काशी जहाँ एक ओर मन्दिरों, घाटों व गलियों के शहर के नाम से विख्यात है वहीं दूसरी ओर इसकी पहचान कुण्डों की नगरी के रूप में भी रही है। प्राचीन ग्रन्थों में यहाँ अस्सी और वरूणा के बीच लगभग सौ तीर्थ स्थलों व उसकी महत्ता के विषय में उल्लेख मिलता है।
लोलार्क कुण्ड
वर्तमान समय में स्थिति यह है कि अधिकांश कुण्ड मानव आवश्यकता की बलि चढ़ गये और इन्हें पाटकर उँची-उँची इमारतों और आलीशान कालोनियों ने अपना अस्तित्व कायम कर लिया है। इसके बावजूद काशी की धर्म प्राण जनता के लिये आज भी उसका महत्व बरकरार है। इन कुण्डों पर समय विशेष पर मेले लगते हैं और श्रद्धालु वहाँ जाकर अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिये पूजन-अर्चन करते हैं। यह कुण्ड भदैनी मुहल्ले में है। यहाँ भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को एक विशाल मेला लगता है। लोलार्क छठ के नाम से प्रचलित है। भदैनी क्षेत्र में स्थित प्रसिद्ध राम मंदिर के बगल में स्थित लोलार्क कुण्ड लोलार्क छठ के नाम से भी जाना जाता है। कुण्ड की अनेक मान्यताओं में यह भी शामिल है कि इसमें स्नान करने से बांझ्ा (संतानोत्पत्ती में असमर्थ) महिलाओं को भी संतानोत्पत्ति होती है और चर्म रोगियों को लाभ मिलता है। शाóकारों के अनुसार अकबर और जहांगीर के युग में इस कुण्ड को वाराणसी का नेत्र माना जाता था। ऐसी कल्पना की जाती है कि उस युग में यहाँ लोलार्क नाम का एक मुहल्ला भी था। पुरातत्वविदों के अनुसार यहाँ स्थित मंदिर का उल्लेख गाहड़वाल ताम्रपत्रों में मिलता है। बावड़ी का मुंह दोहरा है, एक में पानी इकट्ठा होकर दो कुओं में जाता है। यह कुएं पत्थर के बने हैं और उन पर जगत बना हुआ है। दोनों जगतों के मध्य प्रदक्षिणा पथ है जिसे कहा जाता है कि अहिल्याबाई, अमृतराव तथा कूच विहार के महाराजा ने बनवाया था। इस कुण्ड के एक ताखे पर भगवान सूर्य का प्रतीक चक्र बना हुआ है।)
पुरातत्वविदों का यह मानना है कि इस स्थान पर कई वर्षों पूर्व आकाश से भयानक आवाज करते हुये एक उल्का पिंड गिरा था। आग की लपटों में घिरी उल्का ऐसा भान करा रही थी कि मानों सूर्य पिंड ही पृथ्वी पर गिरा रहा है। उल्का पिंड के पृथ्वी पर गिरने के कारण ही लोलार्क-कुण्ड का निर्माण हुआ था।
बहरहाल कुण्ड के अस्तित्व में आने के कारण कुछ भी हो, लोगों का इस सम्बन्ध में जो भी तर्क हो किन्तु वर्तमान समय में यह लोगों के आस्था और विश्वास का केन्द्र है। मान्यताओं के अनुसार गंगा के सीधे सम्पर्क में होने से गंगा स्नान का महत्व है। लोलार्क षष्ठी के दिन स्नान से पुत्र प्राप्ति सम्भव और शादी के बाद भी लोग यहाँ पूजन-दर्शन करने आते हैं। इसका उल्लेख-स्कन्द पुराण के काशी खण्ड में, शिवरहस्य, सूर्य पुराण में और काशी दर्शन में विस्तार से है।
खेद है कि प्रचलित लोलार्क कुण्ड धीरे-धीरे बर्बादी के कगार पर जा रहा है। अपने तरह का अनोखा दिखने वाला कुण्ड चारों ओर से घरों से घिर गया है। इससे जाने अनजाने में भी लोगों के घरों का कचरा कुण्ड में आता है। कुण्ड के नीचे स्नान करने के लिये बनी सीढ़ियों की दीवारों पर लगे पत्थर परत-दर परत उखड़ रहे हैं। चारों ओर से घिरी दीवारों का भी यही हाल है। कई दशक पुराने इस कुण्ड की दशा अत्यन्त दयनीय है, कुण्ड को घेरने के लिये बनी बाउन्डरी की ईटें भी कमजोर पड़ गयी हैं।
दुर्गाकुण्ड
वर्तमान समय में स्थिति यह है कि अधिकांश कुण्ड मानव आवश्यकता की बलि चढ़ गये और इन्हें पाटकर उँची-उँची इमारतों और आलीशान कालोनियों ने अपना अस्तित्व कायम कर लिया है। इसके बावजूद काशी की धर्म प्राण जनता के लिये आज भी उसका महत्व बरकरार है। इन कुण्डों पर समय विशेष पर मेले लगते हैं और श्रद्धालु वहाँ जाकर अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिये पूजन-अर्चन करते हैं। यह कुण्ड भदैनी मुहल्ले में है। यहाँ भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को एक विशाल मेला लगता है। लोलार्क छठ के नाम से प्रचलित है। भदैनी क्षेत्र में स्थित प्रसिद्ध राम मंदिर के बगल में स्थित लोलार्क कुण्ड लोलार्क छठ के नाम से भी जाना जाता है। कुण्ड की अनेक मान्यताओं में यह भी शामिल है कि इसमें स्नान करने से बांझ्ा (संतानोत्पत्ती में असमर्थ) महिलाओं को भी संतानोत्पत्ति होती है और चर्म रोगियों को लाभ मिलता है। शाóकारों के अनुसार अकबर और जहांगीर के युग में इस कुण्ड को वाराणसी का नेत्र माना जाता था। ऐसी कल्पना की जाती है कि उस युग में यहाँ लोलार्क नाम का एक मुहल्ला भी था। पुरातत्वविदों के अनुसार यहाँ स्थित मंदिर का उल्लेख गाहड़वाल ताम्रपत्रों में मिलता है। बावड़ी का मुंह दोहरा है, एक में पानी इकट्ठा होकर दो कुओं में जाता है। यह कुएं पत्थर के बने हैं और उन पर जगत बना हुआ है। दोनों जगतों के मध्य प्रदक्षिणा पथ है जिसे कहा जाता है कि अहिल्याबाई, अमृतराव तथा कूच विहार के महाराजा ने बनवाया था। इस कुण्ड के एक ताखे पर भगवान सूर्य का प्रतीक चक्र बना हुआ है।)
पुरातत्वविदों का यह मानना है कि इस स्थान पर कई वर्षों पूर्व आकाश से भयानक आवाज करते हुये एक उल्का पिंड गिरा था। आग की लपटों में घिरी उल्का ऐसा भान करा रही थी कि मानों सूर्य पिंड ही पृथ्वी पर गिरा रहा है। उल्का पिंड के पृथ्वी पर गिरने के कारण ही लोलार्क-कुण्ड का निर्माण हुआ था।
बहरहाल कुण्ड के अस्तित्व में आने के कारण कुछ भी हो, लोगों का इस सम्बन्ध में जो भी तर्क हो किन्तु वर्तमान समय में यह लोगों के आस्था और विश्वास का केन्द्र है। मान्यताओं के अनुसार गंगा के सीधे सम्पर्क में होने से गंगा स्नान का महत्व है। लोलार्क षष्ठी के दिन स्नान से पुत्र प्राप्ति सम्भव और शादी के बाद भी लोग यहाँ पूजन-दर्शन करने आते हैं। इसका उल्लेख-स्कन्द पुराण के काशी खण्ड में, शिवरहस्य, सूर्य पुराण में और काशी दर्शन में विस्तार से है।
खेद है कि प्रचलित लोलार्क कुण्ड धीरे-धीरे बर्बादी के कगार पर जा रहा है। अपने तरह का अनोखा दिखने वाला कुण्ड चारों ओर से घरों से घिर गया है। इससे जाने अनजाने में भी लोगों के घरों का कचरा कुण्ड में आता है। कुण्ड के नीचे स्नान करने के लिये बनी सीढ़ियों की दीवारों पर लगे पत्थर परत-दर परत उखड़ रहे हैं। चारों ओर से घिरी दीवारों का भी यही हाल है। कई दशक पुराने इस कुण्ड की दशा अत्यन्त दयनीय है, कुण्ड को घेरने के लिये बनी बाउन्डरी की ईटें भी कमजोर पड़ गयी हैं।
बेनिया कुण्ड
आज से कई हजार वर्ष पूर्व काशी का बेणी तीर्थ था, सम्प्रति बेनिया बाग के विशाल मैदान के एक छोर का कूड़ा-करकट व बड़ी-बड़ी जंगली घास से युक्त छोटी से गंदी झ्ाील में तब्दील हो चुका है। रख-रखाव के अभाव में इस झ्ाील में पानी इतना कम है कि वह किसी काम लायक नहीं है और पानी इतना गंदा व दुर्गन्धयुक्त है कि कोई भी आदमी इसमें हाथ डालना तक उचित नहीं समझ्ाता। वैशाख व ज्येष्ठ मास की गर्मी में इस झ्ाील का पानी सूखकर नाम मात्र रह जाता है।
विदेशी लेखिका डायना एलएक की पुस्तक ‘बनारस सिटी ऑफ् लाइट’ में ‘वेणी तीर्थ’ का उल्लेख जेम्स प्रिन्सेप ने सन् 1822 के बनारस के मानचित्र के आधार पर किया है। वेणी तीर्थ की चर्चा काशी खण्ड में भी की गयी है।
काशी के सम्बन्ध में प्राप्त विवरणों, मान्यताओं व चर्चाओं के अनुसार यह नगर राजघाट व अस्सी के बीच एक पहाड़ी पर बसा था और तत्कालीन समय में राजघाट को पठार माना जाता था उक्त क्षेत्र सर्वाधिक उँचाई पर स्थित है जबकि अस्सी क्षेत्र को निचला इलाका कहा जाता था। उक्त मान्यताएं आज के संदर्भ में भी उतनी ही समीचीन मानी जाती है। उँचाई पर स्थित होने के कारण ही राजघाट में उस दौरान किले का निर्माण भी किया था। राजा बनारस जिसके नाम पर काशी का नाम बदलकर बनारस हुआ था तथा दुर्ग (किला) राजघाट क्षेत्र में होने का उल्लेख भी पुरातत्व विभाग के पास है।
भूगर्भीय संरचना के अनुसार ऐसा माना गया है कि उŸार वाहिनी गंगा के समानान्तर पहाड़ीनुमा शहर से सटी नदी भी बहती होगी जो बाद में नगर के अन्यान्य कुण्डों व सरोवरों में तब्दील हो गई होगी और उसी दौरान वेणी तीर्थ का निर्माण हुआ होगा। प्राप्त तथ्यों के अनुसार वेणी तीर्थ का रूप बेनियाबाग क्षेत्र में सन् 1863 तक विद्यमान था और यह कुण्ड सम्पूर्ण बेनियाबाग के मैदान के मध्य में विशालकाय कुण्ड के रूप में था।
सम्भवतः 20वीं सदी के प्रारम्भ में रख-रखाव के अभाव व अन्य कारणों से इस कुण्ड के रूप में परिवर्तन आने लगा और कूड़े के ढेर व घरों के मलबे आदि के कारण पटना शुरू हो गया। बाद में बेनियाबाग का मैदान हो गया। शायद इसी कारण कुण्ड एक गन्दे पोखरे के रूप में आज विद्यमान है। यहाँ गंदगी की भरमार है। इसके चलते यहां और आस-पास के क्षेत्र में मच्छरों व मक्खियों का साम्राज्य हो गया है और आये दिन इस क्षेत्र में संक्रामक रोगों का प्रसार होता रहता है।
बकरिया कुण्ड
(उत्तरार्क या बर्करी कुण्ड) यह हिन्दुओं का पवित्र सूर्य तीर्थ है। यह कुण्ड अलईपुर क्षेत्र में स्थित बकरिया कुण्ड मुहल्ले में है जिसे आज बोल-चाल की भाषा में बकरिया कुण्ड के नाम से जाना जाता है। जिसका उल्लेख-काशी खण्ड अ0 4 श्लोक 72 में है।
अथोत्तरस्यामाशायं कुण्डमकरिव्यमुत्तमम्।
तत्र नाम्नोत्तरार्केण रश्मिमाली व्यवस्थितः।।
तापयनदुःखसड़ घातं साधूनाप्याययन् रविः।
उत्तरार्को महातेजा काशीं रक्षति सर्वदा।। (का0 खं0, 47/57)
उत्तरार्कस्य देवस्य पुष्ये मासि खेदिने।
कार्या संवत्सरी यात्रा न तैः काशी फलेप्सुभिः।। (का0 खं0, 47/57)
इस धार्मिक व प्राचीन विरासत के रख-रखाव की घोर उपेक्षा के कारण ये कुण्ड अपना अस्तित्व खोते जा रहे हैं। अर्क शब्द सूर्य देव से सम्बन्ध रखता है। यहाँ पूर्व काल में सूर्य-पूजा हेतु विशाल मंदिर था। बाद में बौद्धकाल में बौद्ध-विहार के रूप में प्रयोग किया गया।
यहाँ सन् 1375 ई0 फिरोजशाह तुगलक ने इस ऐतिहासिक मंदिर को ध्वस्त किया था। गाहड़वालों के युग से ही इस इलाके में मुसलमानों की बस्तियाँ बस गयी थी। यहाँ सन् 1375 ई0 कि फिरोजशाह तुगलक की शिला लिपि है। इसके निकट बौद्ध चैत्य दिखाई पड़ता है। इतिहासकारों का कहना है कि बकरिया कुण्ड (बर्करी कुण्ड) के बगल में पहले ‘बौद्ध विहार’ था। औरंगजेब तथा अन्य आक्रमणों से उसकी यह दुर्गति बनाई गई।
आजकल दक्षिण ओर एक स्थान पर तीन मस्जिदें खड़ी हैं। उसके चारों तरफ कब्रिस्तान है। सामने नीचे तरने के लिये भग्न स्तर और जीर्ण सोपान श्रेणी के चि आज भी मौजूद हैं। पश्चिम ओर के मस्जिद के प्रागंण में एक प्रस्तर-स्तम्भ देखने से ज्ञात होता है कि यह पूर्व काल में दीप स्तम्भ रहा होगा।
आज भी यहाँ के लोग उक्त स्तम्भ पर दीपक जलाते हैं। आठ खम्भेवाली मस्जिद का निरीक्षण करने से ज्ञात होता है कि वह काफी प्राचीन है। सामने के चार स्तम्भ नीचे अष्ट पहले बीच में 16 पहले एवं ऊपर एकदम गोलाकार है। यही आठ स्तम्भ प्राचीन और सुन्दर ढंग से बने हैं। बगल की मस्जिद में भी चार प्राचीन स्तम्भ हैं। वे चारों चौकोर हैं, लेकिन उनमें एक स्तम्भ की नक्काशी बड़े सुन्दर ढंग से की गई है। मस्जिद का प्रवेश द्वार भी सुन्दर बना है। उस पर खुदे शिल्प कार्य को देखने से ही बौद्ध शिल्प की अनायास अनुमान होने लगता है। दक्षिण-पूर्व की मस्जिद भी चौकोर चैत्य के अनुरूप है। इसका गुम्बज मुगलों द्वारा निर्मित है, स्तम्भ बौद्ध काल के बने हैं। इसका निम्न भाग सरल एवं चौकोर है लेकिन उपर का अंश सारनाथ के स्तूप की भाँति विशिष्ट है। इसके पश्चिम में बŸाीस खम्भा नामक एक विशिष्ट गुम्बज मन्दिर है, गुम्बज शायद मुसलमानों द्वारा कुछ अंशों में परिवर्तित कर दिया गया है लेकिन स्तम्भ सभी प्राचीन काल के हैं। इसके तीनों तरफ बारामदें हैं।
कई वर्ष पूर्व इस कुण्ड से कृष्ण गोवर्धनधारी की एक अत्यन्त सुन्दर गुप्त कालीन मूर्ति मिली थी, जिसे भारत कला भवन, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में रखा गया है। इतिहासकारों का कहना है कि मुगलों के हमलों के पूर्व यहाँ एक विशाल भव्य श्रीकृष्ण का मंदिर था जिसकी मूर्तियाँ खण्डित कर कुण्ड में फेंक दी गई थीं। पास ही कई भवनों के खण्डहर हैं जो निःसन्देह बौद्ध विहारों के अवशेष हैं। इन मंदिरों में सर्वश्रेष्ठ वह मन्दिर है जिसे मुसलमानों ने मस्जिद बना लिया। इसके 42 खम्भे एक से लगते हैं, मानों अभी-अभी बने हैं। बौद्धों के इन विहारों को इस दशा में परिणित करने का श्रेय मुसलामन आक्रमणकारियों को है। संदर्भः- (वाराणसी का प्राचीन इतिहास-254 काशी का इतिहास पृष्ट 99) शेरिंग के अनुसार टेनसांग ने जिन 30 बौद्ध विहारों का उल्लेख किया है, उनमें कुछ कुण्ड के किनारे थे। इनमें से अनेक के चि आज भी मिलते हैं। अनुमान किया जाता है कि इसका निर्माण गुप्त-काल में हुआ था।
गाजी मियां का मजार बनने के पहले यहाँ हिन्दुओं का मंदिर था। परम्परा से वहाँ छोटी कौम के लोग पूजन करने आते हैं। बाद में मजार बनने पर मुसलमानों ने इबादत करनी शुरू की। दर-असल हिन्दू सूर्य-पूजा करने जाते हैं। जैसा कि बहराइच में गाजी मियां के मजार के पास बालाकि ऋषि का आश्रम था और वहीं सूर्य-मंदिर भी था। बकरिया कुण्ड पर औरतें हबुआती हैं और डफाली बाजा बजाते हुये गाजी मियां शहादत गाते हैं। कोई नारियल चढ़ाता है और कोई मुर्गा। इस मेले में अधिकतर महिलाओं की भीड़ होती है-काशी में एक लोकोक्ति चल पड़ी है-‘गाजी मियां बड़े लहरी, बोलावें घर-घर की मेहरी’।
वर्तमान में इस कुण्ड का स्वरूप काफी बदल गया है। इस कुण्ड के आस-पास अब कई आवासों का निर्माण हो गया है जिसके कारण कुण्ड का दायरा छोटा हो गया है। फिर भी उसमें पानी अब भी बरकरार है जिसमें जलकुम्भी मौजूद है। इस कुण्ड में शहर के सीवर व गंदा पानी के गिरने से इसका उपयोग बन्द कर दिया गया है। कुण्ड की चारों तरफ गंदगी बरकरार है। इसकी सफाई के प्रति न तो नगर निगम प्रशासन का ध्यान है और न क्षेत्रीय नागरिकों का। खाली जमीन पर अवैध कब्जे जारी हैं। न अब तक इसकी वास्तविक पैमाइश कराकर सुरक्षा की जा रही है और न ही इसका सुन्दरीकरण किया जा रहा है। आस-पास के घरों से इनमें कूड़े पड़ने के कारण भी इसकी दशा अत्यन्त खराब हो गई है।
लक्ष्मी कुण्ड
पौराणिक आख्यान के अनुसार काशी धर्म क्षेत्र के रूप में विद्यमान था, उस समय वनों से आच्छादित यह क्षेत्र ‘आनन्द कानन’ कहलाता था तथा ताल, तलैया, पोखरे, सरोवर व जलाशय की भरमार थी। इन जलाशयों में कुछ वर्तमान स्वरूप आज भी बरकरार हैं। इसमें प्रमुख है लक्ष्मीकुण्ड।
जिसके तट पर स्थित माँ लक्ष्मी के मंदिर में भाद्र शुक्ल पक्ष अष्ठमी से 16 दिन का मेला लगता है जो सोरहिया मेला के नाम से प्रसिद्ध है। यह लक्सा थाना से सौ मीटर की दूरी पर औरंगाबाद मार्ग पर स्थित है। इस कुण्ड पर लगने वाले मेले में प्रतिदिन हजारों लोग दर्शन-पूजन के लिये एकत्र होते हैं। लक्ष्मी कुण्ड के बारे में प्राचीन मान्यता रही है कि ये कुण्ड पहले लक्ष्मण कुण्ड के नाम जाना जाता था। इसके पास में ही रामकुण्ड और सीताकुण्ड भी था। लेकिन धीरे-धीरे सीता कुण्ड विलुप्त हो गया। किन्तु रामकुण्ड का अस्तित्व आज भी बरकरार है। लक्ष्मण कुण्ड का स्वरूप समय के अनुसार बदलता गया बाद में यह लक्ष्मी कुण्ड के नाम से जाना जाने लगा। लक्ष्मी जी के मंदिर में भाद्र पक्ष में सोलह दिनों का पर्व होने लगा।
भक्ति दायिनी काशी की महिमा केवल मोक्ष की दृष्टि से ही नहीं अपितु जल तीर्थो के कारण भी है। इसका एक नाम अष्ट कूप व नौ बावलियाँ वाला नगर भी है। काशी के जल तीर्थ भी गंगा के समान ही पूज्य हैं। भाद्र मास में लक्ष्मी कुण्ड का मेला सोरहिया मेला के नाम जाना जाता है। सोलह दिनों तक चलने वाले मेले के आखिरी दिन महिलायें जीवित्पुत्रिका का व्रत रखती हैं और इसी कुण्ड पर अपने निर्जला व्रत को तोड़ती हैं। इस दृष्टि से यह कुण्ड अत्यन्त पवित्र रूप से पूजित है। जीवित्पुत्रिका व्रत पर लक्ष्मी कुण्ड के पूजन-अर्चन की प्रथा अति प्राचीन काल से चली आ रही है।
कुरूक्षेत्र कुण्ड
काशी का गंगा के साथ-साथ जल तीर्थों के कारण भी विशेष महत्व रहा है। इसलिये इसका एक नाम अष्ट कूप व नौबावलियों वाला नगर भी है। काशी के जल तीर्थ भी गंगा के समान पूज्य रहे हैं। इन्हीं कुण्डों में एक कुण्ड कुरू क्षेत्र कुण्ड भी है। अस्सी से पंच मंदिर होते हुए रवीन्द्रपुरी कालोनी जाने वाले मार्ग पर दाहिनी ओर स्थित कुरू क्षेत्र कुण्ड के बारे में ऐसी मान्यता रही है कि यह कुण्ड हरियाणा राज्य के पानीपत स्थित कुरूक्षेत्र का ही एक रूप है। प्राचीन काल में महाभारत की युद्धस्थली रही कुरूक्षेत्र के नाम पर ही इस कुण्ड का नाम रखा गया, इस कुण्ड का धार्मिक, अध्यात्मिक महत्व काफी पहले से रहा है। इस कुण्ड में पर्व आदि पर स्नान का विशेष महत्व रहा है। पहले इस कुण्ड में काफी जल इकट्ठा रहा करता था, लेकिन धीरे-धीरे कई कारणों से जल कम होता गया। प्रदूषण व कुण्ड का पर्याप्त रख-रखाव न होने के कारण अब यह कुण्ड भी धीरे-धीरे अपने अस्तित्व को खोता जा रहा है। पौराणिक ग्रंथ ‘मानसी उल्लास’ में काशी के जल कुण्डों, जल तीर्थों का व्यापक व विशद वर्णन मिलता है। न केवल लोग कुरूक्षेत्र कुण्ड का जल पवित्र माना जाता है और वहाँ स्नान करते थे बल्कि यहाँ के जल को भगवान पर चढ़ाते थे। कुण्ड लोगों की प्यास बुझ्ााने का भी एक मुख्य श्रोत था। सूर्य ग्रहण में यहाँ स्नान करना धार्मिक महत्व था। इसका उल्लेख स्कन्द पुराण काशी खण्ड और काशी रहस्य में है। स्नान से मनोवांछित फल मिलता है, ऐसी मान्यता है।
कुण्ड की मौजूदा स्थिति यह है कि इसके चारों तरफ काई का अम्बार है। पानी प्रदूषित हो गया है। कुण्ड के दक्षिण में पत्थर की कई प्राचीन मूर्तियां हैं जो उपेक्षा के कारण लुप्त होती जा रही हैं। वर्तमान समय में कुण्ड का स्वरूप काफी बदल गया है। अब सिर्फ यह कुण्ड उपेक्षित कुण्डों की सूची में है।
काशी में अब कुण्ड तेजी से अपने अस्तित्व को खोते जा रहे हैं। कई महत्वपूर्ण कुण्डों, सरोवरों को पाटकर उस पर भवन आदि का निर्माण करा दिया गया है। कई कुण्डों, पोखरों पर अवैध कब्जे का प्रयास जारी है। धार्मिक, पौराणिक व लोगों के जीवन के लिये महत्वपूर्ण जल तीर्थों के अस्तित्व की रक्षा के लिये अब नागरिकों को ही कारगर पहल करनी होगी, वरना वह दिन दूर नहीं जब इनका अस्तित्व पूरी तरह समाप्त हो जायेगा।
अघोर साधना का केन्द्र क्रीं-कुण्ड
यह शिवाला मुहल्ले में स्थित है तथा इसका मुख्य द्वार रवीन्द्रपुरी कालोनी मार्ग की तरफ है। यह तपोभूमि अधोरपीठ बाबा कीनाराम स्थल के नाम से प्रसिद्ध है।
अनेक प्राचीन ग्रन्थों में भी इसकी विशेषताओं का उल्लेख मिलता है। क्रीं कुण्ड केदार खण्ड में स्थित है जिसे धार्मिक दृष्टि से काफी पवित्र क्षेत्र माना जाता है।
इस खण्ड के दक्षिणी भाग में विशाल बेल-वन होने के कारण ‘बेलवरिया के नाम से भी इसे जाना जाता था। बढ़ती जनसंख्या के कारण बेल के वन कटते गये और उनकी जगह ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएं ले ली हैं। यहाँ माँ हिंगलाज के नाम पर रमणीक ताल स्थित था, जिसका नाम था ‘हिग्बा ताल’। इसके मध्य में माँ हिंगलाज के बीच मंत्र पर आधारित क्रीं कुण्ड है। ये सभी नाम प्राचीन भू-अभिलेखों में आज भी उपलब्ध है। इसी के मध्य स्थित है अघोरपीठ बाबा कीनाराम स्थल, जिसके दक्षिण-पश्चिमी कोण पर स्थित है माता रेणुका का मंदिर। रेणुका ऋषि यमदाग्नी की धर्मपत्नी थीं।
इस अघोर तपस्थली के मुख्य द्वार पर स्थित दोनों खम्भों पर एक के ऊपर एक स्थित तीन मुण्ड अभेद के प्रतीक हैं। जो यह दर्शाते हैं कि ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश में भेद नहीं है। ये तीनों एक ही हैं और कार्य के अनुसार तीन स्वरूप में दर्शाये जाते हैं। क्रीं कुण्ड भगवान सदाशिव का कल्याणकारी स्वरूप है। जनमानस में यह अवधारणा प्रचलित है कि किसी भी प्रकार की विपŸिा व आपदा से हतोत्साहित व्यक्ति रविवार व मंगलवार को पाँच दिन क्रीं कुण्ड में स्नान करे या मुँह-हाथ धोने के बाद आचमन करे, तो उसके कष्ट का निवारण हो जायेगा। इस लोक अवधारणा के चलते यहाँ के प्रति रविवार व मंगलवार को श्रद्धालुओं की काफी भीड़ होती है। जो व्यक्ति पहली बार स्नान करते हैं, वे अपना वó जिसे पहनकर आये होते हैं, स्नान करने के बाद वहीं छोड़ देते हैं और दूसरा वó पहनकर वापस जाते हैं। वे बारादरी में बैठे व्यक्ति को थोड़ा सा चावल-दाल अर्पित कर विभूति ग्रहण करते हैं। उसके बाद वे बाबा कीनाराम की समाधि की तीन बार परिक्रमा करते हैं। श्रद्धालुओं द्वारा छोड़े गये वó को बाद में गरीबों को दे दिया जाता है।
कीनाराम स्थल पर जलने वाली ‘धुनि’ की विभूति ही यहाँ का प्रसाद है। जनश्रुतियों के अनुसार यह धुनी कभी बुझ्ाती नहीं है। इस कक्ष के अन्दर गुरू का आसन है। इसके दक्षिण ओर विशाल व भव्य समाधि से लगा ग्यारह पीठाधीशों की समाधि श्रृंखला एकादश रूद्र का प्रतीक है। इस विशाल समाधि के अन्दर गुफा में माँ हिंगलाज यन्त्रवत स्थित हैं, जिनके बगल में अघोराचार्य बाबा कीनारम का पार्थिव शरीर स्थापित है। इसके ऊपर स्थित पांचवा मुख जो शिव शक्ति का प्रतीक है। यहाँ तक पहुंचने का एक मात्र अवलम्ब है ‘गुरू’। वहाँ जाने वाले संकरे मार्ग के एक ओर आदि गुरू ‘दŸाात्रेय’ स्वरूपी बाबा कालूराम की समाधि और दूसरी ओर बीसवीं सदी के उन्ही के स्वरूप बाबा राजेश्वर राम की श्वेत मूर्ति है।
बाबा कीनाराम की चार वैष्णवी व चार अघोरी कृति की गद्दी स्थापित की थी, जिसमें यह स्थल सर्वश्रेष्ठ है। अधोर गद्दी में अन्य तीन रामगढ़ (चन्दौली), देवन (गाजीपुर), हरिहरपुर (चन्दवक) तथा नायकडीह (गाजीपुर) में स्थापित है। अघोर का अर्थ है अनघोर अर्थात् जो घोर न हो, कठिन या जटिल न हो। अर्थात् अघोर वह है, जो अत्यन्त सरल, सुगम्य, मधुर व सुपाच्य है। सभी के लिये सहज योग है। यह किसी धर्म, परम्परा, सम्प्रदाय या पन्थ तक ही सीमित नहीं है। वास्तव में यह एक स्थिति, अवस्था व मानसिक स्तर है।
दरअसल अघोर पंथ सभी के अन्दर से गुजरने वाला सरल पंथ है। यह न केवल हिन्दू में निहित है और न ही मुसलमान, ईसाई, यहूदी आदि मतावलम्बियों में। इसे कोई भी सीमा रेखा बांध नहीं सकती है। यह न केवल शैव में और न ही इसे शाक्त, वैष्णवी या अघोरी सीमा में ही आबद्ध किया जा सकता है। यह शाश्वत सत्य का परिचायक है। अघोर साधना में मांस व मदिरा का सेवन तथा शव साधना कोई आवश्यक नहीं है। यह साधना की दिशा में एक पड़ाव है, लेकिन बहुत से साधक इसी को अन्तिम चरण मानकर सिर्फ मांस व मदिरा के चक्कर में ही पड़ जाते हैं।
बाबा कीनाराम ने मुगलकाल में समाज में व्याप्त अनेक ्रान्तियों को अपनी साधना के बल पर दूर करने की कोशिश की और उसमें उन्हें काफी सफलता भी मिली। उनसे सम्बन्धित अनेक लोक कथाएं समाज में प्रचलित हैं। जनता पर उनका व्यापक असर था, यही कारण है कि आज भी लोग श्रद्धा से उनकी याद करते हैं और क्रीं कुण्ड में स्नान कर अपने दुःखों से निजात पाने हेतु प्रार्थना करते हैं। बाबा कीनाराम ने अघोर साधना पद्धति को एक नया आयाम प्रदान किया बाद में आधुनिक युग में भगवान राम ने इस साधना पद्धति को सीधे समाज सुधार से जोड़ दिया और सर्वेश्वरी समूह की स्थापना कर उसको एक नया स्वरूप प्रदान किया। स्थान या सामग्री का कोई विशेष महत्व नहीं है अगर महत्व है, तो चेतना व विवेक का। कुर्बानी की प्रथा पर भी अब प्रतिबन्ध लगा दिया गया है।
क्रीं कुण्ड में एक पुराना इमली का का पेड़ है, जिस पर दर्जनों बड़े-बड़े चमगादड़ हैं। बसन्त ऋतु में पतझ्ाड़ के समय इनकी संख्या और बढ़ जाती है। परिसर में स्थित कुछ अन्य पेड़ों पर भी ये चमगादड़ रहते हैं, जिनका वजन दो से तीन किलो से भी अधिक होगा। यह आश्चर्य की बात है कि आस-पास के क्षेत्र में अनेक पेड़ हैं लेकिन वहाँ इतने बड़े-बड़े चमगादड़ नहीं रहते हैं, जबकि क्रीं कुण्ड में स्थित वृक्षों पर वे रहते हैं। बाबा कीनाराम पीठ के 11 वें पीठाधीश्वर बाबा सिद्धार्थ गौतम हैं।
8- पितृ कुण्ड:- महाभारत में जलदान की महिमा का वर्णन किया गया है। संसार में जल से अधिक किसी भी दान को बड़ा नहीं बताया गया है। भलाई चाहने वाला मनुष्य प्रतिदिन जल का दान करे। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘‘जल सर्वदेव मय है। अधिक क्या कहें यह मेरा स्वरूप है। पवित्रता के लिए भूमि की शुद्धि जल से करें।‘‘
अपव्यय न करें (महाभारत आश्वमेधिक पर्व) न केवल शरीर, इन्द्रियों और चिŸा की शुद्धि भी जल के आचमन से होती है अपितु भगवान श्रीकृष्ण ने आत्मशुद्धि के लिये भी जल के आचमन की संस्तुति की है। जल के कारण ही तीर्थों की विशिष्टता है। पितरों के तर्पण में जल की प्रधानता हैं। प्राचीन काल में बाण को शक्तिशाली बनाने के लिये योद्धा बाण संचालन के पूर्व जल का विनियोग करते और मन्त्र पढ़ते थे। तब कहीं सामान्य बाण नारायणशó, पाशुपताó आदि के रूप में परिवर्तित हो जाते थे।
काशी गया के नाम से विख्यात तीर्थ पितृ कुण्ड मातृ कुण्ड और पिशाचमोचन त्रिपुरान्तकेश्वर क्षेत्र में अवस्थित है। इसी क्षेत्र में सूर्य कुण्ड, मिसिर पोखरा और लक्ष्मी कुण्ड भी है। इस क्षेत्र में देवायतनों की संख्या अपेक्षाकृत कम है।
विमल कुण्ड
पिशाचमोचन पर पिशाचेश्वर का मंदिर है। उनके दक्षिण में पित्रीश्वर पितरकुण्डा (पितृकुण्ड) के समीप हैं वहीं पर छागलेश्वर भी हैं। कर्पदीश्वर तथा विमलेश्वर का मंदिर पिशाचमोचन पर है। विमल कुण्ड पिशाचमोचन तालाब के नाम से प्रसिद्ध है। हेरम्ब विनायक पिचाशमोचन के समीप बाल्मीकि टीले पर हैं और उनके निकट ही बाल्मीकीश्वर है जो बाल्मीकि टीले पर है। पिशाचमोचन के निकट ही पंचास्य विनायक है और समीप ही पिंगलेश्वर का मंदिर है। पितृकुण्ड के समीप 70-75 मीटर से अधिक की दूरी पर मातृकुण्ड है। आज भी मातृ गया होती है यह तीर्थ सिद्धपुर (सौराष्ट्र) में हैं जहाँ कपिल ने अपनी माता की सांख्य का उपदेश दिया था।
राम कुण्ड
काशी के लक्सा क्षेत्र के अयोध्यापुरी में राम कुण्ड स्थित है। बनारस स्टेट के समय के मानचित्र संख्या 356 मौजा रामापुरा, परगना देहात, अमानत सन् 1883-84 में भी रामकुंड अंकित है। रामकुण्ड में आज भी प्राचीन समय के शाही नाले से मिलने वाली सुरंग है जिसमें आज भी बारिश का पानी गंगा में गिरता है। कुण्ड पर हर वर्ष भादों माह की छठ पर ललई छठ का मेला लगता है। जिसमें काफी संख्या में महिलाएं व्रत रखकर ललई माता की पूजा करती हैं। ऐसी मान्यता है कि यहां स्थापित रामेश्वरमलिंग में सीतापति भगवान राम हमेशा रहते हैं।
सूरज कुण्ड
गोदौलिया से नई सड़क की ओर जाने वाले रास्ते पर सनातन धर्म इंटर कालेज के बगल से अंदर जाने पर सूरज कुण्ड स्थित है। कुण्ड के समीप ही गोल चक्र में बना भगवान सूर्य का मंदिर हैं मान्यता है कि भगवान कृष्ण के आदेश पर साम्ब ने यहां सूर्य मंदिर स्थापित किया। साथ ही कुण्ड बनवाकर सूर्योपासना कर कुष्ठ रोग से मुक्ति पाया था। कहा जाता है कि सूरज कुण्ड में स्नान करने से कुष्ठ रोगियों को छुटकारा मिल जाता है। कभी सुन्दरता व स्वच्छता की मिशाल रहा यह कुण्ड आज गंदगी के बीच है।
कर्णघण्टा सरोवर
नीचीबाग से बुलानाला जाने वाले मार्ग में यह सरोवर स्थित है। इस समय यह विलुप्त होने की कगार पर है। इस सरोवर पर गुरू पूर्णिमा पर यहां स्थित शिवलिंग और महर्षि वेदव्यास की मूर्ति की पूजा की जाती है। पूरे वर्ष ये मूर्तियां कुण्ड के जल में डूबी रहती हैं। गुरू पूर्णिमा के दिन नगर निगम पंप से सरोवर का पानी खाली कर देता है। इस कुण्ड पर ही तुलसीदास जी ने प्रथम हनुमान मंदिर बनाया। जिसे कोढ़ियाबीर हनुमान के नाम से जाना जाता है।
मातृ कुण्ड
मातृ कुण्ड लल्लापुरा में पितृ के पहले स्थित था। इस कुण्ड को क्षेत्रीय लोगों ने कूड़ा डालकर धीरे-धीरे पाट दिया। बाद में कुण्ड की खुदाई करने पर मातृ देवी की मूर्ति मिली, जिसे कुण्ड के ऊपर मंदिर बनवाकर स्थापित कर दिया गया। पहले तीर्थ यात्री यहां आकर मातृ देवी का पूजन-अर्चन करते थे फिर तर्पण करते थे। इस कुण्ड को बचाये रखने के लिए यहां हर वर्ष रामलीला का आयोजन किया जाता है।
रामकटोरा
जगतगंज क्षेत्र में सड़क किनारे रामकटोरा कुण्ड स्थित है। इसी कुण्ड के नाम पर ही मोहल्ले का नाम रामकटोरा पड़ा। यह कुण्ड कटोरे के आकार का है। कुण्ड के पास राम, लक्ष्मण, जानकी और बजरंग बली का मंदिर भी है। मंदिर के प्रवेश द्वार पर एक शिलालेख भी लगा हुआ है। जिसके अनुसार मंदिर का निर्माण दो सौ वर्ष पहले जगतगंज के जमींदार इन्द्र नारायण सिंह ने कराया था। कहा जाता है कि हिन्दी साहित्य के कालजयी रचनाकर जयशंकर प्रसाद और भारतेन्दु हरिश्चन्द्र इसी कुण्ड के तट पर बैठकर लेखन किया करते थे। इस कुण्ड में पांच भूजल स्रोत भी हैं। जिसकी वजह से यह कभी नहीं सूखता है। सही रख रखाव नहीं होने से इस कुण्ड की दशा भी खराब है।
मत्स्योदरी तालाब
विश्वेश्वरगंज से प्रह्लाद घाट की ओर जाने वाले रास्ते पर मत्स्योदरी तालाब (मच्छोदरी) स्थित है। इसी तालाब पर मोहल्ले का नाम मच्छोदरी पड़ा है। बारिश में पानी ज्यादा होने पर गंगा का पानी वरूणा के पानी को पीछे धकेलता है। जिससे अंत में पानी मत्स्योदरी पहुंचता है। गंगा जल से यह क्षेत्र घिर जाता है। घिरे हुए पानी का स्वरूप मछली की तरह हो जाता है। मान्यता है कि भगवान नादेश्वर के दर्शन के लिए गंगा यहां आती है। ऐसे में इस कुण्ड में स्नान करने से पुण्य मिलता है।
कपालमोचन तालाब
यह तालाब कज्जाकपुरा से पुराना पुल जाने वाले रास्ते पर है। इस तालाब को रानी भवानी ने पक्का कराया था। कहा जाता है कि यहां स्नान करके लाट भैरव का दर्शन-पूजन व दान करने से अश्वमेध यज्ञ करने का फल मिलता है। कपालमोचन में पिण्डदान और श्राद्ध की महिमा भी है। यहां गंगा स्नान, पूजा, जप, हवन, गोदान, चंद्रायन व्रत का भी उल्लेख मिलता है।
ऐतरनी-वैतरणी तालाब
यह तालाब कज्जाकपुरा से पुराना पुल जाने वाले रास्ते पर है। इस तालाब को रानी भवानी ने पक्का कराया था। कहा जाता है कि यहां स्नान करके लाट भैरव का दर्शन-पूजन व दान करने से अश्वमेध यज्ञ करने का फल मिलता है। कपालमोचन में पिण्डदान और श्राद्ध की महिमा भी है। यहां गंगा स्नान, पूजा, जप, हवन, गोदान, चंद्रायन व्रत का भी उल्लेख मिलता है।
वर्तमान में मातृ कुण्ड की स्थिति यह है कि उसे पाट दिया गया है और वहाँ पर अब सिगरा थाने की माताकुण्ड पुलिस चौकी तथा रामलीला मैदान है। इसी तरह से पितृकुण्ड जलकुम्भी से आच्छादित है। इसके किनारे तीन तरफ भवनों का निर्माण किया जा चुका है। जिससे इन मकानों के निवासियों द्वारा कुण्ड में घर का कूड़ा कचरा फेंका जा रहा है। धीरे-धीरे इसे भी पाटने की तैयारी है।
कुण्ड के सामने यानि पूर्व दिशा की ओर अवैध रूप से गुमटियाँ लगाकर अतिक्रमण कर लिया गया है। पितृ कुण्ड की देख-भाल कर रहे श्री कन्हैया पहलवान ने बताया कि पहले इस कुण्ड को भरने के लिये ‘फायर हईडेट’ से पानी भरा जाता था। लेकिन अब यह पानी नहीं आता जबकि पाइप लाइन सुरक्षित है। देश के कोने-कोने से पितरों को तारने के लिये गया जाने वाले लोगों को स्नान के लिये हैण्ड पम्प का सहारा लेना पड़ता है। कुण्ड में स्नान करने का सवाल ही नहीं है। वह इतना गंदा है कि बचा खुचा पानी पवित्रता की श्रेणी में नहीं आता है। पहलवान ने बताया कि 25 वर्ष पहले से यह कुण्ड दुर्दशा का शिकार हो गया है। इस कुण्ड के सटे पितृश्वर मंदिर में तीन शिव मंदिरों के अलावा बगल में माता अंजनी का मंदिर है। इस मंदिर में बालरूपी हनुमान अपनी माँ की गोद में विराजमान दिखाये गये हैं। यहाँ पर शैय्यायदान के लिए एक चबूतरा भी है जो जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। पिशाचमोचन के तीर्थ पुरोहित पंडित ए0एस0 भट्ट ने बताया कि पुरखों को तारने के लिये 5 गया का विधान है। पहला यह कि व्यक्ति जहाँ मृत को प्राप्त करता है, दूसरा गंगा नदी के तट पर, तीसरा पितृकुण्ड, चौथा मातृकुण्ड और पांचवा पिशाचमोचन पर श्राद्ध करने के उपरान्त पुरखों को तारने के लिये बिहार के गया क्षेत्र में स्थित बैद्यनाथ धाम में अंतिम रूप से श्राद्ध करने का विधान है। काशी के अष्ट कूपों में बुद्धकाल कूप, चन्द्रकूप, कलश कूप, धर्मकूप, शुक्रकूप, गोकरण कूप, कर्दम कूप तथा शुभोदक कूप है।
बृद्धकाल कूप मैदागिन चौमुहानी के पास दारानगर मुहल्ले में है, कलश कूप कश्मीरीमल की हवेली, चन्द्र कूप सिद्धेश्वरी मुहल्ले में, धर्म कूप मीरघाट मुहल्ले में, शुक्र कूप कालिका गली में तथा शुभोदक कूप छिŸानपुरा के ओंकालेश्वर मुहल्ले में (अराजी नं0 2074 पर स्थित है, जिसे अवांछनीय तत्वों ने कूप को हाल ही में पाटकर कब्जा कर लिया है।) पौराणिक मान्यता रही है कि काशी के कुण्ड व कूप प्राचीन काल में गंगा के समानान्तर मिलते रहे हैं। धीरे-धीरे गंगा की बड़ी धारा के समक्ष कुण्डों की छोटी व संक्षिप्त धारा विलुप्त होती गई और इस तरह कई सामानान्तर धाराओं का लोप हो गया। कुछ बचे-खुचे कुण्ड ही रह गये हैं, जो अपना अस्तित्व किसी पर्व आदि के कारण बनाये रखने में सफल रहे हैं।
लक्ष्मी कुण्ड के बारे में ऐसी मान्यता है कि भगवान शंकर ने काशी में 64 योगिनियों को भेजा। चौसट्टी योगिनी चौसट्टी घाट पर माता चौसट्टी के मंदिर के रूप में स्थापित है। जबकि शिव द्वारा भेजी गई मयूरी योगिनी लक्ष्मी कुण्ड पहुंची। तत्पश्चात् अलग-अलग कुण्डों के अस्तित्व को बनाये रखने में मयूरी योगिनी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। लक्ष्मी कुण्ड के निकट स्थित राम कुण्ड व सीता कुण्ड का भी प्राचीन काल में पौराणिक महत्व रहा। लेकिन उक्त कुण्डों पर किसी उत्सव, महोत्सव व पर्व न होने के कारण वे अपना महत्व खोते गये।
बदली परिस्थितियों में धीरे-धीरे मयूरी योगिनी द्वारा अस्तित्व में आयी राम कुण्ड व सीता कुण्ड, जानकी कुण्ड का लोप हो गया। लेकिन सोरहिया मेला के कारण लक्ष्मी कुण्ड का स्वरूप ज्यों का त्यों सुरक्षित है।
सरकारी उपेक्षा और कुण्ड की स्वच्छता के प्रति लोगों की उदासीनता के कारण यह जल कुण्ड भी धीरे-धीरे अपने अस्तित्व को खोता जा रहा है। इसके चारों तरफ भवनों के कारण इस पर अतिक्रमण का खतरा बना हुआ है। यदि शीघ्र कोई ठोस कारगर प्रयास नहीं किया गया तो इसके विलुप्त होने का खतरा बना हुआ है।
शंकुलधारा तालाब
शंकुलधारा तालाब के पास स्थित द्वारिकाधीश मंदिर को काशी के सप्तपुरियों एवं चारधा में स्थान प्राप्त है। काशी खण्डोक्त इस मन्दिर में भगवान द्वारिकाधीश की स्वयं भू प्रतिमा विराजमान है। इस प्रतिमा के संदर्भ में मान्यता है कि प्राचीन समय में तालाब में शंकु नाम का राक्षस निवास करता था जो भगवान शिव का अनन्य भक्त था, वह लोगों पर अत्याचार करता था। लोगों ने शंकु राक्षस के अत्याचार से मुक्ति के लिये भगवान शिव की आराधना की। भगवान शिव ने शंकु के उद्धार एवं लोगों को अत्याचार से मुक्त कराने के लिये पुरी के भगवान द्वारिकाधीश का आह्वान किया। द्वारिकाधीश ने शंकु का उद्धार कर लोगों को उसके अत्याचार से मुक्ति दिला दिया। तभी से इस तालाब का नाम शकोद्धार पड़ा। जो अप्रस होकर वर्तमान में शंकुलधारा के नाम से प्रचलित है। द्वारिकाधीश शंकु के उद्धार के पश्चात जब पुरी को गमन करने लगे तो माता पार्वती ने उनसे आग्रह किया कि ‘प्रभु आप यहीं निवास कर लोगों की रक्षा करें। द्वारिकाधीश ने आग्रह स्वीकार कर यहीं पर विराजमान हो गये। जो लोग चारो धाम की यात्रा में असमर्थ होते हैं, उन्हें काशी के जग्गनाथ मन्दिर (अस्सी) रामेश्वर मन्दिर (रामकुण्ड, लक्सा), बद्रीनारायण मन्दिर (गायघाट) एवं द्वारिकाधीश मन्दिर (शंकुधारा) में एक-एक दिन निवास करने पर चारों धाम की यात्रा का पुण्यफल प्राप्त होता है। काशी में भगवान जग्गनाथ जब रथयात्रा पर निकलते हैं तो उनका पहला पड़ाव द्वारिकाधीश मन्दिर पर होता है। वह द्वारिकाधीश से मिलने के पश्चात ही आगे की यात्रा आरम्भ करते हैं। मिलन के समय दोनों की आरती विधि-विधान के साथ की जाती है। इस तालाब में शंकोद्धार तीर्थ की स्थिति मानी गई है। तालाब के धार्मिक महत्व के बारे में ऐसी मान्यता है कि तत्कालीन समय में रानी भवानी के पति को कुष्ठ रोग हो गया था जो बहुत प्रयत्न करने के पश्चात भी ठीक नही हो रहा था, तभी किसी महर्षि ने उन्हें बताया की कर्क संक्रान्ति (जब सूर्य कर्क राशि में प्रवेश करते हैं।) के समय शंकुधारा तालाब में स्नान करायें और उसी भींगे वóों में द्वारिकाधीश का दर्शन-पूजन करें तो रोग से मुक्ति मिलेगी। रानी ने कर्क संक्रान्ति के दिन ऐसा ही किया और उनके पति को कुष्ठ रोग से मुक्ति मिल गई। उसी समय से प्रतिवर्ष कर्क संक्रान्ति (जो सामान्यतः 16-17 जुलाई को पड़ता है) के दिन शंकुधारा तालाब पर ‘कष्टहरिया’ मेला लगता है। जिसमें दूर-दूर से श्रद्धालु अपने कष्टों से मुक्ति के लिये यहाँ आकर तालाब में स्नान करने के पश्चात उसी भीगे वóों में भगवान द्वारिकाधीश का दर्शन-पूजन करते हैं।
यह तालाब धार्मिक दृष्टि से इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि यहाँ भगवान स्वयं तालाब मुखी हैं, अर्थात तालाब पर भक्तों के स्नान-ध्यान को भगवान द्वारिकाधीश प्रत्यक्ष रूप से देखते हैं और उनकी मनोकामनाओं को पूर्ण करते हैं। तालाब के पूर्व की ओर शंकुणेश्वर महादेव का मन्दिर स्थापित है, जिसके बारे में कहा जाता है कि शंकु राक्षस ने शिव की अराधना के लिये इस शिवलिंग को स्थापित किया था। इसके अतिरिक्त तालाब के दूसरे छोर पर लक्ष्मी मन्दिर, काली मन्दिर, हनुमान मन्दिर एवं साई मन्दिर भी प्रतिस्थापित है। भाद्र माह में लक्ष्मी मन्दिर में सोलह दिवसीय ‘सोरहिया मेला’ का आयोजन किया जाता है जिसमें विशेष रूप से देवी का पूजा-पाठ किया जाता है एवं मेला के अंतिम रात्रि को स्थानीय कलाकारों द्वारा क्षेत्रीय जनता के सहयोग से संगीत पूर्ण देवी जागरण की प्रस्तुति की जाती है। विभिन्न पर्वों तथा अवसरों पर भी मन्दिर प्रबन्धन द्वारा तालाब के आस-पास कई धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है गुरू पूर्णिमा को भी यहाँ मेले जैसा ही दृश्य रहता है, जबकि स्थानीय लोगों की सहभागिता से देवदीपावली के दिन दिये प्रज्वलन का दृश्य बड़ा ही मधुर एवं मनोरम लगता है।
मन्दिर परिसर में द्वारिकाधीश के अतिरिक्त काले पत्थर की सूर्य प्रतिमा, शिव मन्दिर, दक्षिणेश्वर हनुमान की प्रतिमा एवं रामानन्द की ध्यानमुद्रा में प्रतिमा प्रतिष्ठित है। दक्षिणेश्वर हनुमान की प्रतिमा तांत्रिक विधान द्वारा स्थापित की गई है। जहाँ तन्त्र साधना के लिये तांत्रिकों का भी आगमन होता रहता है।
कष्टहरिया मेला भी वर्तमान में अपभंश होकर कटहरिया मेला के नाम से प्रचलित हो गया है। जिसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि यहाँ इस दिन बड़ी मात्रा में पके कटहर के कोआ की बिक्री होती है, जो स्वादिष्ट होती है और लोग बड़े चाव से खाते हैं। लोग साल भर इस दिन की प्रतिक्षा करते हैं। मेला के दिन ही तालाब के पास स्थित व्यायामशाल में जोड़ी-गदा, कुश्ती, दंगल कबड्डी इत्यादि को प्रतियोगितायें आयोजित की जाती हैं जिसमें स्थानीय प्रतिभागियों के साथ ही अन्य क्षेत्रों के प्रतिभागियों की सहभागिता होती है।
मन्दिर परिसर में ही पारम्परिक विधि से संस्कृत में शिक्षा प्रदान की जाती है, छात्रों को निःशुल्क भोजन एवं निवास की व्यवस्था मन्दिर प्रबन्धन की ओर से की जाती है। वर्तमान में अध्ययनरत छात्रों की संख्या 20 है।
मन्दिर के वर्तमान महन्त श्री रामदासाचार्य एवं पुजारी आशुतोष शाóी हैं। मन्दिर सुबह 6 बजे से 12 बजे तक एवं सायं 4 से 9 बजे तक दर्शनार्थियों के लिये खुला रहता है। लगभग चार वर्ष पूर्व सरकार द्वारा तालाब की सफाई करायी गई थी एवं सुन्दरीकरण कराया गया था। परन्तु यह चिन्ताजनक है कि तालाब के एक किनारे पर कुछ लोगों द्वारा कब्जा एवं अतिक्रमण कर निवास तथा व्यवसाय किया जा रहा है जबकि खोजवां पुलिस चौकी इसके ठीक सामने है।
काशी के प्रमुख तीर्थ कुण्ड एवं स्थान
- लोलार्क तीर्थ कुण्ड भदैनी मुहल्ला में संदर्भ:- स्कन्दपुराण, काशीखण्ड, काशी रहस्य, शिव रहस्य उप सूर्य पुराण, काशी दर्शन।
- पुष्कर तीर्थ कुण्ड अस्सी मुहल्ला में, (ब्रम्हा मंदिर) संदर्भ:- स्कन्दपुराण, पùपुराण काशीखण्ड।
- भद्रवन तीर्थ कुण्ड भदैनी मुहल्ला में, सोनभौ, ञसोनभद्रेश्वर) संदर्भ:- स्कन्दपुराण, काशीखण्ड, काशी रहस्य।
- कुरूक्षेत्र तीर्थ कुण्ड रविनैपुरी कालोनी, कुःक्षे= में ञकुरूक्षेत्रेश्वर) संदर्भ:- स्कन्दपुराण, काशीखण्ड, काशी रहस्य और मानसी उल्लास।
- दुर्गा-तीर्थ कुण्ड दुर्गाकुण्ड मोहल्ला में, दुर्गाजी का मंदिर संदर्भ:- स्कन्दपुराण, शिवपुराण, पù पुराण, ब्रम्हवैवर्त पुराण, काशी दर्शन।
- बेनिया तीर्थ कुण्ड (वेणी तीर्थ) बेनिया बाग संदर्भ:- बनारस सिटी ऑफ लाइफ- डाइना, जेम्स प्रिन्सेप 1822 की पुस्तक।
- बकरिया कुण्ड (उत्तरार्क या बर्करी तीर्थ कुण्ड) अलईपुर क्षेत्र में स्थित बकरिया कुण्ड मुहल्ला संदर्भ:- काशीखण्ड अ0 42 श्लोक 72 में है, वाराणसी वैभव-पं0 कुबेरनाथ शुक्ल, ‘यह वाराणसी है’ -विश्वनाथ मुखर्जी
काशी का इतिहास-डॉ0 मोतीचन्द्र
- लक्ष्मी तीर्थ कुण्ड लक्ष्मीकु.ड मुहल्ला, ञमहालक्ष्मीश्वर) संदर्भ:- स्कन्द पुराण, केदार महात्म्य, पुराण तथा शिव रहस्य, ब्रह्मवैवर्त पुराण।
- अ/ाोर सा/ाना का केनै ञबाबा कीनाराम स्थलट ञक्रींकुण्ड) मुख्; द्वार ञरवीन्द्रपुरी कालोनी मार्गट ’ो“ा भाग ’िावाला मुहल्ला में, ञबेलवरिया) संदर्भ:- काशी खण्ड।
- पितृ कुण्ड और विमल कुण्ड पिशाचमोचन मोहल्ला पितर कुण्डा मोहल्ला व मातृ कुण्डा मोहल्ला संदर्भ:- स्कन्दपुराण, काशी खण्ड, काशी रहस्य, शिव रहस्य।
- हंस तीर्थ कुण्ड (हरतीरथ तातालाब) हरतीरथ मोहल्ला (विशेश्वरगंज क्षेत्र में) नोट:- अब अस्तित्व में नहीं है मौजा शहरखास आराजी नं0 1864 रकबा 3985 वर्गमीटर पाटकर कब्जा कर लिया गया है।
- तार-तीर्थ कुण्ड (ओंकारलेश्वर महादेव तालाब) (रानीभवानी द्वारानिर्मित) छित्तनपुरा मोहल्ला स्थित (ओंकारलेश्वर मोहल्लामें) (आराजी नं0 233 मौजा कज्जाकपुरा रकबा एक बीघा एक विस्वा पक्का तालाब) नोट:- अब अस्तित्व में नहीं है विकास प्राधिकरण द्वारा तालाब पाटकर एकता नगर कालोनी बनाकर बेच दिया गया है।
- कपाल मोचन तीर्थ कुण्ड लाट भैरव मुहल्ला, आदमपुर थाना अन्तर्गत् है। (यह पक्का तालाब है) संदर्भ:- काशीखण्ड अ0 97 श्लोक 64 से, स्कन्द पुराण, काशी रहस्य, पद्यम पुराण, और मत्स्य पुराण।
- रामकटोरा तीर्थ कुण्ड नाटी इमली स्थित रामकटोरा मुहल्ला में। दयनीय स्थित में है। संदर्भ:- काशीखण्ड, काशी यात्रा
– शिव प्रसाद गुप्त
- पाप मोचन तीर्थ कुण्ड नोवा (नौउंवाद्धपोखरा मुहल्ले में पाप मोचनेश्वर, पाप मोचन तीर्थ कुण्ड है। संदर्भ:- काशीखण्ड, ब्रह्मवैवर्त पुराण तथा लिंग पुराण।
- च्यवनेश्वर तीर्थकुण्ड लहरतारा मुहल्ले में धार्मिक महत्व का हिन्दू तीर्थ है। आराजी न0 145, 146, 147 व 148 संदर्भ:- काशी-दर्शन, पेज 183-189, जिसे पाटकर कब्जा कर लिया गया है।
- विनायक तीर्थ कुण्ड मंडुवाडीह मोहल्ले में है। संदर्भ:- स्कन्द पुराण, काशीखण्ड और काशी रहस्य से।
- सोनिया तीर्थ कुण्ड सोनिया मोहल्ले में। अवैध कब्जा जारी है।
- सगरा तालाब (सागर तातालाब) आराजी नं0 89, 91 व 92 पर मौजा शिवपुरवा में। नगर निगम द्वारा कूड़े से पाटा जा रहा है। अवैध कब्जा जारी है।
- नदेसर तालाब क्षेत्र कैन्टूमेन्ट रकबा 5.7 एकड़ पर तालाब था जिसे नगर निगम ने कूड़े से पाटकर जमीन को बेच दिया है। कैन्टूमेन्ट क्षेत्र में जाँच की कार्यवाही चल रही है।
- रूद्रवास तीर्थ कुण्ड यह सुग्गा गढ़ही के नाम से जाना जाता है, आदमपुर थाना क्षेत्र अंतर्गत्, कोयला बाजार के पास है। जिसे पाटकर कब्जा कर लिया गया है।
- शंकुलधारा सरोवर (द्वारिकानाथ तीर्थ कुण्ड) खोजवां स्थित शंकुल धारा मुहल्ले में है। (शंकुलरेश्वर द्वारिकानाथ का दर्शन होता है।) संदर्भ:- स्कन्द पुराण, केदार महात्म्य और काशी रहस्य से।
- ईश्वरगंगी तालाब अवसानगंज मुहल्ले में, ईश्वरगंगी मुहल्ले में (पक्का तालाब)
संदर्भ:- काशी खण्ड से।
- मन्दाकिनी सरोवर मैदागिन स्थित कम्पनीबाग के अन्दर है। संदर्भ:- काशी खण्ड से।
- मत्स्योदरी सरोवर वर्तमान में मछोदरी पार्क के अन्दर (अवशेष भाभाग) संदर्भ:- काशी खण्ड से।
- हाटकेश्वर तीर्थकुण्ड हड़हा मुहल्ला स्थित बेनियाबाग बस स्टेशन के पूर्व बगल में कुण्ड था। संदर्भ:- स्कन्दपुराण, काशी खण्ड, काशी रहस्य, काशी दर्शन से।
- वाराहाका देवी तीर्थ कुण्ड दुर्गाकुण्ड-गुहाबाई, कबीर नगर मुहल्ले में मुकुटेश्वर और वाराहारा देवी तीर्थ कुण्ड है। संदर्भ:- काशी खण्ड में, काशी रहस्य, काशी वार्षिक यात्रा, केदार अन्तर्गृही यात्रा में है। यह भूमि काशी में वाराहाका देवी का सिद्धपीठ है।
- सूर्य तीर्थ कुण्ड सूरज कुण्ड मुहल्ले में स्थित है जो सूर्य कुण्ड के नाम से प्रसिद्ध है। संदर्भ:- स्कन्द पुराण, शिव पुराण, काशी रहस्य में है। इसका धार्मिक महत्व है।
- वागीश्वरी देवी तीर्थ कुण्ड नागकुआँ के पास जैतपुरा (जैनपुराद्धमें वागीश्वरी देवी मंदिर के वागीश्वरी देवी तीर्थ कुण्ड था जो अब लुप्त हो चुका है।
(तालाब पट गया है।) नाग कुँआ पर शेषनाग के अवतार माने जाने वाले महर्षि पतंजलि की याद में उनके पाणिनी रचित सूत्राष्टाध्यापी के सूत्रों से नागकूपेश्वर महादेव का विल्वार्चन किया जाता है उसके बाद वागीश्वरी देवी मंदिर में अराधना की जाती है।
काशी पंचकोशी यात्रा में महत्वपूर्ण तीर्थ कुण्ड
- कर्दमेश्वर तीर्थ कुण्ड कन्दवां गाँव में।
- भीमचन्द गन्धर्व सागर तीर्थ कुण्ड भीमचण्डी गाँव में है (उल्लेख काशीखण्ड शिवपुराण में)
- सोमनाथ सिन्धु सरोवर तीर्थ दीनदास पुर गाँव के लंगोटिया हनुमान के पास
(स्कन्द पुराण और काशी रहस्य में)
- विन्दु सरोवर तीर्थ भटौली गाँव में देहली विनायक बिन्दु सरोवर तीर्थ है।
- कूप सरोवर तीर्थ (सोना तालाब) दीनदयालपुर गाँव में कूप सरोवरेश्वर और पूप सरोवर तीर्थ (सोना तालाब के नाम से प्रसिद्ध है और कपिल धारा के पहले है)
- कपिलधारा तीर्थ कुण्ड कपिलधारा मुहल्ला में वृषभध्वजेश्वर कपिलधारा तीर्थ कुण्ड है। यह धार्मिक महत्व का कुण्ड है। (उल्लेख.स्कन्द पुराण, ब्रम्हवैवर्त पुराण, पद्यम पुराण और शिव पुराण में है। काशी खण्ड के 62 वें अध्याय में कपिल तीर्थ का विस्तार से वर्णन है)
- सारंग तालाब सारनाथ में।
काशी के कूप एवं तालाब (कुण्ड)
कूप/कूआँ तालाब/कुण्ड
- खारी कुआँ-पानी खारा पर पाचक है। 1. अगस्त कुण्ड
- सेरा कुआँ 2. सप्त सागर
- नाग कुआँ 3. मान सरोवर
- नचनिया कुआँ 4. कर्ण घण्टा
- तुलसी कुआँ 5. सूरज कुण्ड
- रानी कुआँ 6. लक्ष्मी कुण्ड
- धर्म कूप 7. राम कुण्ड
- वृद्ध काल-हर कोने के पानी का स्वाद अलग है। (दारानगर मुहल्ले में है) 8. सीता कुण्ड
- लाल कुआँ 9. माता कुण्ड
- छोटी गैबी-पानी स्वास्थ्यवर्द्धक है। 10. पितृ कुण्ड
- बड़ी गैबी-पानी स्वास्थ्यवर्द्धक है। 11. दुर्गाकुण्ड
- पेटीगिरी ञगुरूबाग) 12. हरतीरथ
- रीठिया कुआँ (सिद्धगिरीबागद्ध(अबनहीं है) हृदय रोग एवं ब्लड पेशर के लिए अति उपयोगी था। 13. मत्स्योदरी
- औघड़नाथ का तकिया (पानी कब्ज दूर करता है) निपटान करवाता है। 14. मन्दाकिनी
- तीर्थ शुभोदक कूप, छिŸानपुरा स्थित ओंकारलेश्वर महादेव में आराजी नं0 2074 ग्राम कज्जाकपुरा पर। पाटकर कब्जा कर लिया है। 15. बकरिया कुण्ड (बर्करी कुण्ड)ः- (अलईपुर रेरेलवे स्टेशन के पास जी0टी0 रोड)
- कलश कूप-कश्मिरी मल की हवेली 16. मुकुट कु.ड ञकमच्छा)
- चन्द्र कूप-सिद्धेश्वरी मुहल्ले में। 17. पिशाचमोचन
- धर्म कूप-मीरघाट मुहल्ले में। 18. मणिकर्णिका
- शुक्र कूप-कालिका गली में। 19. मणि प्रदीप कुण्ड
- गोदावरी ञगोदौलिया)
- गणेश ताल
- ईश्वरगंगी
- सगरा-शिवपुरवा
- सोनिया
- पुष्कर अस्सी मुहल्ले में
- भाष्करा
- कुरूक्षेत्र
- रेवड़ी तालाब (रेवा तीर्थ)
- शंकु धारा-खोजवां में द्वारिकाधीश तीर्थ
- मिश्र पोखरा
- हड$हा ञआस्थनिपेक्ष तड़ाग)
- धुव कुण्ड-सनातन धर्म इण्टर कालेज के पास था।
- उर्वशी कुण्ड-औसानगंज में शिव नारायण मंदिर के उŸार में था।
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काम कुण्ड-यह कामेश्वर से दक्षिण में था।
- पादोदक कुण्ड-यह त्रिलोचन गली मकान नं0 एं0 3/87ए में है।
- तार तीर्थकुण्ड-ओंकारलेश्वर महादेव का तालाब जिसे पाटकर कालोनी बना दी गई, रानी भवानी ने निर्माण कराया था।
नोटः- काशी खण्ड के अनुसार 88 हद और 62 कुण्ड काशी में थे। इनमें से अनेक पट गये और वहाँ बस्तियाँ बस गयी हैं। काशी में जितने कुण्ड हैं, कभी इनमें मेला लगता था जिसके कारण प्रत्येक वर्ष कुण्ड की मरम्मत/सफाई आदि होती थी और आज भी कुछ जगहों पर मेला लगता है। बाकि उपेक्षित हो गये। पानी की सफाई आदि नहीं होती पानी पीने योग्य नहीं रह गया है।
कुण्ड जो इतिहास बन गये हैं:-
कुण्डो व सरोवरों का शहर बनारस इन दिनों जलाशयों के मामले में काफी उष्ण हो चुका है। कुण्ड तीर्थ के रूप में स्थापित रहे हैं। आबादी के बढ़ने के साथ ही कुण्डों के स्वरूप पर भी असर पड़ रहा है। तालाब, कुण्डों को पाटकर अवैध कब्जे किये जा रहे हैं। प्रशासन मौन एवं लाचार है।
- अगस्त कुण्ड अगस्त कुण्ड मुहल्ले में सिर्फ प्रतीक के रूप में स्थित है।
- इन्द्रेश्वर कुण्ड नाग कुआँ में स्थित था (जैतपुरा मुहल्ले में)
- उर्वशी कुण्ड औसानगंज में शिवनारायण मंदिर के उŸार में स्थित।
- अंगोरेश्वर कुण्ड ऋण मोचन के पास था, लेकिन अब समाप्त हो चुका है।
- काम कुण्ड यह कामेश्वर से दक्षिण में था।
- कालोदक कूप यह प्रसिद्ध कुआँ है। यह मकान नं0
के0 52/39 में स्थित है।
- गोकर्ण सरोवर इसे पाटकर इसी पर काजीपुरा मोहल्ला बसा है।
- गौतम कुण्ड यह गोदौलिया पर स्थित था।
- गौरी कुण्ड यह केदारघाट पर था।
- गन्धर्व सरोवर नागकुआँ के पश्चिम पर स्थित है।
- कर्णघंटा तालाब म0नं0 के0 60/67 में।
- जानकी कुण्ड यह सीताकुण्ड के नाम से प्रसिद्ध लक्सा पर स्थित है।
- ध्रुव कुण्ड यह सनातन धर्म इण्टर कालेज के पास था।
- पादोदक कूप यह त्रिलोचन की गली में पूर्व मकान सं0 ए 3/87 ए में स्थित है जो पिल पिला का कुआँ के नाम से प्रसिद्ध है।
- तार तीर्थ कुण्ड (रानी भवानी का तालाब) (ओंकालेश्वर महादेव तालाब) छिŸानपुरा मुहल्ले में 10वीं सदी में स्थापित ओंकालेश्वर में (आराजी नं0 233 रकबा एक बीघा एक विस्वा) जिसे पाटकर विकास प्राधिकरण द्वारा ‘एकता नगर कालोनी’ बना दी गयी है। जिसका उल्लेख स्कन्द पुराण, काशीखण्ड, काशी रहस्य, पù पुराण में है। हिन्दुओं का महत्वपूर्ण तार तीर्थ कुण्ड है।
- तीर्थ शुभोदक कूप छिŸानपुरा स्थित ओंकारलेश्वर महादेव के पूर्व में आराजी नं0 2074 मौजा कज्जाकपुरा पर था जिसे अवांछनीय तत्वों ने पाटकर भूमि पर कब्जा कर लिया है।
- पितृ कुण्ड पिशाचमोचन के दक्षिण तथा सूर्य कुण्ड के उŸार स्थित यह कुण्ड पितरकुण्डा के नाम से विख्यात है।
- मरीचि कुण्ड यह नाग कुआँ के उŸार में स्थित था जो अब लुप्त हो गया है।
- महासिद्ध कुण्ड इस कुण्ड को लेकर दो मत है। कुछ इस कुण्ड को सिद्ध कुण्ड मानते हैं तो कुछ भदैनी की भद्रवनी पोखरी को जो अब लुप्त हो चुकी है।
- रूद्रवास कुण्ड यह सुग्गा गढ़ही के नाम से जाना जाता है यह कोयला बाजार व छिŸानपुरा के पास का मुहल्ला है।
- अमृत कुण्ड वृद्धकाल के मंदिर में मकान नं0 52/39 में स्थित है।
- सुमता कुण्ड लुप्तप्राय, पाटकर कब्जा हो गया है।
- गंगा कुण्ड लुप्तप्राय, पाटकर कब्जा हो गया है।
- अज कुण्ड लुप्तप्राय, पाटकर कब्जा हो गया है।
- सागर तालाब लुप्तप्राय, पाटकर कब्जा हो गया है।
- कर्महन्या कुण्ड लुप्तप्राय, पाटकर कब्जा हो गया है।
- महाकुण्ड लुप्तप्राय, पाटकर कब्जा हो गया है।
- विजय तीर्थ स्थान कुण्ड लुप्तप्राय, पाटकर कब्जा हो गया है।
- मोक्ष कुण्ड लुप्तप्राय, पाटकर कब्जा हो गया है।
- राम कुण्ड रामकुण्ड मुहल्ले में स्थित था। रामतीर्थ का उल्लेख काशी खण्ड, काशी रहस्य, शिव रहस्य में है। यह तीर्थ केदार अन्तर्गृही यात्रा में है।
- विनायक कुण्ड मंडुवाडीह मुहल्ले में विनायक तीर्थ कुण्ड है, उल्लेख- स्कन्द पुराण, काशी खण्ड और काशी रहस्य में।
- तृवासना सरोवर कुण्ड पाटकर कब्जा कर मकान आदि बना दिये गये हैं।
- महामृत्यंजय कुआँ दारानगर स्थित महामृत्युंजय मंदिर के अन्दर है।
- औगढ़ तकिया का कुआँ कबीर चौरा बड़ी पियरी मुहल्ले में।