जब मुगल साम्राज्य का संघर्ष शुरू हुआ, तब से अब तक बनारस के जीवनगत विकास में बंगाली संस्कृति फैशन की तरह हावी रही है- एक समय बनारस की तीन चौथाई जमींदारी के स्वामित्व के कारण नहीं, बल्कि अपने आकर्षणों और स्वाभाविक माधुर्य की बदौलत, अपनी देनों और दानों की बदौलत, अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक और धार्मिक-राजनीतिक समझदारी और सक्रियताओं की बदौलत।
धर्म, शिक्षा और संस्कृति का सबसे बड़ा केन्द्र होने, विमुक्त क्षेत्र होने और वैधव्य के अशरण-शरण के रूप में प्रचारित होने के नाते काशी प्राचीनकाल से ही बंग काशी-उन्मुख रहा है। इस तथ्य की पुष्टि बंगला की साहित्यिक कृतियों, धर्मग्रन्थों और लेखों तथा कला-विशेषकर संगीत ग्रंथों में पड़े काशी के असंख्य संदर्भों से की जा सकती है। धार्मिक ललक और मोक्ष-कामना के साथ इस नगर में बंगालियों के आने की परम्परा उस समय से प्रारंभ होती है जब काशी पर बंगाल के पाल राजाओं का आधिपत्य था। दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में पाल राजाओं-धर्मपाल, मदनपाल एवं रामपाल द्वारा कितने ही हिन्दू एवं बौद्ध मंदिरों एवं चैत्य विहारों का निर्माण हुआ। इन्हीं मदन पाल के नाम पर यहाँ के मदनपुरा मुहल्ले का नामकरण हुआ। बंगालियों के काशी आगमन का दूसरा दौर 1515 ई0 चैतन्य महाप्रभु के काशी आगमन से शुरू होता है। महाप्रभु के साथ काफी संख्या में यहाँ आए बंगाली भक्त गायघाट-विश्वेश्वर गंज स्थित बंगाली बाड़ा में ठहरे जहाँ से आधे किलोमीटर की दूरी पर जतनबर में महाप्रभु का पड़ाव था और जहाँ आज चैतन्य महाप्रभु का मंदिर है। वह वट वृक्ष अब नहीं रहा जिसे कभी चैतन्यवट कहा जाता था। इसके बाद बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के आतंक और अत्याचार से स्वधर्म की रक्षा के लिए भागकर काशी आयी नाटोर (बंगाल) की महारानी रानी भवानी के साथ उनसे संबंधित, उनके आश्रित और उनके प्रति आदर भाव रखने वाले बंगाली नर-नारियों का एक बड़ा काफिला यहाँ आकर बस गया और फिर तो इन हजारों नर-नारियों के संबंध के कारण बंगाली जनता के लिए बनारस भी कलकत्ता की तरह अपना नगर बना गया। उस रानी भवानी का सम्पूर्ण वृत्तांत एक लेख में संभव नहीं है। इसी तरह उनके दीवान आनन्द मित्र तथा बंगाली ड्योढ़ी के मित्र बसु परिवारन के लोगों के वृत्तांत के लिए भी विस्तृत विवरण की अपेक्षा होगी जो भारतेंदु के पूर्वज बंगाल के जमींदार अमीचंद्र के साथ यहाँ आए और बंगाल की तरह यहाँ भी उनके पड़ोसी बने। इस परिवार में राजा राजेन्द्र मित्र दानवीर गुरुदास मित्र तथा अंग्रेजी-संस्कृत के विद्वान प्रमदा दास मित्र उल्लेखनीय थे। इनके दौहित्र परिवारों में उपेन्द्रनाथ बसु एवं ज्ञानेन्द्र नाथ बसु, एनी बेसेन्ट के अनन्य सहयोगी थे। महामना के भी वे बहुत करीब थे।
भारत में ब्रिटिश शासन स्थापित होने के बाद वाराणसी में भी पढ़े-लिखे बंगालियों का आगमन रेल, डाक-तार तथा अन्य सरकारी सेवाओsं के अलावा अध्यापक, डाक्टर और वकीलों के रूप में हुआ। आगे चलकर जब बंगाली ब्राह्मणों ने दान स्वीकार करना आरम्भ किया तब सेवायत और मंदिरों के पुजारियों के रूप में और बाद में अन्य व्यवसायों के माध्यम से भी बंगाली काशी आए। वाराणसी में जगबन्धु ब्रदर्स (फूल के बर्तन) मोहिनी-मोहन-कांजिलाल, हेमचन्द्र भट्टाचार्य एण्ड ब्रदर्स (बनारसी साड़ी) धारा ब्रदर्स (सोने के आभूषण) मल्लिक ब्रदर्स (हार्डवेयर) इण्डियन प्रेस और इउरेका प्रिटिंग प्रेस आदि दर्जनों बंगाली फर्में सौ वर्ष पूर्व से अब तक कायम हैं बंगालियों के लिए वैधव्य और वृद्धावस्था काशी में बिताने की आस्था और परम्परा आज भी विद्यमान है। बंगालियों का विधिवत वाराणसी प्रवास अब से कोई 215 वर्ष पूर्व से आरम्भ होता है। इस प्रकार का पहला परिवार वापुली परिवार है जो 1764 ई0 से आजतक केदारघाट मुहल्ले में बसा रह है और दूसरा मित्र बसु परिवार है जो बंगाली बस्ती से दो मील दूर चौखम्भा मुहल्ले की ‘बंगाली की ड्योढ़ी’ नाम से प्रसिद्ध इमारत में लगभग उन्हीं दिनों से अब तक कायम है। धीरे-धीरे अन्य परिवार भी आने लगे और बंगाल के समृद्ध एवं सुशिक्षित जनों में बनारस में निजी मकान बनवाने का एक फैशन सा चल गया। अब तो बनारस में भाषाई अल्पसंख्यकों के लिहाज से सबसे अधिक जनसंख्या बंगालियों की ही है।
काशी में बंगाली आए तो अपनी सारी सामाजिक और सांस्कृतिक परम्पराओं के साथ आए। इन परम्पराओं में खान-पान, पहनावे और भाषा के आलवा एक मधुर और कोमल व्यवहार, एक संक्रामक सौन्दर्य बोध, पूजा-अर्चना के मनमोहक और संगीतमय रंग-ढंग, जीवन की श्रृंगारिक मोहिनी और आधुनिकता के आकर्षण भी थे जिनके कारण ये बंगाली बनारसी जनजीवन में न केवल घुल मिल गए बल्कि इस जनजीवन के कम से कम अर्द्धांश पर बंग-रंग की स्थायी छाप छोड़ने में भी सफल हो गए। यही कारण है कि काशी में महाराष्ट्री, गुजराती, सिन्धी, पंजाबी नेपाली आदि या तो एकदम बनारसी बनकर अथवा बनारसीपन से एकदम कटकर रहते हैं, जबकि यहाँ हर बंगाली अगर आधा बनारसी है तो हर बनारसी भी आधा बंगाली है। बंगला बोलचाल के दर्जनों शब्द जहाँ बनारस की आम बोली में आ गए हैं वहीं भाई के लिए दादा (बल्कि बंगला लहजे में ‘दा’) शब्द लोगों की आदत बन चुका है। हिन्दू तो हिन्दू, शहर दक्षिण के मुसलमान भी ‘भाईजान या भाई साब’ कहना भूलकर ‘खालिद दा’, ‘अनवर दा’ कहते हैं। संभवतः इसलिए कि यहां बंगाली और मुसलमानी बस्तियां एक दूसरे से सटी हैं। मुहल्लों में बंगालियों के रहते कभी दंगा-फसाद नहीं हुआ। अब यदा-कदा जो तनाव बढ़ता है वह अन्य लोगों की घुसपैठ के कारण होता है।
बनारस में बंगाली नजारों की शुरूआत नगर के मध्य बिन्दु गौदोलिया चौराहे से पूर्व की ओर दश्वाश्मेध घाट को जाती सड़क पर कोई दो सौ मीटर दूर स्थित चितरंजन पार्क से होती है जहां देशबन्धु की मूर्ति स्थापित है। दशाश्वमेध क्षेत्र सर्वाजनिक उत्सवों, राजनीतिक-सामाजिक सभाओं और सांस्कृतिक आयोजनों का प्रमुख केन्द्र बन गया है। पार्क के बाहर दोनों तरफ गुमटीनुमा दुकानें हैं। इसके ठीक दायीं ओर प्रसिद्ध क्रांतिकारी स्व0 श्री राजेन्द्र लाहिड़ी का मकान है। थोड़ा आगे बढ़िए तो आपकी दशाश्वमेध सट्टी मिलेगी और इसके बाद कालीतल्ला। वैसे तो बंगाली बस्ती शुरू हो गई, लेकिन बंगालियों की घनी आबादी वाली बस्ती कालीतल्ले के अन्दर दाएं-बाएं की गलियों में है।
‘कालीतल्ला’ नाम से ही विदित है कि यह बंगला नाम है। यहां महाकाली की एक आपरूपी मूर्ति है जो सन् 1823 ई0 स्व0 श्री महिमाचन्द्र बनर्जी महोदय ने स्थापित की थी। कालीतल्ले से आगे बायीं ओर की गली ‘बंगाली टोला’ नाम से मशहूर है। नुक्कड़ पर श्री नन्दी महोदय की रसगुल्ले और संदेश की पचहत्तर वर्ष पुरानी दुकान है। भला बंगाली हो और वह मछली-भात और संदेश-रसगुल्ले न खाये? दायीं ओर की गली अगस्तकुण्डा भूतेश्वर को जाती है। इस क्षेत्र की अंतहीन गलियों में कोई तीन मील लम्बा बंगाली टोला, गणेश महाल, देवनाथपुरा, पातालेश्वर, हाड़ारबाग, राणामहल, खालिसपुरा, मुंशीघाट, पाण्डेहवेली, पाण्डे घाट, गंगामहल, नारदघाट, चौसट्टी घाट, मानसरोवर, केदारघाट, हरिश्चन्द्रघाट फिर गौदोलिया के पश्चिम की ओर लक्सा, रामापुरा, रेवड़ी तालाब, कमच्छा, सन्त नगर, सिद्धिगिरिबाग, भेलूपुर और मुख्य सड़क पर सोनारपुरा, शिवाला, भदैनी इत्यादि महालों में बंगाली बसे हैं-घाटों के रास्ते दशाश्वमेध से लगायत हरिश्चन्द्र घाट तक।
आगे बढ़ते ही रानी भवानी कटरा मिलता है। वाराणसी के इतिहास में नाटौर की रानी भवानी का नाम चिरस्मरणीय रहेगा। कहा जाता है कि रानी माँ की बाल धिवा रूपवती पुत्री तारा देवी पर बंगाल के तत्कालीन नवाब सिराजुद्दौला की गिद्ध दृष्टि पड़ गयी और उसने विवाह का प्रस्ताव भेज दिया और इस कारण रानी भवानी को बंगाल छोड़कर काशी आना पड़ा सर्वपरिचित विश्वनाथ गली के पीछे भी एक गली का नाम रानी भवानी गली है जो इस बात का संकेत है कि इस क्षेत्र में भी उन्होंने कुछ मकान दान किये थे। तत्कालीन काशी नरेश महाराज बलवन्त सिंह से अनुमति प्राप्त कर रानी माँ ने वाराणसी के प्राचीन मन्दिरों और कुण्डों का जीर्णोद्धार कराया और बृहत्तर काशी के पंचकोशी मार्ग में धर्मशालाएं भी बनवाईं।
जहाँ अन्य प्रदेशों के राजा-महाराजाओं ने काशी में मन्दिर और महल बनाए वहीं बंगाल के जमींदार भी पीछे न रहे। छोटे ही सही, पर असंख्य महान, मंदिर, क्षेत्र, इन लोगों ने भी बनवाए और हर एक इमारत के रख-रखाव और पूजन-भजन के लिए बंगालियों को ही नियुक्त किया। बंगाली टोला, देवनाथपुरा, सोनारपुरा, पातालेश्वर, केदारघाट की गलियों से गुजरने पर अन अनगिनत छोटे-छोटे आश्रमों, मंदिरों और देवोत्तर सम्पतियों का जाल बिछा हुआ मिलेगा जहां संगमरमर पर अंकित इन संपत्तियों के बंगाली स्वामियों के नाम आज भी दिखाई देते हैं। चार-पांच फुट चौड़ी गलियों में ईंट और पत्थर से बने इन आलीशान और भव्य भवनों को देखते ही बनता है।
घनी आबादी वाले लगभग तीन दर्जन मुहल्लों की मुख्य सड़कों और गलियों में बसे इन बंगाली परिवारों ने गत दो सौ वर्षों से वाराणसी में शिक्षा, कला-संगीत, खेल-कूद, नाटक तथा धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में जो कार्य किया है, वह इस नगर की सनातन सम्पत्ति बन चुका है। संस्कृत वांग्मय और भारतीय दर्शन के अध्ययन-अध्यापन और प्रचार-प्रसार का आधुनिक युग बनारस में बंगाली पण्डितों से ही शुरू और विकसित होता है। वेदान्त के अद्वैत सिद्धान्त के प्रचारक स्व0 पण्डित मधुसूदन सरस्वती तथा संस्कृत (अब सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय) कालेज के संस्थापक सदस्य पं0 काशीनाथ तर्कालंकार, पं0 चन्द्रनारायण न्यायपंचानन (जिन्होंने तर्क और न्यायशास्त्र में दक्षिण के अहोबाला शास्त्री जैसे प्रकाण्ड पंडित को शास्त्रार्थ में पछाड़ा) महामहोपाध्याय कैलाशचन्द्र शिरोमणि, राखालदास न्यायरत्न, पं0 वामाचरण न्यायाचार्य तथा हाल में ही दिवंगत हुए महान तंत्रज्ञ महामहोपाध्याय पं0 गोपीनाथ कविराज ने काशी के गौरव को कितना बढ़ाया है, यह सर्वविदित है। आधुनिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय तथा अन्य शिक्षण संस्थाओं से संबद्ध बंगाली शिक्षकों में सर यदुनाथ सरकार, प्रो0 श्यामाचरण डे, डॉ0 रमेशचन्द्र मजुमदार, डॉ0 एस0के0 मैत्रा, डॉ यू0सी0 नाग, प्रो0 चिन्तामणि मुखोपाध्याय, डॉ0 सनतकुमार बोस, प्रो0 एम0सेन0 गुप्ता, प्रो0 ए0के0 दास गुप्ता, प्रो0 रानादा ऊकील आदि गणित, विज्ञान, चिकित्साशास्त्र, टेक्नॉलाजी आदि क्षेत्रों में गर्व के साथ याद किये जाते हैं। जहां तक शिक्षण संस्थाओं की बात है, संस्कृत कालेज (1793, जो स्वतंत्रता के बाद संस्कृत विश्वविद्यालय बना) की स्थापना में पं0 काशीनाथ तर्कालंकार, हरिभूषण तर्कवागीश, चन्द्रनारायण न्यायरत्न, महामहोपाध्याय पं0 वामाचरण न्यायचार्य, राय बहादुर श्री प्रमदा दास मित्र और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना में श्री उपेन्द्रनाथ बसु, ज्ञानेन्द्र नाथ बसु, प्रो0 श्यामाचरण डे तथा पं0 मदन मोहन मालवीय के शिक्षक महामहोपाध्याय आदित्यनाथ भट्टाचार्य की भूमिकाओं को कभी भुलाया नहीं जा सकता। महाराजा जयनारायण घोषाल द्वारा 1814 में स्थापित जयनारायण कालेज, जिसे उन्होंने 1821 में एक चर्च मिशन के पादरी को दिया, उत्तर भारत में आधुनिक शिक्षा का सम्भवतः प्राचीनतम कालेज है जिसके छात्रों में डॉ0 भगवानदास, स्वामी श्रद्धानन्द और सुमित्रानन्दन पंत जैसे साहित्यकार भी रह चुके हैं। ऐसे ही बंगाली टोला इण्टर कालेज (1854) है, जिसने आचार्य क्षितिमोहन सेन, पं0 उदयशंकर नर्तक, पं0 रविशंकर सितारवादक और विख्यात क्रिकेट खिलाड़ी मुश्ताक अली जैसी प्रतिभाएं पैदा की हैं। चिन्तामणि ऐंग्लो बंगाली कालेज (1911) में स्थापित हुआ जिसके छात्र श्री प्रकश जी रह चुके हैं। दुर्गाचरण गर्ल्स कालेज, बिपिन बिहारी गर्ल्स इण्टर कालेज, रवीन्द्रभारती स्कूल और मूक बधिर विद्यालय भी बंगालियों द्वारा स्थापित संस्थाएं हैं। काशी को शिक्षा-संस्कृति की नगरी बनाए रखने में ये अविस्मरणीय योगदान देती रही हैं।
बंगाल के महापुरुषों जैसे-चैतन्य महाप्रभु, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, महाप्रभु विजयकृष्ण गोस्वामी, माता आनन्दमयी आदि ने भी बनारस में आकर विद्यालय, चिकित्सालय और सेवाश्रम स्थापित किए जिनमें रामकृष्ण मिशन, स्वामी प्रणवानन्द द्वारा स्थापित भारत सेवाश्रम संघ, आनन्दमीय करुणासंघ, सनातन गौड़ीय मठ, सुमेरु मठ, सिद्धि काली आश्रम, निंबार्काश्रम, मीरावाणी प्रचार मन्दिर, हरिनाथ प्रदायिनी सभा, आनन्ददायिनी सभा, भक्ति प्रदायिनी हरिसभा आदि उल्लेखनीय हैं।
जैसा पहले संकेत किया गया अपनी विशिष्ट भाषा और भूषा को अपनाते हुए बंगाली समाज मन-मिजाज से बनारसी था। इसलिए यहाँ की हर गतिविधि में वह क्रियाशील एवं रचनात्मक भूमिका निभाता था। राजनैतिक क्षितिज पर दृष्टि डालें तो चाहे कांगेस हो या आर0एस0एस0 या दूसरे दल हों सभी में बंगालियों का महत्वपूर्ण जुड़ाव रहा है। यही बात समाज सेवा के क्षेत्र में भी लागू है। अध्यापन, वकालत, चिकित्सा और सभी क्षेत्रों में बंगालियों का योगदान रहा है। बनारस में कांग्रेस की स्थापना ही सन् 1885 में श्री रामकाली चौधरी के कमच्छा स्थित बागान बाड़ी में हुई। यहां कांगेस के पहले अध्यक्ष वे ही थे और 10 साल तक वे ही भारतीय कांग्रेस सम्मेलन में इस नगर का प्रतिनिधित्व करते रहे। स्थापना काल तथा सन् 1905 में कांग्रेस के नगर अध्यक्ष श्री उपेन्द्रनाथ बसु रहे। इन्हीं के परिवार के श्री सत्येन्द्र नाथ बसु ने स्वतंत्रता संग्राम में चार बार जेल यात्राएं कीं। यह एक उदाहरण मात्र है। श्री तारापद भट्टाचार्य, श्री दुर्गादास भट्टाचार्य, श्री भवानी एवं श्रीमती मुकुल बनर्जी और प्रतुल शर्मन आदि न जाने कितने नाम हैं जो बनारस के लिए जीने-मरने वाले हैं।
कांग्रेस के अतिरिक्त दूसरी राजनीतिक विचारधाराओं से सम्बन्धित लोगों ने श्री सुनील मुखर्जी, वीरेश्वर मुखर्जी, डॉ0 बनर्जी, श्री अजय घोषद्व श्री शचीन्द्रनाथ बख्शी, श्री मन्मथ गुप्त और राजेन्द्र लाहिड़ी आदि कुछ नामों का उल्लेख किया जाय तो भी न जाने कितने नाम छूटे हुए रहेंगे। ये सभी बनारसी थे। शृंखला हाल ही में दिवंगत देबू मजूमदार तक अक्षुण्ण रही। आज भी श्री देव राय चौधुरी पार्षद श्री शंभुनाथ बातुल और श्रीमती ज्योत्सना श्रीवास्तव आदि की जनसेवाओं में वह परम्परा जीवन्त है।
वकालत के पेशे में रहकर अनेक बंगाली महानुभावों ने काशी की सेवा की। फ़ौजदारी में श्री उपेन्द्र चक्रवर्ती और दीवानी में श्री सुधीर कुमार बसु की शोहरत उत्तर में ही नहीं बिहार और बंगाल तक फैली थी। बनारस के ही श्री बी0 मलिक उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश बने। उनके पुत्र ने भी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का पद संभाला। वर्तमान समय में भी आर0एन0 बनर्जी दीवानी के नामी अधिवक्ता हैं। श्रम न्यायालय में श्री प्रीतीश विश्वास की प्रतिष्ठा से काशीवासी परिचित हैं।
चिकित्सा के क्षेत्र में डॉ0 गोपालदास गुप्त, डॉ0 सत्येन्द्र मुखर्जी, डॉ0 धुवज्योति मुखर्जी और कैप्टन एस0 के चौधरी के नाम सिद्ध और प्रसिद्ध रहे हैं। इसी तरह होमियोपैथी को अनेकानेक बंगाली चिकित्सकों ने लोकप्रियता प्रदान की। आयुर्वेद में तो बंगाली कविराज स्वनामधन्य थे ही।
संगीत क्षेत्र में भी बंगाली प्रतिभाओं ने काशी का नाम रोशन किया। वीणावादन के क्षेत्र में श्री शिवेन्द्र नाथ बसु का नाम आज भी अद्वितीय है। ये भारत कला परिषद के संस्थापक मंत्री थे। इसी परिवार के श्री जितेन्द्र नाथ कश्मीर महाराज के शिक्षा विभागाध्यक्ष थे जिनकी प्रेरणा से यहाँ रणवीर संस्कृत पाठशाला की स्थापना हुई। संगीत की दूसरी विभूतियों में श्री महेशचन्द्र सरकार, श्री आशुतोष भट्टाचार्य और श्री राम चक्रवर्ती आदि अनेक गौरवपूर्ण नाम हैं।
इसी तरह नाटक क्षेत्र में भी अनेक बंगालियों का अतुलनीय योगदान रहा है। इनमें दारानगर के बीरे बाबू, हरिश्चद्र कालेज के प्रिंसिपल बीरेश्वर बनर्जी, नील कमल चटर्जी, बेला गांगुली, सुधीर चन्द्र चक्रवर्ती और शुभमय चक्रवर्ती आदि अनेक गौरवपूर्ण नाम हैं।
इसी तरह नाटक क्षेत्र में भी अनेक बंगालियों का अतुलनीय योगदान रहा है। इनमें दारानगर के बीरे बाबू, हरिश्चन्द्र कालेज के प्रिंसिपल बीरेश्वर बनर्जी, नील कमल चटर्जी, बेला गांगुली, सुधीर चन्द्र चक्रवर्ती और शुभमय चक्रवर्ती आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
पत्रकारिता में भी कई बंगालियों ने अपना कीर्तिमान बनाया। काशी से निकलने वाली शायद ही कोई पत्र-पत्रिका रही हो जिसे संपादकीय विभाग में किसी न किसी बंगाली की साख न रही हो। श्री विश्वनाथ मुखर्जी तो एक ही व्यक्तित्व में साहित्यकार, पत्रकार और समाजसेवी सब कुछ थे।
काशी के नगरीय सभ्यता के विकास में बंगालियों का योगदान एक बड़ी शोध परियोजना का विषय है। अपनी प्रखर मेधा, मनस्विता और लगन के कारण बंगाली जिस कार्यक्षेत्र में गया, वही उसने कुछ न कुछ ऐसा करके दिखाया जो काशी की संस्कृति को नया आयाम देने वाला सिद्ध हुआ। लक्ष्मी कुण्ड निवासी श्री गोपालचन्द्र साहा एक बहुत अदने इंसान की तरह साइकिल से चलते हुए दिखलाई पड़ते किन्तु वे रेगुलर फाउन्टेनपेन का निर्माण किया जब हमारे देश में एक सुई तक विदेश से आती थी। उनके पिता डॉ0 बृजनाथ साहा थे जिन्होंने चिकित्साविज्ञान, भाषा विज्ञान और अन्य कई अनुशासनों में राष्ट्रीय क्षितिज पर प्रतिष्ठा प्राप्त की थी तथा जो बीसवीं सदी के प्रारम्भ से ही काशी में बस गए थे। गोपाल चन्द्र साहा के एक पुत्र श्री शुभजीत साहा आज भी अपने ढंग के अनोखे कलाकार हैं। उन्होंने नारियल की खोल द्वारा हजारों आधुनिक कलाकृतियों तैयार की है। यह कला उन्हें जीवन की न्यूनतम सुविधाएं भी नहीं दे सकती, यह जानते हुए भी वे कुछ नया कर दिखाने के लिए आकुल रहते हैं।
इस तरह बंगालियों के लिए काशी कलकत्ते से कम प्रिय नहीं रही है। काशी में बंगला प्रभाव देखना हो तो दूर्गापूजा के उत्सवों की बढ़ती लोकप्रियता के रूप में देखा जा सकता है जब शिव की नगरी शक्तिमयी हो जाती है।
तीन स्मरणीय चरित्र
श्री रामगति गांगुली : मुक्ति-संग्राम की कटी अंगुली-बंगाली टोला में घूमते हुए उन्हें ढूंढ ही रहा था कि 85 वर्षीय वृद्ध क्रान्तिकारी एक सर्द और अंधेरी गली में धीरे-धीरे अकेले डोलते-चलते मिल गए। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की रोमांचक कहानी का पूरा बनारसी हिस्सा एक झटके में मेरे दिमाग से गुजर गया और मै, स्वतंत्रता के उस जीवित, पवित्र किन्तु उदास सपूत के चरण छूना भूलकर कुछ क्षण सोचता रहा- 1947 के पहले जिस व्यक्ति के पीछे हजारों की संख्या में युवक-युवतियां देश की स्वतंत्रता के लिए जुल्म और जोखिम से लापरवाह होकर सीना ताने चलते थे, आज वह अकेला, निहायत तनहा चला जा रहा है, नियति भी कितनी निष्ठुर है उफ्….अपना परिचय देते हुए मैं उनसे कुछ जानकारी लेने की आज्ञा मांग ही रहा था कि वे बोल पड़े, “हां-हां, मैं तुम्हें जानता हूँ, क्या लिखोगे?…..अब तो कोई हम लोगों को पूछता ही नहीं। अच्छा, घर चलो। तुम तो नेताजी सुभाष परिवार के संबंधी हो, तुम्हें हम बैठाएंगें कहां? हमारे कमरे में तो बिजली भी नहीं है।” “आप चिन्ता न करें” मैंने कहा, “आप जहां भी स्थान देगे, मैं बैठ जाऊंगा और लालटेन या मोमबत्ती की रोशनी से भी काम चल जाएगा।”
उनके साथ मैं और मेरे साथी चित्रकार अनूप हो लिए। पाण्डे घाट स्थित उनके निवास-स्थान पर पहुंचकर हम एक कमरे में गए। सीलन की गंध छोड़ता हुआ एक अंधेरा कमरा, एक लालटेन, दो टूटी कुर्सियां, एक टूटी खाट, गिनतीभर के सस्ते बर्तन, थोड़े पुराने वस्त्र, बस। ख्यातनामा क्रांतिकारी तथा वाराणसी में 1928 से 1946 तक के सारे कांग्रेस-आन्दोलन की अगली पंक्ति के नेता श्री रामगति गांगुली का यही घर है, यही जीवन, यही जमा पूंजी! और इस पर, बेहया न हो पाने की लाचारी में स्वयं श्री गांगुली और बेहया होने की खुशी में कुछ मंत्री ही गर्व कर सकते हैं, मेरे जैसा अपने आप में दुखता-दहकता आदमी नहीं गर्व कर सकता। मैं दो तरफा तनाव में था एक ओर गुस्सा था, एक स्वतंत्र देश में विकास के तीस वर्ष बीत जाने के बाद भी एक क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी ऐसी सीलन, ऐसा अंधेरापन जीने के लिए क्यों विवश है- आखिर क्यों? और दूसरी तरफ अपनी बौद्धिक निरर्थकता का बोध और यह प्रश्न था सामाजिक और राजनीतिक न्याय में मेरे जैसे लोगों की भूमिका का क्या मतलब है इस देश में, हमारी हैसियत क्या है इस व्यवस्था में? आत्मग्लानि और लज्जा के दबाव में मैं सवालों से बार-बार उन्हें न छेड़कर, कई उतार-चढ़ावों वाली एक जीवन-कथा सपाट जबान में सुनता रहा।
“मैंने सन् 21 में कानून की शिक्षा छोड़कर भारतमाता की मुक्ति के लिए संघर्ष करने का व्रत लिया। उसी साल अंग्रेज राजा के भारत आने पर किये गये बायकाट आन्दोलन में भाग लेने के कारण छह मास की सजा हुई। कलकत्ते के लाल बाजार थाने में पिटाई हुई और एक अंग्रेज सार्जेन्ट की बेंत की मार दी दाढ़ी की ठुड्ठी में गढ्ढा हो गया। वहां से हमें अलीपुर जेल भेजा गया। उस समय अलीपुर जेल में स्व0 श्री बारीन घोष, श्री चितरंजनदास (जिनके नाम पर चितरंजन पार्क है), काजी नजरुल इस्माल इत्यादि लोगों से परिचय हुआ। बारीन दा से प्रभावित होकर मैं युगान्तर क्रातिन्कारी दल में शामिल हो गया। सन् 1928 में सर स्टेनली जैक्सन की गाड़ी पर बम फेंकने का काम मुझे ही सौंपा गया। यह काम मिदनापुर से गढ़वस्ता जाने वाली ट्रेन पर करना था। बम फेंक कर मैं फरार हो गया।……कुछ दिन जंगलों में भटकता रहा और अंत में गिरफ्तार कर कलकत्ता लाया गया, लेकिन मुकदमें में सन्देह का लाभ पाकर छूट गया। फिर कुछ दिन यूं ही बीते। पिता जी (प्रसिद्ध वकील श्री रामदुर्लभ गांगुली) अवकाश प्राप्त कर काशीवास करना चाहते थे। पर मेरा मन अशान्त था, पांडिचेरी भी गया, लेकिन आश्रम-वाश्रम मुझे नहीं भाया। इतने में सन् 1929 में बंगाल के तत्कालीन गवर्नर लार्ड लिटन का हुक्मनामा मिला- “बंगाल की धरती से दस वर्षों के लिए निष्कासन।”….मैं तो विद्रोह करना चाहता था, पर मित्रों ने राय दी, पिता जी के साथ काशी चले जाओ, नहीं तो अंग्रेज सरकार तुम्हें अण्डमान निकोबार भी भेज सकती है, सो मैं काशी चला आया।
यहां मेरा परिचय प्रसिद्ध क्रांतिकारी श्री राजेन्द्र लाहिड़ी से हुआ। मेरे पिता जी और राजेन्द्र लाहिड़ी के भाई जीतेन्द्र लाहिड़ी में अच्छी मित्रता थी। इसी जीतेन्द्र लाहिड़ी ने स्व0 डॉ0 सम्पूर्णानन्द जी से मेरे बारे में कहा। डॉ0 सम्पूर्णानन्द ने पुछवाया कि वह तो क्रांतिकारी है, कांग्रेस के अहिंसक आन्दोलन में भाग लेगा कि नहीं? मैंने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर बंगाली टोला में कांग्रेस कमेटी स्थापित की और हजारों नवयुवकों का दल बनाया। कुछ महिलाएं थीं, जैसे-श्रीमती गिरिबाल चक्रवर्ती, श्रीमती अन्नपूर्णा बसु, श्रीमती कर्णवती गांगुली, श्रीमती कामता देवी शर्मा, श्रीमती कुसुमकुमारी बनर्जी आदि साथ आईं जिन्हें कालान्तर में कारावास भी भुगतना पड़ा।
5 जनवरी 32 को मैंने गांधी जी के नमक सत्याग्रह में भाग लिया। मैं चार हजार लोगों का जुलूस लेकर चितरंजन पार्क से धारा 144 तोड़कर टाउनहाल पहुंचा। वहां अंग्रेज कलक्टर ने कहा-तुम एक सौ चौवालिस तोड़ा, हम कुछ नहीं बोला, अब डिस्पर्स हो जाओ। पर हम कहा मानने वाले थे?…..जबरदस्ती फाटक तोड़कर घुसने की चेष्टा करते ही दनादन गोली चल पड़ी, गोली मेरे पैर की अंगुली में लगी-देखो, यह देखो।”
वृद्ध क्रांतिकारी ने अपना पैर दिखाया, मैं हतप्रभ सा देखता रहा-दो अंगुलियां गायब थीं। उन्हेंने अपनी जीवन-कथा आगे बढ़ाई:
“इसी तरह कांग्रेस आन्दोलनों में भाग लेता रहा, सजाएँ भुगतता रहा। सन् 1939 में नेताजी सुभाष के कांग्रेस छोड़ने पर मैं उनके फारवर्ड ब्लाक पार्टी का उत्तर प्रदेश का मंत्रा बनाया गया। सुभाष बाबू के साथ मैंने उत्तर प्रदेश का दौरा किया है। उनके जर्मनी चले जाने पर ट्रांसमीटर द्वारा संदेश भेजने की जिम्मेदारी मुझ पर ही थी।……पांच साल मैं गंभीर रूप से अस्वस्थ हो गया था, तुम्हारे चाचा सत्येन बाबू ने ही मेरी चिकित्सा की व्यवस्था माता आनन्दमयी अस्पताल में करायी थी।
दो सौ रुपया माहवारी पेंशन मिलता है, पर देश की दुर्दशा देखता हूँ तो ग्लानि से मन भर जाता है। क्या हम लोगों ने ऐसे ही दिन देखने के लिए अपना जीवन भारत के मुक्ति संग्राम में लगाया था?”
श्री हीरालाल बापुलीः न ब्राह्मण न जमींदार
वाराणसी में दीवानी के मशहूर वकील श्री हीरालाल बापुली से भेंट करने उनके केदारघाट स्थित निवास स्थान पर गया तो देखा, वे मुवक्किलों से घिरे हुए हैं और किसी मुवक्किल को कानूनी राय देते हुए खांटी बनारसी बोली में कह रहे हैं, “ई कगदवा हमरे पास छोड़ जा, कल आए। एके हम बूझ लेईं त तोह के समझा देब कि कइसे का करे के होई।”
उनके पास बैठकर मैंने कहा- वाराणसी के प्रवासी बंगालियों में आपका परिवार सबसे पुराना है, इसके बारे में कुछ प्रकाश डालिए।
‘भाई, कोई कागज-पत्र तो संभाल कर रखा नहीं उन्होंने कहा, “1719 का एक राजदारी परवाना है, जो आजकल के पासपोर्ट जैसा होता था। उसमें लिखा है कि मेरे पूर्वज स्व0 श्री इन्द्रनारायण बापुली अवध के नवाब गाजीउद्दीन नासिरुद्दीन हैदर के दरबार में वजीर हुआ करते थे। राजदारी परवाने में व्यक्ति और उसके साथ के माल-असबाब (घोड़ा, हाथी, ऊंट, जेवर आदि) का हवाला रहता था जिसे सीमा चेकपोस्ट पर देखा जाता था। श्री इन्द्रनारायण जी शिवरात्रि और अन्य त्योहारों पर काशी आते थे, सो दीवानगिरी से अवकाश प्राप्त करने पर काशीवासी हो गए। यह बात कोई 1760 ई0 की होगी।
मेरे इस प्रश्न पर कि आप लोग तो ब्राह्मण हैं, फिर दीवानगिरी का पेशा कैसे करने लगे-क्या परिवार के किसी व्यक्ति ने पुरोहिती या शिक्षाविद कार्य नहीं किया? उन्हेंने कहा, “ब क्या कहा जाए, कैसे दीवान बने? हमी को देखो, वकील हैं। हमारे यहां पुरोहिताई का काम किसी ने नहीं किया, हम लोग जमींदार थे। बंगाल में ब्राह्मण जमींदार और राजपरिवार भी अनेक थे। हमारी जमींदारी वाराणसी जिले में भी मौजा नादी, निधोरा और रामगढ़ में थी। हमी लोग सर्वप्रथम एक बंगाली ब्राह्मण को काशी लाए जो हमारे और तुम्हारे यहां पूजा-पाठ करते थे।”
“आपका मकान तो नया लगता है, कोई पुराना भी कहीं रहा क्या?” मेरे यह पूछने पर श्री हीरालाल बोले, हमें तो पता नहीं, पर रहा तो अवश्य होगा। यह तो हमलोगों का अस्तबल था जिसे 50 वर्ष पूर्व मेरे पिता जी ने मकान के रूप में परिणत किया था।”
श्री हीरालाल जी ने अन्त में यह रहस्य भी बताया कि हमारे परिवार को श्री रामकृष्ण परमहंस के आतिथ्य का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।
बैद्यनाथ मुखर्जी : रिक्शावाला नं0 1
आधुनिक वाराणसी के बारे में लिखते हुए यदि ‘दी रेस्टूरेंट का जिक्र न किया जाय तो कहानी अधूरी रह जाती है। इसे एक संस्था कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। शहर की आदत में शुमार गोदौलिया चौराहे के पास स्थित ‘दी रेस्टूरेंट’ के मालिक श्री बैद्यनाथ मुखर्जी का हिन्दी नामकरण ‘बद्री दा’ हो गया है। इन बद्री दा के अनुसार 1928 में स्थापित ‘टी रूम’ सन् 1930 में ‘दी रेस्टूरेंट’ में परिवर्तित हुआ। दिल्ली, कलकत्ता और लखनऊ के काफी हाउसों की तरह यह स्थान भी सदा से बुद्धिजीवियों और राजनीतिक लोगों का अड्डा रहा जो आज लुप्त हो चुका है। करीब बीस वर्ष पूर्व यह यहां अधिकतर पत्रकार, लेखक, कलाकार और खिलाड़ी जुटा करते थे।
बद्री दा स्वयं खिलाड़ी रहे हैं और खेल के प्रति उनकी रुचि तब भी वैसी ही थी, जब उम्र ढलने लगी थी। वाराणसी में खेलकूद के प्रसार, खिलाड़ियों को प्रशिक्षण और प्रोत्साहन देने में प्रतियोगिताओं के संयोजन संचालन और बाहर से आए खिलाड़ियों की देखभाल में वे सबसे आगे रहते थे। इस मद में उन्होंने कितना पैसा और समय लगाया, इसका कोई लेखा-जोखा नहीं है। नेशनल स्पोर्टिंग क्लब की स्थापना उन्होंने ही की।
वाराणसी में बद्री दा और उनके बड़े भाई अभय दा ही प्रथम रिक्शा लाए, जिसे दोनों भाई स्वयं चलाते थे। पहले पहल दोनों भाइयों को इक्के और तांगेवालों से प्रतिस्पर्धा के कारण उनका कोप-भाजन होना पड़ा। मार भी पड़ी, “इस रिक्शा चालन व्यवसाय से आज वाराणसी में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से न जाने कितने लोग जीविकोपार्जन करते हैं।”
बद्री दा ने बड़े गर्व से बताया- “हमारे यहां श्रीमती कानन बाला, सत्यजीत राय, प्रोमोथेस बरूआ, ऋषिकेश मुखर्जी जैसे फिल्मकार, प्रबोध सान्याल जैसे लेखक, शैलेन मित्रा, पंकजराय, मुश्ताक अली, सी0एम0 नायडू, क्लाडियस के0डी0 सिंह बाबू जैसे खिलाड़ी, सुन्दरैया, डांगे, राजनारायण, ज्योतिर्मय बसु, प्रभु नारायण, रुस्तम सैटिन, जेड0 ए0 अहमद जैसे राजनीतिक और शचीन्द्र सान्याल, शचीन्द्र नाथ बख्शी जैसे क्रान्तिकारियों ने आकर भोजन किया और अड्डे बाजी की है।”
तो ऐसे थे बद्री दा और ऐसा था उनका दरबार-‘दी रेस्टूरेंट, जो अगर किसी कारण किसी दिन बन्द हो जाता तो लगता, सारा शहर ही बन्द है। बद्री दा हर बंगला नव वर्ष के दिन अपने अड्डेबाजों और मित्रों को खूब खिलाते और संगीत सुनवाते थे।