दार्शनिक

काशी के दार्शनिक

भारतीय दर्शन में बनारस के दार्शनिकों का सदैव ही महत्वपूर्ण योगदान रहा है तथा इन दार्शनिकों की सुदीर्घ परम्परा रही है। समकालीन भारतीय संस्कृति को प्रभावित करने वाले दार्शनिक जिनका सम्बन्ध बनारस से रहा उनके संक्षिप्त परिचय पर प्रकाश डाल रहे हैं- डॉ0 अनूपपति तिवारी।
भारत रत्न डॉ0 भगवानदास- (12 जनवरी 1869-18 सितम्बर 1958) भारतीय थियोफिस्ट तथा समाजसेवी थे। वे हिन्दुस्तानी कल्चर सेसायटी से सम्बद्ध थे जो दंगों के विरूद्ध कार्य करने के लिए था। सन् 1955 ई0 में आपको भारत रत्न से विभूषित किया गया। आपने लम्बे समय तक ब्रिटिश भारत में सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली में कार्यरत रहे। आपने अनेक ग्रंथों की रचना की जैसे – 
1- ‘ए कॉन्कार्डेन्स डिक्शनरी टू दि योगसूत्र ऑफ पतंजलि (1938)’’ 
2- ए फिव दथसू एबाउट थियोसॉफी (1889)।
3- एन्शियट सॉल्यूशन ऑफ माडर्न प्राबल्मस (1933)।
4- दि सुपर फिजिक्स ऑफ दि ग्रेट वार (1916)।
5- दि रिलिजन ऑफ थियोसॉफी (1911)।
महामहोपाध्याय पं0 गोपीनाथ कविराज – तन्त्रशाó के तलस्पर्शी ज्ञाता, भारतीय विद्या का चलता फिरता विश्वकोश कहे जाते थे। आप विद्वान के साथ-साथ पहुँचे हुए साधक, तन्त्रशाó के सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक दोनों पक्षों के ज्ञाता थे। अतः विद्वता, साधना और स्थितप्रज्ञता का मणिकांचन संयोग इनके व्यक्तित्व की प्रधान विशिष्टता है। 
1- भारतीय संस्कृति एवं साधना भाग-1 व 2
2- तान्त्रिक वांग्मय में शात्र्य-दृष्टि 
3- काशी की सारस्वत साधना
4- तान्त्रिक संस्कृति के अलावा अंग्रेजी, बांग्ला की कई महत्वपूर्ण ग्रंथ इनके प्रमुख निबन्धों का संग्रह निम्नवत प्रकाशित हो चुका है।
आचार्य नरेन्द्र देव- (1889-1956) गांधी युग के शीर्षस्थ राष्ट्रीय विभूतियों में से एक हैं। विद्या एवं संस्कृति के क्षेत्र को उनका योगदान महŸवपूर्ण है। ये संस्कृत, पाली तथा प्राकृत के विद्वान होने के साथ ही अंग्रेजी फ्रेंच, जर्मन एवं फारसी के गंभीर ज्ञाता थे। महात्मा गांधी विद्यापीठ से वे अध्यापक, अध्यक्ष आचार्य तथा संकायाध्यक्ष के रूप में लगातार 35 वर्षों तक संबद्ध रहे, इसके बाद वे लखनऊ विश्वविद्यालय तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति पद को भी सुशोभित किये। वसुवन्धु-कृतं अधिधर्मकोश’ के पुसे-कृत फ्रेंच अनुवाद को हिन्दी में भाषान्तरित कर बौद्ध दर्शन को नया आयाम दिया। बौद्ध धर्म, मिलिन्द पंह्,ों महाकच्चान कृत’’ नेŸिा प्रकरण’’ बुद्धघोष चरित विमुद्धिमग्गो जैसे विटकवाह्य ग्रंथों को आधार बनाया, विज्ञप्ति मात्रता सिद्धि ग्रंथ का भी अनुवाद किया। समृद्ध आचार्य नरेन्द्र देव के वाग्मिता ने यह सिद्ध किया कि हिन्दी भी विचार की भाषा है। उन्होंने हिन्दी भाषा में उच्च कोटि के दार्शनिक विचार प्रस्तुत किया है। 
पùभूषण डॉ0 बी0एल0 आत्रेय – आप भारत के अद्वितीय चिंतकों में से एक थे। आपने भारतीय मनीषियों को एक नया आयाम दिया। आपकी दार्शनिक दृष्टिकोण आध्यात्मिक तŸवमीमांसीय, बौद्धिक, वैज्ञानिक नैतिक तथा सामाजिक थे। आप 1947-1958 तक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के दर्शन एवं धर्म विभाग के विभागाध्यक्ष रहे। आपने डी0लिट् की उपाधि डॉ0 सर्वपल्लि राधाकृष्णन के शोध निर्देशन में ‘‘द फिलॉसफी ऑफ योगवाशिष्ठ’’ विषय पर शोध किया। दर्शन जगत में आपका योगदान अप्रतिम है। 
डॉ0 गंगानाथ झ्ाा – बीसवीं शताब्दी के अंग्रेजी भाषा-वेŸाा, हेम्नः परमामोदः (सोने में सुगन्ध) की उक्ति को चरितार्थ करने वाले, ‘हिन्दू ला इन इट्स सोर्सेज’ पुस्तक के लेखक हैं आप प्रयाग विश्वविद्यालय में वाइस चान्सलर रहे। इनके नाम पर प्रयाग में ‘गंगानाथ झ्ाा रिसर्च इन्स्टीटयूट’ की स्थापना की। जो अब गंगानाथ संस्कृत विद्यापीठ के नाम से जाना जाता है। उच्चकोटि के आस्तिक तथा संयमी पुरुष झ्ाा जी नियमितरूप से लेखन कार्य करते थे। महŸवपूर्ण कार्यों में डॉ0 थीबों के साथ विद्याख्यलिखित विवरण प्रमेय-संग्रह नाम प्रौढ़ वेदान्तग्रंथ का अंग्रेजी में अनुवाद किया। इसके बाद प्रशस्तवाद भाष्य का अंग्रेजी में अनुवाद। 1909 में प्रभाकर स्कूल ऑफ मीमांसा पर शोध उपाधि प्रयाग विश्वविद्यालय से ग्रहण किया। उनके महत्वपूर्ण ग्रंथ निम्नलिखित हैं-
1- दि फिलासोफिकल डिसिप्लिन
2- पूर्व मीमांसा इन इट्स सोर्सेज 
3- शंकर-वेदांत 
वागीश शाóी – इन्हें वी0पी0टी0 वागीश शाóी के नाम से भी जाना जाता है। अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृत व्याकरणविद्, प्रख्यात भाषा विज्ञानी, तान्त्रिक और योगी के रूप में काशी में प्रसिद्ध जन्म म0प्र0 में हुआ था। ये सं0स0वि0 में रीसर्च इन्सटीट्य्ाूट के प्रो0 एवं निदेशक के रूप में कार्य किये। उनकी प्रमुख दार्शनिक ग्रंथ निम्नवत है-
1- पराचेतना की यात्रा
2- शक्ति शिव और योग
3- संवित् प्रकाश
4- त्र्यम्बकम् यजामहे
इसके अतिरिक्त इनके डिक्सेनरी भी सम्पादित हुए हैं।
1- वामन पुराण विषयानुक्रम 
2- इटीमोलोजिकल बुन्देली डिक्सेनरी
इन्होंने संस्कृत व्याकरण सीखाने के नई तकनीकी वाग्योग की खोज की जो ूूूण्अवहलवहंण्बवण्पद पर उपलब्ध है।
टी0 आर0 वी0 मूर्ति – तिरुपŸाूर रामशेषय्यर वेंकटाचलमूर्ति का जन्म 15 जून 1902 को एक संस्कारयुक्त कुलीन मध्यम वर्गीय ब्राह्मण परिवार में हुआ। बालक मूर्ति का पारिवारिक परिवेश जीवन में सत्य, निष्ठा देशभक्ति एवं विद्या के प्रति सचेष्ट अन्तःज्योति को दीप्त करने में सहायक रहा। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा पहले तिरुपŸाूर में तथा बाद में तिरुचिरापल्ली में हुई जहां उन्हेंने बिशप हीबर कालेज में प्रारम्भिक स्नातकीय अध्ययन किया। महात्मा गांधी द्वारा संचालित होम रूल आन्दोलन में युवावस्था (17-18 वर्ष की अवस्था) में ही शामिल हो जाने के कारण उनकी कालेज की शिक्षा बाधित हुई इस आन्दोलन का एक अंश ब्रिटिश सरकार द्वारा संचालित कालेजों, कचहरियों एवं अन्य सरकारी सेवाओं का बहिष्कार था। कालेज छोड़कर युवक मूर्ति तथा उनके अग्रज गोविन्दराज शर्मा लगभग 2000 मील की पदयात्रा कर उŸार भारत आये, जहां श्री वेंकटाचलमूर्ति ने शिक्षा के दूसरे चरण में प्रवेश किया। गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार के राष्ट्रीय शिक्षा केन्द्र में उनके एक वर्ष के निवासकों, उनके परवर्ती संस्कृत अध्ययन का प्रशिक्षु काल कहा जा सकता है। 
1925 में श्री मूर्ति ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। तत्कालीन स्वातंत्र्य आन्दोलन के अग्रणी नेता पण्डित मदनमोहन मालवीय द्वारा स्थापित काशी हिन्दू विश्वविद्यालय स्वयं भारतीय राष्ट्रीयता आन्दोलन की उपज थी और काशी तो हिन्दू शाóों के अध्ययन का प्रसिद्ध पीठ था ही जो संस्कृत विद्या एवं व्याकरण से जुड़े देश के शीर्षस्थ विद्वानों को मंच प्रदान करता था। गवर्नमेंट संस्कृत कालेज, बनारस इस कथन की सत्यता का जीवन्त प्रमाण था।
1927 में प्रोफेसर मूर्ति ने हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृत एवं दर्शन के साथ बी0ए0 तथा 1929 में दर्शन में एम0ए0 की उपाधि प्राप्त की। 1929 में ही प्रोफेसर मूर्ति ने संस्कृत कालेज से वेदान्त में शाóों की परीक्षा, 1941 में व्याकरण में आचार्य की परीक्षा उŸाीर्ण की। संस्कृत कालेज में उन्हें पण्डित बालकृष्ण मिश्र, पण्डित कालीप्रसाद मिश्र तथा पण्डित देवनारायण तिवारी जैसे उ˜ट विद्वानों से शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला। 1948 में प्रोफेसर मूर्ति को उनके शोध प्रबन्ध ‘माध्यमिक डायलेक्टिक’ के लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की शीर्षस्थ उपाधि डी0लिट से अलंकृत किया गया। 
भारतीय दर्शन के ‘विचारक’ के रूप में प्रोफेसर मूर्ति के निर्माण में मुम्बई के समीप अमलनेर के इन्स्टिट्य्ाूट ऑफ फिलास्फी’ में 1926-36 तक प्रारम्भ में फेलो तथा बाद में संकाय के सदस्य के रूप में व्यतीत किये गये सात वर्ष विशेष महत्व के थे। यह संस्थान अपने ढंग का अकेला था जिसका स्पष्ट उद्देश्य वेदान्त के रुझ्ाान के साथ सर्जनात्मक दार्शनिक चिन्तन को विकसित एवं प्रोत्साहित करना था। फिलासोफिकल ‘क्वार्टरली’ इस संस्थापक एक अंग था। यह पत्रिका बीसवीं शती के तीसरे चौथे एवं पांचवें दशकों में मौलिक भारतीय दार्शनिक निबन्धों को प्रकाशित करने वाली एकमात्र पत्रिका थी। 
17 मार्च 1986 को 84 वर्ष की अवस्था में इस युगपुरुष का देहावसान उनके वाराणसी स्थित गृह में हुआ। 
प्रो0 नन्द किशोर देवराज – उच्चकोटि के दार्शनिक एवं भारतीय संस्कृति एवं दर्शन के व्याख्याता के रूप में स्वातंत्र्योŸार भारतीय दर्शन में सर्जनात्मक मानववाद के प्रणेता प्रो0 देवराज का जन्म 03/06/1917 ई0 में उŸार प्रदेश के रामपुर कस्बे में हुआ था। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक (1936) एवं वेदान्त शाóी और व्याकरण मध्यमा की शिक्षा प्राप्त कर उन्होंने दर्शनशाó में एम0ए0 और डी0 फिल्0 (1942) की उपाधि इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राप्त की। इनके शोध उपाधि का विषय श्ैंदांतंश्े ज्ीमवतल व िज्ञदवूसमकहमश् है। अपने अध्यापकीय जीवन की शुरूआत उन्होंने (आरा) बिहार से की और तदन्तर लखनऊ विश्वविद्यालय में नियुक्त हुए (1948-60)। इसी अवधि में उन्हें लखनऊ विश्वविद्यालय से ‘दर्शन एवं संस्कृति’ विषय पर डी0 लिट्0 की उपाधि प्रदान की गई। 1960 ई0 में वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में शियाजी गायकवाड़ प्रोफेसर ऑफ इण्डियन सिविलाइजेशन एण्ड कल्चर पद पर नियुक्ति हुए जहाँ अपनी सेवा निवृŸिा पर्यन्त दर्शनशाó के उच्चानुशीलन अध्ययन केन्द्र का निर्देशन करते हुए अपनी दार्शनिक साधना को उत्कर्ष प्रदान किया। इसके अतिरिक्त वे अमेरिका के हवाई विश्वविद्यालय तथा सागर विश्वविद्यालय (मध्य प्रदेश) में अतिथि भी रहे। भारतीय दार्शनिक अनुसन्धान परिषद् एवं भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान-शिमला के फेलो के रूप में भी उन्होंने महŸवपूर्ण कार्य किया था। अखिल भारतीय दर्शन परिषद् के अध्यक्ष (जयपुर अधिवेशन) और इण्डियन फिलॉसिफिकल कांग्रेस के जनरल प्रेसीडेण्ट (1972) के पद को भी उन्होंने सुशोभित किया तथा विभिन्न कालावधियों में दार्शनिक त्रैमासिक, आन्विक्षिकी, युग चेतना एवं युग साक्षी जैसी पत्रिकाओं के सम्पादक भी रहे। दर्शनशाó के हिन्दी एवं आंग्ल भाषीय इतिहासपरक पुस्तकों के अतिरिक्त अपने सर्जनात्मक मानववादी चिन्तन के विभिन्न कल्प एवं सोपान के रूप में उनकी महŸवपूर्ण कृŸिायाँ-संस्कृति का दार्शनिक विवेचन, पूर्वी और पश्चिमी दर्शन, भारतीय संस्कृति: महाकाव्यों के आलोक में दर्शनः स्वरूप, समस्याएँ एवं जीवन-दृष्टि, दर्शन, धर्म-अध्यात्म और संस्कृति, दि फिलॉसफी ऑफ कल्चर: एन इन्ट्रोडक्शन ऑफ इण्डिया, ‘हिन्दुइज्म एण्ड क्रिश्चियनिटी, फिलॉसफी रेलीजन एण्ड कल्चर, हिन्दुइज्म एण्ड मार्डन एज, टूवार्डस ए थ्योरी ऑफ परसन एण्ड अदर एस्सेज, फ्रीडम क्रियेटिविटी एण्ड वैल्यु, ह्यूमेनिज्म इन इण्डियन थाट, लिमिट्स ऑफ डिससग्रेमेन्ट ऐन इण्ट्रोडक्शन टू शंकर  थ्योरी ऑफ नॉलेज इत्यादि है। इसके अतिरिक्त तीन ग्रन्थों का सम्पादन भी किया है- अ सोर्स बुक ऑफ शंकर, भारतीय दर्शनशाó का इतिहास और भारतीय दर्शन।
प्रो0 देवराज की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि दर्शन के अतिरिक्त हिन्दी साहित्य के महान कवियों और लेखकों में इनकी गणना की जाती है। डॉ0 नगेन्द्र और डॉ0 हरदयाल द्वारा सम्पादित हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में इन्हें मनोवैज्ञानिक उपन्यासकार माना गया है। इनके उपन्यास ‘अजय की डायरी’ और ‘पथ की खोज’ तथा काव्य संकलन ‘इतिहास पुरुष’ और ‘उपालम्भ पत्रिका’ छायावाद का पतन’ ने इन्हें हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में शीर्ष स्थान प्रदान किया। इन सबके अतिरिक्त हिन्दी साहित्य में इनकी अनेक कृŸिायाँ महŸवपूर्ण हैं- भीतर का घाव, दोहरी आग की लपट, हम वे और आप, रोड़े और पत्थर, बाहर-भीतर, दूसरा सूत्र, न भेजे गए पत्र (उपन्यास); प्रणय-गीत, जीवन-रश्मि, धरती और स्वर्ग, उर्वशी ने कहा, इला और अमिताभ, सुबह के बाद, आहत आत्माएँ, ऋतुचक्र (काव्य-संकलन); प्रतिक्रिया, साहित्य समीक्षा और संस्कृतिबोध (आलोचना) इत्यादि।
प्रो0 देवराज प्राप्त देह से न्यूनाधिक रूप में अपना काम पूरा करके 11/09/1999 (लखनऊ) में इस दुनिया से विदा ले गये। इन्हें अपने रचनाकर्म और कृŸिायों पर अनेकों पुरस्कार और प्रशंसा मिली।
प्रो0 देवराज के अनुसार सृजनात्मक मानववाद या संस्कृति-दर्शन का केन्द्र मनुष्य है, न कि ईश्वर। मनुष्य की सृजनात्मक प्रक्रिया का दर्शन हमें प्राकृतिक व्यवस्था को बदलने में तथा उसकी सौन्दर्यात्मक अभिरूचि में होता है। मनुष्य बाह्य घटनाओं के प्रति अपनी प्रतिक्रिया विभिन्न ढंगों से व्यक्त करता है। अपने छात्र-जीवन में वेस्टरमार्क की ‘एथिकल रिलेविटी’ से प्रभावित प्रो0 देवराज अपने दर्शन द्वारा उनके द्वारा उठायी गयी समस्या ‘मूल्यों की सापेक्षिकता’ का समाधान ढूंढने का प्रयत्न करते हैं। इस क्रम में वे पाश्चात्य मानववाद और भारतीय आदर्शवाद का समन्वय करने की कोशिश करते हैं। एक ओर प्रो0 देवराज लेमाण्ट और शिलर के चिन्तन का विवेचन कर अधिक संतोषजनक व्याख्या प्रस्तुत करते हैं तो दूसरी ओर वे कोरे आदर्शवाद का भी खण्डन करते हैं। उनका संस्कृति- दर्शन प्रकृतिवाद एवं आदर्शवाद के मध्य एक नवीन दर्शन की स्थापना करता है। प्रकृतिवाद के स्थूल एवं सीमित दृष्टिकोण का खण्डन कर वे मनुष्य की धार्मिक अनुभूति के कारण उसे विश्व-मानव के स्तर पर ला खड़ा करते हैं। मनुष्य अपने क्षुद्र स्वार्थों का त्याग कर मानवता के विस्तृत आयाम को अपनाता है। इनकी प्रमुख चिन्तनपरक रचनाओें में प्रामाणिक मूल्यबोध और जीवन-विवेक को पाने या विकसित करने का प्रयत्न मिलता है। 
प्रो0 अशोक कुमार चटर्जी – प्रो0 ए0के0 चटर्जी टी0आर0वी0 मूर्ति के निर्देशन में शोध कार्य किये। तर्कशाó तथा विश्लेषणात्मक दर्शन के प्रोफेसर के रूप में 1950 से 1963 आगरा में अध्यापन कार्य किये। 1963 से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के एडवांस स्टडी सेंटर को ज्वाइन किया और 1985 में दर्शन एवं धर्म विभाग के विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृŸिा ली आप बौद्ध दर्शन के असाधारण विद्वान (विशेषकर योगाचार) हैं और दार्शनिक धारा को प्रभावित करते रहे हैं। 
प्रो0 डेविड जे0 कलूपहन ने प्रो0 ए0के0 चटर्जी के बारे में ठीक ही कहा है कि ‘‘अशोक कुमार चटर्जी ने योगाचार पर हुए कुछ महŸवपूर्ण कार्यों में से एक महŸवपूर्ण कार्य किया है। दुर्भाग्य से इनके ग्रंथ योगाचार विज्ञानवाद को वह प्रसिद्धि नहीं मिली जो उनके गुरू प्रो0 टी0आर0वी0 मूर्ति के ग्रंथ दी सेन्ट्रल आइडिया ऑफ माध्यमिक फिलासफी को मिली। आपके महत्वपूर्ण ग्रंथ निम्नवत हैं-
1- दि योगाचार आइडलिज्म (1962)
2- रीडिंग्स आन योगाचार आइडलिज्म (1971)
3- फैक्ट्स आ बुद्धिस्ट थॉट (1973)
4- साक्षी इन वेदान्त (1978)
इसके अलावा अन्य लघु ग्रंथों का भी प्रणयन किया है। प्रो0 ए0के0 चटर्जी एक बेहतरीन एवं उर्जावान शिक्षक हैं। आज भी आप दर्शन के गम्भीर चिन्तन में सक्रिय हैं तथा बनारस के दार्शनिक समाज के प्रेरणास्रोत हैं। अपनी सहज एवं सूक्ष्म दार्शनिक विचारों से लगातार विद्वानों में आदर प्राप्त करते रहे हैं। 
प्रो0 रमाकान्त त्रिपाठी- प्रो0 रमाकान्त त्रिपाठी का जन्म (1918-1981) में हुआ बी0एच0यू0 से एम0ए0 किया। प्रो0 त्रिपाठी ने प्रतिष्ठित सयाजिराव गायकवाड़ फेलों के रूप में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रो0 राधाकृष्णन के निर्देशन में स्पिनोजा एवं अद्वैत वेदान्त कर तुलनात्मक अध्ययन पर अपना महŸवपूर्ण शोध कार्य किया। प्रो0 त्रिपाठी ने अपने दार्शनिक जीवन के अध्यापकीय वृŸिा का प्रारम्भ आर0के0 कालेज मथुरा से किया तत्पश्चात् काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के दर्शन एवं धर्म विभाग में लेक्चरर, रीडर, प्रोफेसर के रूप में कार्य किया। लम्बे समय तक ब्राक यूनिवर्सिटी कनाडा के वीजिटिंग प्रोफेसर रहे। हिन्दी, अंग्रेजी में इनको उच्च स्तरीय आलेख एवं विशिष्ट व्याख्यान राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित इनकी महŸवपूर्ण कृतियां ‘‘स्पिनोजा इन दी लाइट आफ अद्वैत वेदान्त’’, ‘‘स्टडिज इन फिलासफी एण्ड रिलिजन एवं ब्रह्मसूत्र चतुः सूत्री (हिन्दी व्याख्या) इत्यादि प्रमुख हैं। 
प्रो0 एन0एस0एस0 रमन- बहुभाषाविद्- अन्तर्राष्ट्रीय स्तर धर्म-दर्शन के विद्वान, इंग्लैण्ड जर्मनी से शिक्षा प्राप्त अनेकों विदेशी भाषाओं के ज्ञाता चण्डीगढ़ विश्वविद्यालय में असिस्टेन्ट प्रोफेसर तथा एसोसीएट प्रोफेसर के बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के दर्शन एवं धर्म विभाग में प्रोफेसर बने इन्डियन एडवांस स्टडी सेन्टर शिमला के फेलो के रूप में सेवा देते हुए हिन्दू धर्म दर्शन में उल्लेखनीय योगदान है तथा ‘पुराण एवं हिन्दुइज्म’’ पर दो वाल्यूम ग्रंथो की सम्पादित भी किया है। 
प्रो0 रघुनाथ गिरि – सन् 1931, बिहार सिवान के दीनदयालपुर में जन्म हुआ। बी0एच0यू0 से उन्होंने न्याय-वैशेषिक में दर्शनाचार्य तथा दर्शनशाó में एम0ए0 तथा पी0एच0डी0 की उपाधि प्राप्त की। आपने अध्यापकीय जीवन की शुरूआत दर्शन विभाग महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी से किया वहीं प्रोफेसर, विभागाध्यक्ष एवं संकायाध्यक्ष इत्यादि पदों पर रहते हुए सेवानिवृŸा हुए। गिरि को न्याय् वैशेषिक, सांख्य-योग एवं पुराणों के अधिकृत विद्वान के रूप में भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों में आमंत्रित किया जाता रहा है। दर्शन के व्याख्यान के लिए 1992 में अमेरिका के विभिन्न विश्वविद्यालयों में गये। गवेषणात्मक शोध-निबन्धों के अतिरिक्त बौद्ध तर्क भाषा’ (हिन्दी व्याख्या) एवं दी फीलॉसफी ऑफ दि पुराणाज’ इनकी बहुमान्य कृतियाँ है। आज भी प्रो0 गिरि अपने वार्द्धक्य की परवाह किये बिना दार्शनिक गतिविधियों में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। 

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