काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के विज्ञान संकाय के व्याख्यान संकुल में तीन दिनो कें ‘‘पुरातत्व में विज्ञान के नये आयाम’’ विषयक गोष्ठी के समापन में सागर विश्वविद्यालय के डॉ0 सुरेन्द्र यादव ने ‘‘ब्रह्मवैवर्त’’ पुराण के आधार पर दावा किया कि काशी में वरूणा के साथ अरूणा नदी भी बहती थी, लेकिन कालान्तर में यह विलुप्त हो गई, ‘‘प्रो0 यादव का यह दावा कितना वास्तविक है इसका प्रमाण स्वयं अरूणा नदी है, जो आज भी अपने स्थान में विद्य्मान है। वर्तमान में लोगों द्वारा उसका पुराना नाम भूलकर नया नाम ‘‘राजापुर नाला’’ रख दिया गया है।
वर्तमान सारनाथ रेलवे स्टेशन से गोरखपुर की ओर जाने वाली रेलवे लाइन के बाईं ओर एक विशाल झील थी, जिसमें सिंघाड़ा एवं मछली का उत्पादन बहुत होता था, जो नया रेलवे स्टेशन बनने के बाद भी कई वर्ष तक जीवित रही एवं उसकी एक तरफ सारंगनाथ का मन्दिर था। उस झील से वर्तमान मूलगंध कुटी विहार मन्दिर के पीछे से अरूणा नदी निकल कर वर्तमान पक्षी विहार एवं हिरण विहार उद्यान से होते हुए वर्तमान अकथा गाँव होते हुए वरूणा पर पुराना पुल एवं रेलवे पुल के बीचो-बीच वरूणा नदी में मिलती थी।
नया रेलवे स्टेशन बनते समय स्टेशन पहुँचने के लिए जब रास्ता बनाया गया तब झील के कुछ हिस्से को मिट्टी से पाटा गया पर मन्दिर के साथ लगे हुए ताल के हिस्से को मुख्य ताल से जोड़े रखने के लिये रास्ते के नीचे विशाल सीमेंट के पाइपों को लगा दिया गया था। इस तरह इस विशाल झील से काटकर सारंग तालाब बनाया गया। कालान्तर में उस झील को सरकार की ओर से पाट देने के कारण अरूणा नदी सूख गयी। सूखे झील के पेट में विहंगम योगाश्रम एवं साधना के अनेक संस्थान का भवन बना हुआ है पर उसके र्खाइं को लोग नहर के रूप में प्रयोग करने लगे जिसमें खेती की जाती रही। बाद में वह भी लगभग समाप्त हो गया पर अरूणा का वरूणा में संगम तक का कुछ भाग आज भी विद्यमान है।
इन बातों का समर्थन ‘‘अकथा’’ गाँव के उत्खनक प्रो0 विदुला जायसवाल द्वारा उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा ‘‘संस्कृति पुरातत्व एवं धरोहर’’ (20-29 नवम्बर 2013) कार्यशाला में दिये भाषण में मिलता है, जिसमें उन्होंने बताया कि -सारनाथ मेें प्राप्त पत्थर की मूर्तियाँ चुनार के बलुआ पत्थर के बनेक हैं। ये पत्थर चुनार के जिस खदान से निकाले गये थे, वह भी मिला है। वे पत्थर वहाँ से नाव में लादकर गंगा होते हुये अरूणा एवं वरूणा संगम से होते हुए अरूणा नदीे द्वारा अकथा गाँव लाया जाता था। फिर उसे तराश कर सारनाथ भेजा जाता था। इसलिये अकथा पर सन्तराजो की बस्ती बन गयी थी। जिसके कारण बाजार भी बन गया। पत्थर उतरने के घाट को स्थानीय लोग ‘ऋषिपत्तन’’ कहने लगे क्योंकि वैदिक काल में साधु सन्तो को लोग ऋषि-मुनि कहते थे और गौतम बुद्ध वैदिक काल के आखिरी पड़ाव के व्यक्ति थे। सारनाथ से कुछ ही दूर दक्षिण-पूर्व एक ह्द (पोखरे) के पास बंगाल के (गंगासागर) सांख्य दर्शन के प्रवक्ता महर्षि कपिल ने अपना साधना स्थल बना कर ‘‘बृषध्वज’’ शिवलिंग प्रतिष्ठत किये थे। इसलिये उस स्थान को कपिलधारा एवं उस ह्द का नाम कपिलधारा कुण्ड पड़ा महाभारत के अरण्यक पर्व (82/69-70) में काशी के शैवतीर्थ के रूप में इसका उल्लेख किया गया है।1 इस तरह बंगाल के महान दो योगी महर्षि कपिल काशी क्षेत्र के उत्तर एवं उनका पुत्र कर्दम दक्षिण क्षेत्र को अपना साधना क्षेत्र बनाकर क्षेत्र रक्षक के रूप में प्रतिष्ठित हुये।
इसी तरह वाराणसी की पहचान वरूणा एवं अस्सी नदी, नौकरशाहो के चलते नाला में बदल गयी। जबकि जावालोपनिषद में इसे नदी ही कहा गया है। वर्तमान में अस्सी नदी के उद्गम को लेकर व्यास एवं पण्डांे और पुरातत्व खोजियों में काफी मतभेद है। व्यास एवं पण्डे इसका उद्गम बिन्दु सरोवर मानते हैं। जो कर्दमेश्वर हृद से लगभग आधा कि0मी0 उत्तर में स्थित है। वर्तमान में लोग उसे रेवागीर तालाब कहते हैं। उत्तर प्रदेश पुरातात्विक विभाग के बड़े बाबू श्री कुमार आनन्द पाल जी का कहना है ‘‘रेवागीर तालाब का पानी बहकर कर्दमेश्वर तालाब में आता है और कर्दमेश्वर से फिर बहकर अस्सी के खाई में गिरता है। इस बात से यह स्पष्ट हो जाता है कि इन सरोवरों का पानी अस्सी के खाई में मिलता है। इसका मतलब अस्सी का उद्गम और आगे है। मेरे द्वारा वाराणसी का जो प्राकृतिक नक्शा (पृ0-255) जो 1978 ई0 के बाढ़ का अवलोकन करते हुये बनाया गया था; उससे पता चलता है कि अस्सी नदी का उद्गम वाराणसी के उत्तर-पश्चिम मंे स्थित विशाल लहरताल (लहरतारा) से होता था। गर्मी के मौसम में ताल का पानी कम हो जाने पर अस्सी में पानी का अभाव होने लगता था। सूखे के समय ताल का पानी कम हो जाने पर अस्सी में पानी का अभाव होने लगता था। इसलिये उसे शुष्क नदी भी बोला जाता था पर वर्षा ऋतु में इसमें पानी बहुत तेज बहता था। अस्सी नदी वाराणसी नगर को किस प्रकार सुरक्षा प्रदान करती थी उसका वर्णन मुस्लिम आक्रमणकारियों के साहित्य में मिलता है। बैहाकी ने ‘‘तारिख ए सुबुक्तगिन’’ (पृ0-100) में लिखे हैं- वे (नियलतिगिन) अपने फौज के साथ 1033 ई0 में लाहौर से राजपूतों से बहुत रूपया वसूल कर गंगा पार कर उसके बाई ओर नीचे उतरने लगे। एकाएक वे बनारस नाम के शहर पहुँच गये, वहाँ गंग नाम का राजा राज करता था। वे शहर से दो फलांग दूर थे। चारो ओर पानी था, फौज सुबह से दोपहर के नमाज तक रूकी थी। ज्यादा रूकना खतरे से खाली नहीं था। कपड़े, इत्र और जौहरियों का बाजार लूट लिया गया, इससे ज्यादा कुछ करना सम्भव नहीं था। फौजी अपने घर जाने के लिये उतावले थे क्योंकि वे अपने साथ लूटे गये सोना-चाँदी, इत्र, हीरा, जवाहरात लेकर सकुशल लौटना चाहते थे।
आज वाराणसी के पहचान को बचाने के लिए नौजवान अध्यापक डॉ0 गणेश शंकर चतुर्वेदी माननीय उच्च न्यायालय के सहयोग से अस्सी नदी को सीमेन्ट के पाईप में कैद होने से बचा रखे हैं पर इसकी सुरक्षा कब तक हो पायेगी वह तो प्रदेश की शासन व्यवस्था ही बता सकती है।
काश्याचार्य-तपन कुमार घोष