राष्ट्रपति

                                                                                                                     -तपन कुमार घोष
19 सितम्बर 2012 जब मैंने का0हि0वि0 के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग से उन  का मेरा ‘‘आजादी का मसीहा’’ ग्रन्थ के बारे में लिखित विचार लेने गया, तब उनके अध्यक्ष मुझसे कहे-डाक्टर साहब आप सुभाष बाबू को कांग्रेस के अध्यक्ष के जगह राष्ट्रपति शब्द का प्रयोग किए है। क्या यह अंग्रेजी प्रसीडेन्ट का हिन्दी रूपान्तरण करने के कारण हुआ? लगभग यह बात जब मैंने महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ’’ के कुलपति डॉ0 पृथ्वीश नाग को ‘‘आजादी का मसीहा’’ प्रति उपहार देने गया तो विद्यापीठ परिसर में कुछ विभाग अध्यक्ष जो लोग 22 जनवरी 2013 ‘‘विशाल भारत’’ के जलसे में उपस्थित थे, जहां मेरी पुस्तक ‘‘आजादी का मसीहा’’ को ‘‘नेता जी सुभाष चन्द्र बोस’’ शोध पुरस्कार 2013 से नवाजा गया था, मिले। वे लोग मुझे काफी जोश के साथ अध्यापक कक्ष में ले गये एवं वहां और भी कुछ विभाग अध्यक्ष को बुला ले आये, क्योंकि वे लोग मुझसे ‘‘आजादी का मसीहा’’ ग्रन्थ पर कुछ सवाल करना चाहते थे और पहला प्रश्न ही कांग्रेस राष्ट्रपति या अध्यक्ष शब्द पर किया गया। जैसे का0हि0वि0वि0 में किया गया था।
उसका उत्तर देकर मैं यह कह कर खाली हुआ कि आप लोगों के और प्रश्नों के उत्तर के लिये मुझे आप लोग बुलायें तब मैं समय लेकर उन सभी प्रश्नों का उत्तर दे पाऊँगां यह कह कर जब मैं कुलपति महोदय के कक्ष में पहुँचा तब तक वे कहीं अपने निश्चित कर्मसूचि अनुसार निकल गये थे। इसलिये मुझे बाध्य होकर उनका उपहार उनके निजि सचिव के पास रखकर लौटना पड़ा। 
इस घटना से मुझे यह समझ में आया, यह राष्ट्रपति प्रकरण को साधारण जन से किस प्रकार अनजान रखा गया है। राष्ट्रपति प्रकरण भारतीय स्वाधीनता संग्राम में कितना महत्व रखता है; जब विश्वविद्यालय के अध्यापक को इससे भूला कर रखा गया है तब साधारण भारतीय नागरिक इसे कैसे जानेंगे। उन्हें इसे यदि सही तरीके से समझाया नहीं जायेगा तो वे ‘‘आजादी का मसीहा’’ सिर्फ एक नाम ही समझेंगे।  
देशबन्धु चित्तररजन दास के नेतृत्व में बना स्वराज्य पार्टी, कांग्रेस में जिन सर्तो मेे बिलय हुआ, उससे उत्साहित होकर सुभाष बाबू कांग्रेस को राष्ट्रीय मंच बनाने में जूट गये। उसमें यह तय हुआ कांग्रेस एक राष्ट्रीय मंच होगा, जिसमंे सभी पार्टियाँ शामिल होंगे और कांग्रेस के अध्यक्ष को राष्ट्रपति बनाया जायेगा एवं कांग्रेस का उद्देश्य सम्पूर्ण ब्रिटिश मुक्त स्वाधीन भारत होगा। इसके लिये 26 जनवरी को स्वाधीनता दिवस के रूप में मनाया जायेगा। इस तरह हम स्वधीनता की ओर आगे बड़ेगे। सन् 1928 के जुलाई महीने में कलकत्ते के पार्कसर्कस के मैदान में कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन होने जा रहा था। जिसमें स्वराज्य पार्टी का अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू अध्यक्ष पद के उम्मीदवार हुए। तब सुभाष बाबू कांग्रेस सेवा दल का गठन किये। सेवा दल के वे जनरल अफिर कमांडिंग (G.O.C) हुए। सेवा दल का अपूर्व विधि व्यवस्था, घोड़सवार, पैदलों का अनुशासन एंव कार्यकुशलता देख लोग दंग रह गये। मोतीलाल नेहरू के लिये सुभाष बाबू जोरदार समर्थन किए और वे कांग्रेस अध्यक्ष चुने गये। अध्यक्ष मोतीलाल इससे प्रभावित हुए की अपने अध्यक्षिय भाषण में सुभाष बाबू का प्रशंसा करते हुए कहें सेवा दल के कार्यकुशलता देख मुझे स्वराज्य का स्वप्ना वास्तव लगने लगा है, पर महात्मा गाँधी उस प्रशंसा से चीढ़ कर सुभाष बाबू को गक (G.O.C) का पार्क सर्कस कह कर व्यांग किये। पर सुभाष बाबू को निराशा हुई क्योंकि मोतीलाल नेहरू कमेटी भी कांग्रेस का लक्ष्य ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत स्वयत्त शासन यानि डोमोनियन स्टाटास ही निश्चित किया गया और यह सब गाँधी जी के इसारे से ही हुआ था। तब सुभाष बाबू गाँधी के विरोध करते हुए मोतीलाल नेहरू के पुत्र जवाहर लाल नेहरू एवं दुसरे युवा साथियों को लेकर लखनऊ में एक बैठक कर ‘‘इण्डिपेन्डेन्टस’’ फॉर इण्डिया लिंग’’ बनाये। (1/पृ0-74) बाद में कांग्रेस 1930 को 26 जनवरी स्वाधीनता दिवस के रूप में पालन करने की घोषणा की। (1/पृ0-79) अब देखना होगा गाँधी जी कौन थे और कांग्रेस में उनका क्या स्थान था।
सन् 1857 के विद्रोह को अंग्रेजों द्वारा क्रूरता से दबाने पर बंगाल के निहत्थे साधारण जन क्षुब्ध होकर अंग्रेजो द्वारा निर्मित सभी वस्तु एवं कार्य को बहिष्कार करने लगे। अंग्रेजी मिल के कपड़े के जगह अपने ही गाँव के बुनकरों द्वारा निर्मित कपड़े एवं उस कपड़े को बनाने के लिये सूत घर-घर में बनने लगा। उस समय काँच की चुड़ियाँ एवं रेशमी कपड़ों का होली जलने लगी। उस पर बंगाल के लोक कवियों ने अनेक गीत लिखे। जिसमें बहुत प्राचीन एक गीत जिसे मैने अपनी माँ को गाते सुना था, वह इस प्रकार है-
मायेरा देवा मोटा कापड़। माथाय तुले नेरे भाई।।
माँ जे मोदेर जनम दुखी। तार जे कोनों साध्य नाई।।
-माँ का दिया हुआ मोटा कपड़ा माथे पर रख ले, यानि सम्मान से ग्रहण क्यों कर कि हमारी माँ जनम दुखी है; इससे ज्यादा देने का सामर्थ उनमें नहीं है।
इस एकताबद्ध जन आन्दोलन को दबाने के लिये अंग्रेजों ने बंगाल को टुकड़ों मंे बाटने लगे। उससे ‘‘बंग-भंग आन्दोलन का जन्म हुआ और उसका नेतृत्व उस समय के युवा कवि रविन्द्र नाथ ठाकुर ने किया। इस आन्दोलन को गाँधी जी बहुत बारिकी से अध्ययन कर उस विषय पर अपना ग्रन्थ ‘हिन्द स्वराज’’ में लिखे है- सही जागृति (राष्ट्रीय) बंग-भंग से हुई, उन्होंने अपमान भरी भाषा का उपयोग किया और जबर्दस्ती बंगला का टुकड़े किये। हम मान सकते हैं कि उस दिन से अंग्रेजी राज्य के भी टुकडे हुए। (पृ0 28) बंगाल की हवा उत्तर में पंजाब तक और (दक्षिण में) मद्रास इलाके में कन्याकुमारी तक पहुंच गयी ‘‘बंग-भंग’’ जैसे अंग्र्रेजी जहाज में दराद पड़ी है। 
(पृ0 29)।
इस जन-आन्दोलन में अपने शक्तिशाली शुत्र से निहत्थे लोगांे के लड़ने के तरीके को गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका में प्रयोग कर सफल हुए। गाँधी जी उसे सत्याग्रह नाम दिया और उसके व्याख्या में कहे- सत्य और अहिंसा से यह आन्दोलन चलता है। जब की सशस्त्र एवं हिंसा के बारे में उनका विचार था- भारत के हाथों में यदि तलवार होता तब वे उस तलवार लिये युद्ध में कूद सकते थे, ‘‘यह बयान उन्हांेने 1920 ई को नागपुर कांग्रेस अधिवेशन में कहे थे। इसलिये गाँधी जी का निहत्था अहिंसा एक कौशल था, वह खुद ही यह स्वीकार किये है।
बंगला में यह कहावत है- लोभ पाप, पापे, ताप तापे मृत्यु- ‘‘लोभ से पाप यानि काम का जन्म होता है, और काम से क्रोध का जन्म होता है और क्रोध मृत्यु के तरफ उसे धकेल देता है।’’ गाँधी जी अपने बचपन के बारे में लिखा है- हमारे एक रिस्तेदार और मुझे बिड़ी पिने का शौक हुआ। हमारे चाचा बिड़ी पिते थे। उनका फेका हुआ टुकड़े को पिने लगे। फिर हमारे नौकर के पास जो पैसा रहता था। उसी में से चुरा कर उस पैसे से बिड़ी खरीदने लगे। फिर भी लगभग 25 रूपया उधार हो गया। मेरे भाई के हाथ में एक सोने का मोटा तागा रहा। उसमें से एक तोला सोना काटकर उसे बेचा गया। उससे उधार चुक्ता हुआ। (4/पृ0 31/32) (3/पृ0 58) गाँधी जी एक दोस्त के साथ मिलकर नियमित मांसाहार करने लगे और उनके आग्रह पर बेश्या गमन किये। (3/पृ0 51) अपने कामुकता के बारे में बताते हुए उन्होंने लिखा है- रात को मैं अपने पिताजी का पैर दबाता रहा, पर मेरा ध्यान अपने सोने के मरे पर ही रहता था रात साढ़े दस या ग्यारह बजा होगा; मैं बिमार पिता जी का पैर दबा रहा था। चाचा आकर कहे- तु जा मैं बैठुंगा। मैं खुश होकर सीधा अपने सोने के कमरे में गया। मेरी पत्नी बेचारी सो रही थी। पर मैं उसे क्यों सोने देता। मैं उन्हें जगाया मेरी बात समाप्त करने के पूर्व बता दूँ, मेरी पत्नी का जो पुत्र हुआ वे दो चार दिन श्वास लेकर चल बसा। (4/पृ0 30-37) (3/पृ0 53)
यही नहीं जीवन भर नंगे अवस्था में सुन्दरी युवतियों के साथ रात बिताने को लेकर उनके प्रमुख अनुयायों में सरदार बल्लभ भाई पटेल कहते थे- आप ब्रह्मचारी नहीं अधर्मचारी है। ब्रह्मचारी न हो तो यह परिक्षा अनारवश्यक खतरा मोल लेना है। लगता है यह कृष्ण लीला है।
गाँधी जी के जीवनीकार विख्यात अध्यापक निर्मल वसु लिखते है- गाँधी जी नंगे होकर सुन्दरी नारियों को नंगा कर शय्या-संगिनी करना यौन विकृति का लक्षण बताये है। इसके कारण वे लड़कियाँ मानसिक रोग का शिकार हुये। वे लोग बीच-बीच में बेहोश हो जाते थे। बाद में वे मृगि रोग ग्रस्त हो गये। 
उनके पोति मनु गाँधी के साथ नंगे होकर सोते थे गाँधी जी। मनु गाँधी एक दिन बोली थी- तुम मुझे एक दम तबाह कर दिये हो। यह देखकर उनके भक्त स्टेनोग्राफर परशुराम उन्हें छोड़कर चले गये थे। (3/पृ012-13) 
गाँधी जी के सादा जीवन इतना व्याय रहा कि सरोजिनी नाइडु को एक दिन गाँधी जी को कहना पड़ा- बापू आपको गरीबी में रखने के लिये बहुत रूपया खर्च करना पड़ रहा है। (3/पृ011)
इस संदर्भ में सुभाष बाबु का कहना था अन्य किसी देश में यदि वे पैदा होते तो उन्हें कोई मान्यता नहीं देता। रूस या जर्मनी अथवा इटली में पैदा होने पर वे क्या करते? उनका यह वेढंगा अहिंसा नीति के लिये उन्हें मृत्यु दण्ड होता या पागल खाने में डाल दिया जाता। भारतवर्ष होने के कारण उनका सरल जीवन, साकाहार, बकरी का दूध पीना, हफ्ते में एक दिन मौन रहना, कुर्सी में न बैठकर कटीवस्त्र धारण इत्यादि, प्राचीन काल के महत्मायों के दर्जें में डाल दिया गया और इसी के लिये वे आम जनता में अपनी पैठ बना ली। (3/पृ074)
उनके बारे में अंग्रेजों का कहना था- गाँधी का असहयोग आन्दोलन हिन्दुस्तानियों को ही नुकसान पहुँचाता है। उनका उद्देश्य उग्र आन्दोलन को दवा के रखने का रह और सरकार यही चाहती थी। छोटा मोटा दो एक उग्र घटना रोकने का ताकि तो सरकार को थी पर गाँधी यदि काँग्रेस मे न रहते तो यह दल ऐसे लोगों के हाथ चना जाता जो बहुत गतिशील एवं सहिंस थे। उनका आक्रमण सरकार सम्हल नहीं पाते। इसलिए वे गाँधी को सम्मान करते थे और जन मानस में उनका भावमूर्ति  बनाये रखने के लिये बीच-बीच में उन्हें जेल में रखा जाता रहा। असल में सरकार डरते थे। क्रान्तिकारियों से। (9/पृ0 57) (3/पृ0 75)
इसलिये ब्रिटिश मंत्री म्ससमद ॅपसापदेवद कहे थे-गाँधी ही भारत में ब्रिटिश सरकार का सच्चा पुलिस रहे। (3/पृ0 76)
इसलिये अहिंसा के बारे में लेनिन कहे है- शासकों और उनके नौकरशाह बुद्धिजीवियों का सिद्धान्तवादी नीति का धोखा है। तानाशाह शासन और शोषण व्यवस्था कायम रखने के लिये वे अपने दलालों द्वारा जनमानस को सदैव अहिंसा का वाणी प्रचार करते आये। (स्मदपद.प् इपक च्ण् 81) (3/पृ0 44)
गाँधी का अहिंसा रहा आम जनता का क्रान्तिकारी संघर्ष को काबु में रखना और बुजुर्या वर्ग के व्यक्तिगत सम्पत्ति के अधिकार बरकरार रखने का एक तरीका (10/पृ0 170) इसलिये द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने के पहले ही वे कहे थे- इस युद्ध में मैं ब्रिटिश एक फ्रांस के पक्ष में हूँ। इग्लैण्ड या फ्रांस यदि अपना आजादी खोता है, तो मैं भारतवर्ष के आजादी लेकर क्या करूंगा।’’ (3/पृ0 44) यहीं गाँधी ‘‘जालियानवाला बाग’’ पर पंजाब के निहत्थे जनता पर ब्रिग्रेडियर, डायर द्वारा दो हाजर दौ सौ पचार राउण्ड गोली चलाकर हजारो बूढ़े, जवान, बालक गर्भवती नारी को मौत देने वाले घटना पर चुप रहे। पंजाब के उस समय के गर्वनर माइकेल डायर उसे जायस ठहराते हुए ब्रिग्रेडियर को बधाई दी और इग्लैण्ड के अभिजात नागरिकों ने डायर को छब्बीस हजार पाउण्ड देकर पुरस्कृत किया।’’
यह समाचार पाकर गुरूदेव रविन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा दिया हुआ ‘‘नाइटहुड’’ यानि ‘‘सर’’ उपाधि उन्हें क्षोभपत्र के साथ लौटा दिये। चित्तरंजन दास अपना लाखों रूपये का वकालत छोड़कर जालियानवाला बाग के पीड़ित परिवार को अपना सर्वस्य दान करके फकिर हो गये। इसी पर सारे भारतवर्ष के लोग उन्हंे देशबन्धु’’ कहने लगे। सर शंकर नायर के तरह ब्रिटिश भक्त नागरिक भी बड़े लाट काउन्सिल से त्यागपत्र दे दिये पर गाँधी जी इसके विरूद्ध छुप कर चुप बैठे रहे। गाँधी जी मुस्लिम समाज को अपने साथ लाने के लिये, जिन्ना को ‘‘कायदे-आजम’’ खेताव से नवाजा। इसके बारे काँग्रेस के वरिष्ठ नेता मौलाना अबुल कलाम आजाद कहे है- जिन्ना के बारे में गाँधी को समझना बड़ा ही कठिन था। कांग्रेस छोड़ने के बाद जिन्ना का राजनैतिक स्थिति एक दम बिगड़ गई थी; लेकिन गाँधी जी के गलत निर्णय के कारण जिन्ना को राजनैतिक क्षेत्र में प्रमुखता हासिल करने में मदद मिली। (5/पृ0 93)
1920 ई0 को गाँधी जी सौकत अली और मुहम्मद अली भाइयों को लेकर खिलाफत आन्दोलन शुरू किये थे। पहला विश्वयुद्ध में तुरस्क का सुल्तान यानी खलिफा जर्मनी के तरफदारी करने के कारण ब्रिटेन ने खलीफा का कम अधिकार छिन लिये थे। इससे भारतीय मुसलमान नाराज थे। वे चाहते थे खलीफा का अधिकार पहले जैसे रहे। इसी को लेकर यह आन्दोलन था। इसलिये कुछ लोगोें का कहना था वह तो तुरस्क का मामला है; भारतवर्ष उसके लिये क्यों आन्दोलन करेगा? गाँधी जी ने किसी की बात नहीं सुनी। उसके बदले उन्होंन कहा- खिलाफत आन्दोलन चलेगा। उसके लिये यदि भारतवर्ष का आजादी का आन्दोलन को पिछे धकेलना पड़े मैं उसमें भी राजी हूँ और इसके बदले  मुहम्मद अली का कहना था- मैं पहले मुसलमान हूँ बाद में भारतीय मुस्लिम राष्ट्र अफगानिस्तान यदि भारत पर हमला करता है तो मैं उन्हें सहायता करूँगा। हिन्दू यदि उसका विरोध करता है तो मैं उनके खिलाफ लडूँगा। इसके बदले गाँधी कहे अली भात्रिद्वय मेरे दो भाई हैं, मेरे दो दिल है। बदले में मुहम्मद अली कहे गाँधी को जिस दिन मैं इस्लाम कबूल करा पाऊँगा, उस दिन होगा मेरे जिन्दगी का सबसे अच्छा दिन।
गाँधी जी के इस शठता के कारण उनके ज्येष्ठ पुत्र उन्हें त्याग कर इस्लाम कबूल किये।
असली में यह खिलाफत आन्दोलन ही विश्व में मुस्लिम साम्राज्य विस्तार का पैन इस्लामिक आन्दोलन था। (3/पृ0 97-99) 
गाँधी जी के विषय में वरिष्ठ गाँधीवादी नेता शेठ गोबिन्द दास कहे है- फासिस्टो में मुसालिनी, नाजियों में हिटलर और कम्यूनिस्टों में स्टालिन का जो स्थान है, कांग्रेस में महात्मा गाँधी का वही स्थान है। (ए0ब0 पत्रिका 1-3/19939) 
(3/पृ0 61)
इसी तरह गाँधी जी जिन्ना से भी अपना सौदा तय किया, जो इस पत्र से साफ हो जाता है-भाई जिन्ना, एक दिन तम्हारे साथ मात्रिभाषा में बात करने का इच्छा रहा। आज मैं हिम्मत कर उस भाषा में लिख रहा हूँ। जेल में रहते समय मैं तुम्हें मुझसे भेंट करने को कहा था। जेल से छूटने के बाद तुम्हें और कोई पत्र दे नहीं पाया। पर आज मेरा दिल कहाँ तुम्हें पत्र लिखु। तुम्हारा सुविधानुसार एक दिन हम लोग भेंट कर सकते हैं। तुम कभी भी मुझे इस देश में मुस्लिम या इस्लाम का दुश्मन न समझना। मैं सिर्फ तुम्हारा दोस्त या सेवक ही नहीं सारे विश्व के है। मुझे गलत न समझना।’’
इसके उत्तर में जिन्ना कश्मीर से मि0 गाँधी को लिखे-मैं लौट कर आपको मेरे बम्बे के मकान में खुशी से बुलाऊँगा। यह सम्भवतः अगस्त के बीचो-बीच, 1944 ई0 के 24 जुलाई को लिखे थे। (6/पृ0 2-3) 9 सितम्बर 1944 जिन्ना का मालाबार हिल के मकान में गाँधी जी उनसे मिले। वहां वे लोग 3 घंटा 15 मिनट व्यक्तिगत बातचीत किये। वहाँ मुल्क के बटवारे के बारे में सिद्धान्त लिया गया और पाकिस्तान का बात उठा। गाँधी जी उसका समर्थन किये। यादि असली बटवारे के तीन साल पहले ही गाँधी जी देश-विभाजन मान लिये थे। सबसे पहले गाँधी जी देशवासियों के साथ विश्वासघात किये थे। भारत का एकता, मर्यादा, अखण्डता सब खत्म हो गया गाँधी जी के ही हाथों में। उनके इस कापुरूषोचित कार्य के लिये भारतवर्ष तोड़कर जन्म लिया पाकिस्तान। 
यह दिन के उजाले के तरह साफ है, इसीलिये भारतवर्ष विभजन को रोकने के लिये वे कभी विरोध नहीं किये। (6/पृ0 3-4) (3/पृ0 105) इस घटना से दुखी होकर सिमान्त गाँधी, बादशह अब्दुल गफ्फार खान महात्मा जी के पास दौर चले आये;  सब सुनने के बाद कहे- बापू जी यह आप ने क्या किया? आप तो हमें भेड़ियें के मुह में धकेल दिये (लवन ींअम जीतवूदंे जव जीम ूवसअमे) 
इन सभी के चलते महात्मा गाँधी अपने ही अनुयायों के शासन काल में अपने सबसे सुरक्षित स्थान पर अपने ही लोगोें के कारण बन्दुक के गोली से जान देना पड़ा।
इस बारे में नाथुराम गोडसे ने लिखा है- मैंने उस व्यक्ति पर गोली चलाई जिसकी नीति से हिन्दुओं पर घोर संकट आए, हिन्दू नष्ट हुए। देश के इस सेवक को भी जनता को धोखा देकर मातृभूमि के विभाजन का अधिकार नहीं था। (12/पृ0 4) गाँधी जी ने देश को छलकर देश के टुकड़े किए। (12/पृ0 8) गाँधी जी अमनवीय अत्याचार सहकर आए हिन्दू सिक्खों के प्रति सहानुभूति प्रकट नहीं करते थे। (12/पृ0 19) जब गाँधी जी कहतेः तुम अपने घर लौट जाओ, तब निर्वासित और भी बैखलाते। (12/पृ0 20) गाँधी जी के मन में हिन्दू और मुसलमान, दोनों जातियों का नेतृत्व करने का महत्त्वकांक्षा प्रबल रूप में था। (12/पृ0 65) उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग नहीं लिया और वे अंग्रेजों के यहाँ रहने के पक्ष में रहे। (12/पृ0 66) स्वतंत्रता दिलाना तो दूर, गांधी जी ने भारत को ऐसी देशा में लाकर छोड़ दिया कि उसके खण्ड-खपड हो गए ओर स्थान-स्थान पर रक्तपात होने लगा। (12/पृ0 86) सुभाष के नेतृत्व में भारतीय सेना देश के द्वार पर गरज रही थी और मणिपुर और आसाम के कुछ हिस्सों में घुस चुकी थी। आजाद हिन्द में वे लोग थे जो या तो जापान की कैद से आकर सेना में प्रविष्ट हो गए थे या वहाँ पर पहले से रहते थे। अंग्रेजों के भारत छोेड़ने, गांधी जी की कोई भूमिका नहीं है। (12/पृ0 92) मैंने उस व्यक्ति पर गोली चलाई जिसकी नीति से हिन्दुओं पर घोर संकट आए और हिन्दू नष्ट हुए। (12/पृ0 105) वे इतने ईमानदार नहीं थे कि अहिंसा की हार को स्वीकार कर लेते। गाँधी जी ने देश को छल कर देश के टुकड़े किए। (12/पृ0 105)।
इस बारे में हिन्दुस्तान टाइम्स, नई दिल्ली में 01-02-2006 खबर छपा राष्ट्रपति महात्मा गाँधी के निधन के 60 वर्ष बाद उनके अंतिम शब्दों को लेकर उठे विवादों के बीच उनके एक पुराने सहयोगी ने दावा किया है कि गोली लगने के बाद बापू के मुंह से कुछ नहीं निकला था। न उन्होंने ‘हे राम’ कहा था और न ही ‘राम-राम’। महात्मा गाँधी के पुराने सहयोगी 85 वर्षीय कल्यानम वेंकटरामन ने दावा किया है कि जिस वक्त नाथुराम गोडसे से बापू के गोली मारी थी उस वक्त वह बापू से मात्र आधा मीटर की दूरी पर ही मौजूद थे। उन्होंने बताया कि गोली लगते ही बापू जमीन पर गिर पड़े और उनका निधन हो गया। 
विश्वकवि रविन्द्रनाथ ठाकुर भी अपने जीवन के पहले चरण में शस्त्र क्रांतिकारियों को अच्छे निगाह से नहीं देखते थे। क्योकि उनका मानना था वे नौजवान हठधर्मी है क्योंकि वे ब्रिटिश शक्ति को नहीं समझ पाते थे। इसलिये उनके एक छोटे आक्रमण को पुरा गाँव या शहर को चुकाना होता है। इसका कारण भी वे जिस परिवार से आये थे उसका पारिवारिक इतिहास रहा। वे लोग बादशाह अकबर के समय यशोर राज परिवार के सेवा में थे। यशोर राज प्रतापादित्य जब मुगल साम्राज्य से विद्रोह कर अपने को आजाद घोषणा किये तो उन्हें दबाने के लिये मुगल सेनापति अम्बर राज मान सिंह को भेजा गया था। मानसिंह यशोर राजपरिवार का पारिवारिक कलह का फायदा लेकर उकने सेवक नदिया राजवंश का बीजपुरूष भवानन्द मजुमदार के सहायता से यशोर राज्य में भेदिया बनाया, जिसमें ठाकुर पारिवार एक था। मुगलों का साथ देने के कारण बंगाल के ब्राह्मण समाज में उन्हें मुगलों से ‘‘पिरिति’’ यानि प्रेमी कहलाने लगे। जो बाद में अपभ्रंश होकर ‘‘पिरूली’’ हो गया। विश्वास घात करने के कारण बंगाली ब्राह्मण समाज में वे धिकृत माने जाते थे। बचपन से वे प्रतापादित्य के बारे में पारिवारिक सूत्र से जो सूचना प्राप्त था उससे प्रातापादित्य के प्रति उनका कोई विशेष उच्च धारणा नहीं था। उसे उन्होने अपने बाल अवस्था के उपन्यास ‘‘बौठाकुरानीर हाट’’ के भूमिका में लिखे है- स्वदेशी उद्दीपना के आवेग मंे प्रतापादित्य को एक समय बंगाल में आदर्श वीर चरित्र के रूप में खड़ा करने की चेष्टा चल रहा था। दिल्लीश्वर को उपेक्षा करेन के लिये उनके पास अनुभव का अभाव एवं हठ जरूर था पर क्षमता नहीं, (8/पृ0 604) यह उन्होंने बंगाब्द चैत्र 1346 में लिखे थे। वर्तमान में बंगाब्द 1420 चल रहा था। 
रविन्द्रनाथ आधुनिकता के साथ प्राचीन भारत के संास्कृतिक एवं वैभव को लौटाना चाहत थे। पर इसके लिये बली और घृणा नहीं चाहते थे। पर उनका भान जी सरला देवी स्वदेशी मेला एवं प्रतापादित्य का जन्मदिन शरदीया नवरात्र के अष्टमी में होने के कारण्एा बंगाल में शस्त्र पूजा दशहरे में न माना कर बीराष्टमी नलाम देकर मानने लगी। 
विश्वकवि रविन्द्रनाथ ठाकुर गाँधी जी के ऊपर का सदा जीवन देखकर उन्हे महात्मा का उपाधि प्रदान किये थे; उसी प्रकार गाँधी जी रविन्द्रनाथ ठाकुर का गुरूदेव का उपाधि प्रदान किये थे।
सन् 1938 ई0 को सुभाष बाबू कांग्रेस का अध्यक्ष चुने गये तब उन्होने स्वराज्य पार्टी एवं कांग्रेस का जिस बिन्दूआंे में विलय हुआ था, लागू करने लगे। जैसे कांग्रेस का उद्देश्य पूर्ण स्वराज्य एवं उसके लिये समान्तर सरकार बनाना। जिसका पहला कदम होगा कांग्रेस अध्यक्ष पद को राष्ट्रपति कहलवाना। उन्होंने देश निर्माण के लिये ‘‘योजना आयोग’’ का गठन किये, जिसका अध्यक्ष जवाहर लाल नेहरू को बनवाने। इसके चलते सुभाष बाबू सन् 1939 कांग्रेस के राष्ट्रपति चुनाव लड़ने का ऐलान किया तब कम्यूनिस्ट पार्टी की अंग्रेजी मुखपत्र नैशनल फ्रन्ट ने प्रचार-प्रसार किया- हजम सम्पूर्ण हृदय से सुभाष बाबू को दूबारा राष्ट्रपति होने का समर्थन करते है (ॅमउनेज ूीवसम ींजममकसल बंउचंपहद वित जीमत तम.मसमबजपवद व िैनइींे ठवेम ंे जीम छमगज त्ंेजंचंजप) 
देश का उस राजनैतिक परिस्थिति मे महात्मा जी सुभाष के सबसे विश्वसनीय साथी जवाहर लाल नेहरू को अपने तरफ मिला लिये थे। इस विषय में सुभाष बाबू अपने माँ समान देशबन्धू पत्नी बसन्ती देवी को पत्र में लिखे थे- महात्मा जी के प्रभाव से जवाहर लाल बाबू स्वाधीनता का मांग छोड़ दिये है। तब सुभाष बाबू और दो साथी लाहौर का सइफुद्दीन किचलु और पटना का अब्दुल बारी के साथ मिलकर आजादी के लक्ष को लेकर एक घोषणा पत्र निकाले थे (1/पृ0 78)
गुजरात के त्रिपुरी में कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था। विभिन्न प्रदेशों से तीन लोगों का नाम आया। अबुल कलाम आजाद, सुभाषचन्द्र बोस एवं पट्टनी सीतारामाइया। आजाद अपना नाम वापस ले लिये। सीतारामइया गांधी जी के मनोनित प्रार्थी थे; उनका समर्थन कर रहे थे जवाहर लाल नेहरू, अबुल कलाम आजाद, सरदार बल्लभ भाई पटेल, बाबू राजेन्द्र प्रसाद, गोविन्दबल्लभ पन्थ, सेठ गोविन्द दास, अचार्य कृपालनी, भुलाभाई देशाई, पुरूषोत्तम दास टन्डन, राजा गोपालाचारी जैसे बड़े-बड़े गांधीवादी नेता। मतपत्र गिनती से पता चला सुभाष बाबू को 1575 मत प्राप्त हुये है और सीतारामाइयाग को मिला है 1346 मत। यह सुनते ही गांधी जी कह उठे- सीतारामाइया का हार मेरा हार है। (ज्ीम कममिंज व िचंजजंइीप ैपजंतंउललं पे उल कममिंज) यह सिर्फ बात का बात नहीं है, क्योंकि गाँधी जी ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत देशी शसन चाहते थे, जबकि सुभाष ब्रिटिश साम्राज्य समाप्त कर सम्पूर्ण प्रभुतासम्पन्य भारतवर्ष चाहते थे। यह कोई व्यक्तिगत जीत नहीं थी बल की सिद्धान्त की जीत थी। गांधीवाद का यही अंत हुआ। ‘नेशनल फ्रन्ट ने लिखा-कड़े संघर्ष से काटे का विजय (त्ंदा – पिसम अपबजवतल वित ेजनहहसम उमरवतपजल) 
चुनाव मेें जीत कर बने कांग्रेस राष्ट्रपति सुभाष बाबू को गाँधी जी एवं उनके अनुयायी ना ना प्रकार से बाधा देने लगे। यहां तक उन्हें कार्यकारिणी समिति बनाने मंे बाधा देने लगे। 3 अप्रैल 1939 रविन्द्रनाथ सुभाष को कुछ आन्तरिक राजनैतिक उपदेश देते हुए लिखे-महात्मा जी जिससे उनकी अंतिम इच्छा तुम्हें बताये उसका अवश्य प्रयत्न करना। यदि वे उसे टालते रहंेगे तो उसके कारण दिखाकर आप लोग पदत्याग कर पायेंगे। (1/पृ0 162)
29 अप्रैल 1939 कलकत्ते के वेलिंगटन स्कोयार में कांग्रेस कमेटी के बैठक में सुभाष बाबू कांग्रेस राष्ट्रपति पद से इस्तीफा दिये। गांधी जी तुरन्त कांग्रेस राष्ट्रपति पद रद कर अध्यक्ष बनाया एवं प्रमुख गांधीवादी राजेन्द्र प्रसाद को अंतरीम अध्यक्ष नियुक्त किये। (1/पृ0 163) कलकत्ते के वेलिंगटन स्कोयर के सभास्थल से गुस्साये जनता के हाथ से बचाकर सुभाष बाबू को ही गांधी को बाहर लाना पडा। इस प्रकरण को देखकर गुरूदेव रविन्द्रनाथ ठाकुर ने 20 दिसम्बर 1939 महात्मा जी को एक तार भेजें- निर्वाचन की जीत को छिनने से जो राष्ट्रीय परिस्थिति खासकर बंगला में पैदीा हुई है उसे सामान्य करने के लिये सुभाष पर से कांग्रेस कार्यकारिणी कमेटी को पाबन्दी हटा लेना चाहिये। यही राष्ट्रीय हित में होगा। (व्ूपदह हतंअमसल बतपजतपबंस ेपजनंजपद वअमत प्दकपं ंदक मेचमबपंससल पद ठमदहंस ूवनसक नतहम बवहतमेे ूवतापदह बवउउपजजमम पउउमकपंजमसल तमउवअम इमद ंहंपदेज ैनइींे ंदक पदअपजम ीपे ब्वतकपंस ब्ववचमतंजपवद प् ेनचमतउम पदजमतेज दंजपवदस नदपजलण्) इसके उत्तर मंे गांधी जी लिखे-आप के पत्रानुसार कार्यकारी समिति सुभाष पर से रोक नहीं हटायेंगे क्योंकि वे अनुशासन भंग किये है। मेरी व्यक्तिगत सुझाव है आप इस पर न सोचे, आशा करता हूँ आप कुशल हैै। (ल्वनत ूपतम बवदेपकमतमक इल ूवतापदह बवउउपजजमण् ॅपजी ज्ञदवूसमकहम जीमल ींअम ंत नदंसइम जव सपमि इंदण् डल चमतेवदंस वचपदपवद पे लवन ेीवनसक ंकअपेम ैनइींे इंइन ेनइपउपज कपेबपचसपदम प िइंद पे जव इम तमउवअमकण् भ्वचम लवन ंतम ूमसस) 3/पृ0 60-63
गुरूदेव रविन्द्रनाथ ठाकुर इस प्रकरण को किस गहराई से देख रहे थे वह तो उनके महात्मा जी को भेजे तार से पता लगता ही है। उनका अन्तर दृष्टि आगामी परिस्थिति से वाकिफ हो गये थे। इसलिये वे जनवरी मे है ‘‘देशनायक’’ शीर्षक एक लेख तैयार कर रहे थे। पर सुभाष बाबू को अंग्रेजों द्वारा कैदकर लेने के कारण कुछ हो नहीं पाया। फिर सुभाष बाबू किसी तरह जेल से छुटे एवं ‘‘महाजाति सदन’’ नाम से एक राष्ट्रीय पेक्षागृह बनाने की घोषणा की। पर उस समय गुरूदेव रविन्द्रनाथ ठाकुर अश्वस्थ थे वे खुद भी कहीं जाना नहीं चाहते थे और उनके देखभाल करने वाले लोग भी उन्हें कहीं जाने नहीं देते थे। सुभाष बाबू एवं उनके मझिले भैया चाहते थे कि ‘‘महाजाति सदन’’ का शिलान्यास गुरूदेव द्वारा हो उस उद्देश्य से वे गुरूदेव को पत्र भी दिये थे। पर सब कुछ पता लगने के बाद यह मानकर चल रहे थे कि गुरूदेव आ नहीं पायेंगे। शिलान्यास की जगह पर काफी मट्टी एवं कंकड़ होने के कारण किसी प्रकार दो कुर्सी रखा जा सका था। जिससे सुभाष बाबू एवं उनके मझिले भैया शरद बाबू बैठेंगे। इधर पत्र पाकर गुरूदेव तुरन्त कलकत्ता जाने का निश्चय किये एवं बोलपुर से वर्धमान एवं वर्धमान से हवड़ा आये और सीधा सभास्थल पहुंचे सभी आश्चर्य चकित रह गये। शरत वसु तुरन्त अपना कुर्सी छोड़कर उस पर गुरूदेव का बैठायें। इस घटना का प्रमाण महाजाति सदन के शिलायान्स का फोटोग्राफ है। जिसमें साफ दिखायी दे रहा है, सुभाष बाबू रविन्द्रनाथ के बगल के कुर्सी पर बैठें है और शरत वसु रविन्द्रनाथ के बगल में जमीन पर बैठे है। भारतीय परम्परा में बड़े भाई से उच्च आसन पर बैठना शिष्टाचार के खिलाफ है। सुभाष बाबू इसे बखुबि निभाते थे, पर घटना क्रम इतना जल्दी होने के कारण यह हुआ था। फिर गुरूदेव ‘‘देशनायक’’ निबन्ध से कुछ अंश पढ़कर शिलान्यास किये- गुरूदेव रविन्द्रनाथ ठाकुर उस समय जिस अंश के पढ़े थे वे इस प्रकार हैं-
सुभाषचन्द्र तुम्हारा राष्ट्रीय साधना के प्रारम्भक्षण में तुम्हे दूर से देखा था आज तुम जिस आलोक से प्रकाशमान हो, उसमें अब कोई संशय रह नहीं गया है, क्योंकि वह मध्यान्य के तरह प्रकाशमान है। 
यह शक्ति का कठोर परिक्षण हुआ है कारागर के कैद, दुरारोज्ञ व्याधि के आक्रमण से, जो तुम्हें रोक नहीं पाया। बल्कि हृदय को किया है उदार और तुम्हारा दृष्टि को फैला दिया देश के सीमा लांघ कर इतिहास के दूर फैले क्षेत्र में। 
बंगाल का कवि हूँ मैं, बंगाल की ओर से मैं तुम्हे ‘‘देशनायक’’ के पद पर स्थापित करता हूँ। गीता ने कहा है-सज्जनों का रक्षा और दुष्टों का विनाश के लिये रक्षकर्ता (ईश्वर) वास्तव प्रकट होते है। दुःखों की जाल में फसा राष्ट्र जब छटफटाने लगता है तब उसकी पीढ़ी जन्म लेता है देश का अधिनायक। यह आप लोग मत सोच लेना मैं बंगाल को भारतवर्ष से अलग करना चाहता हूँ या उस महात्मा का कोई विकल्प खड़ा करना चाहता हूँ, जो राष्ट्रधर्म में जिन्होंने विश्व में नया युग शुभारम्भ किये है। तकलिफ को तुमने बना लिया मौका, बाधा को तुमने बनाया सीढ़ी किसी भी हार को तुमने सच नहीं माना। तुम्हारे चरित्र के ताकत को बंगाल के सिने में बसा देना इस समय सबसे आवश्यक है। शरीर और मन से कार्यक्षेत्र में सहयोग करने का सामर्थ और मुझे में रह नहीं गया है, ताकत भी अंतिम कगार में है। आशीर्वाद कर बिदाय लुंगा यह जान कर की देश के दुख को तुमने अपना दुख माना, देश का सार्थक मुक्ति आगे बड़ रही है तुम्हारे पुरस्कार स्वरूप। (1/पृ0 164-165)
गुरूदेव रविन्द्रनाथ ठाकुर इसके कुछ ही दिनों के बाद हमें छोर कर अमर लोक चले गये। पर इससे यह बात साफ हो जाता है कि वे बचपन से जिसे वे ‘‘हठधर्म’’ मानकर चल रहे थे, जीवन के अंतिम क्षेर पर नेताजी अपने कर्मों द्वारा उसे गलत प्रमाणित करके समझाने में सक्षम हुये, गुरूदेव जिसे हठधर्म समझ रहे थे, वास्तव में वह देश और जाति के लिये समर्पण है यानि देश मातृ के लिये स्वयं को बली चढ़ना। संस्कृत में कहा गया है- जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपी गरीयसी।’’ वे लोग बता गये दिल्लीश्वर या इग्लैण्ड, जगदिश्वर से बड़े नहीं है। 
भारत के राष्ट्रपति पद पर श्री प्रणव मुखर्जी को चुने जाने पर दिल्ली के कुछ पत्रकारों ने उन्हें पुछा आप तो पहले बंगाली राष्ट्रपति है। इस पर प्रणव बाबू बोले – मुझसे पहले सुभाष बाबू हुये है। यह जैसे सच है, वैसे कुछ गलत भी है। सुभाष बाबु अभिभाज्य भारतवर्ष का राष्ट्रपति रहे, जिसमें पाकिस्तान, भारत, बंगलादेश शामिल थे। प्रणव बाबू भारतवर्ष का टुकड़ा ‘‘भारत’’ का राष्ट्रपति है। 
 

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