बुलबुल लड़ैया- मस्तमौला काशीवसियों के खेल भी बड़े ही निराले रहे हैं। दूसरों को सामान्य से लगने वाले खेल में भी बनारसियों को रोमांच की पराकाष्ठा का अनुभव होता था। ऐसा ही एक खेल बुलबुल लड़ैया बनारसियों का बड़ा ही पसंदीदा रहा है। मकर संक्रांति पर्व के दिन काशी में पतंगबाजी के अलावा जो प्रमुख खेल होता था वह बुलबुल लड़ैया था। दिन भर लोग इस खेल का जमकर लुत्फ उठाते थे। इस खेल में बुलबुलों को उतारने के कई दिनों पहले से ही बहेलिये दमदार बुलबुलों को प्रशिक्षित करते थे। लड़ाई की बारिकियों से बुलबुलों को प्रशिक्षित किया जाता। इस दौरान उन्हें पौष्टिक आहार भी दिया जाता जिससे कि लड़ाई वाले दिन बुलबुल तंदुरूस्त रहे। प्रशिक्षित बुलबुलों में से सबसे तेज बुलबुलों का चयन किया जाता है। खिचड़ी वाले दिन बुलबुल लड़ैया का दंगल लगता है। इस दंगल में कई बुलबुल आमने-सामने होते हैं। फिर शुरू होता है जी-जान से हमला। बुलबुल एक दूसरे पर ऐसे झपटते हैं कि कोई पुरानी दुश्मनी रही हो। फिर क्या बुलबुलों के हर एक दाव पर देखने वालों को रोमांच का अदभुत् अनुभव होता है। इस खेल में लोगों का उत्साह देखते ही बनता है। वहीं, इस खेल में बुलबुल चिड़िया के अलावा अन्य दूसरे लड़ाका प्रवृत्ति के पक्षी भी अपना जौहर दिखाते हैं। हालांकि वर्तमान में पहले की तुलना में यह खेल लगभग समाप्त सा हो चुका है फिर भी यदा-कदा देखने को मिल जाता है।
मोण्डर- औरों से बिल्कुल अलग यह प्राचीन शहर ऐसे कई खेलों का गवाह रहा है जो अनूठे रहें हैं। यहां खेलों को मनोरंजन के अलावा भी वर्चस्वता के रूप लिया जाता है। काशी के खेलों की परंपरा में एक प्रमुख खेल मोण्डर भी रहा है। यह खेल शारिरिक क्षमताओं का न होकर मंत्रों पर आधारित रहा है। जिसका मत्रों पर अच्छा पकड़ वहीं इस खेल का सिकंदर बनता था। नाग पंचमी पर्व पर होने वाला खास तरीके का यह खेल दो प्रतिभागियों के बीच होता था। प्रतिभागी एक दूसरे पर मंत्र की शक्ति का प्रयोग कर गदहे की तरह चलने पर मजबूर कर देते जिसके मंत्र में अधिक प्रभाव होता वहीं विजेता बनता। वहीं मंत्र के प्रभाव से दूसरे प्रतिभागी के शरीर में खुजली भी होने लगती। इस रोमांचक खेल को देखने के लिए काफी संख्या में लोग मौजूद रहते थे। यह खेल भी इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर रह गया है।
मुक्की- काशी की मस्ती को बयां करने वाला मुक्की खेल बड़ा ही मजेदार होता था। इस खेल में लोग एक-दूसरे पर मुक्कों की बरसात कर देते थे। बावजूद इसके किसी के एक दूसरों के बीच प्रेम व्यवहार में कोई कमी नहीं आती थी। कार्तिक पूर्णिमा के दिन दुर्गाघाट के फर्श पर तीन दिनों तक यह खेल चलता था। इस खेल के दौरान काफी संख्या में लोग सीढ़ीनुमा गैलरी के एक छोर से लुढ़कते हुए नीचे फर्श तक जाते हैं थे फिर शुरू हो जाती थी मुक्केबाजी। लोग एक-दूसरे पर हो-हल्ला मचाते हुए मुक्का चलाने लगते थे। इस रोमांचकारी खेल में हर आयु वर्ग के लोग शामिल रहते थे। मुक्केबाजी के दौरान माहौल काफी जोशपूर्ण रहता था। हालांकि कुछ ही समय में स्थिति सामान्य हो जाती थी। इस खेल को कोई अंजान व्यक्ति देखता तो उसे ऐसा लगता कि लोगों में सही में लड़ाई हो रही है। यह खेल भी अब गुजरे जमाने की बीती याद बनकर रह गया है।
गहरेबाजी- गहरेबाजी यानी इक्कादौड़। आधुनिक मनोरंजन साधनों के प्रार्दुभाव के पहले पांरपरिक खेल गहरेबाजी काशी का प्रमुख मनोरंजन खेल हुआ करता था। सबसे तेज और बलशाली घोड़ों को लोग इक्के के साथ तैनात करते थे। ऐसे कई इक्के खड़े होते और फिर शुरू होती गहरेबाजी। इस रोमांचकारी दौड़ में घोड़ों की शक्ति और तीव्रता के साथ उसे नियंत्रित करने वाले चालक के कौशल का भी खूब प्रदर्शन होता था। इस दौरान घोड़े, चालक व इक्के के समग्र प्रयास में जो श्रेष्ठ साबित होता वहीं विजेता होता था। अमूमन गहरेबाजी रामनगर की रामलीला के अवसर पर अवश्य होती थी। वहीं, राजातालाब एवं शिवपुर की गहरेबाजी भी मशहूर रही है। गहरेबाजी में प्रतिभाग करने वाले अधिकांश घोड़े बनारसी रईशों के हुआ करते थे। शौकीन रईश गहरेबाजी के लिए घोड़ों की रेख-रेख में काफी पैसा खर्च करते थे।