काशी के सांस्कृतिक उन्मेष में बंग समाज का योगदान

                                                                                                                      – अजय रतन बैनर्जी

    वाराणसी का नाम मन में आते ही हमारे सामने इस शहर के अनेक रूपों का खाका खिंच जाता है। वाराणसी अपने धार्मिक, आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक वैभव का समन्वय करते हुए भारत के बहुसांस्कृतिक स्वरूप का प्रतिबिम्ब भी प्रस्तुत करता है। प्राचीन काल से ही काशी धर्म एवं विद्या का केन्द्र होने की वजह से भारत के विभिन्न प्रान्तों एवं क्षेत्रों के मनीषियों, महापुरुषों, राजन्य वर्ग एवं धनिक व्यवसायिकों के आध्यात्मिक उन्नयन, ज्ञान-अर्जन एवं निवास का केन्द्र बना। भारत के प्रायः सभी भाषा-भाषी एवं वर्गों के समूहों ने बनारस की संस्कृति को उत्तरोत्तर महिमा मण्डित किया। बनारस के सांस्कृतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक एवं ज्ञान के क्षेत्र में बंगाल का अपना एक अलग योगदान रहा है। समाज के प्रायः प्रत्येक विद्या में इस प्रान्त से आए हुए मनीषियों का योगदान रहा है। इस लेख में सभी क्षेत्रों का वर्णन करना गागर में सागर भरने के समान होगा परन्तु हम बंग प्रदेश से आए हुए सन्तों के उल्लेख से ही अपनी बात शुरू करना चाहेंगे। चैतन्य महाप्रभु ने जगन्नाथपुरी से वृन्दावन की यात्रा-पथ में बनारस में कई महीनों तक निवास किया था। ये काशी के जतनबर मुहल्ले में निवास करते थे। उक्त स्थान का नाम अभी भी चैतन्यबट के रूप में जाना जाता है। इसके पश्चात नाम आता है मधुसूदन सरस्वती का। इनका जन्म स्थान (कोटाल पाढ़ा) था। काशी में इन्होंने विश्वेश्वर सरस्वती से अद्वैत वेदान्त एवं सन्यास की दीक्षा ग्रहण की। इनका पाण्डित्य सर्वतोमुखी था। ये वेदान्त, नव्य, न्यायादि अपादि एवं कृष्ण भक्ति में भी अतुलनीय थे। मधुसूदन सरस्वती की वेदान्त, न्याय एवं गीता भाष्य पर कई रचनायें हैं। सरस्वती जी ने स्वामी तुलसीदास के लिए एक श्लोक लिखा था-

         “आनन्द कानने काश्मां तुलसी जंग मस्तरूः।

         कविता मंजरी यस्य राम भ्रमर भूषिता।।

    फिर नाम आता है रामकृष्ण परमहंस एवं इनके शिष्य विवेकानन्द का। ये गुरू-शिष्य भी बनारस में आए एवं विवेकानन्द जी की प्रेरणा से रामकृष्ण अद्वैत आश्रम एवं अस्पताल की स्थापना हुई।

    इन्ही के समसायिक विशुद्धानन्द सरस्वती (गंध बाबा) का भी काशी में पदार्पण हुआ था। विशुद्धानन्द जी का आश्रम, विशुद्धानन्द कानन, मलदहिया में स्थित है इसी काल खण्ड में श्याम चरण लाहिड़ी महाशय भी काशीवास कर रहे थे। इनका निवास पुरानी दुर्गाबाड़ी के पास था एवं इसी क्रम में अनेक सन्तों का बनारस में आने की निरन्तरता बनी रही। जटिया बाबा व भारत सेवाश्रम के प्रतिष्ठाता स्वामी प्रणवानन्द जी के पश्चात माता आनन्दमयी का बनारस पदार्पण हुआ माता का आश्रम भदैनी में स्थित है। इस क्रम में अनेक सन्तों के नाम छूट गए होंगे वे हमारा अपराध क्षमा करें। काशी विद्वानों तथा संस्कृत के अध्येताओं के लिए जीविका की साधना स्थली भी रही है। बंग प्रदेश से आए हुए कुछ मनीषियों का वर्णन इस प्रकार है-

रघुदेव भट्टाचार्या (1608-88) : ये विद्वान बनारस में अपनी पाठशाला चलाते थे। इनकी लिखी पुस्तक में ‘निरूक्त प्रकाश’, ‘न्याय कुसमांजलीकारिका व्याख्या’, ‘द्रवसार संग्रह आदि है।

चिरंजीवी भट्टाचार्या : ये रघुदेव भट्टाचार्य के समसायिक थे। इनकी पुस्तक का नाम काव्य विलास है।

गोविन्द भट्टाचार्य : ये तत्कालीन बनारस के बंगाली पंडितों के नेता विद्यानिवास भट्टाचार्य के पौत्र थे। इन्होंने ‘न्याय रहस्य’ की रचना (1628-29) में की थी।

    सत्रहवीं शताब्दी के काशी के 69 विद्वानों ने कवीन्द्राचार्य सरस्वती के द्वारा यात्री करके समाप्त कर दिए जाने के उपलब्ध में उनके सम्मान में गद्य एवं पद्य में प्रशस्ति लिखी थी। इनमें भी कई बंगाली विद्वानों के नाम हैं। जयराम भट्टाचार्य रामदेव भट्टाचार्य, रामेश्वर पंचानन भट्टाचार्य, जगन्नाथ पंचानन भट्टाचार्य। रामदेव भट्टाचार्य, रामेश्वर पंचानन भट्टाचार्य, जगन्नाथ पंचानन भट्टाचार्य।

    इसके पश्चात पण्डित चन्द्रनारायण न्यायपंचानन 1823 ई0 में संस्कृत कालेज में न्याय के अध्यापक नियुक्त किए गए। इनके द्वारा वृत्ति लेकर अध्यापन कार्य करने को तत्कालीन बंगीय पण्डित समाज में घनघोर निन्दा की गयी थी। अमृतराय पेशवा विद्वानों को सम्मान देते थे। एक बार उनकी सभा में द्रविड़ देश के प्रकाण्ड दार्शनिक विद्वान अहोबल शास्त्री के साथ पंडित चन्द्रनारायण न्यायपंचानन का जमकर शास्त्रार्थ हुआ तो तीन दिन चला एवं विजय श्री श्री पण्डित चन्द्रनारायण को वरण किया, पेशवा ने इनको भरपूर सम्मान दिया। इनके पश्चात इन्हीं के शिष्य पं0 काशी प्रसाद भट्टाचार्य को संस्कृत कालेज में न्याय का अध्यापक नियुक्त किया गया।

पण्डित कैलाश चन्द्र शिरोमणि : इनका जन्म 1830 ई0 में वर्धमान में हुआ था। बाद में काशी में काशिराजकीय संस्कृत महाविद्यालय में लगातार चालीस वर्षों तक कार्य करते रहे। किसी कारणवश अवकाश प्राप्त करना चाहते थे, परन्तु इनकी उपस्थिति से कालेज को गौरवान्वित मानकर इन्हें अवकाश ग्रहण करने का कभी अवसर नहीं प्राप्त हुआ। ये संस्कृत कालेज के न्यास के गद्दी को आजीवन सुशोभित करते रहे। इन्होंने न्याय भाष्य पर एक टीका लिखी थी परन्तु वह अब अप्राप्य है।

पण्डित राखालदास न्यापरल : इनका अध्यापन कार्य नवद्वीप में हुआ था परन्तु 64 वर्ष की आयु में हथुवा महाराज कृष्ण प्रताप शाही के निमंत्रण पर काशीवास करते हुए अध्ययन, पूजन, अर्चन में अपने जीवन के अन्तिम 21 वर्ष व्यतीत किया। इनके द्वारा रचित ग्रंथों के नाम इस प्रकार हैं- (1) तत्वसार (2) अद्वैतवाद खण्डन (3) गदाधर न्यूनतावाद (4) शक्तिवाद रहस्य (5) विधवों द्वाह खण्डनम् (6) कवितावली आदि। ताराचरण तर्कश्ल : ये महाराजा ईश्वरी प्रसाद सिंह के प्रधान पण्डित थे तथा ताराचरण न्याय शास्त्र के विद्वान एवं सुकवि थे। दयानन्द स्वामी का जो शास्त्रार्थ दुर्गाकुण्ड के समीप आनन्दबाग में हुआ था उसमें पं0 ताराचरण जी ने मांग लिया था। इनके द्वारा चरित ग्रंथ है- (1) तर्क रत्नाकर (2) सत्यनारायण कला (3) काशिराज काननशतक
(4) श्रृंगार रत्नाकर आदि।

पण्डित तारानाथ तर्कवाचस्पति : संस्कृत भाषा के कोश निर्माताओं में पं0 तारानाथ का नाम अग्रगण्य है। ये ज्ञानर्जन के लिए कई बार काशी आये एवं अध्यापन से मुक्त होकर 1885 के अंत में पुन काशीवास को आये एवं अध्यापन में ही जीवन पर्यन्त लगे रहे। इनके द्वारा रचित ग्रंथ इस प्रकार है-

  1. सिद्धान्त कौमुदी की सरल टीका
  2. तत्व कौमुदी की व्याख्या।
  3. शब्दस्तोम महानिधि (संस्कृत कोष ग्रंथ)
  4. शब्दार्थरल
  5. वेणी संहार नाटक
  6. वाचस्पत्यम् ‘शब्कोश’

पण्डित जयनरायण तर्कपंचानन : ये ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के गुरू थे। 1872 ई0 इन्हें काशी लाभ हुआ। पंडित जयनारायण द्वारा रचित कई ग्रंथ है इनमें प्रसिद्ध ‘सर्व दर्शन संग्रह’ का बंगला अनुवाद है।

पण्डित सत्यव्रद सायश्रयी : ये वेद एवं व्याकरण के मूर्धन्य विद्वान थे। इन्होंने काशी में संस्कृत वैदिक पत्रिका (1867-1874) निकालते रहे।

पण्डित वामाचरण भट्टाचार्य : वामाचरण भट्टाचार्य कैलाश चन्द्र शिरोमणी के श्रेष्ठ शिष्यों में से थे एवं इनके निधन के पश्चात् वही स्थान इनको प्राप्त हुआ था। वामाचरण जी अग्निहोत्री थे एवं नित्य अग्नि की सेवा करते थे। इनके शिष्यों में एक से एक धुरधंर विद्वान हुये। काशी नरेश महाराज प्रभुनारायण जी इन्हें बहुत मानते थे।

पण्डित ताराचरण भट्टाचार्य वामाचरण भट्टाचार्य के मध्य भ्राता थे। इनकी दक्षता न्यायशास्त्र, साहित्य तथा अंग्रेजी में थी। पं0 ताराचरण ने बंगाली टोला हाईस्कूल, टीकामणि कालेज एवं गोयनका संस्कृत कालेज में अध्यापन कार्य किया। इनके द्वारा रचित ग्रंथ है :

  1. दशकुमार चरित की संस्कृत टीका, 2. भारत गीतिका, 3. संस्कृत नाटकों में स्वचरित गीतिका आदि। पं0 ताराचरण के पुत्र पण्डित विश्वनाथ भट्टाचार्य है जो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृत विभागाध्यक्ष थे।

पण्डित पंचानन तर्करत्न : पं0 पंचानन भारतीय दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान थे। ये 50 वर्ष की आयु में बनारस निवास करने के लिए आए थे एवं इन्होंने अर्वतनिक रूप से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया। इनके द्वारा रचित अनेक संस्कृत एवं बंगला ग्रंथ है।

पण्डित फणिभूषण तर्कवागीश : महामहोपध्याय फणिभूषण तर्क वागीश न्याय शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान थे। वाराणसी में टीकमणी संस्कृत कालेज वाद में कलकत्ते में संस्कृत कालेज एवं कलकत्ता विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया। इन्होंने संस्कृत एवं बंगला में अनेक ग्रंथों की रचना की है।

पण्डित अहिभूषण भट्टाचार्य : ये पं0 फणिभूषण तर्क वागीश के द्वितीय पुत्र थे। इन्हेंन काशीराज न्यास से प्रकाशित तीन पुराणों, कुर्म, वराह एवं वामन का अंग्रेजी में अनुवाद किया था।

पण्डित सुधीर रंजन भादुड़ी : पं0 सुधीर रंजन जी तंत्र एवं फलित ज्योतिष विषय के विद्वान थे, पण्डित जी के विषय में ‘पाल ब्रंटन’ ने अपनी पुस्तक ‘सर्च आफ सिक्रेट इण्डिया’ में विस्तार से लिखा है। इनके पास अपना 19300 पाण्डुलिपियों एवं 3200 मुद्रित पुस्तकों का संग्रह था।

श्री स्वामी ज्ञानानन्द जी : इनके पिता पं0 मधुसूदन मुखर्जी थे। स्वामी जी महाराज का जन्म कृष्ण जन्माष्टमी की मध्यरात्रि में मेरठ शहर में हुआ था। स्वामी जी के गुरू का नाम केशवानन्द था। इनके सानिध्य में उन्होंने वृन्दावन में कात्यायनी पीठ की स्थापना की एवं सनातन धर्म प्रचार के लिए भारत धर्म-महामण्डल की स्थापना की। महिलाओं की उन्नति एवं चरित्र निर्माण के लिए आर्य महिला पत्रिका का प्रकाशन एवं श्री विद्यादेवी के प्रयत्न से ‘आर्य महिला विद्यालय’ की स्थापना की। इनके द्वारा रचित अनेक ग्रंथ भी हैं जिनमें आठ खण्ड़ों में ‘धर्मकल्पद्रुम’ पुस्तक भी है जो कि वैदिक धर्म का विश्वकोष है। स्वामी ज्ञानानन्द जी का तिरोधान 1951 ई0 में काशी में हुआ।

पण्डित आदित्यराम भट्टाचार्य : पं0 आदित्यराम जी म्योर कालेज, इलाहाबाद में संस्कृत के प्रोफेसर थे। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय स्थापित होने पर वाइस चांसलर का उच्च पद ग्रहण कर काशी आए। पण्डित जी पं0 मदन मोहन मालवीय जी के गुरू थे। मालवीय जी ने संस्कृत ‘वासुदेव-रसानन्द’ में अपने गुरू आदित्यराम जी की संक्षिप्त जीवनी निबद्ध की है। बाबू प्रमदा दास मित्र : ये देवभाषा एवं अंग्रेजी दोनों विषयों पर विद्वता रखते थे। जब संस्कृत कालेज में एंग्लो विभाग की स्थापना हुई तो ये इस विभाग के अध्यापक पद पर नियुक्त किए गए। थियोसाफिकल सोसाइटी के संस्थापक कर्नल ऑल्काट के साथ काशी के पण्डितों के परामर्श करने की सभा अपने आवास पर आयोजित किए थे एवं कर्नल आल्काट के अंग्रेजी को संस्कृत में अनुवाद कर विद्वानों के सम्मुख बाबू प्रमदादास मित्र ने ही रखा था। डॉ0 वेलेन्टाइन द्वारा ‘साहित्य दर्पण’ का चतुर्थांश का ही अनुवाद हुआ था, अधूरे अंश का अनुवाद बाबू प्रसाद मित्र के द्वारा सम्पूर्ण किया गया था। इसी परिवार के बाबू विरेश्वर मित्र म्यूनिसिपल बोर्ड एवं प्रान्तीय ‘लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य थे। बनारस में जलकल की स्थापना के पीछे इनके उत्साह एवं दृढ़ता को भुलाया नहीं जा सकता है।

पण्डित क्षेत्रेशचन्द्र चट्टोपाध्याय : आप संस्कृत साहित्य एवं वेदों के प्रकाण्ड विद्वान थे एवं संस्कृत विश्वविद्यालय, बनारस में संस्कृत शोध संस्था के निदेशक के पद पर नियुक्त थे। बाद में इन्होंने संस्कृत विश्वविद्यालय में कुलपति के पद को भी कुछ समय सुशोभित किया।

पण्डित गोपीनाथ कविराज : महामहोपाध्याय पं0 गोपीनाथ कविराज संस्कृत साहित्य, भारतीय दर्शन, तंत्रशास्त्र, भारतीय विद्या के प्रकाण्ड विद्वान थे। विद्वान होने के साथ ही साथ साधक भी थे। पं0 गोपीनाथ जी ‘सरस्वती भवन’ के अध्यक्ष एवं बाद में संस्कृत कालेज के प्रिंसिपल बने। जब संस्कृत कालेज विश्वविद्यालय बना तो इन्हें प्रथम कुलपति के पद को सुशोभित करने को कहा गया परन्तु इन्होंने इस प्रार्थना को ठुकरा दिया एवं साधक के रूप में अपने दिन बिताने लगे। कविराज जी ने संस्कृत, बंगला, हिन्दी एवं अंग्रेजी चार भाषाओं में ग्रंथों की रचना की है।

    काशीवासी विद्वानों की चर्चा के पश्चात हम उन मनीषियों का उल्लेख भी करना चाहेंगे जिन्होंने वाराणसी के शिक्षण संस्थाओं की प्रतिष्ठा में सहभागिता व पूर्ण योगदान दिया था। इस विषय में अग्रणी ‘महाराज जय नारायण घोषाल’ थे। इन्होंने 1814 ई0 में प्रथम अंग्रेजी माध्यम स्कूल जिसका वर्तमान नाम ‘जय नारायण इण्टर कालेज’ है की स्थापना की। यह भारत में स्थापित प्राचीनतम अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में से एक हैं इसके अलावा महाराजा जय नारायण घोषाल ने 1827 ई0 में ‘गुरूधाम’ मन्दिर की प्रतिष्ठा भी की।

    ‘जय नारायण’ जी के समसायिक बंगाल के हुगली जिले के राजा ‘नृसिंह देवराय’ भी बनारस में थे। इन दोनों विद्वानों ने मिलकर ‘काशीखण्ड’ का बंगला अनुवाद ‘काशी परिक्रमा के नाम से 1809 में प्रकाशित किया था। राजा नृसिंह देवराय’ ने काशीवास करते हुए उड्डीश करवाया था। तंत्र का बंगला अनुवाद भी किया था।

    स्वर्गीय केशव चन्द्र मिश्र महाशय ने 1854 में बंगला एवं अंग्रेजी शिक्षा के लिए रामापुरा में ‘प्राइमरी इंग्लिश स्कूल’ नामक पाठशाला की स्थापना बंसत पंचमी के दिन की। कुछ दिनों के पश्चात स्कूल के स्थानभाव को देखते हुए स्वर्गीय महेश चन्द्र सरकार ने अपने निजी भवन में स्थानान्तरित किया। उस समय विद्यालय का नाम ‘एंग्लो वर्नाकुलर स्कूल’ था एवं 1886 ई0 में विद्यालय का नाम बदलकर ‘बंगाली टोला स्कूल’ हुआ।

    एंग्लो बंगाली इण्टर कालेज के प्रतिष्ठाता चिन्तामणि मुखर्जी महाशय ने पाण्डे हवेली में इस विद्यालय को प्रारम्भ किया था। विद्यालय के वर्तमान स्वरूप को देने के लिए उन्होंने महाराज बनारस एवं घर-घर से भिक्षा मांगकर विद्यालय का निर्माण करावाया था।

    बालिकाओं की शिक्षा के लिए हेमांगिनी देवी ने ‘नारी शिक्षा विधायनी सभा’ नामक एक संस्था का गठन पाण्डे हवेली मुहल्ले में किया था। कालान्तर में ‘दुर्गाचरण रक्षित’ महाशय ने इस विद्यालय के भूमि एवं भवन निर्माण का व्यय भारत वहन किया उनके सम्मान में विद्यालय का नाम बदलकर ‘दुर्गाचरण गर्ल्स इण्टर कालेज’ रखा गया एवं महिला शिक्षा के क्षेत्र में यह संस्था 85 वर्षों से सेवारत है।

    इसी प्रकार 1889 ई0 में ‘सेन्ट्रल हिन्दू कालेज’ के प्रतिष्ठा में श्रीमती एनी बेंसेन्ट के साथ डाक्टर भगवान दास एवं उपेन्द्र नाथ बसु का भी सहयोग था।

    इन विद्यालयों के अलावा सिद्धिगिरी बाग में ‘रामकृष्ण विद्यामन्दिर, सोनारपुरा में ‘ओरियन्टल सेमीनरी’ महाकाली पाठशाला आदि विद्यालयों के प्रतिष्ठा में भी बंगीय मनीषियों का सहयोग रहा है।

    भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में काशी का महत्वपूर्ण योगदान रहा हैं बनारस के नरमदल एवं गरमदल में बंगाली नवयुवकों का अपना योगदान था। उन आन्दोलनकारियों के नाम का उल्लेख इस प्रकार है-

    काकोरी षडयंत्र में जिन युवकों के नाम थे, उनके विवरण इस प्रकार है-

         शचीन्द्र नाथ सान्याल-आजीवन कारावास

         राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी मृत्युदण्ड

         शचीन्द्र नाथ बक्सी-आजीवन कारावास

         मन्मथ नाथ गुप्त-कारावास

         डी0डी0 भट्टाचार्य-कारावास

    इसके अलावा बंगाली टोला स्कूल के कई छात्र एवं शिक्षक स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेने के कारण अलग-अलग सजा के भागी बने-

         श्री सुशील कुमार लाहिड़ी (अध्यापक)-मृत्युदण्ड

         सुरेश चन्द्र भट्टाचार्य (छात्र)- निर्वासन

         जितेन्द्र नाथ सान्याल (छात्र) कारावास

         सुरेन्द्र मुखर्जी (छात्र)-कारावास

         रविन्द्र नाथ मुखर्जी (छात्र)-कारावास

         विजय नाथ चक्रवर्ती (अध्यापक)-बनारस से निर्वासन

         रमेश चन्द्र जोआरदार (अध्यापक)-बनारस से निर्वासन

    इसके पश्चात् ‘नमक सत्याग्रह’ में डॉ0 अमर नाथ बैनर्जी थे। यह आन्दोलन ‘सोनिया तालाब’ पर हुआ था। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने फारवर्ड ब्लाक के प्रादेशिक सचिव बनारस के श्री रामगती गांगुली को नियुक्त किया था।

    बनास में काकोरी कांड के प्रतिशोध स्वरूप सी0आई0डी0 के राय बहादुर जितेन्द्र नाथ बनर्जी पर गोदौलिया के समीप विप्लवी मणीन्द्र नाथ बनर्जी ने गोली चलाई परन्तु वे बच गए एवं मणीन्द्र नाथ पकड़े गए। उस समय के संयुक्त प्रदेश के राजनैतिक बन्दियों से दुर्व्यवहार के विरोध स्वरूप अनशन किये एवं इसी अनशन के कारण मणीन्द्र नाथ जी का निधन हो गया था। बनारस में स्वतंत्रता आन्दोलन में बंग्लाभाषी नवयुवकों का भरपूर योगदान था।

    बंगाल के भूस्वामी, ध्यानिक व्यवसायी एवं प्रतिष्ठित व्यक्तियों के द्वारा बनारस के नवनिर्माण में व्यापक योगदान रहा है। इन परिवारों के पुरुषों एवं महिलाओं का अपना-अपना योगदान रहा है। उक्त परिवारों के द्वारा निर्मित भवनों की चर्चा स्थानाभाव के कारण न करके उनके द्वारा किये गए धार्मिक एवं सामाजिक कार्यों का उल्लेख ही हम करेंगे। इस क्रम में चर्चा की शुरूआत हम एक शिलालेख से करना चाहेंगे जो ‘चौरूही देवी’ के मन्दिर के गेट पर लगा है। उस फलक में बंगला भाषा में लिखा है कि ‘आज से 500 वर्ष पूर्व बंगज कायस्थ कुलतिलक महाराज प्रतापादित्य के द्वारा भद्रकाली माता की प्रतिष्ठा की गयी थी।’

    इस लेख से यह ज्ञात होता है कि ‘जशोर’ के महाराजा प्रतापादित्य ने देवी भद्रकाली के मन्दिर की प्रतिष्ठा किया था। इसके पश्चात् नाम आता है ‘नाटोर’ रियासत के ‘रानी भवानी’ का। अपने काशी प्रवास के दौरान उन्होंने जिन तीर्थों के पुर्नोद्धार एवं निर्माण का कार्य किया वह बहुत ही विस्तृत है। रानी भवानी के द्वारा कर्दमेश्वर तालाब एवं मंदिर, कपिलधारा मंदिर एवं तालाब, ओंकारेश्वर मंदिर एवं तालाब, लाटभैरव तालाब, मछोदरी तालाब, कुरूक्षेत्र तालाब, दुर्गा मन्दिर एवं दुर्गाकुण्ड द्वारीकाधीश मंदिर शंकुलधारा तालाब, काशी विश्वनाथ मंदिर के ईशान कोण पर भवानीश्वर मन्दिर (इस मन्दिर को वर्तमान में तोड़कर काशी विश्वनाथ मन्दिर का विस्तार किया गया।) इस मंदिर के बगल में रानी भवानी के पुत्र राजा राम कृष्ण के द्वारा 1769 ई0 में पंचमुखी गणेश एवं शिव मन्दिर प्रतिष्ठित हुआ था। इस मंदिर में जाने का रास्ता ‘ढूंढ़िराज गणेश’ के बगल से है। इसके अलावा बंगाली टोला के अन्दर तारा बाड़ी भी रानी भवानी के द्वारा ही प्रतिष्ठित है। रानी भवानी ने मणिकर्णिका घाट पर शिव मन्दिर की प्रतिष्ठा करवायी थी। इसके अतिरिक्त 365 दिनों तक रोज एक विद्वान ब्राह्मण को भोजन एवं एक मकान का भी दान दिया था।

    दिग्पतियों के भूस्वामी के द्वारा चौमही घाट के बगल में दिग्पतिया घाट का निर्माण हुआ था। इसी क्रम में टैगोर स्टेट के द्वारा प्रयाग एवं राजेन्द्र प्रसाद घाट के बीच के घाट को पक्का करवाया गया था।

    पुटिया स्टेट की रानी हेमन्त कुमारी देवी के द्वारा प्रयाग घाट एवं घाट के ऊपर निर्मित विशाल शिव मन्दिर (जो कि बनारस के दशाश्वमेध घाट के किसी भी चित्र में हमें दिखता है।) का निर्माण करवाया था। चितरंजन पार्क के समीप बंगाल के आठ चाला शैली में निर्मित शिव मन्दिर जो अब वृहस्पति मन्दिर के रूप में प्रसिद्ध है, का निर्माण ‘टैगोर परिवार’ द्वारा करवाया गया था। लोलार्क कुण्ड का पुनः संरक्षण एवं लोलार्केश्वर शिव के पूजा का व्यय ‘कूच बिहार स्टेट’ द्वारा किया जाता था। इस में कूच बिहार स्टेट’ का एक शिलालेख भी है। ‘कूच बिहार स्टेट’ द्वारा निर्मित काली मन्दिर भी है। सोनारपुरा चौराहे के पास मन्दिर संलग्न बहुत बड़ा बगीचा भी है। इससे मन्दिर से सम्बन्धित कई मकान भी इस सोनारपुरा मोहल्ले में है।

    नदिया के महाराजा कृष्णचन्द्र के गुरू पण्डित चन्द्रशेखर शर्मा ने देवनाथपुर मुहल्ले में ‘शवशिवा मन्दिर’ का निर्माण करवाया। महाराज जय नारायण घोषाल ने ‘गुरूधाम’ मन्दिर का निर्माण 1827 ई0 में करवाया था। जय नारायण के पुत्र राजा काली शंकर घोषाल ने मकबूल आलम रोड पर भिक्षुक आश्रम का निर्माण करवाया था।

    नारद घाट पर कलकत्ते के प्रसिद्ध व्यवसायी रामइलाल डे ने (1752-1825) 2 लाख रूपया व्यय कर शिव मंदिर प्रतिष्ठा की थी। यह बनारस के सबसे ऊँचे कसौटी पत्थर का बना शिवलिंग है। काशी के अनेक अन्य मंदिरों का निर्माण भी बंगाल से आए हुए या बनारस के बंगालियों ने करवाया था। बनारस म्यूनिसिपल बोर्ड के पंचम सभापति बाबू ललित बिहारी सेन राय थे। इन्होंने ही बनारस में प्रथम संस्था किसी के माध्यम से दुर्गापूजा का प्रारम्भ करवाया था। इनके बाद म्यूनिसिपल बोर्ड के अध्यक्ष बाबू नील रतन बनर्जी हुए जो महाराज प्रभु नारायण सिंह के समय के विशिष्ट नागरिक एवं ‘ऑनरेरी मजिस्ट्रेट’ भी थे। इनके पिता राय बहादुर श्यामा चरण बनर्जी काशी के ‘नेटिम कोर्ट’ के जज थे।

    काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्यापनरत इण्डोलॉजिस्ट एवं इतिहासकार सर यदुनाथ सरकार, डॉ0 रमेश चन्द्र मजुमदार आदि प्रमुख मनीषियों ने काशी के गौरव को उज्जवल किया एवं वर्तमान में भी अनेक बंग बंधु डाक्टर, राजनेता, अध्यापक, संगीतज्ञ, नाटक, गायन, वादन, लेखन, व्यवसाय एवं अनेक अन्य विधाओं में कार्य करते हुए इस शहर की सांस्कृतिक समग्रता एवं उत्तरोत्तर उन्नति में सहायक है।

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