प्रेमी का पता लगाने के लिए नटों से सहायता लेती है। नटों को बहुत-सा धन देकर वह उनसे कहती है- ‘तुम्हारे लिए कोई स्थान अगम्य नहीं है। इसलिए तुम गांव-गांव नगर-नगर में जाना और समस्त मंडल में लोगों की भीड़ इकट्ठी कर इस आशय का गीत गाना कि श्याम जी रही है और केवल तुम्हारे लिए ही जी रही है। वह तुमसे प्रेम करती है और बस तुम्ही से प्रेम करती हैं।’
राजघाट की खुदाई में दूसरी शती ई0पूर्व की पत्थर में उकेरी हुई स्त्री की एक ऐसी प्रतिमा मिली है जो हाथ में दर्पण लेकर अपना शृंगार कर रही है। उसकी वस्त्र-भूषा, अंग-भंगिमा, मुख-मुद्रा सब कुछ उसके अभिनेत्री नर्तकी होने का प्रमाण दे रहे हैं। यहीं से मिली कुछ मृण्मूर्तियों में नाट्य की आनुषंगिक कलाओं, जैसे गायन तथा वादन, के कलाकारों के अस्तित्व के प्रमाण मिलते हैं। किन्नर युगल की मृण्मूर्तियों तथा पार्श्वनाथ की प्रस्तर प्रतिमा के ऊपर नागफण पर उकेरी गई गायकों, वादकों की मूर्तियों द्वारा भी ऐसे ही प्रमाण मिलते हैं।
संस्कृत के क्लासिकी शास्त्रीय नाट्य की परंपरा भी वाराणसी में खूब फली-फूली। उज्जयिनी, विदिशा, पाटलिपुत्र आदि की ही तरह वाराणसी में भी संस्कृत नाट्य की समृद्धि के सारे उपकरण मौजूद थे। प्रशिक्षित नाट्यकर्मी, कलाविलासी नागरिक, राजन्य और श्रेष्ठि वर्ग का धन ऐश्वर्य, बड़े-बड़े प्रासादों के प्रांगण और विशाल मंदिरों के नाट्य मंडप वाराणसी में नाट्य प्रयोक्ताओं को सहज सुलभ थे जिससे वे निश्ंिचत होकर धीरललित नायकों और मुग्धा नायिकाओं को अनेकानेक भावों से भावित करते हुए शरीर, मन और बुद्धि से आरंभ होने वाले अनुभवों के सहारे आहार्य, आंगिक, वाचिक और सात्विक अभिनयों द्वारा रस सृष्टि कर विदग्ध प्रेक्षकों को उसमें आकंठ निमज्जित कर देते थे।
संस्कृत नाट्य के चरम विकास की वाराणसी राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक बड़े परिवर्तनों के दौर से गुजरी। इस दौर में संस्कृत की क्लासिकी शास्त्रीय नाट्य परंपरा क्रमशः छीजती चली गई। उसके अंतिम दौर का एक उदाहरण हमें आठवीं शती की काशी पर आधारित कुट्टनीमतम् नामक ग्रंथ में मिलता है।
महाराष्ट्र का एक युवा राजकुमार समर भट काशी विश्वनाथ का दर्शन करने वाराणसी पहुंचा। दर्शन के बाद वह मंदिर के सभागार में अपने स्वागत में इकट्ठे सेठों, महाजनों, पुजारियों, पंडितों के बीच बैठा। स्वागत की बहुत-सी औपचारिकताओं के बाद उसने नर्तकों, बंसीवादकों, गायकों और गणिकाओं के दल के बीच बैठे नृत्याचार्य से कहा, ‘अब कहिए आपका सांगीतक कैसा है?’ तब नाट्याचार्य जो कुछ कहते हैं, उससे संस्कृत नाटक की पतनशील अवस्था का पूरा खाका खिंच जाता हैं।
‘अब नाटक की हालत बड़ी पतली हो गई है। अब तो गुण ग्राहक राजाओं की जगह मोल भाव करने वाले बनिए ही नाटक चला रहे हैं। दूसरी ओर नर्तकियां ढीक और धूर्त हो गई हैं। ऐसे में नाटक में सौष्ठव कहां से आ सकता है? अब तो नाटक करने के लिए नर्तकियां मिलती ही नहीं क्योंकि हम उन्हें पूरी जीविका दे नहीं पा रहे हैं। इसीलिए वे देह विक्रय की ओर ज्यादा झुकती जा रही हैं। वे अपना घर छोड़कर हटना ही नहीं चाहतीं और यदि रंगशाला में पहुंच भी जाती हैं तो जैसे ही यह सुनती हैं कि घर पर कोई आया है, भाग खड़ी होती हैं। अक्सर वे पूर्ण युवती होने के पहले ही दिल दे बैठती हैं। इसलिए अभिनय में अन्यमनस्क बनी रहती हैं। इससे चित्त एकाग्र नहीं होता और बिना एकाग्रता के अभिनय में रमणीयता नहीं आती। महाराज श्री हर्ष का स्वर्गवास होने पर मैं तीर्थ समझकर आजीविका के लिए वाराणसी चला आया और यहां इस मंदिर में आश्रय पाकर ठहर गया। अब तो बिना किसी उत्साह के रत्नावली नाटिका के अभिनय करने के लिए हाथ पैर चलाना भर रह गया।’
इस तरह संस्कृत नाटक की प्रस्तुतियां तो काशी में धीरे-धीरे निःशेष हो गईं, लेकिन संस्कृत नाटकों और नाट्यशास्त्र के अध्ययन-अध्यापन, टीका तथा व्याख्या की परंपरा बराबर चलती रही। पंद्रहवीं शताब्दी में राघव भट्ट ने अभिज्ञानशाकुन्तल के प्रसिद्ध अर्धद्योतनिका टीका काशी में ही लिखी। इस टीका की बहुत बड़ी विशेषता यह है कि इसमें अभिनय निर्देश के संकेत भी हैं। राघव भट्ट का जन्म और स्वर्गवास काशी में ही हुआ था।
काशी की नाट्य परंपरा के संदर्भ में जैन और बौद्ध नाट्य परंपराओं का उल्लेख भी महत्वपूर्ण है। इन दोनों ही धर्मों का काशी के साथ ढाई हजार साल पुराना संबंध रहा है और दोनों ही धर्मों में नाटक महत्वपूर्ण रहा है। जैन धर्म में तो नाट्य को बहुत अधिक महत्व दिया गया है। श्रावक के कर्तव्यों में अभिनीत करना ही महत्वपूर्ण माना गया है। इसलिए यह अनुमान किया जा सकता है कि काशी में जैन और बौद्ध परंपराओं के नाटकों का अभिनय होता रहा होगा। अवश्य ही इनकी भाषा संस्कृत न होकर पालि, प्राकृत या अपभ्रंश रही होगी।
वस्तुतः काशी के सबसे समर्थ परंपरा जननाट्यों की ही थी जिसके सबसे प्रारंभिक उदाहरण का संकेत हम कणवेरा जातक के प्रसंग में पहले ही कर आए हैं। जन नाटकों की भाषा प्राकृत, अपभंश, अवहट्ट से लेकर आधुनिक आर्य भाषाओं-हिंदी, भोजपुरी-इत्यादि के रूप में क्रमशः विकसित होती रही। यह परंपरा भी ढाई हजार वर्ष से कम पुरानी नहीं है। संस्कृत नाट्य का कमल इसी निरंतर प्रवाहमान जलाशय में लिखा था। इस परंपरा के प्राचीन प्रमाण बहुत विरल और परोक्ष हैं।
बारहवीं शती के राजा गोविंदचंद्र ने वाराणसी को ही अपनी राजधानी बनाया था। उनके सभा पंडित दामोदर शर्मा ने राजकुमारों को तत्कालीन काशी की जनभाषा सिखाने के लिए उक्ति व्यक्ति प्रकरण नामक ग्रंथ की रचना की थी। इसमें एक उद्धरण आया है- ‘पूत करें बधावें नाच’ अर्थात् पुत्र जन्म पर बधावे और नाच हुआ करते थे। यह कार्य आज भी यहां गौनहारिनें और किन्नर किया करते हैं। नकल इनके प्रदर्शन का प्रमुख अंग है। पुतली खेलाव से मालूम होता है कि उस समय यहां कठपुतली के खले भी होते थे। ‘नटाव बेटी नचाव’ अर्थात नट अपनी बेटियों को नचाते थे। ‘भांडु भंडा अवरहु भंडाव’ यानी काशी में उस समय बड़े ढीठ भांड हुआ करते थे जो डांटने पर और भी ज्यादा भंड़ैती करते थे।
प्रसिद्ध नाट्य इतिहासकार डॉ0 दशरथ ओझा ने लिखा है। ‘शंकरदेव की भाषा बारहवीं शताब्दी में प्राप्त बनारस के आस-पास की भाषा से बहुत कुछ साम्य रखती है। अभी शोध द्वारा बारहवीं शताब्दी की बोलचाल की भाषा का परिचय प्राप्त हुआ है। आज भी बनारस जिले के पूर्वी भाग की भाषा प्रायः वही जो शंकरदेव के नाटकों के गद्य मे ंपाई जाती हैं’ शंकरदेव असम के अंकिया नाट्क के बहुत प्रसिद्ध नाटककार हैं जिनके नाटक आज भी खेले जाते हैं। अवश्य ही उन्होंने काशी में प्रवास करते हुए यहां परंपरागत चले आ रहे किसी नाट्य रूप से प्रभाव ग्रहण किया होगा, जिसके साथ यहां की भाषा भी उनकी रचनाओं में चली गई होगी।
राजा गोविंदचंद्र के समय में काशी में जन भाषा के साहित्यिक और बोलचाल वाले दोनों रूपों का काफी प्रचलन हो गया था और जन भाषा में जननाट्य के विविध रूपों का भी बहुत विकास हो चला था। भंड कला जिसे अब भांड या भंड़ैती कहते हैं, वह भी जननाट्य का ही एक रूप है जिसकी ओर नाट्यशास्त्र के प्रसिद्ध टीकाकार अभिनव गुप्त ने भी संकेत किया है। इस कला का काशी और आस-पास के क्षेत्रों में निरंतर विकास होता रहा। बनारसी दास ने अपनी आत्मकथा अर्थकथानक में उल्लेख किया है कि व्यापार का दिवाला निकलने पर उन्हेंने भी भंडकला सीखी और उसके प्रदर्शन द्वारा अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने की कोशिश की।
वस्तुतः लगभग अठ्ठारहवीं शताब्दी तक काशी में जननाट्यों के अनेक रूपों का विकास हुआ और ‘सात वार नौ त्यौहार’ वाली काशी का कोई कोना ऐसा नहीं था जहां निरंतर कुछ न कुछ रंग कार्य न होता रहता हो। काशी पूर्वांचल की नाट्य राजधानी हो चली थी। यहां नाट्यकर्मियों, उनके पोषक संरक्षक नाट्यदर्शकों और नाट्यमर्मज्ञों की सजीव परंपरा विकसित हो गई थी। उस समय नाटकों का सबसे प्रचलित और प्रसिद्ध रूप वह था जो दोहे और चौपाइयों के रूप में लिखा जाता था और प्रस्तुतियों में गाने, नाचने, अभिनय करने और आशुसर्जित संवाद बोलने की प्रथा थी। ऐसा ही नाटक लछीराम ने करूणाभरण नाम से लिखा था और इस नाटक की परीक्षा करने के लिए उन्होंने काशीवासी कवींद्राचार्य सरस्वती को चुना
लछीराम प्रभु इह बिधि कही, सुधि बुधि सुनत न काहू रही।
तहं कवींद्र सुरसती संन्यासी पंडित ग्यानी कासी वासी।।
शास्त्र बेद पुराण बखाणै अर्थ उपनिषद् अनु भै जानें।
कृष्ण कथा जिन नीकैं सुनी प्रश्न करी तिन ग्यानी गुनी।।
लछीराम ने अपना पूरा नाटक कवींद्र सरस्वती को सुनाया। उन्होंने कई प्रश्न किए और लछीराम के उत्तर से संतुष्ट हुए। तब लछीराम ने लिखाः
“जब कवींद्र यूं लई परीच्छ्या तब जानी सतगुरु की सिच्छ्या।”
इसके बाद इस नाटक का पूरे साजोसमान के साथ अभिनय प्रस्तुत किया गया।
लछीराम नाटक कह्यौ दीनौ गुनिनु पढ़ाय।
भेख रेख नर्तन निपुन लीनौ नरनि सधाय।।
सुहृदमंडली जोरि कै कीनो बड़ो समाज।
जो उनि नाच्यौ सो कह्यौ कविता में सुख साज।।
खेद की बात है कि अभी तक हिंदी साहित्य में मध्यकाल के ऐसे नाटकों का ठीक से मूल्यांकन नहीं किया गया है।
काशी में जननाट्यों की दर्जनों परंपराएं अठ्ठारहवीं शती के अंत तक पूरे दमखम के साथ मौजूद थीं जिनका विस्तार से वर्णन विवेचन करने का यहां अवसर नहीं है।
लेकिन मध्यकाल में गोस्वामी तुलसीदास ने अपने महान महाकाव्य रामचरितमानस के आधार पर जो रामलीला चलाई वह लगभग चार सौ वर्षों से चली आ रही है और आज यह विश्वप्रसिद्ध हो गई है। इसकी जीवन्तता के पीछे छिपे रहस्यों को खोजने के लिए और इसमें निहित नाट्य के मूल तत्वों को समझने की कोशिश में यूरोप, अमेरिका तथा विश्व के और भी दूसरे भागों से बड़े-बड़े नाट्यकर्मी और विशेषज्ञ यहां प्रतिवर्ष सितंबर-अक्टूबर में आते रहते हैं और इसे लेकर तरह-तरह के मिथक भी गढ़ते रहते हैं। वस्तुतः काशी ने रामलीला के रूप में एक ऐसा सर्वथा विलक्षण नाट्य रूप विकसित किया जो संपूर्ण भारत में अपनी तरह का बिल्कुल अकेला है।
दरअसल तुलसी ने अपना रामचरितमानस मुख्यतः पढ़ने वाली पोथी की तरह नहीं लिखा था। जितने विशाल जनसमुदाय तक तुलसी पहुंचना चाहते थे उस निरक्षर जनसागर तक तब पोथी की पहुंच कहां संभव थी, इसीलिए व्यापक जनसंपर्क के तत्कालीन साधनों, जैसे कथा वाचन, गायन, नाट्याभिनय आदि के उपयोग की दृष्टि तुलसी में मानस लेखन के आरंभ से ही थी। उसका रूपबंध भी इसी दृष्टि से चुना गया था। वस्तुतः रामचरितमानस का रचना विधान बहुत कुछ मध्यकालीन पारम्परिक हिंदी नाट्य के आलेखों जैसा ही है लेकिन इसके बावजूद तुलसीदास नहीं चाहते थे कि मानस का अभिनय तत्कालीन लोकप्रचलित नाट्य परंपरा में हो। कारण वह परंपरा भोंड़े हास्य, नैतिक पतन और कामुकता का शिकार होकर बेहद भ्रष्ट हो चुकी थी। उसके व्यावसायिक नाट्यकर्मी भी सामाजिक सम्मान से रहित थे। ऐसी स्थिति में उनके हाथ मानस की क्या गति होती, इसे तुलसी अच्छी तरह समझ रहे थे। इसीलिए मानस की अपनी रचना के उद्देश्यों के अनुकूल अभिनय के लिए किसी सार्थक नाट्य रूप की तलाश में वे बराबर लगे रहे। इसके लिए वे नाट्यशास्त्र के गहरे अनुशीलन के साथ ही अपने व्यापक भारत भ्रमण के नाट्याशास्त्र के गहरे अनुशीलन के साथ ही अपने व्यापक भारत भ्रमण के नाट्यानुभवों को टटालते भी रहे। एक बार वे गंगा के तट पर बैठे हुए वाल्मीकिय रामायण ध्यान से सुन रहे थे। राम राज्य का प्रसंग था। सहसा वे अन्यमनस्क हो उठे और गंगा की लहरों को देखने लगे। उनकी चेतना में नाट्यशास्त्र और हनुमन्नाटक साकार हो उठा। तभी उन्हेंने अस्सी घाट के निकट शरत्पूर्णिमा की संध्या के समय रामराज्य की लीला का समारंभ किया। (संदर्भ गौतमचंद्रिका)।
इस तरह उन्होंने रामलीला का अपना नया नाट्यविधान पा ही लिया। तुलसी द्वारा वाराणसी में प्रवर्तित रामलीला भारत में प्रचलित सैंकड़ों पारम्परिक नाट्यरूपों में से बस एक रूप भर नहीं है। न ही वह राम नाट्यों और लीलाओं की बहुत सारी शैलियों में से महज एक और शैली मात्र है, जैसा कि रामनाट्य पर अनुसंधान करने वाले बहुत से लोगों ने प्रमाणित करने की चेष्टा की है। यह तो सामाजिक बदलावों से गहरा सरोकार रखने वाले एक ऐसे युगपुरुष की संपूर्ण कलात्मक रचनाधर्मिता का सबूत है जो अपनी बात कहने के लिए प्रचलित कला रूपों को मनचाहें तरीकों में ढाल सकता है। तुलसी की रामलीला के जरिए वाराणसी की नाट्य परंपरा ने अपनी एक खास पहचान बना ली। भक्तिकाल की वाराणसी में और भी कई लीलाएं विकसित हुई जिनमें वामनलीला, नृसिंहलीला और कृष्णलीला प्रमुख हैं।
उन्नीसवीं शती में जब आधुनिक युग की शुरूआत हुई तब मध्यकालीन पारंपरिक नाट्य के रूप में इन लीलाओं के अलावा वाराणसी के नाट्य परिवेश में भांड़ों के तमाशे, गौनहारिनों की नकलें, जुगीड़े आदि तथा गायिका नर्तकियों के भावाभिनव नाट्य की आवश्यकताओं की पूर्ति कर रहे थे।
ब्रितानी उपनिवेशवादियों के भारत आगमन के साथ ही यहां आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में जो अनुक्रिया-प्रतिक्रिया आरंभ हुई, उससे नाट्य भी अछूता न रहा। बल्कि नाट्य के क्षेत्र में तो ब्रितानी माडल कुछ ज्यादा ही निर्णायक साबित हुए और एक प्रकार से संपूर्ण पारम्परिक नाट्य को नकारता एक नया नाट्यान्दोलन भारत में शुरू हो गया। नये नाट्यान्दोलन की यह लहर बंगाल, गुजरात, महाराष्ट्र होती हुई हिंदी के हृदयस्थल वाराणसी में उन्नीसवीं शती के छठें-सातवें दशक तक पहुंच गई।
उन दिनों बनारस हिंदी माध्यम से बौद्धिकता और राष्ट्रीय चेतना का केंद्र बन रहा था। यहां की परंपराशीलता आधुनिकता के तेज दबाव से बचने की कोशिश में कहीं बीच का रास्ता ढूंढ रही थी। ऐसे परिवेश में यहां के बुद्धिविलासियों और सांस्कृतिक उन्नायकों का ध्यान इस नये नाट्यान्दोलन के संभावनाओं पर भी केंन्द्रित हुआ और वाराणसी में आधुनिक रंगमंच की स्थापना के उपाय सोचे जाने लगे। ऐसे लोगों की अगुवाई की तत्कालीन काशी के महाराज श्री ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह ने। नाट्यकला के उद्धार की सदृइच्छा से उन्होंने उन्नीसवीं शती के छठे दशक के अंत के आसपास अपने दरबारी कवि गणेश को इस दिशा में कदम उठाने की आज्ञा दी। इसे गणेश कवि ने इस प्रकार संकेतित किया है :
भपमौली श्री ईश्वरी नारायण महाराज।
लखि मेरे गुन रिझिकै आयुस दिए दराज।।
गए बीति अनगन बरस नाटक विधि व्योहार।
भये गुप्त तेहिं प्रगट करि दरसाबो सुखसागर।।
गणेश ने जो नाटक लिखकर तैयार किया वह बिल्कुल पारम्परिक और छंदबद्ध था। इससे नाट्य की पुनर्स्थापना की महाराज की इच्छा पूरी नहीं हो सकती थी। वह तो कोई ऐसी हिंदी नाट्य प्रस्तुति की परंपरा स्थापित करना चाहते थे जो सामान्य जन को शिष्ट मनोरंजन के साथ चरित्र निर्माण की प्रेरणा दे सके और साथ ही नए ढंग की अंग्रेजी नाट्य प्रस्तुति से टक्कर भी ले सके।
इस तरह का नाट्यालेख तैयार करने की जिम्मेदारी उन्होंने पंडित शीतलाप्रसाद त्रिपाठी को सौंपी। त्रिपाठी जी ने क्लासिकी संस्कृत नाटक, पारंपरिक रामलीला और यूरोपीय नाट्य प्रस्तुति के तत्वों को लेकर रामचरितमानस के आधार पर जानकी मंगल नाटक लिखकर तैयार कर दिया। इसकी प्रस्तुति का उत्तरदायित्व बाबू उश्वर्यनारायण प्रसाद सिंह को सौंपा गया। उन्होंने मुख्य रूप से रामलीला के अभिनेताओं को लेकर रिहर्सल शुरू कर दिया। नवागत नाट्य प्रस्तुति की शैली के अनुसार चित्रित पर्दों को भी तैयार कराना था। उस समय महाराज के दरबार में कंपनी शैली के कुछ महत्वपूर्ण चित्रकार मौजूद थे। उन्होंने तीन-चार पर्दे तैयार कर दिए। संगीत वृंद (आर्केस्टा) के लिए दरबार के संगीतज्ञों से तैयारी करायी गई।
अब प्रश्न था नाट्य प्रस्तुति के लिए स्थान कौन-सा चुना जाए। उस समय सबसे महत्वपूर्ण संभावित दर्शक अंग्रेज सैनिक और नागरिक अधिकारी थे जो मुख्य रूप से कैंटोनमेंट क्षेत्र में और उसके आसपास रहते थे। अंग्रेज अधिकारियों के मनोरंजन के लिए पचीस-तीस वर्ष पहले काशी के एक प्रतिष्ठित नागरिक, महाराज विजयानगरम् ने एक भवन यहीं बनवा दिया था जिसमें एक बड़ा हाल और कई कमरे तथा एक अहाता था। यहां अंग्रेज अधिकारी सपरिवार इकटठे् होते, नाचते-गाते और शौकिया छोटे-मोटे नाटक भी कर लेते। इसीलिए इस इमारत का नाम ‘असेंबली रूम्स एंड थियेटर’ रखा गया। लेकिन साधारण जनता ने इसका टकसाली नामकरण किया ‘नाचघर’ जानकी मंगल की प्रस्तुति के बाद भारतेन्दु ने इसे बनारस की नाट्यक्रियाओं के केन्द्र के रूप में देखा और अपनी ओर से इसका नामकरण किया ‘बनारस थियेटर’ लेकिन पंडित शीतलाप्रसाद ने इसके सरकारी संबंधों और अपनी राजभक्ति के कारण इसे ‘थियेटर रॉयल’ कहा। महाराज बनारस ने फैसला किया जानकी मंगल का अभिनय यहीं होगा। तिथि निश्चित की गई- चैत्र शुक्ल एकादशी संवत 1925 वि0 तदनुसार 3 अप्रैल 1868 ई0।
उस दिन बनारसियों के ऊपरी तबके में बड़ी गहमागहमी थी। बड़े-बड़े रईस, बुद्धिविलासी, कुछ महत्वपूर्ण महिलाएं, देशी और विलायती हाकिम, सैनिक अधिकारी, पहुंच वाले पंडित, ब्राह्मण, सबके बग्घी, फिटिन, इक्के, घोड़े, हाथी आदि के तामझाम कैंटोनमेंट के असेंबली रूम्स की ओर मुखातिब थे। सब महाराज बनारस द्वारा आयोजित ‘नया तमाशा थियेटर’ देखने को उतावले।
लेकिन वहां जुटी महफिल में तब खलबली मच गई जब यह मालूम हुआ कि लक्ष्मण बनने वाला लड़का बीमार पड़ गया। अब नाटक किसी दूसरे दिन के लिए स्थगित हो गया। तभी वहां अठ्ठारह साल के हरिश्चंद्र आ पहुंचे। उन्हें नाटक का स्थगित किया जाना पसंद नहीं आया और बड़े उत्साह, साहस और आत्मविश्वास के साथ उन्हेंने स्वयं लक्ष्मण की भूमिका में उतरने की पेशकश की : मैं लक्ष्मण बनूंगा, पोथी मुझे दीजिए, पाठ देखूं।’ महाराज ने कहाः ‘इस समय याद होना कठिन है।’ हरिश्चंद्र ने कहा : ‘गुस्ताखी माफ हो। मैं एक पाठ क्या संपूर्ण जानकी मंगल स्मरण कर लूंगा। एक बार देखना भर चाहिए।’ महाराज ने पुस्तक दी और भारतेन्दु ने घंटे भर के भीतर महाराज के हाथ में वह पुस्तक देकर ज्यों का त्यो अक्षर-अक्षर जानकी मंगल सुना दिया। तब महाराज बहुत प्रसन्न हुए। हरिश्चंद्र लक्ष्मण बने और नाटक खेला गया।
प्रेक्षक के रूप में समवेत सांस्कृतिक नेतृत्व करने वाले काशी के विशिष्ट और प्रभावशाली नागरिकों ने सूत्रधार के मुंह से नाट्यकला के नवीन अवतार की स्पष्ट घोषणा सुनी। यह प्रस्तुति सिर्फ वाराणसी के आधुनिक नाट्य युग की ही शुरूआत नहीं थी बल्कि पूरे हिंदी क्षेत्र में आधुनिक नाट्य का समारंभ था।
इस घटना के बाद भारतेन्दु के मन में हिंदी नाटक लेखन और उसके अभिनय के प्रति बेहद उत्साह जग गया और शीघ्र ही उन्होंने नाटक लिखना आरंभ कर दिया। लेकिन उससे भी बड़ा काम उन्हेंने यह किया कि वाराणसी में उन्होंने अपना एक नाट्य दल बना लिया जिसके प्रमुख कार्यकर्ता राधाकृष्ण दास, रविदत्त शुक्ल, दामोदर शास्त्री, पं0 चिंतामणि, पं0 माणिक लाल जोशी और उनकी मित्र मंडली के कई सदस्य थे। इसके द्वारा उन्होंने न केवल वाराणसी में, बल्कि बलिया के मेले में जाकर भी नाट्य प्रस्तुतियां की। उनके एक अभिनय का आंखों देखा विवरण अभी भी उपलब्ध है। गोपाल राम गहमरी ने एक संस्मरण में लिखा है :
काशी के बाबू हरिश्चंद्र ने बलिया में सत्य हरिश्चंद्र नाटक स्वयं हरिश्चंद्र बनकर खेला था जिसमें हिंदी के सुलेखक बाबू राधाकृष्ण दास सरीखे हिंदी सेवक और रविदत्त शुक्ल जैसे कवियों ने पार्ट लिया था। उस समय पर्दा और सीनों का जमाव नहीं था, लेकिन जो कुछ स्टेज उस समय बना था- बजाज के कपड़े तानकर जो काम भारतेन्दु ने दिखाया था उसकी महिमा यूरोपियन महिलाओं तक ने गायी थी। उस समय के कलक्टर साहब की मेम ने आंसुओं से भरा रुमाल निचोड़कर जब साहब की मार्फत भारतेन्दु जी से आग्रह किया था कि रानी शैव्या का श्मशान में विलाप अब धीरज छुड़ा रहा है, सीन बदला जाए तो इस पर सत्य हरिश्चंद्र बने हुए भारतेन्दु ने स्वयं ओवर एक्ट किया था और दर्शक मंडली में करुणा के मारे त्राहि-त्राहि मच गई थी।
भारतेन्दु के इस रंगकार्य ने काशी ही नहीं, पूरे हिंदी क्षेत्र के साहित्यकारों और अन्य प्रतिष्ठित बुद्धिवादियों के मन में रंगकार्य के प्रति ऊंचा भाव पैदा किया और उन्हें रंगकार्य करने की ओर प्रेरित किया जिससे सोद्देश्य सार्थक और जन कल्याणकारी नाट्य लेखन और प्रस्तुति की बड़ी समर्थ परंपरा सिर्फ काशी में ही नहीं बल्कि पूरे हिंदी क्षेत्र में चल पड़ी।
भारतेन्दु की ही प्रेरणा के फलस्वरूप काशी में नाटक करने के लिए नाट्य संस्थाओं का बनना आरंभ हो गया। ऐसी जिस पहली संस्था की सूचना हमें मिलती है उसका नाम था ‘द इंडियन नैशनल थियेटर’। आगे चलकर बीसवीं शताब्दी में काशी में जो पहली महत्वपूर्ण नाट्य संस्था बनी, उसका नाम ‘श्री नागरी नाट्यकला संगीत प्रवर्तक मंडली’ (1906 ई0) था। यही संस्था आगे चलकर दो संस्थाओं में बंट गई- भारतेन्दु नाटक मंडली और नागरी नाटक मंडली। इन दोनों ही मंडलियों ने काशी में रंगकर्म की बड़ी ही शक्तिशाली परंपरा कायम की जिससे सैकड़ों की संख्या में अभिनेता तैयार हुए। इन संस्थाओं ने नाट्य प्रस्तुतियों के लिए काशी में एक जीवंत परिवेश रचा, जिसके तहत यहां के विद्यालयों, क्लबों और अनेक तरह की संस्थाओं द्वारा नाटक खेले जाने लगे और काशी में समय के अनुकूल नाट्य प्रस्तुति का इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार हो गया।
बीसवीं शताब्दी के तीस के दशक तक नाट्य प्रस्तुतियों का सिलसिला काफी अच्छा और भरा पूरा था और इसका मॉडल पूरी तरह से पारसी व्यावसायिक रंगमंच था। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात, जो उस समय के रंगमंच के विश्लेषण से ज्ञात होती है, वह यह कि यहां नाट्य की दो समानान्तर धाराएं बनने लग गई थी। एक धारा तो पूरी तरह से पारसी व्यावसायिक रंगमंच का अंधानुकरण और नकल थी जिसमें ज्यादा सफल होने वाले पारसी रंगमंच के नाटकों का थोड़ा हिंदीकरण करके और कुछ बदलकर नाटककार अपना नया नाटक तैयार कर उसे खेलने के स्तर पर भारतेन्दु की ही परंपरा में गंभीर, सोद्देश्य और सरस ऐसे नाटक लिखने की थी हो हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि कर सके और साथ ही हिंदी का अपना स्वतंत्र रंगमंच बनाने के लिए प्रेरणा दे सके।
दूसरी धारा के रंगकर्मी साहित्यिक नाटक और पारसी व्यावसायिक प्रस्तुति शैली के बीच किसी तरह का समझौता करने की कोशिश के साथ आगे बढ़ रहे थे क्योंकि प्रस्तुति शैली का दूसरा विकल्प उन्हें मिल नहीं रहा था।
काशी को इस बात का गर्व है कि भारतेन्दु के अलावा उसने जयशंकर प्रसाद के रूप में हिंदी के महान साहित्यिक नाटककार और आगा हश्र के रूप में पारसी व्यावसायिक शैली के महान नाटककार को जन्म दिया। इतना ही नहीं, शायद यह काशी के समृद्ध नाट्यपरिवेश की करामात थी कि प्रेमचंद जैसे महान उपन्यास और कहानीकार ने भी मौलिक नाटक लिखे और नाटकों के अनुवाद भी किए।
काशी के नाट्य परिवेश ने हिंदी के माध्यम से नाट्य के सैद्धांतिक और शास्त्रीय अध्ययन तथा अभिनीत नाटकों की समीक्षा की भी सुदृढ़ परंपरा आरंभ की।
बीसवीं शती के चौथे दशक के शुरू में बोलती फिल्मों का निर्माण आरंभ हो गया। इसने व्यावसायिक सफलता का नया दरवाजा खोला दिया। इस नए व्यवसाय में पूंजी की तुलना में मुनाफा कई गुना ज्यादा होने की संभावना नजर आई। इससे नाट्य व्यावसायिकों का दल तुरंत इस ओर झुकने लगा। नाटक कंपनियां बंद होने लगीं और नाट्यशालाएं सिनेमाघरों में रूपांतरित की जाने लगीं। आगा हश्र ने 1933 ई0 में स्पष्ट कह दिया- ‘अब थियेटर नहीं चलेगा। उसका स्थान फिल्म लेगी।’ इसी समय जयशंकर प्रसाद भी इस बात को लक्ष्य करते हैः ‘हिंदी का कोई अपना रंगमंच नहीं है। जब उसके पनपने का अवसर था तभी सस्ती भावुकता लेकर वर्तमान सिनेमा में बोलने वाले चित्रों का अभ्युदय हो गया और फलतः अभिनयों का रंगमंच समाप्त-सा हो गया।’
इसी चौथे दशक उत्तरार्थ में आगा हश्र (1935 ई0) और जयशंकर प्रसाद
(1937 ई0) दोनों महान नाटककार भी रंगमंच की जगमगाती दुनिया को उजड़ती देखकर दूसरी दुनिया के लिए कूच कर गए। इस तरह ब्रिटिश औपनिवेशिक युग में अंग्रेजी के साथ आने वाले हलचल से भरे एक नाट्य युग का का अंत हो गया।
इस घटना का असर काशी के नाट्य परिवेश की नियति पर पड़ना ही था। यहां के नाट्यशालाएं भी धड़ाधड़ सिनेमाघरों में बदल गईं। व्यावसायिक रंगमंच के अनुकरण पर चलने वाली काशी की शौकिया नाट्य संस्थाएं दम तोड़ने लगीं। जैन नाटक मंडली काशी की शौकिया नाट्य संस्थाएं दम तोड़ने लगीं। जैन नाटक मंडली बंद हो गई। नागरी नाटक मंडली की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ थी और यह अपना पक्का रंगमंच बनवा रही थी। तब भी 1935 ई0 से 1947 ई0 के बीच यह बस मात्र तीन नाटक खेल सकी। पहले से ही लड़खड़ाती हुई चलने वाली भारतेन्दु नाटक मंडली का भी कोई पुरसाहाल न रहा। छोटी-मोटी इस तरह की और दूसरी संस्थाओं का तो कहीं पता भी न चला। नाटकों का अभिनय अब किसी स्कूल और कॉलेज या दूसरी तरह की संस्था के समारोहों पर यदा-कदा होने वाली प्रस्तुतियों तक ही सीमित रह गया।
इस तरह भारत की स्वतंत्रता के पूर्व के काशी के रंगमंच के इतिहास की कहानी पूरी हुई। स्वतंत्रता के बाद की काशी के रंगमंच का इतिहास मेरे रंग अनुभवों से प्रत्यक्षतः जुड़ा हुआ है जिसकी कहानी फिर कभी।