भानुशंकर मेहता
व्यास जी कथा कह रहे थे- “भक्तजनों एक थे राजा दिवोदास-सो इन्द्र भगवान उनसे कहते भये कि आप काशी का राजकाज संभालो क्योंकि वहाँ बड़ी दुर्व्यवस्था है। तब दिवोदास कहते कि सो हम कर लेंगे पर इक शर्त हमारी भी है कि सब देवता लोग काशी छोड़ चले जायें काहें कि इन्हीं लोगों के कारण सारी गड़बड़ी है। सो आदेश भया और सब देवता काशी से जा भये। अनेक वर्षों तक दिवोदास राजा अच्छा शासन करते भये। उधर देवता काशी छोड़ने से बड़े दुखी थे। अस्तु एक बालक का सहारा लेते भये। यह बाले थे गणे-सिद्धिदाता, बुद्धिदाता, विघ्नविनाशन। गणेश जी राजा से कहते भये कि सात दिन बाद एक ब्राह्मण आयेगा सो तुम वह जो माँगे दे देना। राजा सीधे थे सो कह दिये अच्छा। सात दिन बाद विष्णु भगवान ब्राह्मण याचक का भेष बनाकर राजा के पास आयसे। राजा बोले-जो माँगो हम देवेंगे। सो विष्णु भगवान कहते भये कि अब देवता लोगों को काशी जी में आने दो और बसने दों सो काशी का फाटक खुल गया और समस्त देवता लोग काशी जी में आकर बस गये । तब ई बात खुली कि शंकर भगवान तो काशी छोड़कर गये ही नहीं थे बल्कि लिंग रूप छिपकर काशी वास करते रहे। शंकर जी प्रकट हुए तो कहते भये कि काशी हमें बहुत प्रिय है सो काशी छोड़कर कभी नहीं जायेंगे। तब शंकर जी का नाम ‘अविमुक्तेश्वर’ पड़ा।”
यह कथा सुनकर हम सोचने लगे कि इसका अर्थ क्या है? एक और कथा याद आई कि काशीराज धृतराष्ट्र ने अश्वमेघ यज्ञ किया और इसका घोड़ा कुरु पंचालों ने पकड़ दिया और यज्ञ अधूरा रह गया। इसका प्रतिरोध करने के लिए काशीवासियों ने श्रौताग्नि का बहिष्कार कर दिया अर्थात् वैदिक युग के धार्मिक कार्य बन्द कर दिये। काशी के स्वतन्त्रता प्रिय विद्रोही स्वभाव की उसके इतिहास में बराबर झलक मिलती है। वर्तमान के इतिहास की चर्चा करें तो ‘घर की घड़ी’ की याद आती है। बात सन् 1810 की है जब अंग्रेजी सरकार ने गृहकर लगाने का निश्चय किया। बनारस के लिये यह नयी बात थी। उनको भय कि शासन को इस तरह नये-नये कर लगाने की छूट दे दी गयी तो वे भविष्य में बच्चों पर भी कर वसूलने लगेंगे। पहले तो बनारस वालों ने एतराज, अर्जी आदि का सहारा लिया पर जब सुनवाई न हुई तो बनारस के तीन लाख लोगों ने एकजुट होकर हड़ताल कर दी। ऐसी अनोखी हड़ताल विश्व के इतिहास में कभी नहीं हुई। समूचा नगर घरों में ताले बन्द करके मैदान में बैठ गया। दिसम्बर-जनवरी का महीना, कड़ाके की ठंड और वर्षा सहकर भी लोग एक महीने तक घर से बाहर रहे और सरकार को गृहकर वापस लेना पड़ा। इसी प्रकार बनारसी विद्रोहों की अनेक कथाएँ हैं जैसे रामहल्ला, गोरैय्य शाही आदि।
खैर तो हम काशी के पुराण और इतिहास की चर्चा कर रहे थे। कहते हैं विष्णु ने यह नगर शिव को दान कर दिया था। देवाधिदेव के काशीनाथ होने से पहले यहाँ वृक्ष, नाग, यक्ष, प्रेत आदि की पूजा होती थी सो सब के सब भोलेनाथ की सेना में भरती हो गये। शम्भू की बारात में काशीवासी भी शामिल हो गये और इसकी भी एक कथा है कि पुराण महाभारत के रचयिता वेदव्यास काशी आये, तीन दिन किसी ने उन्हें भिक्षा नहीं दिया तब महर्षि ने श्राप दिया कि यहाँ के लोग दरिद्र, मूर्ख और लंठ हो जायेंगे। व्यास ने कुपित होकर गंगा पार दूसरी काशी बनाने का प्रयत्न किया पर भोलेनाथ के परम बनारसी पुत्र गणेश जी ने बड़ी तिकड़म से योजना पर पानी फेर दिया। हाँ व्यास जी के श्राप का नतीजा यह हुआ कि बनारसी शंकर की बारात में शामिल हो गये, बड़े गर्व से अपने को बाबा का गण कहने लगे। कहा गया कि बनारस के लोग ‘निरामयाः, निरांतकाः, संतुष्टा, परमायुषाः वसति यत्र पुरुषाः काला।़ज्ञाता इव प्रजाः” अर्थात् इस नगर में काल जिन्हें भूल गया माने दीर्घजीवी, हट्टे-कट्टे, निडर, अल्प में याने चना चबैना गंगाजल पर संतुष्ट रहने वाले परमायुष पुरुष रहते हैं। जैसा राजा वैसी प्रजा।
काशी में राजा अनेक हुए, राजवंशां का लम्बा और रोचक इतिहास है पर यहाँ के एक ही राजा हैं-बाबा भोलेनाथ बड़े ही सरल, आशुतोष, बस बम-बम कहकर एक लोटा गंगाजल चढ़ाया और बाबा प्रसन्न। अरे! यह शिवरात्रि की कथा ही उनकी दरियादिली का प्रमाण है कि बिल्ववृक्ष की डाल पर बैठा भूखा-प्यास व्याघ्र हिलता-डुलता तो उसके पैर से पत्ते टूटकर उपेक्षित पड़े शिवलिंग पर गिरते बाबा ने इसे भक्त की पूजा मान ली और प्रसन्न हो गये है। कोई ऐसा देवता जो बनारसवालों के बाबा से मुकाबला करे। कहते हैं जिसे दुनिया में कहीं शरण न मिले उसके लिये बाबा का दरबार खुला है। बनारसी मानते हैं कि माई अन्नपूर्णा के दरबार में भूखे पेट कोई नहीं सोता।
बनारस बहुत पुराना शहर है-तीन लोक से न्यारा शिवजी के त्रिशूल पर धरती से अलग बसा शहर है। ऐसा प्रतीत होता है कि जब पृथ्वी का निर्माण हुआ तो आदिदेव महादेव ने अपने लिए एक नगर विशेष की मांग की और काशी ब्रह्मज्ञान की ज्योति से प्रकाशित नगरी को चुना, तब सभी देवी-देवता यहाँ बसने को दौड़ पड़े। यह देख धरती कांप उठी कि इतना भार कैसे वहन करूंगी, सो करुणावतार सदाशिव ने उसे आश्वासन दिया। हे विष्णु पत्नी मत घबरा-मैं काशी को अपने त्रिशूल पर उठा लेता हूँ, अतः तुझ पर कोई भार नहीं रहेगा। सो बन गया अलबेला-नगर, इतना प्यारा कि शंकर की जटा पर बैठी गंगा ने ललक कर इसे गोद में ले लिया। वे कहते हैं कि काशी में गंगा उत्तरवाहिनी, अर्धचन्द्राकार है पर सच्ची बात तो यह है कि गंगा मैया अपनी बांहों में काशी जी को समेटे हैं।
चलिये कथा वार्ता को छोड़कर इतिहास पुराण की चर्चा करें। अथर्ववेद, शतपथ ब्राह्मण और राजघाट की खुदाई से प्राप्त जानकारी से यह तो निश्चित है कि आज से पांच-सात हजार वर्ष पहले से तो यह शहर विद्यमान है ही। महर्षि वाल्मीकि और वेदव्यास अपने महाकाव्यों में इसका गुणगान करते हैं। काशीराज की कथाएँ धृतराष्ट्र और पाण्डु की कथाएँ बनती हैं। जैनधर्म के चार तीर्थंकरों ने काशी में जन्म लिया, इनमें तेईसवें पार्श्वनाथ तो काशीराज के पुत्र ही थे। इतिहास मानता है कि ये ईसा से 800 वर्ष पूर्व विद्यमान थे- तब सोचिये सातवें, आठवें और ग्यारहवें कितने हजार वर्ष पूर्व हुए होंगे। कहते हैं विश्वामित्र के पुत्र रेणु ने काशी की स्थापना की या फिर चंद्रावंशी काश ने इसे बसाया है। हैहयवंशी राजाओं और काशी के राजाओं में अनेक युद्ध हुए। दिवोदस, दुर्दम, हर्यश्च, सुखदेव, प्रतर्दन, फिर बृहद्रथ काशी के राजा हुए और यह इतिहास महाभारत से पहले का है। कंस के ससुर जरासंध ने काशी पर अधिकार किया, कृष्ण को काशी पर आक्रमण करना पड़ा। फिर ब्रह्मदत्त के वंशजों ने काशी पर राज्य किया जिसका वर्णन बौद्ध जातकों में मिलता है। कोसल और मगध के बीच काशी बटती रही। अजातशत्रु-प्रसेनजित-नाग-नंद-मौर्य-शुंग आदि राजाओं के बाद पहली सदी में विदेशी कुषाण का राज्य हुआ। कनिष्क ने बनारस पर कब्जा किया दूसरी सदी में भारशिवों ने इसे जीतकर दश अश्वमेध यज्ञ किये। चौथी से छठी तक यह गुप्त साम्राज्य का अंग बना। फिर चालुक्य, 7वीं सदी कन्नौज के मौखरी काशी के राजा बने, किन्तु हर्षवर्धन के बाद पुनः गुप्त जीते पर यशोवर्मा ने उन्हें हराकर भगा दिया। आठवीं सदी में गौड़ नरेश धर्मपाल और उसके बाद गुर्जरप्रतिहारों ने ग्यारहवीं सदी तक काशी पर राज्य किया। फिर आये गांगेय देव कलचुरी। इन्हीं के शासन काल में महमूद गजनवी के सेनापति नियाल्तगीन ने बनारस को लूटा। गांगेय कर्ण के बाद भोज, चंदेल, बनार के शासनों के सौ वर्ष अराजकता छायी रही। तब आये गाहड़वाल चंद्रदेव सन् 1147 में फिर तो ध्वंस की कथौ-गौरी के सेनानायक कुतुबुद्दीन ऐबक ने एक हजार मंदिर तोड़कर पौराणिक काशी को खण्डहर बना दिया। तुगलक से छूटे तो शर्की सम्राटों द्वारा लूटे गये। फिर आये सिकन्दर लोदी, मुगल बादशाह-हुमायूँ, अफगान शेरशाह सूरी, अकबर, औरंगजेब तक। मुगल साम्राज्य के पतन काल में बनारस अवध के मुर्त्तजा खां को जागरी में दिया गया। मीररुस्तम अली को बर्खास्त करवा के मनसा राम ने वर्तमान काशी राजवंश स्थापित किया- पर तभी आ धमके अंग्रेज साहब बहादुर-व्यापारी लुटेरे दो सौ वर्ष पूर्व कंपनी सरकार राजा हुई। फिर बर्तानिया की पूरी अमी की कटोरिया सी विक्टोरिया रानी का राज हुआ जिसका अंत 1947 में हुआ।
अब इनमें से हर एक पर मोटे ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। वाराणसी पुराण इतिहास की नगरी है, जिसमें धन्वन्तरी, सुश्रुत, महर्षि पतंजलि औश्र आदि शंकराचार्य जैसे महापुरुषों के नाम हैं। भगवान बुद्ध ने बोधि प्राप्त करने के बाद यही संकल्प किया कि वाराणसी जाकर धर्म चक्र प्रवर्तन करूँगा और यहाँ सारनाथ में उन्होंने ईसा से पाँच सौ वर्ष पूर्व अपना पहला उपदेश दिया और समूचा एशिया भारत का चेला बन गया। यहाँ का सिंह शीर्ष और चक्र आज भी भारत पर शासन करता है।
मजेदार बात यह है कि बनारस का हाजमा ‘लक्कड़-पत्थर हजम’ वाला है। जो यहाँ आया, यहीं का हो गया। सब अपने इष्टदेव साथ लेकर आये और उनके मन्दिर बनाकर देवता को यहाँ बिठा गये। इसी से बनारस बन गया-सब धर्मों की राजधानी। यहाँ केवल शिवजी के अनेक मन्दिर नहीं है बल्कि 56 विनायक, नौ दुर्गा, नौ गौरी, द्वादश सूर्य, अष्ट भैरव, नाग, यक्ष, बीर, बरम, यक्ष, वैष्णव मंदिर है। दादू, कबीर, रामानंदी, रैदास, अघोरपंथ के स्थान है, जैन मंदिर, बौद्ध मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे हैं। तंत्रशास्त्र का अनूठा गुरु मंदर है, पीरो-शहीदों की मजारें हैं, चौरे हैं और न जाने कितने उपासना स्थल हैं। सबसे विचित्र बात यह है कि यहाँ मृत्यु भी मंगल है। यहाँ के दर्जनों यात्राओं के क्रम आपको चक्कर में डाल देंगे। पर पंचक्रोशी तथा पंचतीर्थों तो कही जासकती है। यह शहर छोटा भारत भी है। यहाँ सप्तपुरी चारों, धाम सभी भाषाओं के बोलने वाले अपने-अपने प्रांत बनाकर रहते हैं। यह सर्वविद्या की राजधानी है। कृष्ण के गुरु काश्य संदीपन और दक्षिण भारत के गुरु अगस्त काशी के थे। बिना काशी में अपना सिद्धान्त पंडितों के आगे प्रस्तुत किये कोई भी धर्म, सम्प्रदाय, दर्शन मान्य नहीं होता था। आज भी यहाँ आधा दर्जन विश्वविद्यालय हैं। यह नगर एक साल के तीन सौं पैंसठ दिन में छः सौ अठहत्तर त्योहार बनाता है-व्रत एवं त्यौहार के आलावा बनारस को मेले-ठेले, लीला का शौक है।
कारीगरी और कला तो आदिकाल से बनारस के रक्त में प्रवाहित रही है। जिस किसी वस्तु के आगे बनारसी विशेषण लगा वह विशिष्ट बन गयी फिर वह बनारसी साड़ी हो या मीना, मुकुट हो या मिठाई, पान हो या ठंडई, चित्र हो या मूर्ति। बनारस की विभूतियों की तो चर्चा करना सम्भव ही नहीं है- व्यास, वाल्मीकि, पतंजलि, कपिल, गौतम बुद्ध, पाश्वनाथ, अश्वघोष, पाणिनी, शंकराचार्य, बिल्हण, रामानंद, कबीर, रैदास, वल्लभाचार्य, चैतन्य, तुलसी, कीनाराम, औघड़नाथ, नानक, जंगमबाबा, अपारननाथ, पंडितराज जगन्नाथ, नारायण भट्ट, तैलंग स्वामी प्रवृत्ति पंडितों-संतों महात्माओं के नाम हैं। बड़ा नाज है बनारस को कि वह भारतेन्दु, प्रसाद, हश्र अलीहजीं, तेगअली, रत्नाकर, बेढब, रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद आदि की साधना स्थली रहा है। यहाँ रानी झाँसी ने जन्म लिया, रणजीत सिंह, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, दयानन्द, गांधी यहाँ आये। पं0 मदन मोहन मालवीय ने यहाँ विश्व का महानतम विश्वविद्यालय बनाया। बनारस को नाज है अपने स्वतंत्रता संग्राम पर, अपने उद्योग धंधें पर, अपनी भाषा और साहित्य पर, अपनी पत्रकारिता पर, सर्वाधिक नाज तो है अपने संगीत पर जिसका जवाब नहीं है। शहनाई, तबला, सारंगी, ठुमरी, चैती, कजरी के साथ बुढ़वा मंगल, गुलाब बाड़ी, सावन झूला-झूमर के अनूठे उत्सव बनारस को सुरीले और रंगीन बनाते हैं।
विश्वविख्यात घाट है, सुबहे बनारस है, गलियाँ हैं और बोलियाँ है और लंगड़ा आम, कसेरू की ठंठई औरप मगहीपान या चौघड़ा। बनारस में में स्वामी नारायण का मंदिर है तो भारत माता का मंदिर है।
बनारस बाबा विश्वनाथ का दरबार है जहाँ सरोतर चक्क रंग बरसता है जहाँ का हर निवासी राजा, मालिक, या गुरू है। इसी से बाबा तुलसीदास ने कहा-
मुक्ति जन्म महि जानि, ग्यान खानि अधहानि कर।
जहँ बस संभभवानि सो कासी सेइस कस न।।