गंगा तरंग-रमणीय-जटाकलापं गौरी निरंतर विभूषित वामभागम्
नारायण-प्रिय मनंग-मदापहारं वाराणसीपुरपत्ि भज विश्वनाथम
यह श्लोक भगवान शिव के वाराणसी के कण-कण में विद्यमान होने का साक्ष्य देता है। वैसे भगवान शिव व वाराणसी के विषय में किसी साक्ष्य की जरूरत नहीं क्योंकि यह शाश्वत सत्य है। काशी में ऐसा कोई स्थान नहीं होगा जहां शिवलिंग के रूप में देवाधिदेव महादेव विराजमान न हों। इस पावन देवभूमि पर आकार की दृष्टि से सबसे बड़े तीन शिवलिंगों में जोगेश्वर महादेव एक हैं। मान्यता के अनुसार जोगेश्वर महादेव के आकार में वर्ष भर में एक जौ के बराबर वृद्धि होती है। जिससे यह शिवलिंग काफी विशाल है। कहा जाता है कि इनका लगातार तीन साल तीन महीने दर्शन-पूजन करने से योग की प्राप्ति होती है और मनुष्य सभी बंधनों से मुक्त होकर परमसुख को प्राप्त करता है। जोगेश्वर महादेव स्वयंभू शिवलिंग हैं। इनका प्राचीन नाम जैगीषश्वेर था। कथा के अनुसार जिस स्थान पर वर्तमान में जोगेश्वर महादेव हैं। वहां प्राचीनकाल में एक गुफा थी जिसमें जैगीष नाम के ऋषि तपस्या में लीन थे। जब भगवान शिव अपने पूरे परिवार के साथ काशी छोड़कर मन्दराचल पर्वत जाने लगे तो तपस्यारत जैगीष ऋषि ने शिव जी से काशी को छोड़कर नहीं जाने की विनती की। लेकिन शिव जी नहीं माने और मन्दाराचल पर्वत चले गये। अपने ईष्ट देव के जाने से उद्वेलित जैगीष +ऋषि उसी गुफा में हठ योग करते हुए तपस्या में लीन हो गये। तपस्या करते हुए जैगीष ऋषि को सदियों बीत गया जिससे उनका शरीर जीर्ण-शीर्ण हो गया। उधर जब भगवान शिव को जैगीष ऋषि के बारे में ध्यान आया तो उन्होंने अपने गण नंदी को तुरंत एक लीलारूपी कमल देकर जैगीष ऋषि को स्पर्श कराने के लिए भेजा। गुफा में पहुंचकर नंदी ने भगवान शिव के दिए कमल को तपस्यारत जैगीष ऋषि से स्पर्श कराया। कमल के छूते ही जैगीष +ऋषि का शरीर फिर से सुन्दर और कांतिमय हो गया। इसके बाद जैगीष ऋषि गुफा से बाहर निकले तो साक्षात भगवान शिव का दर्शन पाया। शिव जी के दर्शन से भावविभोर हुए जैगीष ऋषि उनकी स्तुति करने लगे। अपने भक्त के असीम भक्ति से प्रसन्न शिव जी ने जैगीष ऋषि से वरदान मांगने को कहा। इस पर ऋषि ने भगवान शिव से उनके प्रतिदिन दर्शन का वरदान मांगा। उसी दौरान उस स्थान पर शिवलिंग प्रकट हुआ। मान्यता के अनुसार यही शिवलिंग जोगेश्वर महादेव हैं। जोगेश्वर महादेव