अखाड़ा-व्यायामशाला

धूर भी जिस जमीं का पारस है-अखाड़ों की दुनिया बनारस है

काशी में एक जमाने में ‘धूर’ को लोग अपना आभूषण मानते थे। दो घंटे ‘धूर’ में ‘लोटाई’ न की तो चैन कहाँ। गमछा उठाया, लँगोट पहना और चले अखाड़े की ‘धूर’ में लोटने। ‘लँगोट की मजबूती’ का मुहावरा आज भी यहाँ प्रसिद्ध है लेकिन समय बदला, युग बदला, परिवेश बदला। इसी के साथ ‘धूर’ का महत्व भी कम होता गया। उस समय बनारस के युवकों में अखाड़े जाने की होड़ थी। हर वर्ग के युवक ‘धूर’ पोतने जाते। पहलवानी करना प्रतिष्ठापरक माना जाता। किसी परिवार में अगर कोई नामी पहलवान निकला तो उसकी प्रतिष्ठा दोगुनी हो जाती। लेकिन खेद है अब पहलवानी का शौक बनारस के अहीर जाति के लोगों तक ही सिमटता जा रहा है। बहुत कम दूसरे वर्गों के लोग पहलवानी में लगे मिलेंगे। नयी सभ्यता, नया युग इस कला पर भी हावी हो रहा है। आज बनारस में मल्ल कला का जो भविष्य है उसे यह डर लगता है कि कहीं यह टूटती श्रृंखला की कड़ी तो बन कर नहीं रह जायेगी। ढेर सारे अखाड़ों में कितने पहलवानों ने इधर काशी का नाम रोशन किया? कितने पहलवान अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर खरे उतरे? सम्भवतः वर्तमान समय में उन्हें अँगुलियों पर गिना जा सकता है। बनारस में अखाड़ों की संख्या बहुत है। कहा यह जाता था कि यहाँ पहले मुहल्ले-मुहल्ले में अखाड़े थे। लेकिन कुछ अखाड़े समय के साथ हाशिये में मिट गये। फिर भी अभी अखाड़ों की संख्या बहुत है।

प्रमुख अखाड़ा

हनुमान जी व्यायामशाला

भले ही समय बदला, परिवेश बदला, रहन-सहन का ढंग बदला लेकिन काशी में एक चीज जो नहीं परिवर्तित हुई वह है यहां का मस्ती भरा अंदाज। आज जबकि भविष्य के ताने-बाने बुनने और उसे संवारने के लिए बड़े शहरों सहित मझले व छोटे शहरों के लोगों के पास बात करने तक कि फुर्सत नहीं है वहीं, खांटी बनारसी अब भी मुंह में पान घुलाये या चाय की चुस्की के साथ चिंता से मुक्त गली मोहल्ले में घंटों अड़ीबाजी करते हुए मिल जायेगा। इसका यह मतलब नहीं है कि यहां के लोग अपने भविष्य को लेकर गंभीर नहीं हैं बावजूद इसके काशी की मस्तमौला परंपरा आज भी देखने को मिल जाती है। भोले की इस नगरी की कुछ जीवित परंपराओं में से एक है अखाड़ा। नये बनारस में अब शरीर शैष्ठव यानी फिट रहने के लिए तमाम जिम खुल गये हैं जहां लोग बाकायदा शुल्क जमाकर कालीन पर आधुनिक साजो-सामान से व्यायाम करते हैं। जिम में आकर्षण के सारे सामान होने के बाद भी काशी के अखाड़ों में दो-दो हाथ करने वाले पहलवानों की कमी नहीं है। पीली मिट्टी में लोटने के साथ गदा, जोड़ी सहित कुश्ती के दाव सीखते तमाम युवा काशी के पुरातन अखाड़ों में मिल जायेंगे। वहीं, पुराने पहलवान भी अखाड़ों की शान बढ़ाने में पीछे नहीं रहते। काशी के कई अखाड़ों के समाप्त होने के बाद भी बहुत से अखाड़े आज भी व्यायाम करने वालों से गुलजार हैं। जहां से कुश्ती का ककहरा सीखने वाले पहलवान दूर-दूर तक दंगलों में पहलवानी का लोहा आज भी मनवाते हैं। अखाड़ों की इसी श्रृंखला में शिवाला घाट पर स्थित हनुमान व्यायामशाला का अतीत पहलवानी की दुनिया में रसूखदार रहा है। इस अखाड़े की माटी से दांव-पेंच सीखकर कई पहलवानों ने पहलवानी में काफी ख्याति अर्जित की। दूर-दूर होने वाले दंगलों में यहां के पहलवान बढ़चढ कर हिस्सा लेते थे। इससे जुड़े पहलवानों का ज्यादातर समय अखाड़े में रियाज करते ही बीतता था। इस अखाड़े की स्थापना 102 वर्ष पहले 1912 में हुई थी। उस दौरान इस अखाड़े का स्वरूप अलग था। करीब एक बिस्से क्षेत्र में फैले इस अखाड़े में उत्साही युवा अभ्यास करने आने लगे। धीरे-धीरे अखाड़े में आने वालों की संख्या काफी अधिक हो गयी। परिणामतः अखाड़े में पहलवानों की स्वस्थ प्रतियोगिता होने लगी। जिसका नतीजा यह हुआ कि यहा के पहलवानों ने कुश्ती के क्षेत्र में काफी नाम कमाया। इस अखाड़े की उपज रहे कन्हैया, रामनाथ, जगन्नाथ, पापे सरदार पहलवान ने कई दिग्गजों को दंगल में धूल चटाया। करीब 70 वर्ष के हो चुके पहलवान चमन प्रजापति अब भी 2 सौ से ज्यादा बार तक गदा भांजते हैं। उनकी यह नियमित दिनचर्या है। उनके अनुसार इस अखाड़े की बड़ी प्रतिष्ठा थी। यहां एक से बढ़कर एक बलिष्ठ पहलवान हुए। जिन्होंने यहां का नाम रोशन किया। वहीं, छोटू पहलवान का जोड़ी भांजने में कोई सानी नहीं है। लड़की के बने जोड़ियों जिनका वनज 20-20 किलोग्राम है उसे बिना रूके छोटू सौ बार से अधिक बार फेरते हैं। अखाड़े में 30 जोड़ी, 35 गदा, 2 नाल समेत व्यायामक े आधुनिक सामान भी मौजूद हैं। वर्तमान में करीब तीन दर्जन लोग अखाड़े में नियमित रूप से व्यायाम करने पहुंचते हैं। अखाड़ा सुबह 6 बजे से रात 9 बजे तक खुला रहता है। हालांकि ज्यादातर लोग दोपहर में ही रियाज के लिए आते हैं। अखाड़े में हनुमान जी का छोटा सा मंदिर भी है अखाड़े में रियाज करने वाले हनुमान जी का आशीर्वाद लेकर ही उतरते हैं।

पंडाजी का अखाड़ा- 
बाँसफाटक की ढलान के बाई तरफ पंडाजी का अखाड़ा है। यह आधुनिक अखाड़ों की दुनिया में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। अखाड़े के वर्तमान संचालक भवानी शंकर पाण्डेय के अनुज श्री गणेश शंकर पाण्डेय हैं। पं0 महादेव पाण्डेय इसके संस्थापक थे। उन्हें पण्डा जी कहा जाता था। पहले यहाँ अखाड़ा नहीं था। तलवार भाँजना, बरछी चलाना आदि सिखाया जाता था। पण्डा जी रामकुण्ड के अखाड़े में कुश्तियों के लिए जाते थे। कुश्ती के प्रेमी होने से उन्होंने निजी व्यय पर इसका निर्माण किया। इस अखाड़े में मंगलाराय, गुँगई, नत्था, श्रीपत, रामबालक आदि प्रसिद्ध नाम पैदा हुए। इन्हें राष्ट्रीय स्तर पर सफलता मिली। मंगलाराय को इलाहाबाद के एक दंगल में गुँगई पहलवान ने पलक झ्ापकते दे मारा था। महाराष्ट्र केशरी प्राप्त श्रीपत ने ‘खचनाले’ से दो महीने तक काँटे की लड़ाई मोल ली। मामला बराबरी पर तय हुआ। गुँगई अपने आप में दाँव प्रसिद्ध माने जाते थे। श्रीपत को ‘करइत साँप’ कहा जाता था। मंगलाराय ने देश तथा वर्मा के पहलवानों को पछाड़ा था। पाकिस्तान के गुलाम गौरा निजाम को इन्होंने ‘ढाँक’ पर चित्त कर दिया था।
राज मन्दिर अखाड़ा- 
राज मन्दिर बनारस के दो सौ वर्षों तक का तप किया हुआ अखाड़ा है। इसे मुगदर और जोड़ी का प्रतिष्ठान कहा जाता था। काशी के विख्यात ‘कुन्नूजी’ के पुत्र श्री रघुनाथ महराज का ‘बलशौर्य’ की दुनिया में महत्वपूर्ण तथा प्रतिष्ठाप्रद स्थान रहा। ‘कून्नू’ जी मुगदर में प्रवीण थे। वे खड़ाऊँ पहन कर जोड़ी फेरा करते। स्नान के समय पाँच मन का पत्थर काँख में दबा लेते और फिर स्नान करके उन्हें अपने स्थान पर रख देते। वह भारी पत्थर आज भी  अतीत की गाथा सुनाता है, जो शीतला घाट पर मौजूद है। वे एक महीने में सवा लाख डण्ड किया करते थे। इनके दो पुत्रों बुच्ची महराज और मन्नू महराज ने अखाड़े की चमक बरकरार रखी, जिसमें बुच्ची महराज तो 93 वर्ष तक प्रौढ़ दिखाई पड़ते थे। वे ब्रह्मचारी थे। उन्हें जोड़ी कला में ‘साफा सम्राट्’ माना जाता था। इसके बाद अनन्तू महराज, कन्हैयाजी तथा केशव महराज ने परम्परा को जीवित रखा। यह अखाड़ा जोड़ियों में काफी नाम कमाया। ‘हाल बाली’, सफेदा, भीम, मरकटैया, भीम भैरो, लाल, काली, नागर, चन्दन आदि जोड़ी में इसका नाम है। इसमें मरकटैया जोड़ी की जिले भर में धाक है। इसकी मुठिया पर जो लट्टूनुमा है, वह बताशे की बनावट सा है। वह इतना छोटा है कि अच्छे-अच्छे पहलवानों के छक्के छूट जाते हैं। नागपंचमी के दिन इन जोड़ियों का प्रदर्शन होता है। अखाड़े के बाहर भीतर जोड़ियों की भरमार है। इस अखाड़े के कुछ प्रमुख महत्वपूर्ण नाम हैं- पकौड़ी महराज, बदाऊ साव, केदार, काशी, बद्री, पाठक, नाटे, बिस्सू, विश्वनाथ, गनेसू सरदार, ननकू देवी बल्लभ, कन्हैया नाऊ, पन्ना लाल, मोहन गोरी तथा चिल्लर। कन्हैया महराज इसके वर्तमान संचालक हैं।
अखाड़ा शकूर खलीफा- 
अखाड़ा शकूर खलीफा की स्थापना 1914 में शकूर खलीफा ने की। पहले यह अखाड़ा घुँघरानी गली, फिर छत्तातले और उसके बाद 1934 में बेनियाबाग के एक अन्दरूनी किनारे पर लग गया। तब से आज तक यह काशी के प्रमुख पहलवानों को जन्म देता रहा। शकूर मियाँ स्वयं एक अच्छे पहलवान थे। इनके समय में जग्गू सेठ के अखाड़े से खूब काँटे का संघर्ष रहा करता था। लेकिन प्रतिस्पर्धा सिर्फ अखाड़े तक ही। व्यक्तिगत जिन्दगी में तो सभी दोस्त थे। वहाँ प्रसिद्ध पहलवान महादेव को शकूर ने ‘धोबियापाट’ पर चारो खाना चिŸा कर दिया था। तत्कालीन रामसेवक को भी इन्होंने परास्त किया। इस अखाड़े के प्रमुख नाम हैं- साडू, राजा, जुमई, कमलू, जपन, खलीफा, वजीफा, सुलेमान, साहेब आदि। राजा के बारे में तो विख्यात है कि इनके जैसी रान पूरे भारत में किसी के पास नहीं थी। सरकारी कुश्ती दंगलों में इसी अखाड़े के गुलाम गौस ने सुप्रसिद्ध मंगलाराय को ‘कैंची’ लगाकर दे मारा था। किन्तु ईश्वरगंगी की कुश्ती में मंगला राय ने उन्हें पटका। शकूर के पुत्र मजीद ने नागपुर में करीब 25 कुश्तियाँ जीती। वे तीन बार गंगा तैरकर पार किया करते थे।
 
तकिया मुहल्ले में लाल चहारदीवारियों के बीच अखाड़ा- 
 
लहुराबीर तक जाने वाली सड़क पर दाहिनी ओर तथा काशीपुरा को एक गली, जो लखनऊ की भुलभुलैया से भी ज्यादा खतरनाक है, तकिया स्थित एक मुहल्ले में यह अखाड़ा लाल चहारदीवारियों के बीच घिरा है। अन्दर ढेर सारी समाधियाँ नजर आती हैं। उनके संचालकों का दावा है कि यह औरंगजेब के जमाने का अखाड़ा है। इस अखाड़ें से सम्बन्धित एक ऐतिहासिक तथ्य यहाँ के संचालक बताते हैं- औरंगजेब के शासन काल में कई औघड़ों को कैद कर लिया गया। बाबा ब्रह्मनाथ, जो उस समय के प्रसिद्ध औघड़ थे, जेल गये। उन्होंने अपने चमत्कार द्वारा बिना किसी के चलाये सभी चक्कियों को चला दिया। बाबा फिर यहीं जीवित समाधिस्थ हुए। वहाँ तेरह समाधियाँ और कुआँ है। इस कुएँ के पानी से उदर रोग ठीक हो जाता है। बताया गया कि पहले यहाँ अखाड़ा नहीं था। श्मशान घाट था। गंगा बहती थी। औघड़ों ने इसे सिद्ध स्थल बना दिया। यहाँ कुश्तियाँ नहीं होतीं। जोड़ियाँ फेरी जाती हैं। दयाराम, शीललाल, बाबूलाल ने खूब नाम कमाया।
अखाड़ा रामसिंह- 
अखाड़ा रामसिंह के पहले ‘धूर पर गदा और जोड़ियाँ फेरी जाती थी। बाद में रामसिंह ने कुश्ती शुरू कराई। रामसिंह स्वयं बनारस के गजब के लड़वैये थे। बेनियाबाग स्थित इस अखाड़े के पहलवानों ने खूब नाम कमाया। सर्वजीत यहाँ का ही पहलवान था। इसने मजीद, हुसेना, अद्धा, अदालत नट आदि को शिकस्त दी थी। ‘चाँदी’ ने मेरठ के प्रसिद्ध हफीज को चारो खाना चित्त कर दिया। लक्ष्मीकान्त पाण्डेय, चिक्कन यहीं के पलवान थे। उन्होंने ओलम्पिक कुश्तियों में भारत का नाम रोशन किया। अमेरिका आदि में अपनी मल्ल कला का प्रदर्शन किया। झ्ाारखण्डेय राय अपने जमाने के नामी पहलवान थे। इनकी लड़ाई टाउनहाल में हिन्द केशरी विजय कुमार से हुई। महाराष्ट्र सरकार ने इन्हें स्वर्ण पदक दिया। बनारस का प्रसिद्ध शामू यहीं का पहलवान रहा। उसने अरसे तक बनारस केशरी का खिताब अपनी झ्ाोली में रखा। अपने समय में भारत द्वितीय स्थान रखने वाले बनारसी पाण्डेय ने दिल्ली में ओलम्यिन सुदेश कुमार से कुश्ती लड़ी। झ्ाारखण्डेय राय की कुश्ती दादू चौगुले, सज्जन सिंह, आगरा के तेजबहादुर व हरियाणा के मिल से हुई थी। भग्गू पहलवान ने रामजीत, सिक्कड़, बिजली, किंकड़, किंकड़, जीऊत आदि नामी पहलवानों को दे मारा था। ओलम्पियन राजेन्द्र ने खूब नाम कमाया। किशुन मोहन से लड़ाई में वि0वि0 के अध्यक्ष स्व0 कपुरिया पराजित हुए थे। इस अखाड़े ने अब तक 6-7 हजार पहलवानों को पैदा किया। आज भी वहाँ रोज करीब 50-60 पहलवान जोर आजमाइश करते हैं।
मुहल्ला बड़ागणेश अखाड़ा-
 हरिश्चन्द्र कालेज की पश्चिमी-दीवार से होती हुई गली में कुछ कदम पर मुहल्ला बड़ागणेश में यह अखाड़ा है। इसके संस्थापक नरसिंह चौतरा के महन्त शालिग्राम थे। बाहर से आने वाले तमाम नामी पहलवानों का जमावड़ा यहाँ होता था। यहाँ के निर्देशक विन्देश्वरी शुक्ल की लड़ाई गोरखपुर के किताबू नट, कानपुर के अद्धा तथा उमानाथ से हुई थी। मशहूर पहलवान खड़गा सिंह इन्हीं का शिष्य था। वाराणसी के शिवमूरत तथा मंगलाराय इनकी छत्रछाया में पले। बुद्धू और कल्लू ने यहाँ तहलका मचा दिया था। जहूर, साधो, बोधा, सुमेर, सर्वजीत, भैयालाल, फक्कड़, चमाँव, झिगुरी आदि नामी पहलवानों से कुश्तियाँ हुई। कृष्णकुमार और मंगलाराय ने काफी नाम कमाया। सिगरा के कृष्णानन्द ने कई कुश्तियाँ लड़ी और जीती। यह अखाड़ा करीब डेढ़ सौ वर्ष पूर्व स्थापित हुआ था। 
अखाड़ कालकू सरदार- 
त्रिलोचन घाट के ठीक ऊपर अखाड़ा कालूक सरदार आज भी अपने सुरक्षित अवस्था में अपने सुधरे हुए भविष्य के साथ स्थित है। इस पुराने अखाड़े में दो चीजें बदली हैं। एक तो रजिस्ट्रेशन के तुरन्त बाद इसके नाम का नवीनीकरण हो गया। दूसरे सिलमिटी ऊँचाइयों के बीच इसमें आधुनिक तरीकों का स्वरूप घर कर गया। आजकल यह त्रिलोचन व्यायामशाला के नाम से प्रसिद्ध है। पहले यह अखाड़ा गायघाट पर था, फिर बद्रीनारायण और त्रिलोचन मन्दिर के पिछवाड़े पर स्थित था। बाद में कालकू सरदार ने जो स्वयं भी लब्ध प्रतिष्ठ पहलवान थे इस अखाड़े की नींव डाली। यहाँ कुछ सालों से जोड़ियाँ भी प्रारम्भ हो गयी हैं। कन्हैया सरदार, सान्ता और सुमेर जोड़ी फेरने वालों में प्रमुख हैं। ‘बनारसी’ का नाम कुश्ती के लिए लिया जा सकता है। यहाँ बारमल और मलखम भी होता है। ढाई सौ से अधिक पहलवान प्रशिक्षित हो चुके हैं। व्यावसायिकता की कमी से यह अखाड़ा प्रसिद्धि न पा सका। 
बबुआ पाण्डेय अखाड़ा-
 बबुआ पाण्डेय अपने जमाने के रईस थे। पाण्डेय घाट, मन्दिर, अखाड़ा। पाण्डे हवेली नामक मुहल्ला इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। इस अखाड़े का रास्ता, अनबूझ्ा गलियों में टेढ़े-मेढ़े लम्बे रास्ते से होकर गुजरता है। प्रारंभ में इस अखाड़े के गुरु बबुआ पाण्डेय थे। फिर मुनी, विश्वनाथ, वेदी, भानुप्रताप ब्रह्मचारी यहाँ के गुरु हुए थे। ये सभी कुश्ती के माहिर थे। पन्ना, प्रहलाद, बीरु ने कुश्तियों में इस अखाड़े का नाम रोशन किया। अब मुहल्ले वाले मिल-जुलकर इस अखाड़े में सहयोग करते हैं।
अखाड़ा अधीन सिंह-
 अखाड़ा अधीन सिंह को कई नामों से पुकारा जाता है। ईश्वरगंगी अखाड़ा, बजरंग व्यायामशाला आदि। ईश्वरगंगी का पोखरा बनारस प्रसिद्ध है। यहाँ लाल रंग की दीवारों से घिरा लम्बा चौड़ा अखाड़ा अपने अतीत के गौरव को गाता दीख पड़ता है। इस अखाड़े को अजीत सिंह ने स्थापित किया। उनके शौर्य के बारे में कहा जाता है कि इनके पास पत्थर के बहुत भारी दो शेर थे जिसे वे काँख में दबाये रोज अखाड़े में जाते, उसे नहलाते फिर घर चले जाते। यह बात लगभग दो सौ वर्षों की है। फिर शिवनन्दन, खेलावन, श्यामा दादा, लक्ष्मी, मुनीव, लालजी साहू तथा रामलाल आदि ने इसे सँवारा। लालजी ने अखाड़े के सौन्दर्य में वृद्धि की। उन्होंने गाजीपुर के नथुनी और नवाब गढ़ के ठाकुर को दे मारा था। यहाँ कुश्ती, गदा, जोड़ी मलखम तथा पैरा बल आदि की व्यवस्था है। होरी, टुल्लू, भोला, विश्वनाथ, जीऊत, काशी, गोपाल, शोभा तथा दूधनाथ आदि उल्लेखनीय नाम हैं। 
अखाड़ा वृद्धकाल- 
मैदागिन चौराहे-दारानगर वाली सड़क से जुड़ी दाहिनी ओर घूमने वाली सड़क, जो महामृत्युंजय मन्दिर तक जाती है। हर बनारसी यहाँ मनोकामना के लिए आता है। यहीं अखाड़ा वृद्धकाल है। मन्दिर के पण्डा जी इसके संचालक हैं। अखाड़ा अत्यन्त प्राचीन है और मन्दिर के अन्दर हैं पहले यहाँ कुश्तियों की सरगरमी रहा करती थी। ‘साँकड़े’ वाली जोड़ी यहाँ की देन है। इसे फेर सकना सबके वश की बात नहीं, जो भी इसे फेरा हैं ईटों की सहायता से। लेकिन केदारनाथ दीक्षित ने इसे सामान्य रूप से फेर कर ख्याति अर्जित की। तेजप्रताप की उस्तादी में भारत सिंह, काली चरण, मेवा, मुन्ना, प्यारे शिवशंकर सरदार आदि ने प्रसिद्धि पाई। मलखम में राजकुमार को तो ‘बनारसबाज’ की उपाधि मिली। शीशा वाली जोड़ी को बनारस ने खूब फेरा। आज यहीं जोड़ियों का अखाड़ा बन गया है। कुश्तियों वाला जमाना तो कुछ और था।
नदेसर स्थित अखाड़ा ‘विष्णु राम’- 
नदेसर स्थित अखाड़ा ‘विष्णु राम’ की स्थापना विष्णु यादव ने की। ये 93 वर्ष में दो जोड़ी गदा फेरते थे। 1938 में दंगलों की प्रदर्शनी में इन्हें जो ख्याति मिली वह बनारस के किसी को अब तक नहीं मिल सकी है। इनाम में दो मन से ऊपर का एक गदा मिला। इस गदे को फेरना आसान काम नहीं है। मिर्जापुर के दंगल में बाजी मार कर लाया गया एक जोड़ी भी सुरक्षित है। इस अखाड़े से मटरू, दूधनाथ, विरजू, खरबरन, मँहगू, दुलारे, महेन्द्र, सुरेन्द्र, मन्नर, श्यामलाल और कमलेश यादव ने नाम कमाया। यह लक्ष्मी घाट पर अत्यन्त खुली जगह में प्राकृतिक सौन्दर्य के मध्य झ्ाूल रहा है। 
जग्गू सेठ अखाड़ा-
 बाँसफाटक की ढलान से उतरते हुए गिरनार के इधर ही, सेवा सदन तक जाने वाली गली में, घुँघरानी गली में घुसते ही, यह अखाड़ा मौजूद है। यह लगभग सवा दो सौ वर्ष पुराना अखाड़ा है। मीरघाट के स्थानीय निवासी जग्गू सेठ ने अपने निजी खरीद पर यह अखाड़ा बनाया। इस अखाड़े के पास ही हनुमान मन्दिर, शिव मन्दिर तथा एक कुँआ भी है। जग्गू गुरू बनारस की हस्ती थे और बेजोड़ पहलवान भी। आठ हजार बैठकी पाँच हजार डण्ड मारकर सैकड़ों पट्ठों को उसी दम लड़ाना मामूली बात थी। ईश्वरी नारायण सिंह जी के समय में रामनगर में एक दंगल हुआ था। काशी नरेश स्वयं वहाँ थे। मुकाबला जग्गू गुरू और मेरठ के बादी पहलवान से तय था। बादी के बारे में कहा जाता कि वह कभी हारा ही नहीं। अखाड़े में हाथ मिलाते ही जग्गू गुरू ने उसे ‘ढाँक’ पर दे मारा। इनके पुत्र छन्नू गुरू ने भी खूब नाम कमाया। 1918 में छन्नू गुरू का यौवन और शौर्य उनके प्रतिद्वन्द्वियों में काँटे घोल गयी। भारत प्रसिद्ध पहलवान वाहिद खाँ का नाम उस समय सुर्खियों में था। वह भी यहीं का शिष्य था बाद में वह अन्यत्र चला गया। छन्नू गुरू ने एक कुश्ती में लड़ते-लड़ते एक ऐसा हिक्का मारा कि मुँह से अँजुलियों खून निकल आया। छन्नू गुरू ने कई बड़े-बड़े पहलवानों को यहीं के अखाड़े पर पटक कर अखाड़े का मान वर्द्धन किया। आज भी इस अखाड़े में सैकड़ों पट्ठे जोर आजमाइश करते हैं। 
पानी पाँड़े का अखाड़ा- 
गायघाट पर पानी पाँड़े का अखाड़ा है। जिसके संस्थापक रघुबीर मिश्र थे। उनके पौत्र महेश मिश्र ने इस अखाड़े की गरिमा बनाई। इसे आजकल अखाड़ा हनुमान गढ़ी कहा जाने लगा है। अयोध्या के दामोदर ब्रह्मचारी से हुई कुश्ती में दादा जी 59 मिनट तक लड़ते रहे अन्त में मामला अनिर्णित रहा। टोका, झ्ाारखण्डे, बिलान, रामलोचन ने कुश्तियों में बड़े-बड़े के छक्के छुड़ा दिये थे। राधेश्याम मिश्र आल इण्डिया वेल्टरवैट चैम्पियन रहे। जनार्दन भार्गव। ओलम्पिक कुश्तियों से जुड़े रहे। अनन्त भार्गव अन्तर्राष्ट्रीय रेफरी बने। वस्तुतः यह अखाड़ा ओलम्पिक की तरह की कुश्तियों का प्रशिक्षण देता है। 
अखाड़ा रामकुण्ड- 
अखाड़ा रामकुण्ड स्वयं में एक इतिहास है। जग्गू सेठ, पंडाजी, महादेव पाण्डेय यहीं के उपज थे। बाद में उन्होंने अलग अखाड़े खोल लिए। इस अखाड़े में कुश्ती कला के प्राचीन गुरू पन्ना लाल के शिष्य रामसूरत रहे। पन्ना लाल के बारे में कहा क्या है कि उस्तादी के लिए बनारस में तत्कालीन-तीन नाम प्रसिद्ध थे-भीम सिंह, जिलानी, खलीफा, पन्नालाल। रामसूरत ही ऐसा पहलवान था जो दोनों अंगों-दाएँ बाएँ से लड़ा करता था। इस अखाड़े के पुराने नामों में संकटमोचन के महन्त स्वामीनाथ, अक्षयवर सिंह, अमरनाथ, बबुआ सिंह का नाम यहाँ के संचालक ने गिनाया, जो अपने समय के भीम थे। फिर यहाँ खटिक और वाहिद जैसे पहलवान निकले जो चुस्ती, फुर्ती के लिए विख्यात थे। इस अखाड़े की एक महत्वपूर्ण बात यह है कि यह अखाड़ा भगत सिंह, आजाद आदि का क्रान्तिकारी स्थल भी रहा है। श्रीलालधर त्रिपाठी ‘प्रवासी’ ने भी यहाँ खूब कुश्तियाँ लड़ी। लक्सा के सुग्रीव को तो ओलम्पिक में चयन किया गया। 
अखाड़ा गया सेठ-
 कोयला बाजार की घुमावदार गलियों के बीच अखाड़ा गया सेठ मौजूद है। कोई 75 वर्ष पहले यह स्थापित हुआ। गया सेठ के भाई गजाधार सेठ ने बताया- ‘‘भइया उ जमाना ही लड़ै भिड़ै वाला रहा, चारो तरफ सस्ती थी, कोई चिन्ता नाहीं रहत रहा, खूब खाओ, खूब लड़ो, हमें याद है हम अउर भइया अखाड़े पर संगे उतरत रहे, लड़े वाला पहिले हमसे लड़ता रहा फिर भइया से। शिवपुर के एक ठाकुर साहब थे। उन दिनों सामने खटिया पर बैठना इज्जत के खिलाफ रहा। भूल से तहिया हम लोग ऊहाँ बैठ गये- ‘ठाकुर के ललकारने पर दुनो जने से कई पक्कड़ भवा।’ ऊहाँ से लौटकर भइया ने ई अखाड़ा खोदवाया।’’ 90 वर्ष के इस बूढ़े शेर ने बताया कि यहाँ सिर्फ कुश्तियाँ होती हैं। चमकी से लेकर ढाँक मारने तक का दाँव सिखाया जाता है। उन्होंने 370 दाँवों की चर्चा की। उन्होंने कहा- ‘‘रूपया सेर घी, दू आना दूध, चपक के खाना खात जात रहा और सिकड़ौल तक बिना रूके दौड़ल जात रहा। कोई शरम-वरम नाय रहा आजकऽ लड़िकन तौ इहौ करै में लजात हैं अरे! जब नाचे के तब घूँघट का…।’’ मन्नू, मनोहर, बनारसी, मुन्ना इस अखाड़े के प्रसिद्ध पहलवान थे, जिन्होंने बिजनौर, कलकŸाा, केरल, बम्बई तक जाकर ‘चाँदी जैसा गदा’ प्राप्त किया। शिल्डों और पुरस्कारों की ढेर लगी है इस अखाड़े की।
अखाड़ा संतराम- 
अखाड़ा संतराम भी बनारस का प्रसिद्ध अखाड़ा है। यहाँ सन्तराम और मिसिरजी की आकर्षक प्रतिमा लगी है। इसकी प्राचीनता के बारे में कोई शक नहीं है। यह वही अखाड़ा है जहाँ यशस्वी गामा और गुलाम ने शिक्षा पाई। इसी अखाड़े के संतराम के शिष्य बख्तावर गिरि थे। गिरि के हाथ के जोशन अर्थात् इनके भुजदण्ड का ऊपरी हिस्सा 16 अंगुल चौड़ा था। एक थे दुद्वी महराज, इन्हें कुम्भक प्राणायाम सिद्ध था। ये कभी थकते ही न थे। कहा जाता है कि जब गुलाम पहलवान काशी आया तो वे लगभग 11 दिन तक उससे कुश्ती लड़ते रहे। यहाँ के एक गुरू देवनाथ बाबा बड़े ही बलशाली थे। इनकी एक-एक टाँगों में भैंसे का बल था। मिसिर जो दूसरे गुरू हुए। वे बैठकर ही एक हजार जोड़ी फेरा करते और एक ही दम में 2800 बैठकी और 1800 डण्ड किया करते। आप ‘एक अँगुली’ दाँव के लिए प्रसिद्ध थे। मात्र अँगुली से ही चित्त कर देना इनकी विशेषता था। यहाँ ‘पहाड़वाली हरी’ व ‘खीड़ी वाली प्रसिद्ध जोड़ी है। जिन्हें फेरने का यश पन्ना लाल को मिला। कल्लू सरदार यहाँ के प्रसिद्ध पहलवान रहे। हर सातवे दिन यहाँ संतराम की मूर्ति पर चमेली का तेल मला जाता है। मालिशकर्ता उस वक्त पसीने से लथपथ हो जाता है। श्रृंगार के दिन उस मूर्ति से कोई आँख नहीं मिला सकता। संतराम पहले लँगड़े थे। बाद में एक बुढ़िया के आशीर्वाद से ठीक हो गये। उनमे दो-दो भैसों के समान ताकत थी। अँगूठे पर पाँच मन का पत्थर उठाया करते थे। 
नाग नाथ की बैठक अखाड़ा- 
काशी के प्राचीन अखाड़े में एक अखाड़ा था ‘नाग नाथ की बैठक’। इसे काशी के एक प्रसिद्ध योगी नागनाथ ने स्थापित किया था। अब यह अखाड़ा नहीं है। एक प्राचीन अखाड़ा था भंगड़ भिक्षु का जो ऐतरनी-वैतरनी पर था। एक अन्य अखाड़ा था ‘रज्जू नालबंद का अखाड़ा।’ यहाँ सिर्फ मुसलमान पहलवान कुश्ती लड़ते थे। अब यह अखाड़ा नहीं है। पहले काशी में घर-घर पहलवान थे। कहा जाता है कि जहाँ कहीं भी प्राचीन हनुमान जी की मूर्ति हैं वहाँ किसी-न-किसी रूप में अखाड़ा मौजूद हैं। जैसे संकटमोचन मन्दिर के चहारदीवारी के भीतर भी एक अखाड़ा है लेकिन वहाँ शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था नहीं है। पहले स्थिति यह थी कि हिन्दूओं के अखाड़े में मुसलमान नहीं लड़ते और मुसलमानों के अखाड़े में हिन्दू नहीं जाते थे। लेकिन अब यही स्थिति बदल गयी है। मीरघाट पर एक मन्नू साहु का अखाड़ा भी है। यहाँ के प्रसिद्ध पहलवान निक्के पाधा थे, जो ईलाही गंजे से लड़ चुके थे। करौती गाँव अखाड़ा नन्दा सिंह का था। यहाँ एक अँगनू अहीर थे जिनका शरीर पत्थर की तरह कठोर था। काशी में करीब 80 वर्ष पहले दो मुसलमान तथा दो हिन्दू भाइयों की जोड़ी ने काशी के दंगलों में धूम मचा दी थी ये हैं- बब्बन-गुज्जन तब रूपा-अनूपा। इसके अतिरिक्त कुछ और भी प्रसिद्ध अखाड़े है जैसे-अखाड़ा अज्ञवान वीर, अखाड़ा मोर्चारी, अखाड़ा बड़ी गैबी तथा अखाड़ा छोटी गैबी।
अखाड़ा स्वामीनाथ- तुलसी घाट पर अखाड़ा स्वामीनाथ अपने दो सौ वर्षों का इतिहास समेटे हुए स्थित है। कहा जाता है कि इस अखाड़े की स्थापना गोस्वामी तुलसीदास जी ने की थी लेकिन संकट मोचन के महन्त तुलसीराम जी के समय से अखाड़े को प्रसिद्धि मिली। महन्त श्री स्वामी नाथ ने इस अखाड़े को प्रसिद्धि की चरम सीमा पर पहुँचा दिया। फलतः उनके नाम के साथ इस अखाड़े को जोड़ दिया गया। 90 वर्षीय शिव पहलवान बताते हैं ‘‘भइया दस जिला में महन्त स्वामीनाथ जइसन लड़वैया कोई नाहीं रहल। काऽ जाँघ रहल, सीना और बाँह कऽ कटाव…….ओह! पूछऽ मत………….’’। तब बनारस में एक बहुत जबर्दस्त दंगल हुआ था। महन्त स्वामीनाथ बनाम राममृर्ति पहलवान का। राममूर्ति पहलवान तब देश के प्रमुख पहलवान थे। उनके लड़ने की हिम्मत जुटाना बहुत कठिन था। राममूर्ति बनारस में आये और उन्होंने चुनौती दी। सारे बनारसी पहलवानों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी थी। लेकिन बनारस की आन-बान-शान की खातिर महन्त स्वामीनाथ जी ने चुनौती को स्वीकारा। पूरे बनारस में तहलका मच गया। स्वामीनाथ जी के पिता तुलसीराम जी ने पुत्र की नादानी पर सिर पकड़ लिया। कुश्ती के चौबीस घंटे पूर्व वे संकट मोचन जी में हनुमान जी के सामने फाँसी का फन्दा गले में डालकर खड़े हो गये और हनुमान जी से बोले- ‘‘अगर हार भइल तऽ फाँसी लगालेब। तुलसी दास जी के अखाड़े के अपने जीअत न हारे देब’’। स्वामीनाथ जी ने बड़ी जीवंतता से रिआज किया। तुलसी मन्दिर स्थित ‘गुफा के हनुमान जी’ की एक पैर पर खड़े होकर 48 घंटे आराधना की। मुकाबले के दिन पूरा बनारस उमड़ पड़ा था। प्रश्न यह था कि ‘‘बनारस कऽ इज्ज्त बची की नाहीं।’’ राममूर्ति पहलवान शेर की तरह अखाड़े में घूम रहे थे। महन्त स्वामीनाथ जी जैसे ही अखाड़े में उतरे दर्शकों की साँसे टंग गईं। उस्ताद ने मुकाबला शुरू होने की आज्ञा दी एक सेकेण्ड के लिए दोनों ने ताकत आजमाइश की। अभी राममूर्ति अपने को स्थापित करते कि महन्त जी ने ‘धोबिया पाट’ मारा और देश का सिरमौर चारो खाने चिŸा हो गया। काशी के लोगों ने महन्त जी को फूलों से लाद दिया। राममूर्ति दुबारा लड़ने की मिन्नत करते रहे, लेकिन जुलूस बनारस की सड़कों पर घूम रहा था। तुलसीराम जी फाँसी का फन्दा हटाकर हनुमान जी के चरणों में गिर पड़े, खुशी से घंटो रोते रहे। आखिर रोते क्यों न! हनुमान जी ने पूरे बनारस की लाज रख ली थी। कहते हैं कि वह कुश्ती स्वामीनाथ जी ने नहीं, हनुमान जी ने स्वयं लड़ी थी। 95 वर्षीय छोटी गैबी के मल्लू गुरू बताते हैं कि ‘‘वइसन दंगल बनारस में कब्बौ नाहीं भइल’’। स्वामीनाथ जी ने बनारस की नाम रख ली थी। शिव पहलवान बताते हैं कि तब स्वामीनाथ जी की कुश्ती में तूती बोलती थी। उन्होंने भीमभवानी को भी पटका था, जो राममूर्ति का प्रधान शिष्य था। तभी से अखाड़ा स्वामीनाथ बड़ा सिद्ध अखाड़ों में गिना जाता है। 
स्वामीनाथ जी के दोनों पुत्र अमरनाथ जी एवं बाके लाल जी भी मल्ल कला के धनी थे। बाँकेराम जी ने किसी दंगल में भाग नहीं लिया, लेकिन वे अखाड़े में नियमित अभ्यास करते रहते थे। बाद में उन्हेंने योग की कई विधाओं में महारत हासिल कर ली थी। अमरनाथ जी ने दो तीन दंगलों में भाग लिया था। गंगापुर के दंगल में उन्होंने कई नामी पहलवानों को हराया। टाउन हाल के दंगल में प्रसिद्ध पंजाबी पहलवान को दे मारा था। एक हजार दण्ड और दो हजार बैठकी जवानी में करते थे। पहलवानी के साथ ही अमरनाथ जी पखावज के अत्यन्त शौकीन ही नहीं देश के मूर्धन्य कलाकार थे। उनमें मल्ल और संगीत का अ˜ुत समन्वय था। बनारस के इतिहास में ऐसा समन्वय किसी में देखने को नहीं मिला। 
अखाड़ा स्वामीनाथ में उमानाथ पाण्डेय, परमहंस, कमला, शंकर गुरु, त्रिलोकी गुरु सुखनन्दन सेठ, भगवानदास, बबुआ सिंह, राम नारायण जैसे प्रसिद्ध पहलवान हुए। शंकर गुरू ने रामसेवक के पट्ठे मटटू को एक सेकेण्ड में चित्त करके तहलका मचा दिया था। पुराने पहलवानों में 90 वर्षीय शिव पहलवान अभी जीवित हैं। उन्होंने बाबू दिल्ली वाले, खद्दीपुर के सरदारा कड़का सिंह तथा फज्जाम पहलवान से लड़कर खूब नाम कमाया था। निकाल, कैंची बगली इनके प्रसिद्ध दाँव थे। इसी अखाड़े पर गल्लू नट को भी हार का मुँह देखना पड़ा था। वर्तमान समय में कल्लू पहलवान का बड़ा नाम है। उन्होंने बनारस केशरी, जौनपुर केशरी, एवं 90 किलो भार वर्ग में उ0प्र0 में प्रथम स्थान पाया है। कल्लू ने बम्बई के शंकर कदम को ‘निकाल’ पर चित्त कर इस अखाड़े का नाम रौशन किया है। बम्बई के बाबू साहब भाने, जौनपुर के वाहिद के साथ की इनकी कुश्ती शानदार रही। सियाराम ने बी0एच0यू0 कुमार जीता। मेवालाल, अच्छे पहलवान , रामजीत, श्यामलाल, अशोक, गोरख, मारकण्डेय (उ0प्र0 पुलिस जैम्पियन), लल्लन, शंकर, बरसाती, लक्खन, रामकेश प्रमुख पहलवान हैं। इस अखाड़े पर आज भी लगभग 40-50 पहलवान रोज कुश्ती कला का अभ्यास करते हैं। स्वामीनाथ जी के परिवार से अब कुश्ती खत्म हो गयी लगती है। महन्त डॉ0 वीरभद्र मिश्र भी पहले इस अखाड़े की ‘धूर’ में लोटा करते थे। इस अखाड़े के प्रसिद्ध दाँवों में, धोबियापाट, ढॉक, चौमुखा काला जंग, मच्छी गोता, साद, काला जंग, नेवाज बन्द, हलरबून, मोतीचूर, सखी आदि प्रमुख हैं। अखाड़े के पहलवानों ने बताया कि अगर इस अखाड़े को आधुनिक सामग्रियों से युक्त कर दिया जाय और एक अच्छे कोच की व्यवस्था कर दी जाय, तो यहाँ से अच्छे पहलवानों के आगे आने में कोई शंका नहीं होगी।
बनारस के कुछ प्रसिद्ध अखाड़ों के नाम इस प्रकार हैं-जो अब लगभग बन्द हो गये हैं- अखाड़ा अशरफी सिंह-भदैनी, कल्लू कलीफा-मदनपुरा, इशुक मास्टर-मदनपुरा, शकूर मजीद, छत्तातले-दालमण्डी, मस्जिद में जिलानी, बचऊ चुड़िहारा-चेतगंज, गंगा-चेतगंज, वाहिद पहलवान-अर्दली बाजार, खूद बकस-बेनिया, चुन्नी साव-राजघाट चुँगी आदि। 
वाराणसी में अखाड़ों और अखाड़ियों की बड़ी शानदार परम्परा रही है। यह कला बनारस की शान से जुड़ी थी, लेकिन अब वह स्थिति नहीं रही। यदि सरकार दिल्ली की तरह बनारस के अखाड़ों को भी सुविधा प्रदान करे, तो यहाँ के पहलवान काफी नाम रोशन कर सकते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि बनारस की मिट्टी की ताकत को पहचान कर इस दिशा में और प्रयास किया जाय। 

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