बनारस की साहित्यिक परंपरा
शिव प्रसाद मिश्र रुद्र काशिकेय की विलक्षण कथाकृति बहती गंगा में अठ्ठारहवीं-उन्नीसवीं शताब्दी का वह छिट-पुट बनारस है जिसमें पूरा बनारस देखा जा सकता है। चलिये यहीं एक प्रश्न उठाएं। रुद्र ने इसका नाम ‘बहती गंगा’ क्यों रखा जबकि बनारस में गंगा को सिलसिलेवार पक्के घाट मिले हैं। असी से लेकर राजघाट तक? क्या यही ‘कहानी’ के अंतर्प्रवाह से बनते शिल्प की मांग थी या कोई और मन्तव्य? शायद इसलिए कि बनारस में जितना ठहराव है उससे ज्यादा गति है, जितना वैराग्य है उससे ज्यादा राग, जितनी कलह है उससे ज्यादा मैत्री, जितना आध्यात्म है उससे ज्यादा लौकिकता और जितना शास्त्र है उससे ज्यादा लोक है। ‘गति ही है जो सभी स्थिरताओं को घिस कर चमकाती जा रही है।’ रुद्र ने उस बनारस को लिखा जिसकी जनता बार-बार राजा चेत सिंह के साहस और उम्मीद पर आमदा थी। बनारस के गली कूचे के बच्चे आज भी, भले ही थोड़ा बिगाड़ कर, यह गाते मिल जाएंगे कि ‘घोड़े पर हौदा, हाथी पर जीन, जल्दी में भाग गयल, वारेन हेस्ंिटग’।
वारेन हेस्टिंग को इस तरह खदेड़ने का आंदोलन उठा देने वाले राजे-महाराजे या महानायक नहीं, बल्कि देह के साथ चेतना दुरुस्त रखने वाले पहलवान, साधु-सन्यासी, चित्रकार, गायिकाएँ, रूप बाजार की स्त्रियां, गरीब स्त्री-पुरुष और बच्चे थे। रुद्र ने यह बनारस कल्पना से नहीं गढ़ा था, वाचिक परंपरा के जीवित रुप में इसे देखा और पहचाना था। बनारस ऐसा ही है। हमेशा ज्ञान-विज्ञान, चिंतन, आध्यात्म और सौन्दर्य बोध को प्रतिरोध की सशक्त संरचनाओं में ढालने के लिए तत्पर और बेचैन। ‘लोक’ इसकी आत्मा है और ‘लोक’ ही इसकी धुरी। ‘परलोक’ यहां लोक की ही काम्य आदर्शीकृत छवि है। ऐसा अलमस्त बनारस कि ईश्वर को भी न केवल इस लोक को सुधारने के काम पर लगा दिया बल्कि लगातार निगरानी में भी।
दूर जहां तक दृष्टि जाती है वहां देखिए- बुद्ध, लोक की मुक्ति का विधान खोजते यहां चले आए। जीवन की स्थूलता और प्रतिगामिता के समग्र तिरस्कार से बनती वह प्रबुद्ध चेतना ही जैसे अग्नि की तरह चिंतन और सृजन की पूरी परंपरा में अपने आधार ढूंढती रही है। गौतम बुद्ध एक आंदोलन का नाम है। वर्ण-व्यवस्था की अमानवीयताओं से टकराती उनकी प्रज्ञा ने मनुष्य, और मनुष्य में अंतर करने वाली आचार-संहिता और भाषा का स्पष्ट विरोध किया। लोक की सबलता का यह स्वर पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में पुनः कबीर, रैदास और तुलसी में प्रकट होता है। सत्ता केंद्रित संस्कृति की संसाधन संपन्नता से टकराते कबीर की ‘लुकाठी’ का भाष्य करें। आश्चर्यजनक लगता है कि पूर्व मध्यकाल के इस फकीर कवि ने यह जान लिया था कि मनुष्य के लिए सबसे कठिन चुनौती ‘बाजार’ है। आज इस बाजार के लिए हमारे देश का सब कुछ दांव पर लगा हुआ है। आर्थिक-सामाजिक आत्मनिर्भरता, संस्कृति, भाषा, स्मृति सब कुछ।
तुलसी की चिंता में भी भक्ति और कविता की सामाजिक जवाबदेही के प्रश्न बराबर थे। अपने देशकाल के सर्वविध्वंस को निहत्था कर देने वाले अनुभवों के बावजूद तुलसी ने मनुष्य की जयगाथा का स्वप्न लिखा है। काशी की जड़ता ने उन्हें चारों तरफ से घेरा था। भाषा और संवेदना के अभिजात शास्त्रीय ठिकानों की ओर से आने वाले आक्षेप, निंदा और तिरस्कारों को तुलसी ने अपार जनस्वीकृति की उमड़ती महानदी में बहा दिया था। विनय के साथ तुलसी में रोष था और प्रतिरोध भी।
उत्तर-मध्यकाल के रीतिवादी दौर में पंडितराज जगन्नाथ ने अपनी रचना के साथ-साथ अपने जीवन संघर्ष से काशी के कर्मकाण्ड विरोध का अध्याय लिखा किंतु यह संभवतः समूचे इतिहास का यथास्थितिवाद को मजबूती देने वाला दौर था। यही कारण था कि भारतेन्दु ने अपना सबसे पहला और जरूरी कार्य, रीतिवाद विरोध, निश्चित किया था। भारतेन्दु हिंदी नवजागरण की बहुत मजबूत कड़ी थे। इस धार्मिक आध्यात्मिक शहर में उनके होने का अर्थ था। भारतेन्दु मंडल की छटा देखिए : बालकृष्ण भट्ट, प्रेमधन, राधाचरण गोस्वामी, प्रताप नारायण मिश्र सघ्भी गहरी रचनात्मक मैत्री में अभिन्न। साहित्य उनके लिए यश साधन या आत्म प्रकाशन भर नहीं था बल्कि जमाने को भीतर से बदलने वाला हथियार था। कवि वचन सुधा, बाल बोधिनी, हरिश्चन्द्र चंद्रिका, काशी पत्रिका जैसी पत्र-पत्रिकाएं साहित्यिक-सामाजिक मुद्दे पर सक्रिय और गंभीर थी। भारतेन्दु मंडल के रूढ़िवाद विरोध का आलम यह कि मुद्राराक्षस नामक नाटक में एक चरित्र अभिनीत करते हुए बालकृष्ण भट्ट ने पिता का श्राद्ध कर दिया था। कल्पनातीत है कि कितना अस्वीकार, कितनी निंदा उन्हें झेलनी पड़ी होगी।
समाज की पुनर्रचना के लिए रूढ़िभंजन के ऐसे साहस की कमी नहीं थी, उस युग के लेखकों में। साम्राज्यवाद विरोध के साथ भारत की स्वाधीनता की बड़ी स्पष्ट आकांक्षा भारतेन्दु में व्यक्त हुई है कि – ‘स्वतत्व निज भारत गहें’। एक अलख जगाई जा रही थी जिसमें निज भाषा उन्नति सहित आर्थिक-सामाजिक आत्मनिर्भरता के लक्ष्य के साथ कितनी संस्थाएं, अखबार, पत्रिकाएं, रंचमंच, लोकविधाएं आदि साम्राज्यवाद के विरोध के स्वर को दूर तक ले जा रहे थे। यह विरासत अपने पूरे अग्रगामी सार के साथ प्रेमचंद, प्रसाद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी, शिव प्रसाद मिश्र, रूद्र काशिकेय और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसी विभूतियों में फलीभूत हुई है।
प्रेमचंद ने भारतीय किसान के हित के केन्द्र में सामंती साम्राज्यवादी शोषण की जड़ों को पहचानते हुए अपना रचनात्मक विकास पाया। हंस जैसी पत्रिका के लिए उन्होंने अपना जीवन खपा दिया। अभाव, बीमारी, अंग्रेज सरकार का विरोध, क्या-क्या उन्हें नहीं झेलना पड़ा। उधर प्रसाद के यहां ‘भारतीयता’ भिन्न सांस्कृतिक सार के रूप में निर्मित हो रही थी। हंस, इंदु, हिंदी गल्प माला जैसी पत्रिकाएं आधुनिक भारत की पुनर्रचना के शक्ति स्रोतों को अपने आदर्शों के अनुरूप खोज रही थीं। बीसवीं शताब्दी के इस आरंभिक दौर के बनारस में विविध साहित्यिक हलचलें थीं। काशी में उस समय मैथिलीशरण गुप्त, जैनेन्द्र, निराला, सुभद्रा कुमारी चौहान जैसे रचनाकारों का आना-जाना और परस्पर संवाद था। इसके अतिरिक्त शिवपूजन, सहाय, उग्र, शांतिप्रिय द्विवेदी और विनोद शंकर व्यास जैसे रचनाकार यहां थे। रायकृष्णदास ने केदारनाथ पाठक का जिक्र किया है जो अपने साहित्यिक ज्ञान में बहुत चौकस थे। साहित्यिक और यथार्थ के रिश्ते को समझने की बेचैनियों के कई रूप थे। प्रसाद और जैनेन्द्र में ही नहीं, प्रेमचंद की भी यथार्थ और यथार्थवाद संबंधी उलझने बनी हुई थीं। इस बनारस के बहुत पास धड़कने वाला हृदय प्रयाग था।
आचार्य शुक्ल ने सुमित्रानन्दन पंत को छायावाद का महत्वपूर्ण कवि माना। वे उनकी लोक मंगल की कसौटी पर ज्यादा खरे उतर रहे थे। यह कबीर, तुलसी, भारतेन्दु, और प्रेमचंद की ही रियासत थी कि शुक्ल जी की वस्तुवादी आलोचना दृष्टि को ऐसी धार मिली। सुदूर शांतिनिकेतन में कबीर के गहरे स्वीकार में रचे-बसे रवीन्द्र नाथ ठाकुर से हजारी प्रसाद जी को एक अन्य कबीर मिल रहे थे। प्रतिरोध की संस्कृति की परंपरा की सशक्त कड़ी होकर वे नाथ-सिद्ध साधना की लोक सम्पृक्त चेतना की अभिव्यक्ति थे।
छायावादी दौर में बनारस में ‘यथार्थवाद’ को लेकर गंभीर बहसों और निष्कर्षों का रूप दिखाई देता है। जयशंकर प्रसाद ने ‘यथार्थवाद’ पर विचार किया, यद्यपि उनकी रचनादृष्टि की प्राथमिकताएं भिन्न थीं। जीवन की सूक्ष्मसारता को भावसत्ता के रूप में बदलकर व्यक्त करना उनकी विशेषता थी। वे अर्थ की सघन सारमयी संरचना के रचनाकार थे तथा स्थूलताओं को प्रत्येक स्तर पर तिरोहित करने के पक्ष में थे। इन्हीं कारणों से ‘यथार्थवाद’ को उनकी सहानुभूति प्राप्त नहीं हुई। उन दिनों जैनेन्द्र भी यथार्थ और यथार्थवाद संबंधी प्रश्नों के संदर्भ में प्रेमचंद से संवाद में थे। जैनेन्द्र की भी यथार्थवाद संबंधी दृष्टि में प्रसाद जी के समान भाववादी प्राथमिकताएं फलीभूत हुईं।
सन् 1950-55 के दौर की नई कहानी, नई कविता से बनारस की उल्लेखनीय संबद्धता यही थी कि नामवर सिंह ने उसकी प्रवृत्तियों, प्रतिमानों की पड़ताल की। उनके अनुसार निर्मल वर्मा की ‘परिंदे’ शीर्षक कहानी हिन्दी की पहली नई कहानी है। उनका आलोचक उस कहानी में संवेदना और भाषा का नया रूप देख रहा था। इस प्रश्न पर उन्हें बाकायदा ‘घेराव’ झेलना पड़ा है किन्तु आज भी वे अपनी इस मान्यता पर डटे हुए हैं। कहना न होगा कि यह ‘डटे रहना’ बनारस का ही वह शिल्प है जो व्यक्तित्व को जमीनीं आत्मविश्वास देता है। वह आत्मविश्वास जो न केवल ‘आधुनिकता’ की जातीय समझ देता है बल्कि फैशन और पैशन के तौर पर चलाई जा रही उत्तर- आधुनिकता की समूची असलियत जानता है। यह नामवर सिंह ही थे जिन्होंने परंपरा और स्मृति के पुनर्पाठ के भीतर बहुराष्ट्रीय पूंजी के विखंडनवादी चरित्र से बनते इस उत्तर आधुनिकतावादी विमर्श को अपने ढंग के विखंडन के पाठ के जरिए समझाया था। वे सदैव जीवन के अर्थ को उसके गतिमान संघर्ष में कला की चुनौतियों के साथ लेने वाली कृतियों के प्रशंसक रहे हैं। यह भी है कि अपनी पसंद-नापसंद की कड़ी निगरानी करने वालों के लिए वे एक बड़ी बौद्धिक चुनौती साबित होते हैं। ‘जातीयता’ का यह अंतः स्वर केदारनाथ सिंह और रामदरश मिश्र की रचनाओं में उनके अपने रचनात्मक संघर्ष के अनुरूप प्रकट हुआ है। केदारनाथ सिंह ने अवश्य अपने शिल्प को नोक-पलक से दुरुस्त रखने के मोर्चे पर अतिरिक्त सावधानी ली है। उनके यहां ‘अर्थ’ की सूक्ष्म संरचनाएं, मिलती हैं। बहुत संभव है कि सदी के इस सख्त आलोचक की निकटता और निगरानी ने उन पर इस ‘अतिरिक्त’ के लिए दबाव बनाया हो।
‘नयी कहानी’ का वह दौर बनारस के रचनात्मक पाठ में अलग तरीके से घटित होता है। संभवतः इसका कारण बनारसी मध्यवर्ग की प्रवृत्ति की विलक्षणता हो जिसके लिए ‘संकटबोध’ का वह निर्धारित रूप उस समय मान्य नहीं था।
उन्हीं दिनों द्विजेन्द्रनाथ मिश्र ‘निर्गुण’ मध्यवर्गीय जीवनानुभवों को उम्मीद और राग के शिल्प में लिख रहे थे। शिव प्रसाद सिंह भी अस्तित्ववाद की वैसी चपेट में नहीं थे। रामदरश मिश्र और केदार नाथ सिंह भी शीघ्र ही उन कल्पित-आरोपित स्थितियों से निकल आए। रामदरश मिश्र, केदारनाथ सिंह, नामवर सिंह उस दौर में विद्यार्थी थे और इस प्रतीकात्मक रुझान को उत्सुकता के साथ देख रहे थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने अपने शिष्यों को हिंदी साहित्य के इतिहास के उन दिनें में परंपरा को समझने और उससे टकराने का विवेक दिया जिन दिनों परंपरा पिछड़ी हुई चीजों के खाते में डाल दी गई थी। नामवर सिंह की प्रखरता तथा शिवप्रसाद सिंह के इतिहास प्रेम में द्विवेदी जी का ही तप निरंतर प्रवाह में है।
सातवें दशक में द्विवेदी जी ने बनारस छोड़ दिया था। नामवर सिंह, शिव प्रसाद सिंह, रामदरश मिश्र जैसे शिष्यों के गुरु थे वे। प्रगतिशील हिंदी आलोचना के शिखर नामवर सिंह सुमधुर कंठ के साथ उन दिनों ‘झुपुर-झुपुर धान के समुद्र में, हलर-हलर सुनहरा विहान’ गाते थे। केदार नाथ सिंह रुमानियत के बावजूद नये मोटिक्स और मेटाफर्स के लिए संघर्ष में थे। रामदरश मिश्र ने त्रिलोचन के प्रभाव से अपनी रुमानियत के मुक्त होने का उल्लेख भी किया है। बनारस का प्रगतिवादी स्वर रोमांटिक किस्म की प्रगतिवादिता से भिन्न था। त्रिलोचन यहां काफी समय तक रहे। उनके समने कई रचनाकारों की पीढ़ियां अपने संघर्ष में थी। केदार, रामदरश मिश्र, ठाकुर प्रसाद सिंह, विष्णु चंद्र शर्मा और बाद में धूमिल भी। बाद के दिनों में प्रायः नयी कविता के उतार के दिनों में राजकमल चौधरी, ऐलेन गिन्सबर्ग भी यहां आए।
धूमिल को रूढ़िभंजकता और स्पष्ट अस्वीकारता का तेवर कबीर और भारतेन्दु की परंपरा से मिला। देश के इतिहास का यह बड़ा ही तोड़-फोड़ भरा दौर था। तमाम बड़ी प्रतिभाएं मध्यवर्गीय अनुभववाद की चपेट में अपनी कलम तोड़ रहीं थी। धूमिल ने ऐसे बौद्धिक छल से तय होती संवेदना और भाषा के समूचे नाटक को तार-तार कर दिया। पूंजीवादी जनतंत्र का सच्चा तीखा आलोचनात्मक स्वर धूमिल में दिखाई दे रहा था। यही नहीं, देश समाज या मनुष्य का संकट उनके लिए बौद्धिक जुगाली की चीज नहीं था। मध्यवर्गीय अवसरवाद की कठिन संरचनाओं की पहचान धूमिल में ऐसे ही नहीं थी। धूमिल का रचनात्मक तेज इतना प्रखर हुआ कि नई कविता के तमाम ठहरावों को तोड़ने वाला कारगर शिल्प उनसे ही संभव हुआ। धूमिल बनारस की रचना परंपरा में एक बड़ा नाम है।
बनारस में मौजूदा देशकाल वैश्विक पूंजी के असर से बदलती आर्थिक सामाजिक संरचनाओं का है। लोकतंत्र की घानी में अब केवल पानी ही पानी है। बनारस कहीं ज्यादा पूंजी आधरित क्लास संस्कृति की चपेट में है। बनारसी लोग भौंचक होकर देख रहे हैं कि बनारसीपन भी सांस्कृतिक उत्पाद में बदला जा रहा है। औद्योगिक घराने, तारांकित, होटल्स, फैशन ट्रेन्ड्स और टूरिज्म ने मुनाफा उगाही का क्षेत्र बना लिया है। काशीनाथ सिंह और ज्ञानेन्द्रपति के सामने अपसंस्कृति की इन गहरी व्यूह रचनाओं को समझने की चुनौतियाँ हैं। काशीनाथ सिंह ने सबसे पहले इसे परजीविता को पोसने वाली भाषा को तिरस्कार के साथ लिया है। उनके संस्मरणों में काशी अपने प्रतिरोध के पूरे अंतर्पाठ में व्यक्त हुई है।
सातवें दशक के आरंभिक दौर में नवलेखन के इर्द-गिर्द जुटती गतिविधियों के करीब अकविता का विध्वंसक अस्वीकार एक उत्तेजक माहौल रच रहा था। हालांकि कविता की जमीनी पकड़ फिर भी बनी रही जिसे धूमिल में देखा गया। धूमिल पूँजीवादी जनतंत्र के प्रति तीखे आलोचनात्मक कवि थे और भाव तथा भाषा के दोमुंहेपन की राजनीति को सर्वत्र तोड़ रहे थे। सन् 1965 के आस-पास नामवर सिंह ने बनारस छोड़ा। विद्यासागर नौटियाल यहां थे। कवि विजेन्द्र और विश्वनाथ त्रिपाठी यहां थे। शिव प्रसाद सिंह ने लंबी रचनात्मक सक्रियता पाई। सातवें दशक के सक्रिय रचनाकारों में काशीनाथ सिंह, विजय मोहन सिंह और धूमिल महत्वपूर्ण थे। कथाकार रमाकांत आज अखबार में काम करते थे। काशीनाथ सिंह पर भी आरंभ में अकविता के चरम निषेधवादी मुहावरों का प्रभाव था। क्रमशः वे यथार्थ के साथ अधिक जिम्मेदारी भरे संबंध के साथ आगे आए।
इन्हीं दिनों के बनारस में मैनेजर पाण्डेय की आलोचनात्मक प्रखरता आकार ले रही थी। पाण्डेय जी ने हिंदी आलोचना को आचार्य द्विवेदी की परंपरा में चिंतन और पुनराविष्कार के रूप में विकसित किया। भक्तिकाल को कबीर, सूर और तुलसी की वृहत्रयी की प्रचारित रूढ़ि से निकाल कर मीरा की भक्ति और जीवन संघर्ष से जोड़कर उन्होंने अपने सटीक इतिहास बोध का परिचय दिया है। साहित्य का इतिहास उनके लिए एकरेखीय निरंतरता नहीं है। साहित्यिक सामग्री की अंतर्संबद्धता की जांच के संदर्भ में वे आचार्य शुक्ल की वस्तुवादी दृष्टि का विकास हैं। मार्क्सवाद उनके लिए जड़ीभूत मूल्य नहीं बल्कि ‘विजन’ है। मैनेजर पाण्डेय का गुरूकुल था बनारस।
सूर्यकाल बनारस की हैं। धर्मयुग जैसी पत्रिकाओं में लिखते हुए उन्होंने महत्वपूर्ण पाठकीय स्वीकृति अर्जित की। इस बनारस के आधुनिक रचनात्मक परिदृश्य में भारतेन्दु के व्यंग्य की सचेतन दृष्टिवानता मौजूद रही है। छठें-सातवें दशक में बेढब बनारसी, बेधड़क बनारसी और भैया जी बनारसी के व्यंग्य का एक स्तर था। आज में प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट कांजिलाल थे। शंभुनाथ सिंह की परंपरा में श्रीकृष्ण तिवारी और बुद्धिनाथ मिश्र ने अपने गीतों से जगह बनाई। वे आज भी मंच पर एक गंभीर जिम्मेदार उपस्थिति हैं। नजीर बनारसी को कोई कैसे भूल सकता है? शेख हर्जा और गालिब के स्वर को अपने स्वर में शामिल कर उन्होंने ‘गंगा’ के लिए बराबर अपना स्नेह लिखा। बनारस के क्लासिक साहित्यिक चिंतन के पृष्ठों पर आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, केशव प्रसाद मिश्र, पीतांबर दत्त बड़थ्वाल, सीताराम चतुर्वेदी, विद्यानिवास मिश्र, शांतिप्रिय द्विवेदी, भोला शंकर व्यास, डॉ0 देवराज और प्रेमलता शर्मा की परंपरा में रेवा प्रसाद द्विवेदी, प्रो0 रामजी उपाध्याय, प्रो0 कमलेश दत्त त्रिपाठी, राममूर्ति त्रिपाठी के साथ-साथ भानुशंकर मेहता, कुंअर जी अग्रवाल और कमलिनी मेहता भी हैं। डॉ0 बच्चन सिंह, डॉ0 शुकदेव सिंह, डॉ0 चौथी राम यादव और मनु शर्मा तथा डॉ0 युगेश्वर रचनात्मक सक्रियता की मिसाल हैं। उनके आगे भी बनारस की कई पीढ़ियां बनी हैं। डॉ0 कमल गुप्त, कुसुम चतुर्वेदी, डॉ0 विश्वनाथ प्रसाद डॉ0 जितेन्द्र नाथ मिश्र, डॉ0 ब्रह्मा शंकर पाण्डेय, डॉ0 राम सुधार सिंह तथा डॉ0 श्रीप्रसाद के भीतर पुराने बनारस के साथ नया बनारस भी है।
धूमिल की रचनाशीलता के दिनों में बनारस में उनके रूढ़िभंजक स्वर के करीबी डॉ0 वाचस्पति, गोरख पाण्डेय, महेश्वर और नागानंद मुक्तिमंठ थे। वाम रुझान के कंचन कुमार आमुख पत्रिका निकालते थे। इन दिनों के बनारस में बलराज पाण्डेय, अवधेश प्रधान और वाचस्पति उस विरासत की करीबी कड़ियाँ हैं तथा रचना और आलोचना के क्षेत्र में निरंतर सक्रिय हैं। विनय दुबे, अब्दुल बिस्मिल्लाह, रमाकांत, देवेन्द्र और दिनेश कुशवाहा को भी बनारस की ही परंपरा में देखना चाहिए। इसके अतिरिक्त प्रतिमा वर्मा, अनुराधा बैनर्जी, मुक्ता, नीरजा माधव, बीरबाला, नाहिद, शशिकला त्रिपाठी, प्रकाश उदय, सुरेश्वर त्रिपाठी, बलभद्र, पी0 चंद्र विनोद, लोलार्क द्विवेदी और अशोक सिंह, बृजबाला सिंह भी रचनात्मक समृद्धि के जरूरी पृष्ठ हैं।
इस प्रकार संवेदना और भाषा की जड़ीभूत परतों को तोड़ने की परंपरा काशी में निरंतर मजबूत और दिशावान हुई हैं। काशीनाथ सिंह ने बनारस की जिंदगी को विघटित करने वाले वैश्विक पूंजी के दुष्चक्र को पहचाना है। उनकी रचनाशीलता में यह वैकल्पिक संस्कृति के लिए संघर्ष चेतना की खोज है, जिसमें निरंतरता बनी हुई है। जीवन का ऐसा विद्रूप उनके कॉमिक ट्रीटमेंट से अलग तरीके से निरस्त होता है। बाजार की दुरभिसंधियों से आक्रांत मामूली आदमी की यातना और संघर्ष की गहरे मानवीय लगाव से छूने वाले ज्ञानेन्द्रपति, काशी की रचनाशीलता का दूसरा महत्वपूर्ण शिखर हैं। उनके भीतर सुखिया संसार के भीतर बढ़ती दुख की सुरंगों को पहचनाने तथा संवेदनशील मनुष्य की बेचैनी मिलेगी। उनकी प्रसिद्ध काव्यकृति गंगातट में बनारस कई रंगों, अनुभवों और सूक्ष्मताओं में मौजूद है।
बनारस की सर्वथा नई पीढ़ी को सभी गहरी उत्सुकता, आश्वस्ति और दुलार से देख रहे हैं। साहित्य और संस्कृति के लिए बहुत मुश्किल हो चले इस दौर में लघु पत्रिकाओं की बड़ी ही सार्थक हस्तक्षेप भरी उपस्थिति है। इनके द्वारा बिल्कुल नए अछूते क्षेत्रों से कथ्य, संवेदना और शिल्प सामने आ रहा है। वागर्थ और कथादेश के नवलेखन अंकों से इन उपस्थितियों को पूरा फोकस मिला है। बनारस से इन रचनाकारों में व्योमेश शुक्ल, चंदन पाण्डेय, पंकज पराशर, विमल पाण्डेय, श्रीकांत दुबे, अक्षय उपाध्याय आदि हैं। आश्चर्य है कि इन सभी युवा रचनाकारों में महत्वाकांक्षा से कहीं ज्यादा रचनात्मक ताप के लिए जूझने की गंभीरता है। बड़ी संभावनापूर्ण दस्तकों के रूप में अल्पना मिश्र हैं जिनकी रचनात्मक शख्सियत में काशी प्रतिभा और विरासत साथ है। इन दिनों डॉ0 कुमार पंकज अपने विशिष्ट गद्य के साथ ध्यान खींच रहे हैं।
डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद पाण्डेय के लेखन में क्लासिकी का अंतर्प्रवाह है तथा रमेश पाण्डेय और ओम धीरज के रचना लोक में यथार्थ की चुनौतियों से जूझने की तैयारी देखी जा सकती है। डॉ0 अवधेश प्रधान आलोचना में स्मृति और आधुनिक चेतना से समृद्ध शख्सियत हैं। बलराज पाण्डेय कहानी और यथार्थ के रिश्तों को सुसंगत ढंग से लेने वाले आलोचक और लेखक हैं। ‘केशव शरण’ सृजनात्मक क्षमता-संपन्न कवि हैं और महत्वपूर्ण ढंग से छप रहे हैं। डॉ0 वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी काव्य शास्त्र और रंग चिंतन से जुड़े हैं। डॉ0 सदानंद शाही के संपादन में साखी बनारस से निकल रही है। डॉ0 चंद्रबली सिंह के अनूठे सहयोग और अशोक पाठक की सक्रियता से जलेस की जनपक्ष नामक पत्रिका काशी प्रतिमान के संपादक हैं। इस पत्रिका के धूमिल अंक की अत्यधिक सराहना हुई। इसके अतिरिक्त डॉ0 देव, अरविंद चतुर्वेदी, डॉ0 अशोक पाठक जैसे कवि रचनाकारों की सक्रियता भी है। बनारस की साहित्यिक हलचलों की निरंतर सहभागी के रूप में लोलार्क द्विवेदी, डॉ0 दीनबंधु तिवारी, मेयार सनेही, डॉ0 शहजाद, सलीम राजा और डॉ0 देवी प्रसाद कुँवर है। डॉ0 गया सिंह पारंपरिक ओज की नई रचना की तरह हैं। गोपाल प्रधान, समीर पाठक तथा प्रभात कुमार मिश्र हिंदी आलोचना के सशक्त दृष्टिवान स्वर हैं।
बनारस की साहित्यिक सरगर्मियों में यथास्थितिवाद के अपने पैंतरे हैं। यहीं संत है तो सीकरी भी यहीं हैं। बनारस अपने रचनाकारों का रचनात्मक पदार्थ भी बना है। ज्ञानेन्द्रपति के गंगातट का जिक्र हुआ है। बहती गंगा में यह है, विश्वनाथ मुखर्जी की बेजोड़ कृति बना रहे बनारस में देखिए, रामदरश मिश्र की आत्मकथा रोशनी की पगडंडिया’ में है। शिवप्रसाद सिंह की गली आगे मुड़ती है, वैश्वानर और नीला चांद में काशी के प्राचीन और नए पूर्वपक्ष काशी ही है। काशीनाथ सिंह के अपना मोर्चा तथा काशी का अस्सी में भी बनारस है तो अब्दुल बिस्मिल्लाह की झीनी-झीनी बीनी चदरिया में कबीर के वंशज जुलाहें का पूंजी और टेक्नोलॉजी आधारित व्यवस्था से जूझना लिखा है। केदारनाथ सिंह के लिए बनारस मिथक में फैलता यथार्थ है। उसमें विराट और सूक्ष्म है तो स्थूल, परजीवी और क्षुद्र भी। यद्यपि कबीर की तरह ही वे इन्हें समावेश में नहीं बल्कि संघर्ष में देखते हैं। यह सत्य है कि उत्तर आधुनिक चुनौतियों से जूझने वाली छवि है, इसलिए वे उत्तर कबीर लिख पाए। अष्टभुजा शुक्ल ने भी बनारस पर कविताएं लिखी हैं। अंत में बनारस की साहित्यिक परंपरा एकरेखीय सतही और सीधी नहीं है इसमें विविधता है, गहराई है और उलझाव भी है किंतु कुल मिलाकर गति और उन्नयन का पलड़ा भारी है।
काशी के साहित्यकार
दमोदर पंडित –
दमोदर पंडित ने गद्य में उक्ति व्यक्ति प्रकरण की। रचना की प्राकृत पैगलम् इन्हीं के द्वारा रचित एक काव्य ग्रन्थ है। जो काशी के राजकुमारों बाजार की भाषा सिखलाने के लिए रची गई थी काशिकेय के मतानुसार काशीश्वर राना की प्रशंसा इसी काव्य का अंश है।
कबीरदास –
संवत 1456 में काशी में जन्में स्वामी रामानंद के शिष्य कबीरदास किवंदतियों के अनुसार ब्राह्मण विधवा कन्या के पुत्र थे। जिसका पालन पोषण नीरू-नीमा नामक जुलाहे ने किया प्रारंभिक समय में कबीर जी सगुण भक्ति की ओर अकर्षित हुए लेकिन इनकी संतुष्टि निर्गुण भक्ति में हुई इसलिए इन्होंने अपने गुरू के नाम को लेकर निर्गुण के राम की पूजा की कबीर ने निर्गुण ब्रह्म संत काव्य धारा का प्रतिपादन किया तथा बाह्य आडम्बरों का विरोध किया। हजारी प्रसाद ने इन्हें वाणी का डिक्टेटर बताया तो शुक्ल के अनुसार इनकी भाषा ‘पंचमेल खिचड़ी’ है। कबीर को कवि कम और समाज सुधारक ज्यादा माना जाता है कबीर की रचना बीजक (साखी, सबद, रमैनी) का लेखन इनके शिष्य धर्मदास ने किया। संवत् 1576 में मगहर में इनका निधन हो गया।
रैदास –
रामानन्द के बारह शिष्यों में काशी के एक कवि रैदास या रविदास संत कवियों में आते हैं –
‘कह रैदास खलास चमारा’ मीराबाई और धन्ना ने इन्हें गुरु माना है। रैदास ने एक परम्परा चलाई जिसे साधु सम्प्रदाय कहते हैं। इनका कोई ग्रन्थ नहीं मिलता लेकिन फुटकल पद वानी, संतवानी सीरिज में संग्रहित है।
तुलसीदास –
संवत् 1554 में राजापुर में जन्में नरहरिदास के शिष्य परम्परा के मुर्धन्य कवि गोस्वामी तुलसीदास सगुण भक्ति के रामकाव्य धारा में दैदीप्यमान सूर्य हैं। इनकी प्रमुख 12 रचनाएँ हैं श्री रामचरित मानस, वरवै रामायण, रामलला नध्धू, विनयपत्रिका, कवितावली, गीतावली, हनुमानबाहुक, रामाज्ञा प्रश्नावली, पार्वती मंगल, जानकी मंगल, कृष्ण गीतावली, गोस्वामी जी के मित्रों में अब्दुर रहीम खान खाना, महाराज मान सिंह नामादास और मधुसूदन सरस्वती थे। काशी में इनके बड़े स्नेही भक्त भदैनी के एक भूमिहार जमींदार टोडर थे। जिनकी मृत्यु पर इन्होंने कई दोहे लिखे। गोस्वामी जी की मृत्यु संवत् 1680 में काशी में हुई।
गोकुलनाथ –
काशी के दरबारी कवि गोकुलनाथ महाराज चेत सिंह और उदित नारायण सिंह के दरबारी कवि थे। इनकी प्रमुख रचनाएँ- चेतसिंह चन्द्रिका, राधाकृष्ण विलास, राधा नख-शिख, महाभारत दर्पण प्रमुख है।
‘महाभारत दर्पण करीब 54 वर्षों बाद सन् 1884 में इनके शिष्य मणिदेव तथा पुत्र गोपीनाथ के सहयोग से लिखा गया।
गोपीनाथ –
गोकुलनाथ के ही पुत्र गोपीनाथ ने भी महाभारत-दर्पण के भीष्म पर्व द्रोणपर्व, स्वर्गारोहण पर्व, शांति पर्व तथा हरिवंश पुराण का अनुवाद किया है। ये राजा उदित नारायण सिंह के आश्रित कवि थे।
कृष्णलाल शिष्य मनियार सिंह –
संवत् 1849 से 1873 वि0 में कविवर कृष्णलाल के शिष्य मनियार सिंह का कार्यकाल रहा। आपने पुष्पदत्त के शिव महिमा स्तोत्र’ का 35 कवित्तों में सं0 1849 में अनुवाद किया हनुमान छब्बीसी, सुन्दरकाण्ड (63 छंद), हनुमान विजय, सौन्दर्य लहरी (103 कवित्त) की रचना आपकी है।
सुखलाल कायस्थ –
कायस्थ जी ने ‘हनुमान जय’ नामक ग्रंथ की रचना की थी। इसकी प्राप्त प्रतिलिपि पर संवत् 1912 अंकित है। विवेक सागर तथा सुख सागर नामक ग्रंथ 1844 में लिखा गया।
जानकी प्रसाद –
जानकी प्रसाद के पिता देवकीनन्दन बड़े रईस व्यक्ति थे। जानकी प्रसाद ने केशव की ‘रामचन्द्रिका’ की टीका ‘राम भक्ति प्रकाशिका’ नाम से की थी। इनका रचना-काल संवत् 1872 है, ‘मुक्ति रामायण’ इनका अन्य ग्रंथ है।
धनीराम –
संवत् 1867 से 1890 के मध्य धनीराम जानकी प्रसाद के आश्रित कवि हैं। इन्होंने ‘मुक्ति रामायण’ की टीका लिखी। रामगुणोदय, काव्य प्रभाकर, तत्वार्थ प्रदीप इनके तीन काव्य ग्रंथ है। राम गुणोदय-रामाश्वमेध वर्णन, काव्य प्रभाकर-मम्मट काव्य प्रकाशानुवाद तत्वार्थ प्रदीप-मुक्ति रामायण टीका।
रामसहाय –
संवत् 1860-1880 के मध्य महाराज उदित नारायण चौबेपुर के दरबारी कवि रामसहाय ने राम सतसई, श्रृंगार सतसई, ककहरा रामसहायदास, बानी भूषण, राम सप्त शतिका नामक चमत्कृत काव्य ग्रंथ रचे।
गणेश बन्दीज्य –
लाल कवि के पौत्र गुलाब कवि के पुत्र गणेश बन्दीजन ने वाल्मीकि रामायण श्लोकार्थ प्रकाश, प्रद्युम्न विजय नाटक और हनुमत पच्चीसी गंथ रचे। ‘साहित्य सागर’ नाम से साहित्य शास्त्र का भी ग्रंथ रचा।
रघुनाथ बंदीजन –
काशी नरेश के दरबारी कवि गोकुलनाथ के पुत्र रघुनाथ बंदीजन ने 1796 में रसिक मोहन 1802 में काव्य कलाधर 1807 में जगमोहन काव्य ग्रंथ की रचना की।
घनश्याम शुक्ल –
असनी के निवासी घनश्याम शुक्ल रीवाँ नरेश के दरबारी कवि होने के पश्चात् काशी महाराज चेतसिंह के दरबार में आये और ‘कवत्त-हजारा’ नामक काव्य ग्रंथ की रचना की।
ऋषिनाथ –
असनी, फतेहपुर निवासी ऋषिनाथ मिश्र मझौली राजा के दरबारी कवि तथा बाद में काशीराज के भाई देवकीनन्दन के आश्रित कवि हुए। इन्होनें 483 छंदों में ‘अलंकार मणि मंजरी’ की रचना की।
ठाकुर बद्रीजन –
ऋषिनाथ पुत्र ठाकुर बद्रीजन देवकीनन्दन के आश्रित कवि थे। ‘सतसई वर्णनार्थ देवकीनन्दन टीका’ लिखी। इनके कवित्त सवैये बुन्देलखण्डी ठाकुर कवि की रचनाओं में मिले।
कवीन्द्राचार्य सरस्वती –
काशी के उन प्रमुख रचनाकारों में जिनका रीतिकाल में दरबार से सम्बन्ध नहीं था। इनके पाण्डित्य से बादशाह शाहजहाँ बहुत प्रभावित थे। कवीन्द्र कल्पद्रुम, पद चन्द्रिका, दशकुमार टीका, योगभाष्कर योग, शतपथ ब्राह्मण भाष्य, हंरनदूत संस्कृत ग्रंथ हैं।
कवीन्द्र कल्पलता, योग वशिष्ठ, समरसार हिन्दी ग्रंथ हैं। कवीन्द्र कल्पलता 150 छंदों से युक्त दारा शिकोह व उनकी बेगम पर प्रशस्ति गीत है।
कुवरि –
कुवरि राज शिवप्रसाद सितारे हिन्द के परम्परा में आते हैं। इनकी ग्रन्थ प्रेमरत्न है जिसकी रचना संवत 1844 मानी जाती है। इस ग्रन्थ में 128 चौपाई 142 दोहे और 16 सोरठा की अद्भुत मिश्रण है।
गजराज उपाध्याय –
संवत् 1874 में गजराज उपाध्याय की उपस्थिति शिव सिंह सरोज ने माना है इनके द्वारा रचित पिंगल ग्रंथ ‘वृहत्तर तथा रामायण’ कहा जाता है।
पराग –
संवत् 1883 में काशीराज के उदित नारायण सिंह के आश्रित कवियों में पराग नामक कवि का भी मान आता है इन्होंने तीन खण्डों में ‘अमरकोश’ की भाषा सृजित की।
अम्बिकादत्त व्यास –
12 वर्ष की अवस्था में ‘काशी कविता वर्धिनी सभा’ में सुकवि की उपाधि से जिसे सम्मानित किया वे अम्बिकादत्त व्यास थे। इनकी प्रशंसा भारतेन्दु ने कविवचन सुधा में भूरि-भूरि की है। ये विलक्षण प्रतिमा के धनी थे हिन्दी-संस्कृत, अंग्रेजी, बांग्ला, दर्शन, न्याय, वेदान्त में महारथ हासिल था। ताश और शतरंज खेलने में अच्छे-अच्छो के छक्के छुड़ा देते थे। गाने बजाने में उस्ताद थे। सितार हारमोनियम बढ़िया बजाते थे। जलतरंग सतरंग तक बजा डालते थे यह सचमुच आश्चर्य जनक बात है कि हिन्दी साहित्य के इतिहास में आचार्य शुक्ल जैसे बहुपठित आलोचक में हिन्दी साहित्य में इनकी चर्चा क्यों नहीं की यद्यपि कि इन्होंने गद्य और पद्य में 50 से अधिक पुस्तकें लिखी है।
‘व्यास जी का आश्चर्यजनक वृत्तांत अपने समय में ‘फन्तासी उपन्यास है।’ ‘शिवराज विजय’ इनकी महत्वपूर्ण संस्कृत उपन्यास है।
श्री दीनदयाल गिरि –
सन् (1802) की बसन्त पंचमी को वाराणसी में जन्म श्री दीनदयाल गिरि का निवास स्थान विनायका देव के पास था, जिसके प्रमाण के लिए स्वयम् इनका दोहा प्रचलित है।
सुखद देहली पै जहाँ, बसत विनायक देव।
पश्चिम द्वार उदार है, कासी को सुर सेव।।
ये वार्तालाप में लोकोक्तियों के प्रयोक्ता दशनामी सम्प्रदाय के कृष्ण भक्त थे। सन् (1877) में दृष्टांत तरंगिणी नामक ग्रंथ की रचना कर संन्यासोपरांत गिर की उपाधि धारण की। अनुराग बाग (1888) वैराग्य दिनेश (1976) अन्योक्ति कल्पद्रुम (1912) तथा अन्योक्ति माला नामक ग्रंथ उल्लेखनीय है। लेखन में संस्कृत साहित्य के साथ मौलिकता का प्रवाह है। सन् (1915) ई0 में आप गोलोकवासी हो गये।
गोपालचन्द्र गिरिधरदास –
श्री काले हर्षचन्द्र के पुत्र तथा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के पिता बाबू गोपालचन्द्र ‘गिरिधरदास’ का जन्म काशी में सन् (1833) ई0 में हुआ, गिरिधर महाराज के कृपापात्र होने के कारण इन्होंने गिरिधरदास उपनाम रखा। हिन्दी साहित्य का प्रथम नाटक ‘नहुष’ लिखने का श्रेय आपको है। आपने (1846) में 13 न्यूनतम आयु में ‘वाल्मीकि रामायण’ के कई हिस्सों का भाषागत छन्दबद्ध अनुवाद किया।
राजा शिव प्रसाद ‘सितारे हिन्द’ –
प्रारंभिक हिन्दी गद्य साहित्य के निर्माता राजा शिव प्रसाद सितारे हिन्द का जन्म सन (1823) ई0 में वाराणसी में हुआ। सन् (1845) ई0 में ‘बनारस अखबार’ निकाला। मानव धर्मसार, वामा मनरंजन, आतसियों का कोड़ा, विद्यांकर, राजा भोज का सपना जैसी रचनाएँ बहुत प्रसिद्ध थीं। इतिहास तिमिर नाशक और बैताल पच्चीसी जैसी पुस्तकों में उर्दू मिश्रित हिन्दी को प्रश्रय दिया। आपका देहान्त सन् (1895) ई0 में हुआ।
श्रीयुत गोकुलचन्द्र –
श्रीयुत गोकुलचन्द्र का जन्म काशी में सन् (1851) ई0 में हुआ। इन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना में विशेष रूप से आर्थिक सहयोग दिया। व्यापारी परिवार से होते हुए भी आपने निरंतर हिन्दी भाषा के उत्थान के लिए धन दान किया।
श्रीयुत राम शंकर व्यास –
31 मार्च सन् (1860) को काशी में जन्में रमा शंकर व्यास पं0 गौरी प्रसाद के पुत्र तथा हिन्दी के उत्कृष्ट लेखक थे। ‘खगोल दर्पण’ ‘वाक्य पंचाशिका’ ‘नेपोलियन की जीवनी’ ‘बात की करामात’ बैनिस का बॉका’ ‘चन्द्रास्त’ ‘नूतन पाठ’ ‘राय दुर्गा प्रसाद का जीवन चरित्र’ प्रमुख कृतियाँ हैं। भारतेन्दु जी के घनिष्ठ मित्र होने के नाते कुछ समय तक ‘कविवचन सुधा’ एवम् ‘आर्यमित्र’ का सफल सम्पादन भी किया। सन् (1916) में आप स्वर्ग गमन कर गये।
देवकीनन्दन खत्री –
लाहौरी निवासी लाला ईश्वरदास के पुत्र देवकीनन्दन खत्री का जन्म सन् (1861) ई0 में हुआ। इनकी कर्मस्यती काशी व मीरजापुर रही। चकिया व नौगढ़ के जंगलों की छानबीन करते-करते अपनी रचनाओं को ऐयारी और तिलिस्म से भर दिया। (1888) में प्रकाशित चंद्रकांता सर्वाधिक प्रसिद्ध कृति रही तत्पश्चात चंद्रकांता संतति, अनूठी बेगम, काजल की कोठरी, कुसुम कुमारी, गुप्त गोदना और नरेन्द्र मोहिनी आदि रचनाओं में पाठकों में लोकप्रिय रहीं। लाखों लोगों ने इन रचनाओं के अध्ययन हेतु हिन्दी सीखी एक अगस्त (1913) को आपका देहावसान हो गया।
श्रीयुत नकछेदी तिवारी –
डुमराँव के हल्दी गाँव में सन् (1862) ई0 में जन्में नकछेदी तिवारी की कर्मस्थली काशी रही। गद्य व पद्य पर समान अधिकार रखने वाले तिवारी जी की प्रमुख कृतियाँ ‘कीर्ति कलानिधि’ ‘मनोज मंजरी संग्रह ‘भड़ौआ संग्रह ‘वीरोल्लाज’ ‘खंगवाली’, होरी गुलाल और कविराज लछिराम का जीवन चरित्र उल्लेखनीय है। इन्होने ‘ठाकुर शतक’ एवम् ‘बोछा इष्कनामा’ कृति को संपादित किया तथा ‘काशी कवि समाज’ नामक संस्था में अग्रणी भूमिका में शामिल रहे।
बाबू राधाकृष्णदास –
सन् (1865) ई0 वाराणसी में जन्में बाबू राधाकृष्णदास भारतेन्दु के फुफेरे भाई थे। भारतेन्दु की इन पर विशेष कृपा होने के कारण ये हिन्दी लेखन में अग्रसर हुए, ‘दुःरिभी बाला’ इनकी पहली रचना है। निस्सहाय हिन्दू ‘महारानी पद्मावती’ प्रताप नाटक आदि अन्य रचनाएँ हैं। हिन्दी साहित्य में इन्हें मुख्यतः नाट्ककार की हैसियत से जाना जाता है। निःसहाय हिन्दू इनका मौलिक उपन्यास है। रहिमन विलास’ नामक पुस्तक में ‘कुण्डलियो’ की रचना अद्वितीय है। गोपालचन्द्र उपनाम गिरिधरदास तथा ‘भारतेन्दु की जीवनी’ उत्कृष्ट जीवनी लेखक के रूप में स्थापित करती है। इतिहास की दृष्टि से ‘हिन्दी भाषा के सामयिक पत्रों का इतिहास’ रचना प्रमुख है। ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ स्थापना के प्रमुख सहयोगी तथा उसके अध्यक्ष तथा 1906 में ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ के सम्पादक भी रहे। नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा (1902) में स्वर्ग सिधार गये।
जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’
सन् (1866) ई0 को काशी के शिवाला घाट मोहल्ले में जन्में रत्नाकर जी के पिता का नाम पुरुषोत्तमदास था। छात्र जीवन में ‘जकी’ उपनाम से काव्य रचना शुरू की। ‘हिंडोला’ समालोचनादर्श, साहित्य रत्नाकर, घनाक्षरी नियम रत्नाकर, श्रृंहार लहरी, हरिश्चन्द्र, गंगा विष्णु लहरी, रत्नाष्टक गंगावतरण, कल काशी, उद्धवशतक जैसी रचनाएँ प्रमुख है। इसी के अतिरिक्त हमीर हट, हित तरंगिणी, कविकुल कण्ठाभरण नामक कृतियों का सम्पादन किया। बिहारी रत्नाकर’ नाम से मशहूर बिहारी सतसई की टीका प्रमुख है, ‘साहित्य सुधा’ नामक पत्र का सम्पादन भी किया था। मरणोपरांत ‘सूर सागर’ सम्पादित ग्रंथ का प्रकाशयान आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी के निरीक्षण में हुआ। सन् (1930) कलकत्ता में हुए अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य के अध्यक्ष हुए। ब्रजभाषा के कवियों में आधुनिक कवियों के तौर पर सर्वथा विशिष्ट है। 22 जून (1932) को मृत्यु के पश्चात् कविवर बिहारी शीर्षक ग्रंथ की रचना का प्रकाशन पौत्र रामकृण ने किया।
लाला भगवानदीन
सन् 1866 में उ0प्र0 के फतेहपुर के बरबट गाँव में जन्में लाला भगवानदीन (1907) ई0 में से0हि0का0 के उर्दू शिक्षक हुए साथ ही छंदशास्त्र के ज्ञाता थे आपकी कर्मसािल काशी रही डॉ0 श्याम सुन्दर तथा आ0 रामचन्द्र शुक्ल के प्रमुख सहयोगी रहे। गया से प्रकाशित पत्रिका के सम्पादक रहे। धर्म और विज्ञान वीर प्रताप, वीर बालक प्रारम्भिक रचना तथा रामचन्द्रिका, कविप्रिया, रसिकप्रिया कवितावली, बिहारी सतसई की प्रामाणिक टीकाएँ लिखी। ‘अलंकार मंजूषा’ व्यंगार्थ मंजूषा’ हिन्दी काव्यशास्त्र की महत्वपूर्ण पुस्तक रही। ‘नवीन बीन’ तथा ‘नदी में दीन’ आपकी काव्य रचना संग्रह है। ‘वीर पंचरत्न’ वीरतापूर्ण काव्य संग्रह है। (1930) में स्वर्ग गमन कर गये।
डॉ0 श्यामसुन्दरदास
सन् (1875) काशी में जन्में डॉ0 श्यामसुन्दर क्वीन्स कॉलेज के छात्र तथा 16 जुलाई (1893) को (श्री राम नारायण मिश्र एवम् ठाकुर शिवकुमार सिंह) के सहयोग से नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना की। महामना पण्डित मदन मोहन मालवीय जी ने आपको (1921) हिन्दी विभाग खुलने के पश्चात् विभागाध्यक्ष बना दिया। नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा मनोरंजन पुस्तक माला’ में विभिन्न पुस्तकों का प्रकाशन, सम्पादन किया तथा एक शोध पत्रिका ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ नाम से किया। आप ‘सरस्वती पत्रिका के प्रथम सम्पादक रहे। सन् (1945) में स्वर्ग गमन कर गये।
श्रीयुत बाबू कृष्णचन्द्र
सन् (1879) में काशी में बाबू कृष्णचन्द्र भारतेन्दु के भतीजे थे तथा ‘भारतेन्दु नाटक मंडली’ के संस्थापक थे और आजीवन उसके संरक्षक रहे। आपने ‘वाल्मीकि रामायण’ के ‘सुन्दरकाण्ड भवभूति के ‘उत्तररामचरित’ का हिन्दी पद्यान्वाद किया तथा इनका प्रकाशन क्रमशः सन् (1907) और (1916) में हुआ था। उन्तालीस वर्ष की अल्पायु में (1918) को स्वर्ग गमन कर गये।
आचार्य क्षितिमोहन सेन
आपका जन्म सन् (1880) को वाराणसी में हुआ। कवीन्द्र-रवीन्द्र के शिक्षण संस्थान ‘विश्व भारती के अंतर्गत ‘विद्या भवन’ के अध्यक्ष बने। मध्यकालीन संत साहित्य के मर्मज्ञ समीक्षकों में अग्रणी स्थान है। बांग्ला भाषा में उत्कृष्ट लेखन के अतिरिक्त हिन्दी में आपने ‘भारतवर्ष में जाति भेद’ तथा संस्कृति संगम नामक कृतियाँ रची। विश्वा भारती से सेवा-निवृत्ति के उपरांत वहाँ ‘कुल स्थविर’ के रूप में प्रतिष्ठित थे। इस संस्थान ने आपको ‘देशिकोत्तम’ की सम्मानोपाधि दी, हिन्दी में भी समय-समय पर सम्मान मिला 12 मार्च सन् 1960 को स्वर्गोन्मुख हुए।
प्रेमचन्द
वास्तविक नाम धनपतराय उर्दू के नवाबराय तथा हिन्दी उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द का जन्म सन् (1880) में लमही (पाण्डेयपुर) में हुआ। स्कूल मास्टरी से शुरू इनका कार्यकाल शिक्षा विभाग में सब इन्सपेक्टरी तक पहुँचा। असहयोग आन्दोलन के दौरान नौकरी से त्याग पत्र दे दिया।
सन् 1900 से पहले उर्दू में लिखना प्रारम्भ किया और पहले उपन्यास ‘हम खुर्मा हम सबाब’ धनपत राय नाम से प्रकाशित हुआ। आपकी सबसे पहले कमानी ‘संसार का अनमोल रत्न’ कानपुर से मुंशी दयानारायण निगम द्वारा संपादित पत्रिका ‘जमाना’ सन् 1907 में प्रकाशित हुई थी।
आपकी उर्दू कहानी का पहला संकलन ‘सोजे वतन’ सन् 1908 में प्रकाशित हुआ जो नबाब राय के नाम से छपा था ब्रिटिश नौकरशाही के गुप्तचर विभाग ने इस रचना के लिए आपको राजद्रोही घोषित किया फलस्वरूव आप नवाब राय से प्रेमचन्द हो गये और पहली हिन्दी 1915 में सरस्वती में प्रकाशित हुई। 1906 में बाल विधवा श्रीमती शिवरानी देवी से आपका दूसरा विवाह हुआ। गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन से प्रभावित होकर 1921 में ‘नमक का दरोगा’ लिखा। सरकारी नौकरी से त्याग पत्र देकर 1922 में काशी विद्यापीठ में शिक्षक रहे। इसी वर्ष ‘प्रेमाश्रम’ का प्रकाशन 1925 में लखनऊ से प्रकाशित माधुरी पत्रिका के संपादक हुए उन्ही दिनों ‘रंगभूमि’ का प्रकाशन हुआ। बनारस में सरस्वती प्रेस की स्थापना करके हंस पत्रिका का मासिक संपादन किया। इसके अतिरिक्त आपके द्वारा संपादित साप्ताहिक ‘जागरण की फाइल’ से प्रमुख रचनाएँ सामने आई-सेवासदन, सप्तसरोज, नवनिधि, प्रेम पूर्णिमा, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कथाकल्प, गबन, निर्मला, गोदान, मंगलसूत्र, (उपन्यास) प्रेमचतुर्थी, प्रेमतीर्थ, प्रेम पंचमी, प्रेमद्वादशी, प्रेमपियुष, प्रेम पच्चीसी, प्रेमप्रसून, सप्तसुमन, वरदान, मानसरोवर, समरयात्रा (कहानी संकलन) दुर्गादास, महात्मा शेख सादी (जीवनी) साहित्य का उद्देश्य, कुछ विचार तथा कलम, तलवार और त्याग (निबंध) टाल्सटॉय की कहानियाँ, अहंकार आजाद कथा (दो भाग) सुखदास, चाँदी की डिबियाँ, न्याय, हड़ताल, पिता के पुत्र पुत्री के नाम (अनुवाद), कुत्ते की कहानी, जंगल की कहानियाँ (बाल साहित्य) रामचर्चा, ग्राम्य जीवन की कहानियाँ आदि विविध प्रसंग नाम से प्रकाशित हो चुकी है।
1936 में प्रगतिशील लेखक संघ अधिवेशन की अध्यक्षता की उसी वर्ष हिन्दी साहित्य को गोदान प्रदान किया जो कृषक जीवन का महाकाव्य है। मंगलसूत्र नामक अंतिम उपन्यास भी इसी वर्ष प्रारम्भ किया जो अधूरा रह गया। जलोदर के कारण 8 अक्टूबर सन् 1936 को स्वर्ग गमन कर गये।
हरिकृष्ण जौहर
1880 के काशी के खत्री परिवार में जन्में हरिकृष्ण जी ने लेखन कार्य उर्दू से प्रारम्भ किया। ‘राजे हैरत, हरीफ़’, ‘पुर असर जादू’ नाम उपन्यास लिखा और जौहर उपनाम रखा। तत्पश्चात् पहली हिन्दी रचना कुसुमलता नामक उपन्यास है जो चार भागों में है और उसकी पृष्ठभूमि अय्यरी तथा तिलस्मी है। भारत जीवन प्रेस की ओर से प्रकाशित भारत जीवन नामक पत्र का संपादन किया। काशी से प्रकाशित मित्र उपन्यास तरंग द्विजराज पत्रिका का संकलन किया तथा अजमेर से प्रकाशित राजस्थान पत्र और बम्बई के वेकटेश्वर समाचार के संपादक रहे। इसी काल में आपकी लिखी कई पुस्तकें जापान वृतांत, अफगानिस्तान का इतिहास, भारत के देशी राज्य, रूस जापान युद्ध, प्लासी की लड़ाई, सागर साम्राज्य सिख इतिहास, नेपोलियन वोना पार्ट, भूगर्भ के सेरे, विज्ञान व वाजीगर, कबीर तथा मैसूर, विशिष्ट है। काशी के मामूरगंज नामक स्थान पर हिन्दी प्रेस की स्थापना की और ‘आधार’ नामक हिन्दी साहित्यिक पत्र निकालना जो हिटलर चेमवरलिन सन्धि के बाद बन्द कर दिया गया।
कट गई जिन्दगी साहित्य की गुलकारी में।
तीसरा पत्र है इसी बाग की फूलवारी में।।
1945 में आपका देहावसान हो गया।
विजयानन्द त्रिपाठी
सन् 1881 विजयादशमी को पैदा हुए काशी के भदैनी निवासी विजयानन्द तुलसी साहित्य और रामचरित मानस के गहन अध्ययन में रत रहे। फ्रांसिसी विद्वान नि0 एलन डेला ने अंगेजी में लिखी पुस्तक ने आपकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। विजया टीका हिन्दी साहित्य की गौरव निधि है और आपको ‘मानसहरेजा की उपाधि प्रदान की गई। स्वामी करपात्री महराज जब धर्मसंघ नामक संस्था स्थापित की तब संमार्ग पत्र का सम्पादन किया। हिन्दू कोड विल और गो हत्या का अत्यंत सशक्त शैली में डटकर विरोध किया। आपने योगत्रयानन्द श्री 108 शिवराम किंकर नामक बंगाली महात्मा से योगविद्या ग्रहण की। 16 मार्च 1955 में आपका निधन हो गया।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
गद्य जगत सन् 1884 में ग्राम अगोना बस्ती जिले में जन्में आलोचक निबन्ध-कार साहित्य के इतिहास कोपकार अनुवादक और कवि पण्डित रामचन्द्र शुक्ल जी मिर्जापुर के लन्दन मिशन हाई स्कूल से 1901 में हाई स्कूल परीक्षा पास करके 1904 से 1908 तक वी0एल0जे0 इण्टर कालेज में ड्राइंग मास्टर रहे। 1908 हिन्दी शब्द सागर के सम्पादक के रूप में नियुक्त होकर काशी आये और 1939-41 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष हुए इनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के लिए सीमित शब्दों में परिचय देना असम्भव है। आधुनिक हिन्दी भाषा साहित्य और समीक्षा के युग प्रवर्तक, शब्द सागर की भूमिका आज भी सर्व प्रमाणित एवं मान्यता प्राप्त इतिहास है चिंतामणि निबंध साहित्य नये युग का सूत्रपात है। रस मीमांसा रस सिद्धान्त के अध्ययन का नया सोपान है। सूफी कवि जायसी, तुलसी और सूर अद्वितीय पुस्तकें है। आदर्श जीवन, विश्व प्रपंच बुद्धचरित हिन्दी भाषियों के क्षितिज का विस्तार करती है। इनका स्वर्गवास 1941 को काशी में हुआ।
आचार्य श्री केशव प्रसाद मिश्र
सन् 1885 में काशी के भदैनी में जन्में केशव प्रसाद मिश्र भगवती प्रसाद मिश्र के ज्येष्ठ पुत्र थे। एक भाषण के दौरान विनयपत्रिका की अत्यधिक प्रशंसा करने के कारण मालवीय जी ने गद्गद होकर इन्हें सन् 1928 ई0 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्यापक तथा सन् 1941-1950 तक हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में प्रतिष्ठित रहे। कालिदास की अमृत कृति मेघदूत के पद्यानुवाद की भूमिका में रससिद्धान्त का विवेचन किया –
आदर्श और यथार्थ- परिचय, गद्य भारती, काव्यलोक, पदचि नामक अनेक ग्रन्थों की भूमिका लिखी। हिन्दी वैधुत शब्दावली 1925 ग्रन्थ की रचना की। सरस्वती तथा इन्दु पत्रिकाओं में बराबर लेख छपते रहे। हरिवंश गुण स्मृति नामक काव्य की रचना की। आपका निधन 21 मार्च 1952 को हुआ।
पण्डित श्री कृष्ण शुक्ल
शुक्ल जी का जन्म सन् 1885 में काशी में हुआ हिन्दी पर्यायवाची कोष हिन्दी संजीवनी, हिन्दी साहित्य का सालोपयोगी इतिहास, घाघ और भण्डारी की कहावतें- वृन्द सतसयी की टीका, काव्य प्रवेशिका, लोकोक्ति सार संग्रह भगवती, बाल कथा माला, रामचरित मानस की टीका, कर्मवीर राकेश, चिराग तले अन्धेरा आदि प्रमुख कृतियाँ हैं इनका निधन सन् 1976 में हुआ।
देवनारायण द्विवेदी
उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर के भैंसा गाँव में सन् 1886 को जन्मे देवनारायण द्विवेदी की पुस्तक कर्त्तव्याघात की 1926 में प्रेमचन्द जी ने छः पृष्ठ की समीक्षा लिखी और कहा कि हिन्दी में इतना अच्छा उपन्यास हमारी नज़रों से अब तक गुजरा नहीं था। गीतांजली तथा शरदचन्द की अनुवाद किया। देश की बात, पुस्तक, सन् 1923 में जब्त कर ली गई। काशी समाचार नामक राष्ट्रीय पत्र निकाला। 28 नवम्बर सन् 1989 को आपका देहावसान हो गया।
अम्बिका प्रसाद गुप्त
जयशंकर प्रसाद के भांजे अम्बिका प्रसाद गुप्त का जन्म सन् 1888 में काशी में हुआ। शिवमोहिनी, रूद्रगुप्त, कवि किंकर, हिन्दी प्रेमी, अर्जुन, सच्चा मित्र या जिन्दे की लाश प्रमुख रचनाएँ रही। इन्दु का संपादन तथा भारतेन्दु नामक पत्र का प्रकाशन भी किया। अपने पत्रों की लेखमाला से आपने हिन्दी ग्रन्थ भण्डार का निर्माण किया आपका निधन सन् 1937 में हुआ।
निहाल चन्द वर्मा
मूलतः अमृतसर के निवासी निहालचन्द वर्मा का जन्म सन् 1886 में हुआ। हिन्दी की सुप्रसिद्ध प्रकाशन संस्था हिन्दी प्रचार पुस्तकालय के संस्थापक थे। प्रो0 त्रिभुवन सिंह ने आपको “अरेवियन नाइट कार’ कहा है आपका प्रथम उपन्यास ‘जादू का महल 1910 के अतिरिक्त मोती का महल, सोने का महल, प्रेम का फल, आनन्द भवन, डण्डे की करामात, हीरा रांझा, सिन्दबाद जहाजी, बनते बिगड़ते संदर्भ, तिलस्मी चिराग करनी भरनी आदि प्रमुख कृतियाँ जो अय्यारी और तिलस्मी हैं आदर्श परिवार तथा गुलाब कुमारी, अन्य प्रमुख उपन्यास है। 1970 में इनका देहावसान हो गया।
जयशंकर प्रसाद
सन् 1889 में काशी के गोवर्धन सराय मोहल्ले में सुघनी साहू के यहाँ जयशंकर प्रसाद का जन्म हुआ। जीवन बहुत कष्टमय रहा। कविताओं में ब्रज भाषा से शुरुआत तथा खड़ी बोली में प्रवचन पल्लवन हुआ। साहित्य की विभिन्न विधाओं में रचना की। इन्दु पत्रिका में रचनाओं की प्रकाशन इनकी कविताओं की पोषक थी। महाराणा का महत्व, प्रेम पथिक पेशोला की प्रतिध्वनी, प्रलय की छाया, शेर सिंह की शास्त्र समर्पण, आँसू, लहर, झरना, कामायनी, चित्रधार, सज्जन, कल्याणी परिणय, प्रायश्चित, राज्यश्री विशाखा कामना जनमेजय का नागयज्ञ, स्कन्दगुप्त, एक घूँट, चन्द्रगुप्त, धुवस्वामिनी कंकाल, तितली, इरावती, (अपूर्ण) छाया, आकाशद्वीप, आंधी, इन्द्रजाल, काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध, छायावाद की उत्थान आपकी रचना से माना जाता है और आप छायावाद के स्तम्भ कवि हैं। 1937 में क्षय रोग के कारण आपकी मृत्यु हो गई।
रामचन्द्र वर्मा
8 जनवरी 1890 को काशी में जन्में रामचन्द्र वर्मा के पिता का नाम दीवान परमेश्वरी दास था। सन् 1907 में बालगंगाधर तिलक के मराठी पत्र केसरी के हिन्दी संस्करण में कार्य किया। आपने प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में कोष विभाग में कार्य किया और साहित्य रत्न माला कार्यालय का गठन किया। अच्छी हिन्दी, हिन्दी प्रयोग मानक हिन्दी व्याकरण, शब्द और अर्थ, शब्द साधना शब्दार्थ दर्शन, कोषकला, प्रमुख कृतियाँ है तथा हिन्दी ज्ञानेश्वरी दासबोध, हिन्दू राजतन्त्र, साम्यवाद धर्म की उत्पत्ति और विकास, पुरानी दुनिया, छत्रशाल, प्राचीन मुद्रा, रायफला, देवलोक प्रमुख अनूदित कृतियाँ हैं। 1969 में इनकी मृत्यु हो गई।
बज्ररत्न दास अग्रवाल
इनका जन्म सन् 1890 ई0 काशी में हुआ आपकी सबसे पहली रचना चित्तौड़ की अन्तिम साका, नागरी पत्रिका में प्रकाशित हुई। 1940 तक आप इसी सभा के मंत्री रहे। खड़ी बोली हिन्दी साहित्य का इतिहास हिन्दी नाटक साहित्य, हिन्दी उपन्यास साहित्य जैसे अन्वेषण परक ग्रन्थ लिखे। भारतेन्दु मण्डल नामक पुस्तक में भारतेन्दु के सहयोगी मण्डल पूर्ण जानकारी उपलब्ध करायी मुआ-शिरूल-उमरा दो भाग अन्य प्रमुख कृति रही एवं भारतेन्दु ग्रन्थावली भारतेन्दु नाटकावली, रानी केतकी कहानी, खुसरो की कविता, भ्रमर गीत, भाषा भूषण प्रेमसागर, तुलसी ग्रन्थावली, रहिमन विलास आदि ग्रन्थों का सम्पादन किया आपका निधन सन् 1906 में हुआ।
सॅवल जी नागर
नागर जी का जन्म काशी में सन् 1890 में हुआ था। मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण कर सेन्ट्रल हिन्दू स्कूल में शिक्षक बने भारतेन्दु नाटक मण्डली के द्वारा भारतेन्दु द्वारा छोड़े गये अधूरे कार्यों को पूरा किया गुजराती मातृभाषी होते हुए भी रत्नाकर रसिक मण्डल संस्था के माध्यम से हिन्दी नाटकों में सक्रिय होकर नारी पात्रों की कमी को पूर्ण करने में पूर्णतः सक्षम थे। सन् 1967 में आपका निधन हो गया।
रायकृष्णदास
7 नवम्बर सन् 1892 ई0 में काशी में जन्मे रायकृष्णदास ने भारत कला भवन की स्थापना की जिसे 1950 काशी हिन्दू विश्वविद्यालय को दे दिया भारत कला भवन शोधार्थियों के लिए तीर्थस्थल समान हो गया है साधना 1919, सुधांश 1922, सैलाप 1927, अनाख्या 1927, प्रवाल 1928, छायापथ 1937, भारत की चित्रकला 1939, भारत की मूर्तिकला 1939, जवाहर भाई, आदि प्रमुख रचनाएँ हैं। हिन्दी साहित्य सम्मेलन साहित्य वाचस्पति पुरस्कार तथा भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण की उपाधि मिली। आपका उपनाम नेही था आपके पुत्र राय आनन्द कृष्ण भी कला व साहित्य के अन्नायक है आपका निधन 20 जुन 1980 में हुआ।
कवि पुष्कर
संवत् 1952 रामनगर में जन्में जगनारायण देव शर्मा कवि पुष्कर मदन मोहन मालवीय धार्मिक गुरु एवं महावीर प्रसाद द्विवेदी को साहित्यिक गुरु मानते थे। बच्चे की बाग, माखन मिश्री, मिठाई, बाल पंचरत्न, आदर्श जीवनियाँ, प्रमुख रचनाएँ हैं जिसके लिए प्रेमचन्द ने आपको बाल साहित्य शिल्पी सम्मान से नवाजा। महामना मालवीय जी ने 1910 ई0 काशी में हुए हिन्दी साहित्य के सम्मेलन के प्रथम अधिवेशन में राजर्षि पुरुषोत्तम सहित पुहकर कवि को आजन्म हिन्दी सेवा व्रत दिया।
दुर्गा प्रसाद खत्री
12 जुलाई 1895 को वाराणसी में जन्में प्रख्यात तिलस्मी उपन्यासकार देवनन्दन खत्री के पुत्र, दुर्गा प्रसाद खत्री भी उपन्यास लेखक थे। ‘उपन्यास लहरी’ नामक पत्र का सम्पादन किया, रणभेरी पत्रिका का सम्पादन किया 1500 कहानियाँ 31 उपन्यास व हास्य प्रधान लेख लिखने में आप प्रवीण थे 5 अक्टूबर 1937 को आपका देहावसान हुआ।
सत्यजीवन वर्मा ‘भारतीय’
भारतीय जी का जन्म 1898 में काशी में हुआ। आपके पिता श्री जगमोहन वर्मा ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ के प्रथम बृहत शब्दकोश के सम्पादन मण्डल के सदस्य थे। सन् 1934 में हिन्दी लेखक संघ की स्थापना करके इसके मुख्य पत्र ‘लेखक’ का सम्पादन किया। 1935 ई0 में शारदी प्रेस की स्थापना के द्वारा ‘दुनिया’ नामक मासिक पत्र का सम्पादन किया। आपकी प्रकाशित पुस्तको की संख्या 40 के लगभग है जिसमें ‘बीसलदेव रासो’, सूर रामायण, नयन, मुरली माधुरी, प्रेम पराकाष्ठी, स्वप्न वासदत्ता, सोलह कहानियाँ, पति निर्वाचन, खलीफा हिन्दी के विराम चिन्ह, व्याख्यानत्रयी, तार के खम्भे, जानी दुश्मन, आकाश की झाँकी, प्रसिद्ध उड़ाके, एशिया की कहानियाँ, मनोहर कहानियाँ (चारभाग) रुमानियाँ की कहानियाँ आदि आपका निधन 1973 में वाराणसी में हुआ।
पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’
सन् 1900 ई0 को महान साहित्यकार पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र का जन्म मिर्जापुर उत्तर प्रदेश में हुआ। आपकी शिक्षा-दीक्षा काशी में हुई और आपके भीतर का रचनाकार काशी में ही अवतरित हुआ काशी से समय-समय पर प्रकाशित पत्र ‘भूत’ ‘उग्र’ और ‘खुर्दी की राह’ जैसी पत्रिकाओं के प्रकाशन में महत्वपूर्ण योगदान दिया। आपको महाकवि जयशंकर प्रसाद जी का स्नेह सौजन्य प्राप्त था। इन्होंने प्रारम्भिक में (मेरा जर्नलिज्म) शीर्षक लेख लिखा। सन् 1924 में विख्यात पत्र मतवाला का हमशरण वना इनकी प्रमुख रचनाएँ-चन्द हसीनों खतूत, चाकलेट बुधुआ की बेटी तथा आत्मकथा अपनी खबर व गालिब उग्र इत्यादि इनका देहावसान सन् 1967 में हुआ।
डॉ0 पीताम्बर दत्त बड़श्वाल
इनका जन्म उत्तर प्रदेश के गढ़वाल जनपद के लैसडाउना अंचल के समीप पाली ग्राम में 2 दिसम्बर 1901 ई0 में हुआ। आपको बी0एच0यू0 के हिन्दी विभाग के प्रथम स्नातकोत्तर होने का गौरव प्राप्त हुआ तथा डॉ0 श्याम सुन्दरदास के निर्देशन में आपने डी0लिट् की उपाधि धारण की यह उपाधि धारण करने वाले आप प्रथम विद्वान थे। आपका शोध प्रबन्ध “हिन्दी काव्य के निपुण सम्प्रदाय’ बहुत प्रसिद्ध हुआ आपने दो वर्ष तक हिन्दी विभाग में अध्यापन किया। नागरी प्रचारिणी सभा के शोध विभाग के अवैतनिक संचालक और रामचन्द्र शुक्ल के सहयोगी के रूप में कई ग्रन्थों के संपादन और लेखन में भी आपकी उल्लेखनीय भूमिका रही। गोरख बानी और रामानन्द आपकी प्रमुख रचनाएँ हैं। मकरन्द नाम से आपके निबन्धों का संकलन भी प्रकाशित हुआ आपका देहावसान 27 जुलाई 1944 को हुआ।
विनोद शंकर व्यास
पण्डित विनोदशंकर व्यास का जन्म काशी में सन् 1902 में हुआ आपके पितामह रामशंकर व्यास भारतेन्दु जी के मित्रों में थे तथा पिता काली शंकर व्यास अच्छे कवि थे। आपकी मित्रता जयशंकर प्रसाद से हुई और साहित्यिक मण्डली के केन्द्र बिन्दू बन गये। ‘नवपल्लम’ आपकी कहानी संग्रह में लोगों ने आपकी सृजनात्मकता को जाना। आपका पहला उपन्यास अशान्त’ दूसरा कहानी संग्रह तुलिका है। आपने दर्जनों कृतियाँ उपन्यास व कहानी से संबंधित लिखे इसके अलावा आपने यूरोपीय लेखकों और दार्शनिकों के विचारों से हिन्दी जगत को परिचित कराने के लिए जो निबंध लिखे वे अविस्मरणीय व अद्वितीय हैं।
चन्दशेखर पाण्डेय
आपका जन्म बनारस के ‘बड़ी पियरी’ 25 जून सन् 1903 में हुआ। आपने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय एवं प्रयाग से शिक्षा ग्रहण सन् 1929 ई0 में कानपुर के सनातन धर्म कालेज में संस्कृत विभागाध्यक्ष रहे। आपने ‘संस्कृत साहित्य के इतिहास की रुप रेखा’ नाम ग्रन्थ की रचना की आपने ‘आधुनिक हिन्दी कविता’ तथा रसखान और उनका काव्य उल्लेखनीय है आपका कानपुर नवजीवन पुस्तकालय और श्री हिन्दी साहित्य मंडल से घनिष्ठ संबंध रहा है। आपका निबन्ध 1949 ई0 में हुआ।
बजरंगबली गुप्त विशारद
आपका जन्म वाराणसी में 1904 में हुआ। स्वाध्यायशील होने के कारण आपको अनेक भाषाओं का ज्ञान प्राप्त था। बंग्ला भाषा के आप अच्छे अनुवादक थे जिसमें ‘मयूरव’ का नाम उल्लेखनीय है। आप जालपा देवी स्थित सीताराम प्रेस के मालिक और स्वतन्त्र पत्रकार थे आपका निधन 1973 ई0 में हुआ।
वाचस्पति पाठक
पाठक जी का जन्म 5 सितम्बर 1905 में काशी के नवाब गंज मुहल्ले में हुआ उन दिनों उपन्यासकार प्रेमचन्द रायकृष्णदास और जयशंकर प्रसाद की त्रिमूर्ति के तीन नवयुवक लेखकों का नाम काशी में अग्रणी था। उनमें पाण्डेय वेचन शर्मा उग्र और विनोद शंकर व्यास के साथ वाचस्पति पाठक का नाम भी अनन्य है। ‘कागज की टोपी’ कहानी से आपने लोकप्रियता प्राप्त की, ‘द्वादशी’ तथा प्रदीप नामक पुस्तकों में आपकी कहानियाँ संकलित है 19 नवम्बर 1980 को आपका निधन हो गया।
रघुनन्दन प्रसाद शुक्ल ‘अटल’
वाराणसी में 1905 में जन्में अटल जी की साहित्यिक यात्रा वेंकटेश्वर समाचार पत्र से प्रारम्भ होती है। आपने हिन्दी शब्द सागर के संपादन में भी सहयोग दिया। सती दमयन्त्री, मीराबाई, सती अनुसूईया, हिरण्याक्ष वध, अर्गल की रानी, शांति के अग्रदूत, शिव संकीर्तन आदि विशेष उल्लेखनीय ग्रंथ हैं। निधन सन् 1966 में हुआ।
विश्वनाथ प्रसाद मिश्र
विश्वनाथ जी का जन्म 1906 ई0 में काशी में हुआ। महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद आपके घनिष्टतम थे। प्रख्यात साहित्यिक संस्था ‘प्रसाद परिषद’ के सभापति रहे। हिन्दी साहित्य का अतीत, हिन्दी का सामायिक इतिहास, वाङ्मय विमर्श, हिन्दी नाट्य साहित्य का विकास, बिहारी की वाग्विभूति, कामांग कौमुदी आपके प्रमुख ग्रंथ तथा रसखानी, धनानन्द ग्रंथावली, घनानन्द कवित्त, पद्माकर ग्रंथावली, रसिक प्रिया, कवितावली, बिहारी, केशवदास, केशवग्रंथावली, जगत् विनोद, पद्माभरण, सुदामा चरित, सत्य हरिश्चन्द्र नाटक, हमारी हठ प्रमुख संपादित नाटक व टीकाएँ हैं। 12 जुलाई 1982 को काशी में दिवंगत हुए।
हजारी प्रसाद द्विवेदी
बलिया के दूबेपुर छपरा में 1907 जन्मे हजारी प्रसाद द्विवेदी 1950 से 1960 तक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष रहे। 1970 से 1972 तक हिन्दी भाषा के ‘ऐतिहासिक व्याकरण’ योजना के निदेशक रहे। 1957 में पद्मविभूषण से अलंकृत हुए। सूर साहित्य 1936 हिन्दी साहित्य की भूमिका 1940, कबीर 1942, विचार और वितर्क 1946, बाणभट्ट की आत्मकथा 1947, अशोक के फूल 1948, नाभ सम्प्रदाय 1950, कल्पलता 1951, साहित्य का साथी 1952, हिन्दी साहित्य का आदिकाल, हिन्दी साहित्य 1952, नाथ सिद्धों की बानियाँ 1957, मेघदूत : एक पुरानी कहानी 1957, विचार प्रवाह 1959, पृथ्वीराज रासो 1960, चारुचन्द्र लेख 1963, आलोक पर्व 1972, पुनर्नवा 1973, संदेश रासक 1975, अनामदास का पोथा 1976 प्रमुख रचनाएँ है।
19 मई सन् 1979 में आपका निधन हुआ।
पण्डित सीताराम चतुर्वेदी
पण्डित सीताराम चतुर्वेदी का जन्म 27 जनवरी 1907 को काशी में हुआ। ‘हनुमत चरित’ पर सर्वप्रथम मौलिक कृति सृजित की। ‘कालिदास ग्रंथावली’ एक अनूठा एवं साहसिक प्रयास है। वर्ष 33 से 38 तक सनातन धर्म के सम्पादक एवं मालवीय जी के निजी सचिव रहे। इन्हेंने 250 से अधिक ग्रंथों की सर्जना की। 18 फरवरी 2005 ई0 बरेली के निकट शिव सायुज्य को प्राप्त हुए।
डॉ0 रामअवध द्विवेदी
1907 में गोरखपुर में जन्में रामअवध जी लुक-छिप कर, कविता लिखते थे। अविष्कारों की कहानियाँ 1953, हमारे भोजन की समस्या 1953, हिन्दी साहित्य के विकास की रुपरेखा 1956, साहित्य रूप 1960, अंग्रेजी भाषा और साहित्य तथा साहित्य सिद्धान्त 1962, साहित्य के उपकरण, यूनानी नाट्यशास्त्र में ट्रेजड़ी का स्वरूप, काव्य में प्रतीत विधान, स्वच्छन्दता वाद का परिवर्ती काव्य चिंतन, प्रमुख हिन्दी रचनाएँ हैं, आपने अंग्रेजी में भी उत्कृष्ट ग्रन्थ लिखा जैसे-डायमिक्स ऑफ प्लाट मेकिंग 1941, एनाथालॉजी ऑफ इंग्लिस प्रोज, हिन्दी लिटरेचर 1953, वन एट प्ले लिटरेरी क्रिटीसिज्म तथा अक्रिटिकल सर्वे ऑफ हिन्दी लिटरेचर नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा हिन्दी उत्थान के लिए अंग्रेजी की मासिक पत्रिका हिन्दी रिब्यू की सफलतापूर्वक संपादन किया। 19 अक्टूबर 1971 को दिवंगत हो गये।
करूणापति त्रिपाठी
काशी के शारश्वत विभूति पण्डित नारायण त्रिपाठी के पाँचवे पुत्र थे मूलतः शिक्षा शास्त्री और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय तथा संस्कृत विश्व विद्यालय के कुलपति रहे। काशी खण्ड नामक पुस्तक चार भागों में प्रकाशित हुई जो आपकी संपादन कला का परिचायक है।
पद्मानारायण आचार्य
मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर में 10 जनवरी 1908 को जन्में पद्मनारायण राय नागरी प्रचारिणी पत्रिका लम्बे समय तक संपादक रहे शिक्षा का सुधार, वैदिक स्वर, शब्द शक्ति, साहित्य की आत्मा तथा भक्ति भाव की अभिनव मीमांसा, आदि प्रमुख निबंध है कामायनी पढ़ाते हुए आप तन्मय हो जाते थे 31 जनवरी 1968 को काशी में आपका निधन हुआ।
बेनी राम श्री माली
काशी के भूले बिसरे साहित्यकारों में पण्डित बेनी राम द्विवेदी श्री माली जी का जन्म 1909 में हुआ। दैनिक समाचार पत्र आज में हास्य व्यंग्य के छींटे स्तम्भ में कुछ दिनों तक बेखटक बनारसी के नाम से इनकी रचनाएँ छपी। सती सामर्थ्य, समर्थ गुरु रामदास, अस्ति-नास्ति इनके तीन नाटक है जो प्रमुख है 1967 में काशी में मृत्यु हो गई।
गणेश प्रसाद सिंह ‘मानव’
16 दिसम्बर 1990 को बनारस में जन्में गणेश प्रसाद सिंह ने ‘छत्रिय संसार’ से पत्रकारिता प्रारम्भ की ‘नीर भरी दुःख की बदरी’ (उपन्यास) विद्रोही को गीत (काव्य संग्रह) युग गीत (मुक्तक संग्रह) इंसान से भगवान तक, सचादार ही धर्माचार भी (निबन्ध संग्रह) मीके आँसू (कहानी संग्रही) मुनादी (काव्य संग्रह) आदि प्रमुख रचनाएँ हैं। 1982 में काशी के कवि व उनकी काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ। 1974 में त्रिलोचन शास्त्री की अध्यक्षता में साहिनी नामक संस्था का गठन किया।
डॉ0 शिवनारायण श्रीवास्तव
3 दिसम्बर 1913 को वाराणसी के कोहड़ियाँ गाँव में जन्में डॉ0 शिवनाराण अध्ययनशील एवं मननशील रचनाकार के रूप में अविस्मरणीय है। “हिन्दी के प्रमुख साहित्यकार’ ‘कविता की शिक्षा’ आदि पुस्तके चर्चित रही है। 20 फरवरी 1972 को हृदयघात के कारण आप दिवंगत हो गये।
गीतकार सुरेन्द्र कुमार श्रीवास्तव
10 फरवरी 1915 को गोरखपुर में जन्मे सुरेन्द्र कुमार की प्रगतिशील रचनाएँ हंस और पुर्वांचल में प्रकाशित हुई। आप सिद्ध होम्योपैथिक चिकित्सक भी थे। जनवादी स्वर में ‘अस्थि पंजर अवशेष’ दीन दुखियों के क़दन के शब्द चित्र बखूबी उभर कर प्रकट होती है। नई पीढ़ी के रचनाकारों की सदैव नवसृजन की प्रेरणा देते थे सन् 2001 में काशी में आपका निधन हो गया।
लालधर त्रिपाठी ‘प्रवासी’
1916 ई0 को गोरखपुर में जन्मे लालधर त्रिपाठी ने अपने कवि गुरु रविन्द्रनाथ टैगोर के गीतांजली का हिन्दी अनुवाद किया जिसकी भूमिका महाप्राण निराला ने लिखी 1951 में इसके दो संस्करण हुए प्रिय प्रवास, दर्शन, दिनकर का काव्य, कामायनी का विवेचन, हिन्दी काव्य का विकास काव्यांग परिचय हिन्दी स्पष्ट रूप प्रमुख कृतियाँ है। आप प्रचार-प्रसार पुरस्कार सम्मान से हमेशा दूर रहे आपका ‘अनजनेय’ नामक महाकाव्य काफी चर्चित रहा।
पण्डित गंगाधर मिश्रा
वाराणसी 1916 में कृषक परिवार में जन्मे गंगाधर मिश्र जी ने साहित्य सम्राट तुलसीदास कवि विद्यापती, युवा राध्य निराला, भारतीय काव्य में रहस्यवाद भारतीय काव्य में छायावाद भारतीय यथार्थ और रहस्यवाद वैदिक भाषानुशीलन जैसी प्रमुख कृतियों की रचना की। आपका निधन 1984 में हुआ।
हर्षनाथ
सन् 1916 को वाराणसी में जन्मे प्रेमचन्दोत्तर कथा साहित्य के प्रमुख लेखक हर्ष नाथ की पहली कहानी ‘कलकत्ते का मोची’ हंस में प्रकाशित हुई। कमीने और शरीफ, एक बार फिर आदमी, करम् और जगनी, पत्थर और दूध, राजा रिपु मर्दम, टूटे बंधन, रक्त के आँसू, धरती, धूप और बादल अलग-अलग रास्ते, उड़ती धूल प्रमुख उपन्यास हैं। हंस, नया पथ, कल्पना, ज्ञानोदय, नई कहानियाँ सारिका और धर्मयुग जैसी पत्रिकाओं में इनकी कहानियाँ प्रकाशित हुई। आपकी कहानी संग्रह रोती प्रतिमाएँ और अन्य कहानियाँ आपकी मृत्यु के बाद वर्ष 2000 में वाराणसी में प्रकाशित हुई। 1998 ई0 में आपका देहांत हो गया।
डॉ0 किशोरी लाल गुप्त
विन्ध गौरव से सम्मानित 1916 में भदोही में जन्मे किशोरी लाल गुप्त पण्डित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के प्रमुख शिष्यों में एक थे। हिन्दी साहित्य की प्रथम इतिहास ग्रन्थ का सम्पादन आपकी प्रमुख कृति है। जो हिन्दी प्रचारक संस्थान वाराणसी से प्रकाशित हुई। आपकी अन्तिम प्रकाशित कृति सूर सागर की टीका चार खण्डों में है।
त्रिलोचन शास्त्री
20 अगस्त 1917 को सुल्तानपुर में जन्मे त्रिलोचन शास्त्री काशी की साहित्यिक परम्परा के मुरीद कवि थे। ‘धरती, गुलाब और बुलबुल, दिगंत शब्द, ताप के तापे हुए दिन, तुम्हे सौपता हूँ फूल नाम है एक, देशकाल, चैती, सबका अपना अथवा आकाश मेरा घर, जीने की कला बात मेरी कविता है। ये उपलब्ध कृतियाँ इनकीसर्जना क्षमता की परिचायक है। 9 दिसम्बर 2007 को आपका निधन हो गया।
शम्भू नाथ सिंह
17 जून 1917 को देवरिया में जन्मे शम्भू नाथ सिंह का प्रथम ग्रंथ डॉ0 शम्भू नाथ सिंह व्यक्ति और स्रष्टा नामक ग्रन्थ प्रकाशित हुआ, त्रिधारा, माध्यममय, खण्डित, समय की शिला पर, हिन्दी आलोचना की इतिहास, दीवार की वापसी, छायावाद युग आदि प्रमुख रचनाएँ हैं नवगीत अर्धसदी की सम्पादन, नौ नवगीत की ऐतिहासिक भूमिका को स्थापित करने के लिए किया।
कुशवाहा कांत
9 दिसम्बर 1918 को मिर्जापुर के महुवरिया नामक ‘मोहल्ले में जन्मे कुशवाहा कांत ने नौवीं कक्षा में ही ‘खून का प्यासा’ नामक जासूसी उपन्यास लिखा। लाल रेखा, पपीहरा, पारस, परदेसी (दो भाग) विद्रोही सुभाष, नागिन मद भरे नैयना, आहुति, अकेला, बसेरा भॅवरा चुँड़िया इशारा, कुमकुम, मंजिल, नीलम पागल, जलन, लवंग, निर्मोही, अपना-पराया नामक कृतियाँ रची जो कुँवर कान्ता प्रसाद के नाम से प्रकाशित होते थे। महाकवि मोची नाम से अनेक हास्यों नाटकों तथा कविताओं का सृजन किया। 29 फरवरी 1952 को कबीरचौरा के पास गुण्डों ने भयानक आक्रमण किया जिससे आपकी इहलीला समाप्त हो गई।
प्रो0 बच्चन सिंह
1919 को जौनपुर में जन्मे प्रो0 बच्चन सिंह हिमाचल विश्वविद्यालय के कुलपति जे0एन0यू के अतिथि प्रो0 रहे आलोचक और आलोचना आपकी अति महत्वपूर्ण पुस्तक मानी जाती है। बिहारी का नया मूल्यांकन, क्रांतिकारी निराला, महामारतेन्तर कथा, सूतो का सूत पुत्रोवा पंचाली, आदि प्रमुख पुस्तके है हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास, आधुनिक हिन्दी साहित्य की इतिहास, उपन्यास का काव्य शास्त्र थे पुस्तकें भी बहुचर्चित रही है। पाँच अप्रैल 2008 को चिरनिद्रा में सो गये।
लोकनाथ श्रीवास्तव
28 सितम्बर 1919 को वाराणसी में जन्मे लोकनाथ श्रीवास्तव द्वारा स्फूलिंग, जिन्दगी तूफान मांगती है, बालगीत, राम का महाप्रयाण प्रमुख पुस्तकें हैं आपका देहावसान 2004 ई0 में वाराणसी में हुआ।
डॉ0 विजयशंकर मल्ल
डॉ0 विजय शंकर मल्ल का जन्म आजमगढ़ के लखनौर ग्राम में हुआ। आप काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के प्रो0 काव्य समीक्षक एवं अत्यंत सफल अध्यापक रहे। आप आचार्य केशव प्रसाद मिश्र एवं आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी के प्रिय शिष्यों मे थे। आपने भारतेन्दु काल के गद्य को हंसमुख गद्य की संज्ञा दी थी, पहली समीक्षात्मक पुस्तक आपने हिन्दी में प्रगतिवाद नाम से लिखी 31 अगस्त 2003 को आपका निधन हुआ।
भोलाशंकर व्यास
19 अक्टूबर 1923 को राजस्थान में जन्मे भोलाशंकर व्यास की प्रमुख साहित्यिक रचनाएँ ध्वनि सम्प्रदाय 1956 संस्कृत का भाषाशास्त्रीय अध्याय 1957 भारतीय साहित्य शास्त्र तथा काव्यालंकार 1965, प्राकृत पैगलम् भाग1, 2 (1959-1961) भारतीय साहित्य की रुपरेखा 1965, हिन्दी साहित्य की वृहत इतिहास (खण्ड 1) पण्डित राज जगनाथ के जीवन पर आघृत ‘समुद्र संगम’ (सांस्कृतिक उपन्यास) आदि महत्वपूर्ण प्रसांगिक एवं उल्लेखनीय है। मौलिक लेखन के अतिरिक्त आपने हिन्दी शब्द सागर हिन्दी विश्व साहित्य कोश जैसे ग्रंथों का ऐतिहासिक सम्पादन किया अभी भी आपकी दर्जनों कृतियाँ अप्रकाशित हैं। अपनी कर्मभूमि काशी 23 अक्टूबर 2005 को आखिरी साँस ली।
पारसनाथ मिश्र सेवक
1923 को काशी में जन्मे पारसनाथ मिश्र की कविता संग्रह पश्यत्ती उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुई। धर्म, दर्शन वेद, आध्यात्म साहित्य के ज्ञाता रहे। 1940 में साहित्यिक संघ की स्थापना की। 1952 ई0 में देहावसान हो गया।
देवनाथ पाण्डेय ‘रसाल’
26 जनवरी 1923 को बनारस में जन्मे देवनाथ पाण्डेय के प्रमुख काव्य संग्रह दीपिका 1947, वांधवी 1952, ऋतम्भरा 1958 आदि प्रमुख है।
श्री ठाकुर प्रसाद सिंह
वाराणसी के ईश्वरगंगी मुहल्ले 26 अक्टूबर 1924 को जन्मे ठाकुर प्रसाद सिंह के प्रकाशित संग्रहों में महामानव 1946 वंशी और मादल कबीर, 1977, हारी हुई लड़ी और लड़ते हुए 1986, कुब्जा सुन्दरी 1963, आदिम 1978, हिन्दी निबंध और निबंधकार 1952, पुराने घर नये लोग 1960 बाबू राव विष्णु प्राणकर 1984, स्वतंत्र आन्दोलन और बनारस 1990, 15 अगस्त, पहिए, कठपुतली, गहरे सागर के मोती, भारतेन्दु 1957-73 के बीच प्रमुख उल्लेखनीय कृतियाँ है। सेवक प्रकाशन वाराणसी के सौजन्य से प्रकाशित मोर पंख उनकी प्रतिनिधि गद्य रचनाओं का उत्कृष्ट ग्रंथ है।
चन्द्रबली सिंह
20 अप्रैल 1924 को गाजीपुर में जन्मे चन्द्रबली सिंह लोक दृष्टि और हिन्दी साहित्य तथा आलोचना का जनपक्ष नामक शीर्षक पुस्तक का प्रकाशन किया। आप एक उत्कृष्ठ कोटि के अनुवादक भी थे पावलो नैरूदा, नाजिम हिकमत व्रेरवत आदि रचनाओं का अनुवाद करके हिन्दी जगत को उनके विचारों से परिचित कराया 23 मई 2011 को आपका देहावसान हो गया।
कुसुम चतुर्वेदी
रवीन्द्रपुरी वाराणसी में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल शोध संस्थान की स्थापना में अग्रगामी भूमिका निभाने वाली आचार्य शुक्ल जी की पौत्री थीं।
प्रगतिशील विचारों वाली, ‘नया मानदण्ड’ पत्रिका की संपादिका, कई पुस्तकों की लेखिका व संपादिका, उत्तर प्रदेश शिक्षा विभाग में मण्डलीय शिक्षा उपनिदेशिका कुसुम जी का देहावसान 14 दिसम्बर 2009 को वाराणसी में हुआ।
श्यामकृष्णदास
1927 को काशी में जन्मे श्याम कृष्णदास विज्ञान वर्ग से कला वर्ग में आए तथा भारतेन्दु मण्डल में तत्परता से सक्रिय रहे।
बटन चोर कोट, पोस्ट ऑफिस जनेऊ, दो चित्र, पाँच रुपये के नोट, तुलसी जयन्ती, इजारबन्द, ग्यारह बजकर बीस मिनट, कमल और कविता आदि प्रमुख रचनाएँ है। आप व्यंग्य हास शैली के पुरोधा थे। 30 अक्टूबर 1949 को दिवंगत हो गये।
सुधाकर पाण्डेय
1 जुलाई 1927 ई0 को तत्कालीन वाराणसी (चंदौली) में जन्मे साहित्य के प्रमुख विधाओं के उत्कृष्ट लेखक सुधाकर पाण्डेय जी पहली कविता 1943 तथा पहली कहानी 1944 में आज में प्रकाशित हुई। पहली काव्य कृति निहारिका 1950 मे आई। 1969 से 2003 तक नागरी प्रचारिणी सभा अनवरत प्रधानमंत्री रहे। 1971 में कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में सांसद चुने गये। हिन्दी साहित्य और साहित्यकार, सदा सुहागन रूठ गई। सॉझ सकारे, गाता हूँ, प्रसाद काव्य कोश, प्रसाद की कविताएँ, पण्डित कमलापति व्यक्तियो स्रष्टा, आधुनिक परिवहन, रसलीन ग्रन्थावली आदि उल्लेखनीय है। कालान्तर में पुनः राज्य सभा के सदस्य मनोनीत किये गये। 18 अप्रैल 2003 को चिर समाधि में लीन हुए।
शिवप्रसाद सिंह
19 अगस्त 1928 को गाजीपुर के जलाल गाँव में स्वातन्त्रयोत्तर हिन्दी कथा साहित्य के पुरोधा डॉ0 शिव प्रसाद सिंह काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के बिरला छात्रावास में बी0ए0 के विद्यार्थी रूप में, पहली कहानी ‘दादी माँ’ की रचना किये जो अज्ञेय की पत्रिका प्रतीक में नई कहानी विधा की प्रारम्भिक रचनाओं में गिनी जाती है। आप हिन्दी विभाग के अध्यक्ष भी हुए, कर्मनाशा की हार, खेल-खिलौना, सुनो परीक्षित सुनो, साथ-साथ, अलग-अलग वैतरणी, गली आगे मुड़ती है, पीला चाँद, वैश्वानर वौलूष, मंजूषिमा, कुहरे में युद्ध, आदि कहानियों और उपन्यासों की झड़ी लगा दी। शिखरों का सेतु, कस्तुरी मृग, चतुर्दिक, मानसी गंगा, किसको-किसको नमन करूं, निबन्ध संग्रहों के द्वारा अपनी शाख जमाई, कीर्ति लता और अवहट्ट भाषा, सूर पूर्व ब्रजभाषा और उसका साहित्य आपकी गहरी अनुसंधान दृष्टि है। अरविन्द दर्शन के अन्तर्गत उत्तरयोगी’ लिखा, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के गुरुदक्षिणा हेतु उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के मूल्यांकन करते हुए शांति निकेतन से शिवालिक अविस्मरणीय ग्रंथ लिखा। एक रचनाकार के तौर पर आपने समाज को अच्छे नागरिक और नागरिक को अच्छे समाज की धारा से जोड़ा। 28 सितम्बर 1998 को दिवंगत हो गये।
द्विजेन्द्र नाथ मिश्र ‘निर्गुण’
द्विजेन्द्र जी बनारस की धरती से जुड़े जीवन के यथार्थ अनुभव से उपजी कथा सृजन के लिए प्रेमचन्द के बाद बड़े कथाकारों में गिने जाते है। आपके 10 से अधिक कहानियाँ, 6 उपन्यासों, कविताओं लेखों व संस्मरणों का सम्पूर्ण संग्रह छः खण्डों विश्वविद्यालय प्रकाशन चौक वाराणसी ने किया।
भोजपुरी कवि पण्डित चन्दशेखर मिश्र
मिर्जापुर के मिश्र धाम में 30 जुलाई 1928 को जन्मे चन्दशेखर मिश्र की कविताओं में रागात्मकता और राष्ट्रीय चेतना का स्फूर्ति हुई है। 1966 में कुँवर सिंह महाकाव्य का प्रकाशन हुआ जिसकी भूमिका राजस्थान के राज्यपाल डॉ0 सम्पूर्णानन्द ने लिखी। भोजपुरी खण्ड काव्य ‘द्रोपदी’ ने भोजपुरी साहित्य के साथ-साथ पण्डित जी की कीर्ति को भी अजर-अमर कर दिया है। सीता, भीष्म बाबा (खण्डकाव्य) लोरिकचन्द, जागृत भारत, देश के सच्चे सपूत आदि प्रमुख कृतियां हैं ? लवकुश आपकी अंतिम रचना है। वर्ष 2000 में मारीशस में आयोजित द्वितीय भोजपुरी सम्मेलन में वहाँ प्रधानमंत्री ने आपको सेतु, सम्मान से अलंकृत किया। आपने आजीवन भोजपुरी साहित्य की प्रभुता में अमूल्य योगदान दिया 17 अप्रैल 2008 को आपका देहावसान हो गया।
चन्दशेखर मिश्र
काशी में 1928 में जन्में आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के ज्येष्ठ पुत्र चन्द्रशेखर मिश्र पिता के अनुरूप प्रवीण साहित्यकार थे। भाषा-भूषण, साहित्य के रूप, घनानन्द कवित्त (प्रथम शतक) घनानन्द कवित्त (द्वितीय शतक) आदि कृतियाँ भली भाँति मिल जाती है 1970 में आपकी असामयिक मृत्यु के पश्चात आपके द्वारा सम्पादित ठाकुर ग्रंथावली का प्रकाशन 1973 में हुआ।
डॉ0 श्याम तिवारी
10 नवम्बर 1928 को चुवाडांगा (बंग्लादेश) में पैदा हुए डॉ0 श्याम तिवारी की कर्मभूमि काशी रही। दूब-अक्षत, हर गंगा, फूल-पानी वरवै शतसयी, हनुमान महाकथा आदि महत्वपूर्ण गद्य-पद्य संग्रह है 2002 ई0 आपके पुत्र अनिल तिवारी पंचरंग वरवै का प्रकाशन साहित्य संगम इलाहाबाद से करवाया जो आपकी विविध कृतियों में अवधी साहित्य की एक अमूल्य धरोहर है जीवन के अंतिम दिनो में आप अवधी कोश के निर्माण संलग्न रहे। 23 अगस्त 2001 को आप चिरनिद्रा में लीन हो गये।
त्रिभुवन सिंह
31 जुलाई 1929 को आजमगढ़ के खानजहॉपुर गाँव में पैदा हुए वरिष्ठ साहित्यालोचक काशी विद्यापीठ के पूर्व कुलपति रहे। हिन्दी उपन्यास और यथार्थवाद आधुनिक हिन्दी कविता की स्वछन्द धारा, महाकवि मतिराम, दरवरी संस्कृति और हिन्दी मुक्तक, हिन्दी साहित्य एक परिचय, सुविख्यात कृति है। नया स्वर, एक गीत संग्रह है हिन्दी उपन्यास शिल्प और प्रयोग उपन्यासकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्य, इतिहास के आइने में शोधपूर्ण एवं महत्वपूर्ण है। साहित्यिक निबंध तुलसी संदर्भ और समीक्षा सूर और तुलसी काशी में, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और भारतीय नवजागरण, विशिष्ठ सम्पादित ग्रन्थ है। 26 मार्च 2008 को आपका देहावसान हुआ।
महेन्द्र शंकर ‘अधीर’
गीतकार महेन्द्र शंकर अधीर 1 जनवरी 1929 को काशी में जन्मे, ‘मंदिर में शंख बजे’ एकमात्र कविता संकल्प है। ‘सुबह के हॉथ’ डायरी में कैक्टस, मौसम के फूल समेत अन्यान्य अप्रकाशित रचनाऍ हैं। 29 दिसम्बर 2010 ई0 को आपका निधन हुआ।
गोविन्द प्रसाद श्रीवास्तव
1930 को काशी में जन्में गोविन्द प्रसाद श्रीवास्तव अवकाश प्राप्त जिला न्यायाधीश एंव वरिष्ठ साहित्यकार थे, आप वाराणसी के प्रतिष्ठित दैनिक समाचार पत्र ‘गाण्डीव’ के नियमित स्तम्भकार थे। इतिहास संस्कृत दर्शन धर्म इत्यादि विषयों पर आप के लेख प्रकाशित होते रहे है। निरन्तर गीत एवं गजलों के माध्यम से साहित्य सेवा करते रहे। 19 अगस्त 2008 को आपका निधन हो गया।
पुरुषोत्तम अग्रवाल
15 जनवरी 1930 को काशी में जन्मे पुरुषोत्तम अग्रवाल ने राजस्थान विश्वविद्यालय से मध्यकालीन हिन्दी कृष्ण काव्य में रूप सौन्दर्य विषय पर शोध प्रस्तुत कर पी0एच0डी0 की। साहित्यिक निबंध, शब्द शक्ति ध्रुवस्वामिनी शास्त्रीय विवेचन प्रमुख रचनाएँ है। पांच आधुनिक काव्य रचना के सहलेखक रहे। श्रीमद् भगवत् गीता से संबंधित एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना की। मुसलमान कविकोश नामक रचना विचारात्मक निबंधों का संकलन है जो अप्रकाशित है।
8 मार्च 1974 को आपका निधन हो गया।
मोहन लाल तिवारी
छात्रों के शुभचिंतक के रूप में विख्यात काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के प्रो0 समीक्षक मोहन लाल तिवारी का जन्म 20 जून 1930 को काशी में हुआ। जायसी ग्रन्थावली, विश्व साहित्य कोश, का लेखन व सम्पादन किया। नागरी प्रचारिणी सभा रामचन्द्र शुक्ल शोध संस्थान, ठलुआ क्लब, अधिनियम साहित्यिक संघ आदि संस्थाओं से आजीवन जुड़े रहे। उत्तर प्रदेश सरकार ने समय-समय पर इन्हें पुरस्कृत किया 17 जनवरी 2005 को स्वर्ग सिधार गये।
हीराला तिवारी
दो मई 1930 को केराकत में जन्में हीराला तिवारी गुवाहाटी विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष ‘मजदूर’ समाचार पत्र के सम्पादक एवं पूर्वोत्तर भारत में हिन्दी, बंगाली, असमी भाषा के लिए आजीवन संघर्ष किया। साम्प्रदायिक सद्भावना के प्रबल समर्थक की प्रमुख कृतियाँ-हिन्दी काव्य दर्शन, चूड़ावत सरदार, तथा बनफूल उल्लेखनीय है।
डॉ0 कमल गुप्त
कहानीकार पत्रिका के सम्पादन महानकथाकार डॉ0 कमल गुप्त का जन्म 1934 को काशी में हुआ। मैकाले का भूत, तेजाब इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं जिसका धारावाहिक प्रकाशन कहानीकार में हुआ। नई पीढ़ी की रचना धार्मिता की संस्कारित करने के लिए कृतिकार संस्था का गठन किया। ओजस्वी वक्ता बहुमुखी प्रतिभा के धनी गुप्त जी का निधन 6 मई 2006 को हुआ।
दयाशंकर शुक्ल ‘फक्कड़ काशिकेय’
दयाशंकर शुक्ल का जन्म 11 नवम्बर 1932 को काशी में हुआ कवि गोष्ठियों में हास्य व्यंग्य व आध्यात्मिक रचनाओं के कवि माने जाते थे। काव्य रत्नाभरण काव्य संग्रह 2005 में प्रकाशित हुआ जिसमें 109 कविताएँ, दर्शन, गजल, कवित्त एवं सामाजिक वातावरण पर आधारित है आप फक्कड़ काशिकेय के नाम से प्रसिद्ध थे।
विजय कुमार शाह
10 जुलाई 1933 को काशी में जन्मे विजय कुमार शाह का एक मात्र गीत संग्रह ‘दर्द इतना दे दिया क्यों’ है इसमें इन्होंने कविता के दो पहलू बताए एक दर्द दूसरा उल्लास श्रीमति महादेवी वर्मा शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ नीरज जैसे कवियों से विशेष सम्पर्क रहा। विजय काव्य संज्ञा श्रीकृष्ण तिवारी के संयोजकत्व में श्रीकृष्ण तिवारी द्वारा मनाया जाता रहा है। असामयिक हृदयघात के कारण देहावसान हो गया।
लालजी सिंह
7 मई 1933 को काशी में जन्में लालजी सिंह की पहली कृत भारतीय योजना पर्यवेक्षण थी सामुदायिक विकास कृषि और आर्थिक क्रांति माध्यम सहकारिता, नदी के तट से, अमार-सोनार बांग्लादेश, प्रमुख रचनाएँ रही। नगर के अनेक साहित्यिक समाजिक तथा राजनैतिक संस्थाओ से अत्यंत घनिष्ठ संबंध रहा। साहित्यिक संघ सेवक प्रकाशन द्वारा ‘मुझको संघर्ष बताते पथ’ स्मृति ग्रन्थ आपके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का मूल्यांकन किया गया, आकाशवाणी के लखनऊ केन्द्र अपने प्रतिभा परिचय के दौरान 27 सितम्बर 1971 को दुःखद निधन हो गया।
श्री ब्रह्मदेव मधुर
19 फरवरी 1934 को जन्मे ब्रह्मदेव मधुर मूलतः मुंगेर निवासी थे 1953 से 67 के बीच 6 उपन्यासों का सृजन किया, काले गुलाब की वापसी, छैला, (दो भाग) चोट, चित्र एक पहलू अनेक, लपटे प्रमुख रचनाएँ है उनकी धर्मपत्नी चिकित्सिका डॉ0 कमला मधुर सोच, और भी गम है, दो काव्य संग्रहों का प्रकाशन करवाया। मधुर जी साहित्यकार के साथ-साथ बेजोड़ चित्रकार भी थे। हिन्दी प्रकाशन के पुरोधा अपनी आत्मकथा प्रकाशवान इनकी कलप्रियता की मोहक शैली का वर्णन किया है।
2003 ई0 में आपका निधन हो गया।
सुदामा पाण्डेय धूमिल
9 नवम्बर 1936 को वाराणसी के खैवली में जन्में जनवादी चेतना के पितामह कवि सुदामा पाण्डेय धूमिल समकालीन नई कविता के इतिहास में दैदीप्यमान सूर्य हैं, संसद से सड़क तक, 1972, कल सुनना मुझे 1977 प्रमुख कविता संग्रह है कल सुनान मुझे का नामकरण पण्डित विद्यानिवास मिश्र जी ने किया जिसकी प्रस्तावना में उन्होंने लिखा ‘जिन्दगी भर मौत से जूझने का संवल धूमिल के साथ रहा धूमिल की कविता भी बुनियादी तौर पर केवल व्यवस्था से नही जूझती, व्यवस्था की अमानवीय परिस्थिति से जूझती रही।’ इनके अनुज कन्हैया लाल पाण्डेय ने इस संग्रह का नाम दस्तक रखा गय था विश्वनाथ प्रसाद प्रधान संपादकत्व में परिक्षेत्र पत्रिका के धूमिल विशेषांक प्रकाशित हुआ 39 वर्ष की ब्रेन ट्यूमर के कारण असामयिक मृत्यु के शिकार हुए।
श्रुतिनाथ मिश्र
23 अगस्त 1934 को जन्में श्रुतिनाथ मिश्र साहित्यिक संघ वाराणसी के संरक्षक रहे। मरणोपरान्त आपकी रचनाओं का एक मात्र संग्रह अन्तर्ध्वनी नाम से सेवक प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हुआ जिसमें 103 कविताएँ (गीत गजल कवित्त मुक्तक एवं भोजपुरी गीतों से उत्कृष्ट है) 18 जून 2005 हृदयाघात से आपका निधन हो गया।
शुकदेव सिंह
चौबीस जुलाई 1933को गाजीपुर में जन्में प्रख्यात साहित्यकार शुकदेव सिंह ने साहित्य की सकारात्मक दिशा को पुष्पित पल्लवित किया। भोजपुरी व्याकरण और साहित्य को आपने ऐतिहासिक कार्यों में परिवर्तित किया नवीन कविता, कहानी, उपन्यास, नाटकों पर की गई टिप्पड़ियाँ अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य रहे। आपने हिन्दी में 21 पुस्तकों के अलावा अंग्रेजी व इटैलियन भाषा में प्रमाणिक दस्तवेजों के साथ पुस्तकें लिखी, संवेद जैसी संवेद शिल्पी पत्रिका के संपादक रहे। आपकी धर्मपत्नी भगवन्ती सिंह ने आपके व्यक्तित्व कृतित्व पर शब्द शिल्पी का प्रकाशन करवाया 21 सितम्बर 2007 को स्वर्ग गमन कर गये।
प्रेम किशोर पाण्डेय
1 मार्च 1936 को काशी में जन्में प्रेम किशोर पाण्डेय अखिल भारतीय भोजपुरी संसद के मंत्री नियुक्त हुए। आप डी0ए0वी0 इण्टर कालेज में शिक्षक तथा नगरपालिका रामनगर के अध्यक्ष रहे कवि सम्मेलनों में सम्मानपूर्वक आमंत्रित किये जाते थे ‘गुरुवों की जब बारी आई गवर्मेंट कंगाल हो गई’ बच्चे खाली पेट सो गये रोटी उन्हे मुहाल हो गई’ ये यथार्थवादी गीत सच्चे अर्थ में आपको गाँधी चिन्तक के प्रेरक बतलाते हैं।
वासुदेव सिंह
अक्टूबर 1935 को सीतापुर में जन्मे वासुदेव सिंह काशी विद्यापीठ के हिन्दी विभागाध्यक्ष रहे अपभ्रंश और हिन्दी में जैन रहस्यवाद, हिन्दी साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास संत काव्य का समाजशास्त्रीय अध्ययन, हिन्दी साहित्य का उद्भव व विकास, मध्यकालीन काव्य साधन आदि उल्लेखनीय ग्रंथ है।
रामचरित मानस की व्याख्या मात्र तीन काण्ड ही पूर्ण कर पाये तत्पश्चात् दिनांक 27 फरवरी 2007 को आपका निधन हो गया। हिन्दी विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में आपकी सुपुत्री डॉ0 श्रद्धा सिंह आपके साहित्य कर्म की पुष्पित पल्लवित करने हेतु ‘नमन’ पत्रिका सम्पादन करती आ रही हैं।
शम्भू नाथ त्रिपाठी
1 जनवरी 1936 को काशी में जन्में शम्भू नाथ त्रिपाठी उन मूर्धन्य विद्वानों में शामिल थे जिनका संस्कृत हिन्दी और अंग्रेजी तीनों भाषा पर समान अधिकार था। आप प्राचीन धर्म व साहित्य के अध्येता भी हैं। शुकरम्मा, त्रेता, विश्वमोहिनी आपके तीन खण्ड काव्य है आप प्रचार-प्रसार और बोलबन्दी से हमेशा दूर रहे। 16 जून 1996 को देहावसान हो गया।
मृत्युंजय कुमार नारायण
1 सितम्बर 1937 को काशी में जन्मे मृत्युंजय कुमार नारायण अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के उन कवियों में शमिल थे जो साहित्य का भूखा व्यक्ति ही कर सकता है। आपकी एक प्रकाशित रचना खुले दरवाजे से प्रकाशित हुआ जिसमें कविताओं और लेखों का संग्रह है कुछ दिनों पश्चात् आपकी मृत्यु हो गई।
विश्वनाथ प्रसाद
25 दिसम्बर 1938 को वाराणसी में जन्में उद्भट्ट समीक्षक एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ0 विश्वनाथ प्रसाद उदय प्रताप महाविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष रहे। रोशनी नदी की धारा, आवाज, चुटकी भर अपनापन (काव्य संग्रह) उपरान्त (खण्डकाव्य) आम आदमी की लालटेन, चौरे का दीया (निबन्ध संग्रह) बीच की रेत (उपन्यास) मध्यकाल के कवि और नवगीत समीक्षा, वृन्दावन लाल वर्मा सम्रग्र (सात खण्ड की सम्पादन) आपकी प्रमुख रचनाएँ है। आप उत्तरोत्तर विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित होते रहे। अक्टूबर 2009 ब्रेन ट्यूमर के कारण निधन हो गया।
पण्डित नाथ तिवारी
काशी के पिसौर गाँव में जन्मे अभयनाथ तिवारी सेन्ट्रल हिन्दू स्कूल कमच्छा में पुस्तकाल अध्यक्ष थे। हिन्दी गजलों एवं भोजपुरी गीतों के प्रख्यात कवियों में से एक तिवारी जी की एकमात्र काव्य संग्रह ‘दर्द की रेखाएँ’ 1977 में प्रकाशित हुई जिसमें 72 गजल और तीन गीत है। देशज शब्दों और भोजपुरी रचनाओं में सिद्धहस्त कवि थे। 2005 को आपका निधन हो गया।
रामवृक्ष मिश्र ‘बहाल’
वाराणसी के काशीपुर में जन्में रामबहाल मिश्र हिन्दी भोजपुरी गीतकार थे मयूर साहित्य के प्रधान संरक्षक भी रहे आपका एक विदाई गीत ‘कहरवा डोलिया दे उतार’ आकाशवाणी इलाहाबाद वाराणसी कृषि जगत कार्यक्रमों में वर्षो तक सुने गये।
रामदास ‘अकेला’
वाराणसी में जन्मे रामदास अकेला अच्छे कवि और गजलकार थे। उनकी गजलों की एक संग्रह ‘आइने बोलते है’ प्रकाशित है। हिन्दी उर्दू रचनाकारों की मिली जुली संस्था ‘अद्वी-संगम’ का गठन किया 23 फरवरी 2010 का वाराणसी में देहांत हो गया।
मोहम्मद सलीम राही
राही जी की कर्मस्थली वाराणसी रही उन्होंने काशी के नवीन साहित्य पीढ़ी का पल्लवन किया। ये कवि रंगकर्मी एवं आकाशवाणी के उद्घोषक रहे। आकाशवाणी ने दो बार इन्हे राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया। इन्होंने रेडियो से प्रसारित धारावाहिक ‘उजाला’ का निर्देशन भी किया। 52 वर्ष की अवस्था में अकस्मात दिवंगत हो गये।
घनश्याम गुप्त
काशी में जन्मे घनश्याम गुप्त खाटी बनारसी व काशिका तथा खड़ी बोली के सशक्त कवि थे। इन्होंने डॉ0 गया प्रसाद शास्त्री ‘निराला’ के साथ मिलकर अभिनय संस्था की स्थापना की ‘अभिनयम्’ द्वारा आयोजित बुढ़वा मंगल के आयोजक रूप में प्रसिद्धि पायी। इस संस्था के तहत् आपने रस गंधर्व ‘सगुन पक्षी’ की कई बार नाट्य मंचन किया और तमाम राष्ट्रीय पुरस्कार जीते। 26 मार्च 2000 को इन वर्ष की अल्पायु में निधन हो गया।
सुषमा पाल
12 दिसम्बर 1944 को दिल्ली में जन्मी सुषमा पाल की कर्मस्थली वाराणसी रही। इनके पति डॉ0 आर0एस0 पाल सरकारी अधिकारी थे। सन् 1982ई0 में जनकवि गणेश प्रसाद सिंह द्वारा सम्पादित ‘काशी के कवि और उनका काव्य’ में वे सुप्रसिद्ध रहीं। इनकी दो काव्य कृतियाँ ‘सोचती हूँ’ 1987, ‘दर्द जो गाया गया’ 1996 प्रकाशित हुआ है आपके अंतिम जीवन काल का कुछ पता नही लगा बस इतना ज्ञात है। अपनी चार पुत्रियों के साथ जीवन को सुव्यवस्थित किया।
जय प्रकाश वागी
1948 में काशी में जन्मे प्रख्यात राष्ट्रीय कवि व्यंग्यकार जय प्रकाश वागी जी की कविताएँ कबीर और साम्प्रदायिकता नाम से अजीत श्रीवास्तव के सम्पादन नया सप्तक में प्रकाशित हुआ उनकी एक उक्ति है- ‘मुझे याद नही कि मैंने कभी कोई कविता लिखी’ पता नहीं ये मेरे आँसू हैं या पीप मवाद जो कागज के इन पन्नों में फैल गये हैं। अगर या कविता है तो मुझे खुशी है अगर नही तो एक सच्चाई है जिसे कुबूल करना होगा। एकलव्य खण्ड काव्य सृजन के दौरान सन् 2000 ई0 में आपका निधन हो गया।
भाष्कर पाठक
1 फरवरी 1962 को काशी में जन्में भाष्कर पाठक काव्य गोष्ठियों में नियमित काव्य पाठ करते थे। अपनी कविता के प्रथम चरण ही सात अगस्त 2009 को मात्र 47 वर्ष की अवस्था में देहान्त हो जाने के कारण कोई भी काव्य संग्रह प्रकाशित नहीं देख सके।