बनारस की काष्ठ कला
काशी की काष्ठ कला प्राचीन व समृद्ध रही है। यहाँ बनी लकड़ी की कई चीजें पूरे भारत में जाती है। यही नहीं काशी की काष्ठ कला पूरे विश्व में भी मशहूर है। काशी में काष्ठ कला के निर्माण में कई कलाकार लगे हुए हैं लेकिन इस कला के शीर्षपुरुष रामखेलावन सिंह को कहा जाता है। उन्होने काष्ठ कला के क्षेत्र में एक से बढ़कर एक कलात्मक कार्य किया है। एक छोटी सी सुपारी को इन्हेंने कलात्मक लैम्प का रूप दे दिया था। जिसके लिए सरकार की ओर से रामखेलावन को सम्मानित भी किया जा चुका है। काष्ठ कला को नया आयाम देने वाले रामखेलावन का उपनाम मास्टर ‘क्राफ्ट्समेन’ भी है। काशी की काष्ठ कला की परम्परा काफी प्राचीन है। लकड़ियों पर सृजनात्मक चित्रकारी अनूठी रहती है। इस कला के शुरूआती चरण में लकड़ी से बने बच्चों के खिलौने और बेहतरीन सिन्दूरदानों का कलाकार सृजन करते थे। यहां के बने सिन्दूरदान तो पूरे भारत में प्रसिद्ध रहे है। काष्ठ कला के तहत काशी में कलाकार बच्चों के खिलौनों में जैसे थाली, जांता-ऊखली, मूसल, ग्लास, लोटिया, बेगुना, चक्की, तवा समेत अन्य खिलौने तो बनाते ही है। साथ ही इस समय हवाइजहाज कार पंखे की तरह नाचने वाले आधुनिक खिलौने भी बना रहे हैं। इस क्रम में कई तरह के फलों को भी लकड़ी से आकार देते हैं।
लैम्प मसाज करने वाला यंत्र, घंटी, पेपरवेट किचनसेट गहने भी कलाकार बनाते हैं। काशी की काष्ठ कला के तहत वस्तुओं और खिलौने का निर्माण एक जंगली लकड़ी गौरेया से किया जाता है। इस लकड़ी के बने खिलौने काफी आकर्षक एवं चमकदार होते हैं। बीच में काशी में बिहार से आने वाली इस गौरेया लकड़ी पर वन संरक्षण के तहत रोक लगा दी गयी थी। जिससे इस प्राचीन कला के भविष्य पर खतरे के बादल मंडराने लगे थे। लेकिन काष्ठ कलाकारों के प्रयास से मान्यता प्राप्त क्राफ्ट्समैनो को कोटे के हिसाब से यह लकड़ी मुहैया करायी जाने लगी। जिससे काष्ठ कला का भविष्य काशी में फिर उज्जवल हो गया। इस कला के लिए यूकीलिप्टस की लकड़ी का भी कलाकार प्रयोग करते हैं। वहीं लकड़ी को आकार देने के बाद उसे आकर्षक बनाने के लिए लाल, हरा, काला नीला समेत कई मिले जुले रंगों का भी प्रयोग किया जाता है। काष्ठ कला से बनी वस्तुओं को गोदौलिया विश्वनाथ गली और गंगा घाटों से खरीदा जा सकता है। बेचने वाले वाराणसी कैंट रेलवे स्टेशन पर भी स्टाल लगाकर इसे बेचते हैं। जबकि काष्ठ कला से बनी वस्तुओं को अच्छी खासी मांग विदेशो में भी हैं बात काशी में काष्ठ कला के गढ़ की करें तो खोजवां क्षेत्र है। यहां काफी संख्या में कलाकार दिनभर इसी कला को समृद्ध करने में लगे हुए हैं।
काशी का साड़ी उद्योग
काशी अपने आप में अद्भुत् नगरी रही है। यहां सिर्फ आध्यात्म मोक्ष, संस्कृति सभ्यता, तीर्थ धर्म ही नहीं है बल्कि कई ऐसे उद्योग भी रहे हैं। जिनका उद्देश्य सिर्फ धन ही अर्जित करना नहीं रहा है। अपितु वे बनारस की पहचान भी बन गये। की यहां पान, ठंडई, मौज-मस्ती के अलावा एक चीज जो पूरे विश्व में जानी जाती है वह है बनारसी साड़ी बनारसी साड़ियों की ख्याति पूरे भारत में रही है। बनारस आने वाले पर्यटक बनारसी साड़ीया लेना नहीं भूलते। वहीं विदेशी पर्यटक बनारसी साड़ियों को जनदीक से निहारने के लिए गाइडों के माध्यम से इन उद्योगों का निरीक्षण करते हैं। काशी में वस्त्र कला की एक गौरवशाली परम्परा रही है। यहां की वस्त्र कला से मुगल बादशाह भी काफी प्रभावित हुए। मुगलों को यहां की साड़ियां इतनी पसंद आयी कि मुगल कलाकार यहां की कला से तालमेल बिठाने लगे। बनारसी साड़ियों में जरदोजी कर उसे काफी आकर्षक बनाया जाता है। साड़ियों में रेशम व सूती धागे का प्रयोग भी खूब होता है। सादी विवाह के शुभ अवसरों पर बनारसी साड़ियों का महत्व और बढ़ जाता है। लकदक बनारसी साड़ियों के बीच महिलाएं खूब फबती हैं। काशी का साड़ी उद्योग काफी वृहद है। यहां साड़ियों को बुनने वालों को बुनकर कहा जाता है। साड़ी बुनाई के काम में यहां काफी संख्या में बुनकर लगे हुए हैं। जो दिन भर इसी काम को करते हैं। इस उद्योग में बुनकरों का पूरा परिवार लगा रहता है। साड़ी बुनाई का प्रशिक्षण अलग से नहीं दिया जाता है बल्कि बच्चे अपने बड़ों के साथ ही बुनाई करते-करते सीख लेते हैं। करीब 10 से 12 वर्ष की उम्र से बच्चे इस कार्य में लग जाते हैं। बुनकर ज्यादातर मुसलमान और कुछ हिन्दू भी हैं। करघे की खटर-पटर के बीच बुनकर मस्ती में साड़ियों की बुनाई करते हैं। काशी में साड़ी उद्योग मदनपुरा, लल्लापुरा, अलईपुर, आदमपुरा, जैतपुरा, चेतगंज, लोहता, बजरडीहा, नगवां में है। जहां साड़ी बुनाई का काम जोर-शोर से होता है। यहां से निकली साड़ियों की कीमत उसकी गुणवत्ता और ग्राहकों की पसंद पर निर्भर करता है। फिर भी साड़ियों की कीमत की शुरूआत 2 हजार से होती है। बनारसी साड़ी में इस्तेमाल होने वाले रेशमी धागे ज्यादातर कर्नाटक प्रदेश के बंगलौर शहर से यहां आते हैं। साथ ही काश्मीर, पश्चिम बंगाल, बिहार समेत अन्य जगहों से भी धागे आते हैं। बुनाई में खासकर मलवरी रेशम का प्रयोग किया जाता है।
मलवरी रेशम 2 प्लाई टवीस्टेड यार्न होता है। जिसे बनारसी भाषा में कतान कहा जाता है। बनारसी साड़ियों में बूटी, बूटा, कोनिया बेल, जाल और जंगला झालर मोटिफ का प्रयोग पारम्परिक रूप से होता है।
काशी की लुप्त होती वाशपेंटिंग कला
परिवर्तन इस संसार और प्रकृति की अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है। जीव जन्तु, पशु-पक्षी, वनस्पति और कला संस्कृति, भाषा, बोली सभी कुछ बदलती रहती है। बदलाव की इस प्रक्रिया में विकास और विनाश भी एक साथ ही अनवरत चल रहे हैं।
उपरोक्त सिद्धान्त कला के क्षेत्र में भी पर्याप्त रूप से देखने को मिलता है। इसके अनेक उदाहरणों में लुप्त हुई दृश्य कला की वाश पेंटिंग विधा को भी लिया जा सकता है। दो तीन दशक पूर्व काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कलाकारों में जलरंगों से चित्र चित्राणि की यह प्रभावी विद्या प्रतिष्ठा का विषय रही है।
लेकिन आज इस विधा से चित्र बनाता यहां कोई नहीं दिखता और इस विधा के जानकार भी अब यहाँ नहीं रहे। कभी इस विधा से गहरे जुड़े काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के दृश्य कलासंकाय के एक मात्र वाशपेंटिंग विशेषज्ञ वरिष्ठ कलाकार वेद प्रकाश का कहना है कि सरलतम कला तकनीकों के विकास से लम्बी प्रक्रियाओं को प्राथमिकता दे रहा है।
वाशपेंटिंग के बन्द होने के कारणों में सबसे प्रमुख कारण यही है। वाशपेंटिंग चित्रों में रंग भरना फिर धुलना, सुखाना। पुनः रंग भरना और धूल सुखाकर फिर रंग भरना। इस प्रक्रिया को ग्यारह और इक्कीस बार लगातार दुहराना पड़ता है। जिसके चलते कलाकार को अपनी कलाकृति पूरी करने में लम्बा समय लग जाता था। जिसमें कभी पानी के प्रभाव से कागज खराब हो जाता, तो कभी अन्य व्यवधानों के चलते कलाकृति का निर्माण बीच में ही रुक जाता। इस सप्ताह कभी-कभी कलाकार के सारे किये कराये पर पानी फिर जाता। जबकि आयल और पोस्टर कलर तथा अन्य आधुनिक कला विधाओं के सामने इस प्रकार की समस्याएं बहुत कम है।
चीन से चलकर कलकत्ता के बंगाल स्कूल आफ आर्ट में पहुंची यह विदेशी कला बाद में प्रयाग से लखनऊ होती हुई बनारस पहुंची थी। इस कला विधा में कागज का विशेष महत्व होता था। इसके लिये हैण्डमेड या कैंटपेपर और वाशमैन का प्रयोग होता था। कागज की सतह दानेदार होती थी, कागज ऐसा लिया जाता था जिसमें अन्दर तक रंग न घुसे। लगाने के बाद रंग अपना रूप न बदले। इस कार्य के लिये बन्धित ड्राइंग करने के बाद ही कलाकृति का निर्माण आरम्भ किया जाता था। रंग भरने के बाद कागज को ट्रे में डूबोकर एक से आधे घंटे तक रख दिया जाता था। पुनः उसे सुखाकर मुलायम ब्रश से उस पर पानी से धुलाई की जाती थी, धुलाई के बाद सुखाकर पुनः रंग लगाया जाता था। इस पूरी पेंटिंग के दौरान कागज को किसी लकड़ी या अन्य किसी वस्तु के फ्रेम पर कसकर रखा जाता जिससे कागज सिकुड़ कर लहरदार न हो जाये। इस विधा द्वारा काशी में मूर्त और अमूर्त दोनों तरह के चित्रों का निर्माण हुआ है।
भारत कला भवन में इस शैली के विख्यात कलाकारों की कृतियां आज भी संग्रह में देखने को मिल जाती है। जिसे देख कला की इस विधा का अच्छी तरह अन्दाजा लगाया जा सकता है।