मेला

काशी में व्रत, त्यौहार, मेलों का अपना अलग रस है, रंग है। कहा जाता है कि काशी में हर्षोल्लास हर समय रहता है। यहां के मेले तो अपने-आप में अनूठे हैं। कई मेले ऐसे भी हैं जिसमें लाखों की भीड़ जुटती है। जैसे नाग नथैय्या, भरत मिलाप आदि।

दुर्गाजी का मेला – सावन के महीने (जुलाई-अगस्त) में मंगलवार को दुर्गाजी का मेला लगता है। सावन माह के आखिरी दिन मंगलवार को दुर्गाजी का दिन होता है। काशी में यह मेला दुर्गा कुण्ड स्थित दुर्गा जी के मंदिर में लगता है। इस मेले में पहले कजरी गायी जाती थी। साथ ही कजरी का दंगल भी होता था। काशी के रईस वर्ग इस मौके पर अपने उद्यानों को सजाकर वहां निजी मनोरंजक कार्यक्रमों का आयोजन भी कराते थे। हालांकि वर्तमान में मेले का स्वरूप बदल गया है। अब मेले में सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं होते हैं। मेले में दूर-दूर से लोग आते हैं।

लोलार्क छठ मेला- काशी के विश्व प्रसिद्ध घाटों में से एक अस्सी घाट के समीप ही लोलार्क कुण्ड है। इस कुण्ड पर भाद्र की शुक्ल षष्ठी (अगस्त-सितंबर) में लोलार्क छठ मेला लगता है। संतान प्राप्ति की कामना से महिलाएं अपने पति के साथ इस कुण्ड में स्नान करती हैं। स्नान के बाद नये कपड़े, लाल चूड़ियां और सिन्दूर से सजी महिलाएं लोलार्केश्वर लिंग को स्पर्श करती हैं। पहले लोलार्क मेले में नर्तकियों का कार्यक्रम होता था। वर्तमान में मेले का रंग रूप पूरी तरह से परिवर्तित हो गया है। अब मेले में कई तरह के कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। मेले में काफी संख्या मंे लोगों की भीड़ जुटती है।

शंकुलधारा मेला- काशी में शंकुलधारा का मेला भी लगता है। यह मेला हर वर्ष 16 जुलाई को लगता है। इसे कटहरिया मेला भी कहा जाता है। शंकुलधारा तालाब के पास ही द्वारकाधीश मंदिर भी है। मंदिर ही मेले का केन्द्र बिन्दु है। पहले इस मेेले में गीत संगीत का भव्य कार्यक्रम होता था, जिसमें राजा महाराजा आते थे। लेकिन समय के साथ इस मेले के प्रति लोगांे का आकर्षण कम हो गया है। अब न तो यहां गीत- संगीत का कार्यक्रम होता है और न ही जनसमुदाय उमड़ता है।

दुर्गापूजा या दशहरा मेला- वैसे देश भर में दुर्गा पूजा व दशहरा मेला लगता है। काशी में भी बड़े धूम-धाम से दुर्गापूजा होती है। अश्विन महीने के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से दुर्गापुजा शुरू होकर नौ रातों तक चलती है। इस दौरान काशी में कई जगह भव्य पंडाल बनाये जाते हैं, जिसमें माँ दुर्गा की अतिसुन्दर मूर्तियां स्थापित की जाती हैं। यहां प्रमुख रूप से लहुराबीर स्थित हथुआ मार्केट, पाण्डेयपुर मच्छोदरी में उत्कृष्ट पण्डाल बनाये जाते हैं। रात में झिलमिलाती लाइटिंग के बीच इन पंडालों की खूबसूरती बढ़ जाती है। इन पण्डालों को रात में देखने के लिए काफी संख्या में लोग आते हैं, लेकिन विजयादशमी के दिन मेला वृहत रूप ले लेता है। इस दौरान शाम को सिर्फ सड़कों पर लोग ही दिखते हैं।

लीलाएं – काशी में कई प्रकार की लीलाएं भी होती है। काशी की विश्वप्रसिद्ध रामलीला का आज भी जबर्दस्त आकर्षण हैं रामलीला को देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं। इस लीला का इतना भावपूर्ण मंचन होता है कि दर्शक पूरे राममय हो जाते हैं। काशी में वैसे तो कई जगह रामलीला आयोजित होती है। लेकिन सबसे प्रसिद्ध रामनगर की रामलीला है।

 

रामनगर की रामलीला

 रामनगर की रामलीला की शुरूआत कब हुई, इस संबंध में कई रोचक किस्से हैं। कहा जाता है कि राजा महीपनारायण सिंह छोटा मीरजापुर की रामलीला के मुख्य अतिथि थे। लेकिन किसी कारणवश वे रामलीला में कुछ देर से पहुँचे। तब तक धनुषभंग हो चुका था। इसका उन्हें अत्यधिक खेद हुआ। तब उन्होंने 1855 ई0 में रामनगर में रामलीला कराने का निर्णय लिया। रामनगर की रामलीला को नाटकीय रूप से समृद्ध करने का श्रेय महाराजा ईश्वरीनारायण सिंह को जाता है। उन्होंने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और रीवां के महाराजा रघुराज सिंह के सहयोग से रामलीला के संवादों का पुनः लेखन कराया। साथ ही कथा के अनुसार अयोध्या, जनकपुर, अशोक वाटिका और लंका को रामनगर के अलग-अलग स्थानों का नाम दिया। एक ही दिन अलग-अलग स्थानों पर कई दृश्यों का मंचन होता है। परम्परा के अनुसार  रामलीला का शुभारंभ प्रतिदिन शाम पांच बजे शहनाई वादन के साथ होता है। इसी समय हाथी पर सवार होकर काशीनरेश लीला स्थल पर आते हैं। रामलीला शाम सात बजे से रात 10 बजे तक चलती है। जिसका लोग भरपूर आनंद उठाते हैं। रामनगर की रामलीला भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी से लेकर अश्विन पूर्णिमा तक चलती है। यानी 31 दिनों तक रामनगर में भगवान राम की लीलाएं होती रहती है। रामलीला के लिए पात्रों का चयन ब्राह्मण परिवार के 10 से 12 वर्ष के बीच बटुकों में से पहले ही हो जाता है। जो राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न और सीता का पाठ निभाते हैं। रामलीला की अन्य भूमिकाओं के लिए 16 वर्ष से अधिक आयु वाले बच्चों का चयन होता है। रामलीला होने से करीब दो महीने पहले से ही चयनितों को व्यास प्रशिक्षण देने लगते हैं। रामलीला में चौपाइयों को संगीतमय ढंग से प्रस्तुत करने वाले को रामायणी कहते हैं। रामलीला के निर्देशक व संचालक को व्यास कहते हैं। इस समय रामनगर की रामलीला के व्यास पं0 लक्ष्मी नारायण पाण्डेय हैं, जो इस समय रामलीला का बेहतर संचालन और निर्देशन कर रहे हैं। रामलीला के दौरान काशी नरेश की ओर से पहले साधु महात्माओं के भोजन और रहने की व्यवस्था की जाती थी हालांकि अब यह परम्परा समाप्तप्राय हो गयी है। रामनगर की रामलीला देखने के लिए लोगों में गजब की उत्कंठा रहती है।

 

चेतगंज की नाक कट्टैया

काशी में चेतगंज की नाककट्टैया भी काफी प्रसिद्ध है। इसमें करीब एक लाख लोगों की भीड़ जुटती है। लोग अपने घरों की छतों से भी इस लीला को देखते हैं। शूपर्णखा की नाक कट्टैया के दृश्य के रूप में यह लीला प्रचलित है। लक्ष्मण जी की ललकार के जवाब में चेतगंज में एक विशाल राक्षस सेना जुलूस के रूप में आती है। यह जुलूस पिशाचमोचन से शुरू होकर रामलीला मैदान तक जाता है। इस दृश्य को देखने के लिए जनसैलाब उमड़ पड़ता है। लोग अपने कैमरे में इस दृश्य को कैद करते हैं। नाक कट्टैया करवा चौथ या कार्तिक महीने की कृष्ण पक्ष के चतुर्थी को पड़ती है।

 

भरत मिलाप

 काशी में नाटी ईमली का भरत मिलाप भी विश्व प्रसिद्ध है। विजयादशमी के दूसरे दिन एकादशी को भरत मिलाप का आयोजन बड़े ही रोचक एवं आकर्षक ढंग से किया जाता है। इस लीला में एक अभूतपूर्व झांकी होती है। जिसमें राम, सीता और लक्ष्मण तपस्वी के वेश में मंच पर बैठे रहते हैं। वहीं दूसरी ओर भरत और शत्रुघ्न रहते हैं जो उनके सामने आकर साष्टांग प्रणाम करते हैं। राम उन्हें गले से लगा लेते हैं। इसके बाद विमान आकर राजकुमार को नगर की ओर ले जाता है। यह लीला महज 5 मिनट की होती है। लेकिन इस ऐतिहासिक भावपूर्ण मंचन को देखने के लिए लाखों की भीड़ जुटती है। भरत मिलाप के सम्मान में काशी में उस दिन कहीं पर रामलीला नहीं होती है।

नागनथैया

काशी में नाग नथैया का भी अपना अलग आकर्षण है। तुलसीघाट पर मात्र पांच मिनट की इस कृष्ण लीला को देखने के लिए लोगों का हुजूम उमड़ पड़ता है। इस लीला के दौरान श्रीकृष्ण अपनी मित्र मंडली के साथ यमुना तट पर गेंद खेल रहे होते हैं। तभी गेंद नदी में चली जाती है। गेंद निकालने के लिए कृष्ण कदम्ब की डाली से यमुना में कूद जाते हैं। कुछ देर बाद विषधर कालिया के फन (मस्तक) पर खड़े होकर नदी के सतह पर आते हैं। इस लीला में भाग लेने वाले बच्चे 11 से 14 वर्ष के होते हैं। लोग कदम्ब की डाल संकटमोचन मंदिर से तुलसीघाट तक लाते हैं। लीला समाप्त होने के बाद डाली गंगा तट पर रोप दी जाती है। इसको देखकर लोग भाव विभोर हो जाते हैं।

 

 

ध्रुपद मेले में संगीत का मनभावन श्रृंगार


तुलसीघाट पर 24 से 27 फरवरी तक चला अखिल भारतीय 39 वां धु्रपद मेला
कल-कल करती मां गंगा की अविरल धारा और उसके समानान्तर चार निशाओं तक बही शास्त्रीय संगीत की रसधार में श्रोता गोते लगाते रहे। सुर, ताल और बंदिशों से सजे शास्त्रीय संगीत का अर्पण धु्रपद मेले को अविस्मरणीय बना गया। धु्रपद मेले के गुलदस्ते में शास्त्रीय संगीत के हर रस का रंग देखने को मिला। इस दौरान फनकारों ने अपनी प्रस्तुतियों से श्रोताओं को भीतर से झंकृत कर दिया। महाराजा बनारस विद्या मंदिर न्यास की ओर से आयोजित अखिल भारतीय 39 वां ध्रुपद मेला 24 से 27 फरवरी तक परम्परानुसार तुलसीघाट पर सायंकाल सात बजे से आयोजित किया गया। चार दिनों तक चले इस संगीत के संगम में श्रोता ताल लय और बंदिशों मे डूबते-उतराते रहे। इस दौरान किसी फनकार ने राग मल्हार तो किसी ने रागश्री से अपना जादू बिखेरा। धु्रपद मेले का उद्घाटन 24 फरवरी को पूर्व काशी नरेश के पुत्र अनंत नारायण सिंह एवं प्रो0 विश्वमभरनाथ मिश्र ने दीप जलाकर किया। इसके बाद शुरू हुआ संगीत समर। शुरूआत अवधी घराने के डॉ0 राजखुशी राम ने मृदंग बजाकर किया। उन्होंने कई पारंपरिक रागों में ऐसा मृदंग बजाया कि श्रोता खुद को वाह-वाह करने से नहीं रोक पाये। इसके बाद अशोक धर नंदी ने राग पुरिया में तान छेड़ी। जैसे-जैसे निशा ढल रही थी संगीत की सुमधुर लहरियां जवां हो रही थी। इस बीच आरती बनर्जी ने रूद्रवीणा पर राग सरस्वती सुनाकर भाव विभोर कर दिया। वहीं अन्य कलाकारों ने अपनी प्रस्तुतियों से संगीत के विभिन्न आयामों का जलवा बिखेरा। ध्रुपद मेले की दूसरी निशा प्रख्यात धु्रपद गायक प्रो0 ऋत्विक सान्याल के गायन से सराबोर रही। प्रो0 सान्याल ने रागश्री में ‘‘ भस्म भूषण अंग लहे शिव ’’ बंदिश सुनाकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। उनके साथ पखावज पर तापस दास, तानपुरा पर आशुतोष भट्टाचार्या, रंजीता मुखर्जी, जापान के माव सुजुकी ने संगत किया। इसके बाद उस्ताद वासिफुद्दीन डागर ने अपनी प्रस्तुति ने धु्रपद में रस घोला। इस दौरान पंडित देवव्रत मिश्र ने राग पुरिया सुनाकर झूमने पर मजबूर कर दिया। इस मौके पर उस्ताद वासिफुद्दीन डागर, दाल चंद्र शर्मा, रामकुमार मलिक को सम्मानित भी किया गया। धु्रपद मेले की तीसरी निशा युवाओं के नाम रही। राजा मान सिंह तोमर विश्वविद्यालय ग्वालियर के छात्रों ने बेजोड़ प्रस्तुति देकर खूब वाह-वही लूटी। छात्रों ने राग भोपाली में मध्य व द्रुत तय में अलाप सुनाया। वहीं, चौताल में बंदिश ‘‘ तू ही चन्द्र तू ही पवन’’ और ‘‘ तेरो मन में कितने गुन रे’’ सुनाकर ऐसा जादू चलाया कि सभी तारीफ करते रहे। इसके बाद मुंबई की सलमा घोष ने राग कंबोजी में ‘‘ हे शिव महादेव व ‘‘ शिव-शिव शंकर आदि देव सुनाया। कार्तिक कुमार ने हेमंत राग ने मन मोहा तो मधु चन्द्रा ने राग बागेश्वरी प्रस्तुत किया। धु्रपद मेले की अंतिम निशा हल्की-हल्की फुहारों के बीच शुरू हुई। जिसकी शुरूआत भक्तराज भोंसले ने पखावज से चौताल में शिव परन सुनाकर किया। उनके साथ सारंगी पर संगत धु्रव कुमार ने किया। इस बीच बी0एच0यू0 आई0आई0टी0 व कनेडियन सेंटर के छात्रों ने नाट्य वीर गंगा के मंचन से स्व0 वीरभद्र मिश्र को श्रद्धांजलि दी। पंडित कैलाश पवार ने राग विहाग में बंदिशें और डॉ0 मधु भट्ट ने भी अपनी प्रस्तुति ने महौल को इन्द्रधनुषी छटां दी। इस दौरान पेंटिंग प्रदर्शनी भी लगायी गयी थी जिसका उद्घाटन प्रो0 विश्वम्भरनाथ मिश्र ने किया। पूरे धु्रपद मेले का संचालन जाने-माने कला समीक्षक डॉ0 राजेश्वर आचार्य ने किया।

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