जिस जमीं की धूर भी सिर चढ़ाई जाती है; वैसी नगरी है बनारस। कहा जाता है कि बनारस ईंट पत्थरों और लोगों की भीड़ का शहर नहीं बल्कि हर तरह के रस, रंगों से ओतप्रोत एक संवेदनशील जीवंत पावन स्थान है। इस शहर की निर्जीव ईमारतें, गलियों में भी आत्मा बसती है। इसी का नाम बनारस है; जहां हमेशा रस बना रहता है। बनारस ने न केवल धर्म, संस्कृति एवं सभ्यता को पल्लवित पुष्पित किया बल्कि इसकी उर्वरा भूमि से ऐसे विद्वान भी उपजे जिन्होंने अपने कार्यों से न केवल काशी का बल्कि समूचे मानव जाति के जीवन स्तर को प्रभावित किया। यहां ऐसे भी लोग हुए जिन्होंने बिना किसी स्वार्थ और आत्म प्रचार के ही समाज को बहुत कुछ दिया। ऐसे लोगों की एक लम्बी श्रृंखला रही है। बात पत्रकारिता की हो तो भारत में कलकत्ता और काशी इसके गढ़ रहे हैं। इन्हीं स्थानों से ही कलम के सिपाहियों की लड़ाई शुरू हुई जो धीरे-धीरे समूचे भारतवर्ष में विस्तारित हुई। बनारस से निकले उत्कृष्ट पत्रकारों और सम्पादकों ने पत्रकारिता में मील का पत्थर स्थापित किया, अपनी कलम से नये आयाम गढ़े और पत्रकारिता की आत्मा से कभी समझौता नहीं किया। काशी के ऐसे ही गुणी लोगों में रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार आनन्द बहादुर सिंह। इनका परिचय सिर्फ एक शब्द ‘बहुआयामी व्यक्तित्व’ से किया जा सकता है। सम्पादक, समाजसेवक और राजनीति इन तीनों में खुद को सर्वोच्च पर स्थापित किया। आनन्द बहादुर सिंह की प्राथमिकता में समाजसेवा सर्वोपरि रहा है। चाहे वे सम्पादक के रूप में हों या राजनीतिक क्षेत्र में इन्होंने कभी भी समाजसेवा से इतर किसी कार्य को महत्व नहीं दिया। अनुभव और कार्य करने की क्षमता ने आनन्द बहादुर सिंह को सम्पादन के क्षेत्र में ऐसा स्थापित कर दिया कि इनकी गिनती उन गिने चुने सम्पादकों में होती है जो आज भी सम्पादन में किसी का हस्तक्षेप नहीं होने देते। वर्तमान में वाराणसी से निकलने वाले सान्ध्यकालीन अखबार “ सन्मार्ग ” के सम्पादक के रूप में आनन्द बहादुर सिंह सम्पादन की आत्मा को जीवित रखे हुए हैं। आनन्द बहादुर सिंह के नजरिये से काशी को जानने के उद्श्य से आग्रह पत्रिका के सदस्यों ने उनसे मुलाकात की।
पत्रकारिता में पहले से लेकर अब तक हुए परिवर्तन के बारे में आपका नजरिया क्या है?
पत्रकारिता से मेरा सम्बन्ध 1957 में दैनिक सन्मार्ग ज्वाइन करने के साथ हुआ बाद में संपादक हो गया उसके बाद प्रधान सम्पादक हो गया। आज भी सम्पादक हूं। पत्रकारों की चार पीढ़ियां गुजरी। जब हमने ज्वाइन किया तब पराड़कर जी, गोविन्द गोबलेकर आदि बड़े पत्रकार लक्ष्मीनारायण गर्दे, पण्डित गंगाशंकर जी मिश्रा थे। ऋषि प्रसाद मिश्र ‘रुद्र’, रघुनाथ ‘अटल’ थे। अटल जी हमारे साथ काम करते थे। तब से लेकर समाज में बहुत बदलाव आया है। कम्प्यूटर ने हिन्दी अखबारों को अशुद्ध कर दिया है व्याकरण सम्मत कोई अखबार नहीं निकलता है। वर्तनी किसी की भी सही नहीं है। कभी कार्य चिg~u को संज्ञा से जोड़ देते हैं कभी हटा देते हैं अनुस्वार, चन्द्र बिन्दु, अर्द्धचन्द्र बिन्दु इनको कहाँ लगाना चाहिए पता नहीं है। भाषा की दृष्टि से अशुद्धि बढ़ी है। हिन्दी समाचार पत्र गुणवत्ता की दृष्टि से बहुत नीचे चले गये हैं। इससे बड़ा दुःख होता है। दूसरा नुकसान हिन्दी के समाचार पत्रों को हिन्दी के अध्यापकों ने किया। विश्वविद्यालयों में खुले पत्रकारिता विभाग ने बहुत नुकसान पहुंचाया है। अतिथि प्रवक्ताओं से काम चलाया जा रहा है। अब देखिए एम0फिल किए हुए भी स्नातकों को नहीं पढ़ा सकते। काशी पत्रकार संघ का नाम आपने सुना होगा। हम इसके संस्थापकों में तो नहीं परन्तु उनके नजदीक अवश्य थे। इसका भवन बहुत ही बढ़िया बनाया गया। ऐसा उदाहरण आज लखनऊ का उपजा संगठन है परन्तु वह भी पराधीन है। काशी पत्रकार संघ एक बहुत मजबूत संस्था है; बाद में इसको मजदूर यूनियन से जोड़ दिया गया। पत्रकारों द्वारा अपने को मजदूर कहना गौरव समझा जाने लगा। मई में प्रदर्शन भी करते हैं यह बड़ी मूर्खता हुई। पत्रकार, लेखक, चिंतक, मार्गदर्शक होता है मजदूर नहीं। यह गिरावट का संकेत है सरकार भी पत्रकारों पर ध्यान नहीं देती है। पद्मश्री तक किसी को नहीं मिलता। काशी में भी पत्रकारिता की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। अब तो धीरे-धीरे सारे अखबार पूंजीपतियों द्वारा संचालित हो रहे हैं। हमारी समझ से तो पत्रकारिता की चौथी पीढ़ी लगभग दुर्गति को प्राप्त हो रही है। पहले एक सिद्धान्त था समान शिक्षा, के लिए समान वेतन पर अब ऐसा नहीं है हजारों पी0एच0डी0 घूम रहे हैं। छोटे अखबारों में 500, 1000 से 2000 पर नौकरी कर रहे हैं। अब ऐसे में वो कहां से खायेंगे। बड़े अखबारों में अगर आपसे नाराज हुए तो आपको दूर भेज दिया जायेगा। इसका हाल यह होता है कि 10-20 वर्षों तक पत्रकारिता किया और फिर उन्हें परिवार से दूर भेज दिया जाता है। इसके लिए हमने मुलायम सिंह को एक पत्र भेजा। जिसमें पत्रकारों के लिए पेंशन सहायता के लिए उन्हें सहायता मिल सके लेकिन सरकार द्वारा कुछ नहीं मिल पाया। एक पुरस्कार निकाला गया यश भारती जो अभी बनारस के दो संगीतज्ञों को मिला। हमारा सम्मान भी कम हो रहा है इसके लिए संघर्ष करना होगा। इस तरह काशी के पत्रकारों की स्थिति अच्छी नहीं है। बहुत पंडित होने के बाद भी यह आवश्यक नहीं कि अच्छा पत्रकार हो। पत्रकार होना एक दूसरी विधा है। दूसरी अवधारणा है कि हर आदमी पत्रकार नहीं हो सकता। पत्रकार होने के लिए स्वाध्याय की भी आवश्यकता है। आजकल लैपटॉप, इण्टरनेट से लाभ तो बहुत हुआ परन्तु इससे आप सुरक्षित नहीं हैं। इस पर भी लोगों को ध्यान देना चाहिए।
एक बात जो इस शहर को दूसरों से अलग करती है ‘बनारसीपन’ इस बारे में कुछ बताइए?
बनारसीपन – बनारस का खास चीज है; अब यह है कि बनारसीपन आये कहां से? सारे लोग तो बदल गये, अलग लोगों के साथ अलग-अलग संस्कृतियाँ आयीं यहां। लेकिन उस समय बनारसीपन सब में था। हमने आंख से देखा है रामनगर की रामलीला में बृजपाल दास जी और संड जी जो बहुत रईस जाने जाते थे वो भी वहां गमछा पहन के पोखरे में नहा रहे हैं और साफा धोती को साबुन लगाकर धोकर डाल देना और उसी को पहनकर लीला देखना। अब यह तो हमारी समझ से नहीं रह गया। बनारसीपन यह है कि किसी भी प्रकार का अभिमान ना रहे! बनारसीपन का सबसे पहला लक्षण है कि व्यक्ति अभिमान रहित हो और दूसरा यह कि वह मनुष्य, मनुष्य में भेद ना करे और इसके लिए रामनगर की रामलीला ने बड़ा काम किया है। वह सबको एक बना देती है। पीढ़ा लेकर रामायण के साथ रहना अभी तक है और मद्यप दुराचारी भी अगर दो चार दिन रामलीला देख लेते हैं तो वो सुधर जाते हैं। मेरा एक धोबी था। बरईपुर का बड़ा भारी मद्यप था। 3 दिन उसने रामलीला देख लिया बाद में मिलने पर घर वालों ने कहा अब वो साधु हो गया है। इस तरह रामलीला से काफी समाज सुधार भी हुआ। रामनगर में छिन्न मस्तिका देवी का मंदिर भी है। जहां दर्शन मात्र से ही ग्रहों के प्रभाव दूर हो जाते हैं। इनका वास्तविक स्थान रांची (झारखण्ड) में है। बनारसीपन भेद रहित होना चाहिए। पहले बनारसीयों में अहंकार नहीं था। ‘बहरी अलंग’ की एक परम्परा थी वह भी खत्म हो रही है। जिसमें बाटी चोखा, चावल, दाल बगीचे में बनता है। बाटी चोखा बनाने के विशेषज्ञ होते थे। जो बाटी में एक छेद करते थे तब उसको अहरे पर रखते थे। आजकल तो लोग चुनाव जीतने पर भी बाटी-चोखा का न्यौता देते हैं पर वो बात नहीं रहती। असली बाटी-चोखा तो बनारसी बनाते हैं। इसी तरह साफा-पानी भी था। पूरा बनारस घर में शौच नहीं करता था। सब बाहर ही गंगा पार आते थे; सीवर की आवश्यकता ही नहीं थी। सीवर ने तो और गंदगी फैला दिया बनारस में सीवर रहेगा तो गंगा कभी शुद्ध नहीं हो सकती। अब यदि च्वदक Sलेजमउ वाली योजना को सरकार बना लेती है तो कुछ सुधार हो सकता है। अब देखिए इतर (इत्र) कोई नहीं लगाता इतर के बहुत शौकीन थे बनारसी। भांग को तो महादेव का प्रसाद ही मानते हैं यहां और ठंडई जो बहुत प्रसिद्ध है, यह ठंडई बाजार में बिकता तो बहुत है पर वास्तव में ठंडई बनारस के पुराने लोग बनाते थे। उसमें सत्संग भी होता था। ठंडई के साथ सत्संग भी हो गया। दो मूल चीज बनारसीपन का कि अहंकार रहित हो, भेदभाव न हो और ईश्वर भक्त हो। अब देखिए रंगभरी एकादशी यह बनारस का ही त्यौहार है कहीं शास्त्र में इसका उल्लेख नहीं है। अब यह शास्त्रीय भी हो गया और पंचांगों में भी आने लगा। बनारसी मस्ती में जरूर रहते हैं ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें अभिमान ना हो भेदभाव ना हो।
बनारस में रईसी की परम्परा और महफिल भी समृद्ध रही आप इसे कैसे देखते हैं?
महफिल तो यहां की जो वैश्याएँ थीं उनकी लगती थी, वो बहुत अच्छा गाती थीं। नृत्य व संगीत पहले वेश्याओं के पास था। वहां आना-जाना कोई बुरा बात नहीं मानते थे लोग। वेश्याएं मात्र सेक्स से सम्बन्ध नहीं रखती थीं। वो नृत्य व संगीत से सम्बन्ध रखती थी। वह अब नहीं रहा। पहले रईसो के लड़कों से कहा जाता था कि ‘जाके वहां रहो’ क्योंकि वेश्याओं में जो तहजीब है उनसे सीखों पर अब वो बात नहीं रही।
पहले के रईस गाली सुनते थे। दूसरे के ऊपर पान थूककर। एक यहां झक्कड़ साव थे दुर्गाकुण्ड के अपने बरामदे में बैठे रहते थे और जाने वाले के ऊपर पान की पीक थूक देते थे। जब वो गाली देता तो उसका बड़ा स्वागत सत्कार करते नया कपड़ा पहनाना, नहलाना-धुलाना आदि। उन्हीं के यहां अशर्फी सूखती थी। मघा नक्षत्र में जब धूप अच्छा होता है तो वो सोने के सिक्के सुखाते थे। मानो 5 किलो अशर्फी रखा और घटता नहीं था तो वह कहते यह कुछ नहीं हुआ और सूखाओ जब नौकर चाकर 10-20 सिक्के कम कर देते तब वह संतुष्ट होते। लेकिन इस झझक में गरीबों के प्रति, सेवकों के प्रति सहानुभूति भी थी उनमें वो जिस पर थूकते थे जान समझकर थूकते थे। ये बड़े रईस होते थे।
बनारस की अड़ीबाजी मशहूर रही है इस बारे में कुछ बतायें?
अड़ीबाजी बनारस की कोई खास शब्द नहीं थी। पहले केदार की एक दुकान थी जहां अच्छे लोग नामवर सिंह, डॉ0 रघुनाथ सिंह हर विधा के लोग वहां बैठते थे लेकिन घंटा दो घंटा नहीं वह अड़ी नहीं होता था। घंटा दो घंटा बैठने वाला स्थान था शहर में गोदौलिया पर एक होटल था वहां अड़ी थी। अड़ी का मतलब जहां लोग अड़ जायें। अड़ने से अड़ी बनता है। अड़ी साहित्यकारों की अड़ी होती। अड़ी जहां बैठक होती है जैसे साहित्यकार रत्नाकर जी के यहां लोग बैठते थे। जब तक भारतेन्दु बाबू थे तब तक तो पूछना ही नहीं था। अखबार वालों में एक दिनेश दत्त झा थे। इनके यहां सिर्फ अखबार वाले जुटते थे और झा जी पूछते कि आज क्या खाओगे, बोलो! वहां रोज एक अच्छी चीज खाने को आती। रत्नाकर जी के यहां तो बढ़िया और शुद्ध घी का जलेबा जलपान में मिलता था। इसी तरह बेढ़ब जी के यहां बैठक होती जहां बढ़िया जलपान मिलता था। उस समय में पूरा शहर कविता कहता था; विद्वान मूर्ख सब कवि थे। हमारे पितामह थे- पृथ्वीपाल सिंह; भारतेन्दु के साथ थे। उनके बनाये नवरत्नों में एक थे। वह भी कविता कहते थे। यह बनारस में अद्भुत था कि बनारस में हर कोई कविता कहता था। बाद में रत्नाकर जी ने ‘सुकवि समाज’ नाम से संस्था बनाई थी। जयशंकर प्रसाद जी के यहां एकादशी को उनके जन्मदिन पर उनकी पत्नी चूड़ा मटर व मगदल खिलाती थीं। अब वैसा कहीं नहीं बनता। कामायनी का प्रचार पद्मनाचार्य जी ने बहुत किया। कामायनी सम्मेलन के तौर पर अब तो रईसी कहीं बची ही नहीं। अठ्ठारहवीं सदी में तो सभी कवि थे। बनारस को तमोली भी कवि था जो दुकान पर चैती गाता था। आजकल कहां चैती और कजरी सुना जाता है। पहले सावन में कजरी दंगल होता था। यह सब धीरे-धीरे खत्म हो रही है। चैती, ब्रजभाषा कविता जिसे कविता बनाना नहीं आता उसे सैकड़ों कविताएं याद होती थीं। अब तो साहित्य का पठन, पाठन, इतिहास भी बंद कर दिया गया। 70-80 साल पहले बनारस का इतिहास और भूगोल दोनों पढ़ाये जाते थे। समाज में जितने भी अपराध हत्या बलात्कार, मारपीट हो रहे हैं उनके पीछे एक ही कारण साहित्य का ना पढ़ाया जाना है। साहित्य बिना हृदय कठोर हो गया है। अपराध करने में कहीं संकोच नहीं रह गया। यह सब साहित्य पाठ्यक्रम, साहित्य चर्चा, साहित्य गोष्ठियाँ न होने के कारण है।
बनारस के विकास को आप कैसे देखते हैं और कितने संतुष्ट है?
वस्तुतः हो ही नहीं रहा। कैसे हो कोई इसको आवश्यक नहीं समझ रहा। सिर्फ पैसा आ रहा है उसका दुरूपयोग हो रहा है गंगाजी में इतना रूपया लगाकर कुछ नहीं हुआ। पॉण्ड सिस्टम से आठ बड़े-बड़े पोखरे थे जिसमें वर्षा का पानी एक पोखरे से दूसरे होते सबसे बड़े पोखरे में संचित होता था जहां से पूरे शहर को पानी मिलता था। सम्पूर्णानंद जी के समय उसको साफ करने का संयंत्र लगा। अब कमेटी का गठन होना चाहिए जो विकास का सिद्धांत तय करे जब सिद्धांत ही नहीं है तो बनेगा क्या। विद्वानों की एक समिति होनी चाहिए जिनके द्वारा योजना बनाकर काशी का त्रिस्तरीय सुधार होना चाहिए।
पौराणिक नगर से संरचना के आधार पर जो अंतगृही है तीन खण्डों में विभाजित काशी। जितने पुराने मंदिर हैं काशी खण्डोक्त वह 8 सौ से 1200 वर्ष पुराने हैं। मंदिर ठीक कराये जायें। यह पर्यटकों द्वारा धन प्राप्ति का साधन है। काशी खण्ड के अंतर्गत जो मंदिर हैं उनकी यात्रा पंचक्रोशी यात्रा के मार्ग को ठीक कराया जाये, अंतर्गृही में मकान ना बने इसके लिए कठोर नियम बने। काशी को नोएडा ना बनायें लोग वरना काशी खराब हो जायेगी। यहाँ ऊँची इमारतें बनती जा रही हैं इस पर रोक लगे इसे पौराणिक नगर घोषित किया जाये। पंचक्रोशी की सड़के ठीक करें। वृक्ष लगायें। उसके बाद चौरासी कोसों में जिसका उद्धार मालवीय जी ने किया। इसमें विन्ध्याचल से लेकर कैथी तक विकास हो ऐसा बनायें कि लोग आये। मूल बात यह है काशी के विद्वानों की समिति बनाकर त्रिस्तरीय विकास जो जानकरी रखते है। पौराणिक काशी, सांस्कृतिक काशी, व्यावसायिक काशी बसायें। जैसे कपड़े, रेशम फैक्ट्री, ग्लास फैक्ट्री, कॉटनमिल सब खत्म। यहां के पुराने मिल चालू हों जिससे रोजगार बढ़े यहां के काष्ठ कला, मिट्टी के खिलौने को प्रोत्साहन दिया जाये।
बनारसी संस्कृति में बनारस के मिट्टी के पुरवा, कसोरा पत्तल की जो संस्कृति थी उसे आजकल की पार्टियों ने समाप्त कर दिया जो आधुनिक दृष्टि से सही नहीं। पलाश के पत्तल व पुरवा का भोजन अब खत्म हो गया। इससे गरीबों का नुकसान है। लॉन संस्कृति ने तो गरीबों को कर्ज लेने पर मजबूर कर दिया है। मकान बिक रहे हैं। ‘लॉनवाद’ व बहुमंजिली इमारतों तथा खान-पान की विसंगतियों को आन्दोलन द्वारा समाप्त करना चाहिए। संगीत, चैती, कजरी का प्रचार करना चाहिए संगीत बाल्मीकि रामायण में है। संगीत क्या है इस पर बाल्मिकी द्वारा एक अध्याय है। कहां आरोह-अवरोह है लयकारी सीखने की चीज है पद गाने के लिए गायन सामग्री पद ही है। इसका प्रचार होना चाहिए।
प्रचार-प्रसार का माध्यम क्या हो?
बनारस में पहले छोटी-छोटी बहुत सी समस्याएं हैं। लोगों को इसके बारे में जागरूक करना चाहिए। अब जैसे आग्रह पत्रिका निकाल रहें हैं तो आपने एक बड़ा काम कर दिया; अब लोग माने या न माने। पहले जमीन पर बैठकर पत्तल पर खाते थे फिर टेबुल आया अब लोग खड़े होकर खाते हैं जिसे विशेष माना जा रहा है यह दुर्भाग्यपूर्ण है। बनारस की संस्कृति के लिए बनारसियों को आगे आना होगा। बनारसी रहेंगे तभी बनारसीपन बचेगा। रामचरित मानस का खूब प्रचार हो। मानसानुसारी जीवन जीने की प्रेरणा ली जाये। गांधी जी ने मानसानुसारी जीवन जीकर दिखा दिया। दूसरे राम मनोहर लोहिया जो नास्तिक थे। रामचरितमानस को बहुत मानते थे। मानसानुसारी जीवन के पक्षपाती थे। क्योंकि जब तक आदमी स्वयं चरित्रवान नहीं होगा चरित्र कैसे स्थापित होगा। राज्य के लिए यह आवश्यक है इससे बलात्कार, चोरी की घटनाएं नहीं होगी। बनारस में यह सब घटनाएं नहीं होती थी। यह अत्यन्त ही कठिन है। लोगों में अब त्याग बचा ही नहीं है। काशी के बारे में बहुत प्रचार करना चाहिए। काशी का एक-एक पक्ष उजागर करना चाहिए।
आग्रह पत्रिका के लिए कुछ संदेश देना चाहेगें?
लिखने पढ़ने का असर होगा, युवा आगे आयेंगे, विरोध का असर तो होगा ही युवा पत्रकारों के लिए मार्ग कठिन है; मालिक काम ज्यादा ले रहे हैं लेकिन तथ्य नहीं छाप पाते हैं। जो कहीं नहीं छपे वो हमारे यहां छपेगा; यह होना चाहिए। सच का ही उसमें बोलबाला हो, भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ हो।