काशी का इतिहास
वाराणसी का वास्तविक इतिहास शायद इतिहास के पन्नों से भी पुराना है। कहा जाता है कि वाराणसी विश्व के प्राचीन नगरों में से एक है। पुराणों के अनुसार मनु से 11वीं पीढ़ी के राजा काश के नाम पर काशी बसी। वहीं, वाराणसी नाम पड़ने के बारे में अथर्ववेद में वाराणसी को वरणावती नदी से सम्बन्धित कहा गया है। वरणा से ही वाराणसी शब्द बना है। कुछ वरुणा व अस्सी नदी के बीच बसने की वजह से दोनों नदियों के नाम पर इसे वाराणसी शब्द समझते हैं। काशी के पांच नाम प्रचलित रहे हैं। काशी, वाराणसी, अविमुक्त, आनंद-कानन और श्मशान या महाश्मशान। पुराणों और अन्य ग्रन्थों में इन नामों का उल्लेख है। प्रागैतिहासिक काल के वाराणसी के आस-पास कुछ जगहों पर प्रस्तर युग में प्रयोग किये जाने वाले औजार मिले हैं। जिससे पता चलता है कि वाराणसी व आस-पास प्रस्तर युगीन लोग भी रहते थे। आर्यों के आने के पहले वाराणसी व इसके आस-पास आदिवासियों का निवास रहा है। महाभारत (वनपर्व) में ही पहली बार वाराणसी का एक तीर्थ के रूप में उल्लेख हुआ। ईसा की तीसरी सदी से आगे वाराणसी का धार्मिक महत्व तेजी से बढ़ता गया। काशी को शिवपुरी कहा गया। पुराणों में काशी के कई राजाओं का उल्लेख है। धन्वंतरि के पौत्र दिवोदास हुए। दिवोदास के बाद वाराणसी का कई बार विध्वंस हुआ और इसे कई बार बसाया गया। अलर्क ने वाराणसी को पुनः बसाया। अलर्क दिवोदास का पौत्र था। जैन धर्म के 23वें तीर्थकर पाश्र्वनाथ का जन्म यहीं हुआ था। खुदाई में मिले पुरावशेषों से पता चलता है कि ईसा पूर्व आठवीं सदी में ऊंचे स्थान पर वसाहत की शुरूआत हुई थी। राजघाट में उसी काल का मिट्टी का एक तटबंध भी मिला है जो गंगा की बाढ़ से बस्ती को बचाने के लिए बनाया गया था। काशी धार्मिक सांस्कृतिक और कला का केन्द्र रही है। धर्म के मामले में काशी हिन्दुओं की राजधानी रही है।
इस प्राचीनतम् नगरी के प्रति हिन्दुओं में आस्था कूट-कूट कर भरी है। संस्कृत के एक श्लोक में कहा गया है कि काशी सारे दुःखों को समाप्त करने वाली मोक्षदायिनी नगरी है। नैषधचरित के रचनाकार श्री हर्ष ने इस प्रकार लिखा है-
वाराणसी निविशते न वसुन्धरायां तत्र स्थितिर्मखभुआं भवने निवासः।
तत्तीर्यमुक्तवपुषामत एव मुक्तिः स्वर्गात् परं पदमुपदेतु मुदेतुकीदृक।।
अर्थात्, काशी समग्र भारत प्रतिरूप के रूप में मौजूद है। यह समस्त दुःखों को समाप्त करने वाली मोक्षनगरी है। यह इस भूमण्डल से बाहर है। यह पृथ्वी पर नहीं है। काशी अलग-अलग कालों में समय के साथ और विकसित होती गयी।
बौद्धकाल में काशी
बौद्ध से पहले काशी एक स्वतंत्र समृद्ध राष्ट्र था। इस दौरान यहां के राजाओं का उपाधि नाम ब्रह्मदत्त था। जिसका उल्लेख जातक कथाओं मिलता है। महाभारत में भी इसकी चर्चा की गयी है। (शतं वै ब्रह्मदत्तानाम) पालि बौद्ध ग्रन्थों में काशी जिले की राजधानी वाराणसी की गणना भारत के प्रसिद्ध नगरों में की गयी है। वाराणसी अपने आकर्षक कपड़ों के लिए प्रसिद्ध थी। यहां के बुने कपड़ों को सबसे अच्छा माना जाता था। काशी चंदन के लिए भी जानी जाती थी। बुद्ध के समय में काशी व्यापारिक दृष्टि से काफी विकसित थी। यहां से तक्षशिला तक सीधा व्यापार होता था। काशी में घोड़े तथा हाथियों का बड़ा बाजार भी लगता था। बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए वाराणसी का काफी महत्व था। यवन सेना ने आक्रमण के दौरान वाराणसी में पड़ाव डाला था।
कुषाण काल- ईसा की प्रथम सदी के उत्तरार्द्ध में वाराणसी पर कुषाण का आधिपत्य था। इस दौरान काशी व्यावसायिक दृष्टि से काफी समृद्ध हुआ। व्यापारिक क्रिया कलाप बढ़ गये थे। इस काल में बौद्ध धर्म का प्रभाव ज्यादा था।
ज्ञान प्राप्त होने के बाद बुद्ध ने यहीं पर पंचवर्गीय भिक्षुओं को अपना पहला उपदेश दिया था। पंचवर्गीय भिक्षुओं समेत बुद्ध के साठ साथियों का पहला संघ वाराणसी में ही बना था। सारनाथ में बौद्ध धर्म व संघ स्थापित किया गया। बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए सारनाथ में बौद्ध केन्द्र स्तूप बौद्ध मंदिरों का भव्य निर्माण कराया गया।
मौर्यकाल में काशी- बौद्ध निर्वाण (483 ई0 पूर्व) से लगभग सवा दो सौ साल बाद सम्राट अशोक (272-232 ई0 पूर्व हुए) कलिंग युद्ध में हुए नर संहार के बाद हुए हृदयपरिवर्तन से सम्राट अशोक का ध्यान बुद्ध के बताये रास्तों पर गया। बौद्ध धर्म से प्रेरणा लेकर अशोक ने सारनाथ में धर्मराजिका स्तूप, अशोक स्तंभ और धम्मेख स्तूप का निर्माण करवाया। अशोक का बनवाया गया धर्मराजिका स्तूप नष्ट हो गया है। काशीराज चेतसिंह के दीवान बाबू जगत सिंह ने धर्मराजिका स्तूप को गिराकर उसके मसाले का प्रयोग कर बनारस में जगतगंज मोहल्ला बसाया। धर्मराजिका स्तूप का छह बार विस्तार और संस्कार हुआ था। अशोक निर्मित मूल स्तूप का व्यास 13.49 मीटर था। स्तूप पूरी तरह से बारहवीं सदी में समाप्त हो गया। कन्नौज काशी के गाहड़वाल शासक गोविन्द चंद की रानी में सारनाथ में धर्मचक्र जिन विहार बनवाया। इसी के नजदीक दो प्रस्तर मूर्तियां भी मिली हैं। एक मूर्ति लाल पत्थर से बनी है। जबकि दूसरी मूर्ति धर्म चक्र प्रवर्तन मुद्रा में भगवान बुद्ध की है। यह मूर्ति गुप्तकालीन बेहतरीन कलाकृति का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। सारनाथ में भग्न अशोक स्तम्भ भी मिला है। स्तंभ पर तीन लेख भी हैं। धम्मेख स्तूप वहां बना है। जहां बुद्ध धर्म चक्र प्रवर्तन करते थे। स्तूप का व्यास 28.35 मीटर, ऊँचाई 39.01 मीटर है।
शुंग वंश में काशी- मौर्य काल के अंत के बाद शुंग वंश ने अपनी जड़ें स्थापित कर लिया। वाराणसी के राजघाट के काशी रेलवे स्टेशन को बढ़ाने के लिए खुदाई की गयी। खुदाई में पुरानी वस्तुएं मिट्टी की मुद्राएं मिली थी। जिसे भारत कला भवन और इलाहाबाद म्यूनिसिपल म्यूजियम में सुरक्षित रखा गया है। खुदाई में मिली प्राचीन मुद्राओं पर यूनानी देवी देवताओं की आकृतियां और राजाओं के सिर छपे हुए हैं। इन मुद्राओं से पता चलता है कि वाराणसी और पश्चिम के व्यापारिक सम्बंध रहे हैं।
इसके साथ ही शैव धर्म का भी प्रभाव बढ़ रहा था। मान्यता है कि भार शिवों ने दस अश्वमेध यज्ञ करके गंगा में जिस स्थान पर स्नान किया वही स्थन बाद में दशाश्वमेध घाट कहलाया।
गुप्त काल में काशी- गुप्त काल के दौरान वाराणसी में बौद्ध और शैव धर्म का प्रचार-प्रसार तेजी से हो रहा था। इसी समय प्रसिद्ध चीनी यात्री फाह्यिान वाराणसी (401-410ई0) में आया था (गंगा के किनारे होता हुआ वह वाराणसी पैदल ही आया था।) वाराणसी में वह ऋषिपतन मिगदाय (सारनाथ) भी गया। गायघाट के पास ईसा की पांचवी सदी कात्र्तिकेय की एक बहुत पुरानी मुर्ति मिली थी। जो इस समय बी0एच0यू0 स्थित भारत कला भवन में सुरक्षित है। गुप्त काल में सारनाथ अपने चर्मोत्कर्ष पर रहा। इस दौरान यह स्याल कला का प्रमुख केन्द्र हो गया।
गुप्त राजाओं का वाराणसी से काफी अच्छा सम्बन्ध था। गुप्त राजा श्री गुप्त ने सारनाथ में विहार के पास ही मंदिर बनवाया। साथ ही बौद्ध भिक्षुओं के गुजर-बसर के लिए 24 ग्राम दान में दिया था। वाराणसी के समीप भीतरी से गुप्त सम्राट स्कन्दगुप्त का विक्रमादित्य का सम्बन्ध बनारस से काफी गहरा था। आज का गाजीपुर उस समय वाराणसी में ही शामिल था। यहां के भितरी स्थान को गुप्तों का पैतृक गांव समझा जाता हैं।
हर्षवर्धन काल में काशी- हर्षवर्धन काल में वाराणसी काफी आकर्षक जगह थी। यहां की जलवायु बेहद संतुलित होती थी। फसलें काफी बढ़िया उत्पन्न होती थीं। चारों तरफ हरियाली रहती थी।
इसी काल में चीनी यात्री ह्यूनत्सांग वाराणसी आया था। उसने अपने यात्रा वृत्तांत में लिखा कि बनारस जिला 4000 ली0 (800 मील) के गिर्द में था। इसकी राजधानी गंगा तट के पश्चिमी तट पर स्थित थी। शहर में मुहल्ले सटे हुए थे। इस दौरान आबादी घनी थी। लोग धनवान हुआ करते थे। साथ ही शिष्ट और शिक्षा के प्रति जागरूक थे। ज्यादातर लोग कई मतों को मानने वाले थे। बौद्ध धर्मानुयायी काफी कम थे। वाराणसी में तीस बौद्ध विहार थे। शहर में सौ से ज्यादा देवमंदिर थे। मंदिरों के खंड व छज्जे नक्काशीदार पत्थर व लकड़ी के बने थे। मंदिर के चारो तरफ काफी संख्या में पेड़ लगे थे। साथ ही स्वच्छ पानी का स्रोत भी वहां रहता था। एक मंदिर में देव की कांसे की 100 फीट ऊंची मूर्ति थी। जो लोगों को काफी आकर्षित करती थी। इस काल में ज्यादातर मंदिर शैव थे। वहीं, सारनाथ आठ भागों में विभाजित था। उसके चारो तरफ प्राचीर निर्मित था। प्राचीर के भीतर दो सौ ऊँचा चैत्य था। साथ ही बौद्ध विहार के पश्चिम में स्तूप था। इसकी ऊँचाई 300 फीट थी। इसकी कुर्सी पर बहुमूल्य वस्तुएं सजायी गयी थी।
गाहड़वाल काल में काशी- ग्यारहवीं सदी के अंतिम दशक में गहड़वाल वंश शुरू हुआ। इस वंश का संस्थापक चंद्रदेव था। गाहड़वाल शासक गोविन्दचन्द्र ने उत्तर प्रदेश व बिहार में अपना राज्य स्थापित कर लिया था। इस दौरान उसकी राजधानी कन्नौज के साथ-साथ काशी भी थी। गोविन्द चन्द एक योग्य और पराक्रमी राजा था। बाद में उसका पुत्र विजय चंद्र गद्दी पर बैठा। तत्पश्चात् जयचंद काशी कन्नौज का राजा बना। 1194 मंे शहाबुद्दीन और कुतुबुद्दीन की सेना ने साझा हमला कर जयचंद को मार दिया। मुस्लिम सेना ने जमकर वाराणसी में लूट मचाई। गाहड़वालों के शासन के दौरान काशी व्यापार की दृष्टि से काफी बड़ी बाजार थी। वाराणसी के बजाज, जौहरी और सुगन्धित द्रव्यों के व्यापार सम्पन्न थे। इस काल में दूसरे प्रदेशों के पण्डित वाराणसी में आकर स्थाई निवास करने लगे थे। साथ ही मोक्ष प्राप्ति की आशा में साधु सन्यासी भी यहां आना शुरू कर दिये। इस दौरान काशी विद्या का भी प्रमुख केन्द्र बन गयी। काशी में वेद, पुराण स्मृतियों धर्म की शिक्षा दी जाती थी। इसी काल में वाराणसी में अनेक तीर्थों की स्थापना हुई। काशी देश की प्रमुख तीर्थ क्षेत्र बन गयी। प्राचीन काल में वाराणसी में प्रमुख रूप से अविमुक्तेश्वर की पूजा होती थी। जिनका नाम बाद में बदलकर विश्वेश्वर कर दिया गया।
मुगलकाल में बनारस- 1526 में मुगल शासन का उदय हुआ। मुगल वंश की स्थापना बाबर ने की। बाबर ने 1528 व 1529 में अवध को जीता। इस युद्ध में वाराणसी पर उसकी नजर गयी। बाबर ने वाराणसी जीतकर 934 हिजरी में अपने सिपहसालार जलालुद्दीन खां शर्की को कुछ सेना के साथ यहां रख दिया। मुगल शासक हुमायूं ने चुनार का किला जीतने के बाद वाराणसी में कुछ समय के लिए डेरा डाला। इस दौरान वह सारनाथ का चैखंडी स्तूप देखने गया। माना जाता है कि इस घटना को यादगार बनाने के लिए राजा टोडरमल के पुत्र गोबरधन ने चैखंडी स्तूप पर 996 हिजरी में एक अठपहला गुम्बद का निर्माण करवाया। करीब 16 वर्षों तक वाराणसी पर शेरशाह व उसके पुत्र का अधिकार था। 1556 ई0 में मुगल शासक अकबर गद्दी पर बैठा। 1565 ई0 में अकबर बनारस आया। इस दौरान बनारस में अशांति फैली हुई थी। अकबर ने अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए यहां शांति स्थापित किया। लेकिन अकबर के जाने के बाद एक बार फिर स्थिति बदतर हो गयी। दोबारा अकबर फिर बनारस आया। इस बार उसने शहर को लूटने की आज्ञा दी। अकबर के शासन काल में राजा टोडरमल का बनारस से काफी सम्बन्ध रहा। विश्वनाथ का मंदिर उन्हीं के सहयोग से 1585 के आस-पास नारायण दत्त ने बनवाया था। उन्होंने ही 1589 में शिवपुर में द्रौपद्री कुंड की भी स्थापना की थी। महल हवेली बनारस में देहात अमानत, जाल्हूपुर और शिवपुर में। इस दौरान ब्राह्मणों की जमींदारी थी। जहांगीर के समय में काशी में 1623 ई0 के करीब जबर्दस्त प्लेग फैला था। उसी दौरान तुलसीदास की मृत्यु हुई थी। इसी काल में अंग्रेजी यात्री राल्फ फिच बनारस आया था। उसके अनुसार उस वक्त बनारस में कपड़े का व्यापार उन्नति पर था। शहर में ज्यादातर हिन्दू ही रहते थे जो मूर्ति पूजक थे। इस काल में हिन्दुओं को मरने के बाद या तो जला दिया जाता था या पानी में बहा दिया जाता था।
विधवायें अपने पति के मरने के बाद सती हो जातीं या उनके सिर मूंड़ दिये जाते थे। विवाह के बाद गंगा में दूल्हा-दुल्हन का पूजन ब्राह्मण कराते थे। उस समय बनारस के बहुत सारे घाट कच्चे थे। अकबर व जहांगीर के काल में राजा मान सिंह ने भी बनारस में कई घाट और मंदिरों का निर्माण कराया था। माना जाता है कि मान सिंह ने एक दिन में 1000 मंदिर बनवाने की ठान ली। ऐसे में कई सारे पत्थरों पर मंदिरों के नक्शे खोद दिये गये। मानसिंह के बनवाये घाटों में से सबसे प्रसिद्ध मान मंदिर घाट है। इसी काल में गोस्वामी तुलसीदास का प्रादुर्भाव हुआ था। इस दौरान काशी का मध्य भाग जिसे अन्तर्गृही कहा जाता था, वैदिक धर्मावलम्बियों की यहां बस्ती थी। लोलार्क कुण्ड और त्रिलोचन घाट काशी के नेत्र समझे जाते थे। मणिकर्णिका तीर्थ काशी का सबसे प्रसिद्ध तीर्थ था। धार्मिक प्रवृत्ति के लोग पंचकोशी यात्रा भी करते थे। माना जाता है कि अयोध्या में 1574 ई0 में शुरू हुआ रामचरित मानस का लेखन कई वर्षों बाद काशी के भदैनी के पास समाप्त हुआ। इसी काल में बनारस में केदारघाट पर कुमारस्वामी के मठ की भी स्थापना हुई।
औरंगजेब- औरंगजेब कट्टर मुसलमान शासक था। गद्दी पर बैठते ही उसने हिन्दुओं की आस्था मंदिरों को निशाना बनाया जिसका असर काशी के मंदिरों पर भी पड़ा। इस दौरान कई मंदिरों को औरंगजेब की आज्ञा से तोड़ दिया गया। साथ ही काशी के निर्माणाधीन करीब 76 मंदिर गिरा दिये गये थे। सांस्कृतिक संस्थाओं को नष्ट कर दिया गया। औरंगजेब ने ही बनारस में विश्वनाथ मंदिर को गिरवा कर वहां ज्ञानवापी मस्जिद बनवा दिया। यह घटना 1669 के आस-पास की है। इस दौर में यहां काशी करवट कुंआ भी था। जिसमें दूर-दूर से यात्री आकर मुक्ति पाने की कामना से जान दे देते थे।
ब्रिटिश काल में काशी- सन् 1730 ई0 के आस-पास सआदत खां अवध के नवाब बनाये गये। बनारस को मीर रूस्तम अली को सौंपा गया। उसने बनारस का लोकप्रिय बुढ़वा मंगल चलाया। साथ ही इसने घाटों का भी निर्माण कराया। इसके बाद मनसा राम हुए। तत्पश्चात महाराजा बलवंत सिंह। सन् 1750 के आस-पास इन्होंने रामनगर के किले का निर्माण कराया। महाराजा बलवंत सिंह का मराठों से भी अन-बन रही हालांकि बाद में मेल-जोल हो गई। बलवंत सिंह के शासन काल में बनारस अस्थिर था। जनता कई तरह के करों से परेशान थी। अपराध भी खूब हुए। बलवंत सिंह के बाद बनारस की बागडोर राजा चेत सिंह के हाथों में चली गयी। इसी दौरान मार्कहम वाराणसी का रेजीडेन्ट नियुक्त हुआ। अपने कार्यकाल के दौरान चेतसिंह को काफी परेशानियों से गुजरना पड़ा। कंपनी के खिलाफ साजिश रचने की जानकारी होने पर वारेन हेस्टिंग्स ने चेतसिंह को सबक सिखाने का निश्चय किया। इसकी जानकारी होने पर चेतसिंह ने कम्पनी काफी कर दिया। 14 अगस्त 1781 को वारेन हेस्टिंग बनारस आया। यहां वह माधोदास सामिया। (वर्तमान स्वामी बाग, कबीर बाग में रूका) काफी संघर्ष के बाद चेतसिंह को पदच्युत कर दिया गया। हेस्टिंग्स ने रामनगर के सिंहासन पर महाराजा बलवंत सिंह के नाती महीपनारायण सिंह को बैठाया। इस समय अपराध काफी बढ़ गया। लोगों की मांग पर हेस्टिंग्ग ने अली इब्राहिम खां को फौजदारी अदालत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया। इसके साथ ही काशी 1770 ई0 में ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधीन हो गयी। सन् 1784 में बनारस और आस-पास के क्षेत्र में भीषण अकाल पड़ी। लोग दाने-दाने के लिए तरस गये थे। भुखमरी और बीमारी से लोगों का जीना दुश्वार था। इसके बाद महीपनारायण के पुत्र उदितनारायण सिंह गद्दी पर आसीन हुए। अंग्रेजों ने इनका अधिकार काफी सीमित कर दिया। पुत्र नहीं होने पर इन्होंने अपने भाई के पुत्र ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह को दत्तक पुत्र बना लिया।
ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह– राजा ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह ने बनारस की गद्दी 1835 में सम्भाली। इनके दरबार में भी नौ रत्न थे। इन्होंने संस्कृत, फारसी के ग्रन्थों का प्रकाशन भी कराया। 1889 में इन्होंने खुद का पुत्र नहीं होने पर नरनारायण सिंह के पुत्र प्रभुनारायण सिंह को दत्तक पुत्र बना कर राज्य दे दिया।
राजा प्रभुनारायण सिंह- राजा प्रभुनारायण सिंह 1889 को बनारस राजा बने। ये संस्कृत, उर्दू और फारसी के विद्वान थे। साथ ही बलवान भी थे। 1911 में दिल्ली दरबार में इन्हें सम्मानित करते हुए हिजहाइनेस की उपाधि दी गयी। प्रभुनारायण सिंह ने प्रजा को सुविधाएँ देने के लिए चिकित्सालय, कुंए, पोखरे, कर्मनाशा पर बांध बनवाया (इन्होंने रामनगर में इण्टर कालेज खोला) साथ ही काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना में मदन मोहन मालवीय जी का सहयोग किया। इसके बाद इनके पुत्र आदित्य नारायण सिंह गद्दी पर बैठे। लेकिन 1939 में इनकी असमय मृत्यु हो गयी। इसके बाद राजा विभूतिनारायण सिंह जो कि आदित्य नारायण सिंह के दत्तक पुत्र थे। गद्दी पर बैठे। विभूति नारायण सिंह हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी के विद्वान थे। भारत के स्वतंत्र होने पर रियासतों के विलय करने के प्रस्ताव पर 15 अक्टूबर 1948 को उत्तर प्रदेश मिला दिया गया। इस दौरान रामबाग में एक समारोह भी हुआ।
बनारस की शिक्षा-संस्थाएँ- अठ्ठारहवीं सदी में काशी में गुरू निःशुल्क विद्यार्थियों को पढ़ाते थे। साथ ही विद्यार्थियों के रहने और भोजन की भी व्यवस्था करते थे। इस कार्य में होने वाले खर्च में महाजन और राजा सहायता करते थे। अठ्ठारहवीं सदी में अंग्रेजों ने बनारस संस्कृत कालेज खोलने पर विचार किया।
स्वतंत्रता आन्दोलन में काशी- 1869 में दयानंद सरस्वती काशी आये। उन्हांेंने पुरातनपंथी हिन्दुओं के आचार्यों-माधव व आनन्द से कई विषयों में शास्त्रार्थ किया। 1898 में डाॅ0 भगवानदास ने ऐनी बेसेन्ट के साथ मिलकर सेन्ट्रल हिन्दू स्कूल की नींव डाली। 1905 में महत्वपूर्ण घटना काशी में हुई। गोपाल कृष्ण गोखले की अध्यक्षता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। अधिवेशन में लाजपत राय, मदनमोहन मालवीय जैसे लोग शामिल हुए थे। पूरे भारत के साथ काशी के लोगों में भी अंग्रेजों के खिलाफ गुस्सा था। अंग्रेजी सरकार के विरोध में 1908 में काशी के युवा बंगाली छात्रों ने एक क्लब शुरू किया। इस क्लब को रेवोल्युशनरी पार्टी का सहयोग मिला था।
1909 में भिनगा नरेश उदय प्रताप सिंह जू देव ने उदय प्रताप कालेज की स्थापना की। 1916 में मदन मोहन मालवीय ने काशी व दरभंगा नरेशों, भगवानदास शिवप्रसाद गुप्त और अन्य लोगों के सहयोग से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की। 1921 में स्वतंत्रता के लिए गांधी जी ने असहयोग आंदोलन शुरू कर दिया। इस आंदोलन में मदनमोहन मालवीय, शिवप्रसाद गुप्त और डाॅ0 भगवानदास की मौजूदगी ने काशी विद्यापीठ में राजनीतिक कार्यकर्ताओं की खूब जुटान होती थी। 1930 में नमक सत्याग्रह में भी काशी सक्रिय रही। 10 अप्रैल को कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने विशाल समूह के साथ मिलकर नमक बनाया। कई जगह जन सभाएँ हुई। आंदोलन में बहुत से लोग गिरफ्तार हुए। 1932 में गांधी जी की गिरफ्तारी के बाद लोगों में अंग्रेजो के खिलाफ आक्रोश काफी बढ़ गया। इस दौरान जमकर सरकार विरोधी प्रदर्शन हुए नारे भी लगे। जनाक्रोश को दबाने के लिए जिला प्रशासन ने वाराणसी कांग्रेस कमेटी को अवैध घोषित करते हुए धारा 144 लगा दी। कुछ जगह लाठी चार्ज भी हुआ। प्रशासन ने कई लोगों को गिरफ्तार किया। बहुतांे पर मुकदमे भी चले। 1935 में हुए चुनाव में वाराणसी की 5 सीटों मंे दो कांग्रेस, दो मुस्लिम लीग और एक निर्दलीय को मिली। 1941 में गांधी जी के नेतृत्व में सत्याग्रह शुरू हो गया। इस दौरान वाराणसी में करीब 500 लोगोें ने गिरफ्तारी दी। 1942 में भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित होने पर लोगों ने जमकर आंदोलन में भाग लिया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रों ने हड़ताल कर शहर के मुख्य मार्गों से जुलूस निकाला। आन्दोलन गहराता जा रहा था। छात्रों ने कई सरकारी कार्यालयों पर तिरंगा लहरा दिया। आंदोलन को रोकने के लिए पुलिस ने अंधाधुंध फायरिंग की। जिसमें कई लोग मारे गये तो कई घायल हो गये। लेकिन आंदोलन की आग कम होने की बजाय बढ़ती गयी। इस दौरान पुलिस ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की घेरबंदी कर मालवीय जी और तत्कालीन कुलपति डाॅ0 राधाकृष्णन के बंगलों को घेर लिया। विश्वविद्यालय में महीनों पुलिस बल तैनात रही। कई गांव जला दिये गये। साथ ही गांव वालों की सम्पत्ति भी जबरन ले ली गयी। 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रत होने पर तथा रामनगर रियासत विलय होने पर वाराणसी जिला वर्तमान रूप में सामने आया।