रामानंद
(1299-1411) रामानंद जी प्रख्यात वैष्णव संत और आचार्य थे इनका जन्म प्रयाग के कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ था। मात्र 92 वर्ष की छोटी उम्र में ही रामानंद जी ज्ञान पिपासा वश काशी आ गये थे। यहां इन्होंने रहकर पहले शंकर वेदान्त का अध्ययन किया। इसके बाद इन्होंने स्वामी राघवानंद जी से विशिष्टाद्वैत की शिक्षा ग्रहण की। इसके बाद तीर्थयात्रा पर निकल गये। तीर्थयात्रा से लौटने पर इन्होंने रामरक्षा स्तोत्र, सिद्धान्त पटल और ज्ञानलीला हिन्दी में लिखी। संत रामानंद ने जातिप्रथा सहित अन्य सामाजिक बुराईयों के खिलाफ आवाज उठाई। गोहत्या प्रतिबंध भी इन्ही के द्वारा कराया गया। काशी में इनका निवास स्थान पंचगंगा घाट पर था। जहां इन्होंने श्रीमठ का निर्माण किया।
कबीर
(1398-1518 ई0) कबीर का जन्म काशी में हुआ था। कहा जाता है कि रामानंद जी के आशीर्वाद से एक विधवा के गर्भ से कबीर का जन्म हुआ। लोक-लाज के डर से विधवा ने अपने नवजात शिशु को लहरतारा सरोवर के पास छोड़ दिया था। एक अन्य कथा के अनुसार कबीर का जन्म जुलाहे के यहां हुआ था। कबीर रामानंद के शिष्य थे। कबीर ने रामानंद की राम उपासना के पांच सिद्धांतों को स्वीकारा लेकिन राम को सगुण ब्रह्म के स्थान पर निर्गुण ब्रह्म के रूप में माना। कबीर भी सामाजिक कुप्रथाओं के धुर विरोधी थे। कबीरदास का महाप्रयाण मगहर के निकट हुआ था।
तैलंगस्वामी
(1607-1887 ई0) तैलंग स्वामी का जन्म विजयनगर राज्य के तेलंगाना के हालिया में हुआ था। 40 वर्ष की आयु में जब इनकी माता की मृत्यु हुई तब इन्होंने श्मशान भूमि में रहने का निर्णय किया। स्वामी जी 1737 ई0 में काशी पहुंचे। यहां पहले अस्सी घाट पर रहे फिर हनुमान घाट स्थित वेदव्यास आश्रम और दशाश्वमेध घाट पर निवास किया। इनका कई और नाम भी था। जिसमें चर्चित रूप से मृत्युंजय महादेव और विश्वनाथ प्रमुख था। तैलंगस्वामी ने कई चमत्कार भी किये थे। हाथ पैर बंधे होने पर भी वे तैरकर गंगा पार कर जाते थे। जबर्दस्त ठंड पड़ने पर ये जलमग्न रहते और भीषण गर्मी में बालू पर सोते थे। तैलंगस्वामी ने 1807 में देह त्याग दिया था। जबकि कुछ लोगों का मत है कि वे 280 वर्ष की आयु में समाधि लिये।
स्वामी विशुद्धानंद सरस्वती
(1820-1899 ई0) स्वामी विशुद्धानंद सरस्वती मूल रूप से सीतापुर के बींडी गांव के कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनका जन्म कर्नाटक के गुलबर्गा के पास हुआ था। 1850 ई0 में स्वामी विशुद्धानंद काशी आये। यहां दशाश्वमेध घाट पर रहने वाले श्री गौड़ स्वामी ने इन्हें सन्यास की दीक्षा दी और इनका नाम स्वामी विशुद्धानंद सरस्वती रखा। इन्हीं की प्रेरणा से जम्मू कश्मीर के राजा प्रताप सिंह ने काशी में रणवीर पाठशाला और दरभंगा नरेश लक्ष्मीश्वर सिन्हा ने दरभंगा संस्कृत पाठशाला शुरू की। इन्हेंने कई ग्रन्थों की भी रचना की जिनमें ‘कपिल गीता’ की व्याख्या बहुत प्रामाणिक सिद्ध हुई।
स्वामी करपात्री जी
(1907-1982 ई0) स्वामी करपात्री जी का जन्म उŸार प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में हुआ था। करपात्री जी सरयूपारी ब्राह्मण थे। बचपन से ही इनका मन वैराग्य की तरफ लग गया था। इसीलिए बार-बार घर से भाग जाते थे। इन्हे स्थिर करने के लिए इनके पिता ने इनका विवाह करा दिया। जिसके बाद इनके यहां एक लड़की का भी जन्म हुआ। लेकिन 1926 में मोह माया को त्याग घर छोड़ प्रयाग चले गये इनके गुरू ब्रह्मानंद सरस्वती थे जिनसे इन्होने सन्यास की दीक्षा ग्रहण की। काशी में समेरूपीठ का सुधार इन्होंने ही किया। इन्होंने काशी विश्वनाथ मंदिर में हरिजन प्रवेश का विरोध किया। इन्होंने 1954 में विश्वनाथ जी के लिए एक और मंदिर बनवाया।
देवरहवा बाबा
(1910-1990 ई0) देवरहवा बाबा का जन्म उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में हुआ था। इन्होंने बचपन का नाम जनार्दन दुबे थे। मात्र 16 वर्ष की उम्र में ही ये ज्ञानार्जन के लिए काशी आ गये। इन्होंने यहां संस्कृत व्याकरण, दर्शनशात्र और साहित्य का अध्ययन किया। देवरहवा नाम देवरा जंगल में रहने के कारण पड़ा। ये काशी में अस्सी घाट पर एक पेड़ के शिखर पर मचान में रहते थे। इनके सभी धर्मों के लोग शिष्य थे।